सब बुझे दीपक जला लूँ
सब बुझे दीपक जला लूँ
घिर रहा तम आज दीपक-रागिनी अपनी जगा लूँ!
क्षितिज कारा तोड़ कर अब
गा उठी उन्मत्त आँधी,
अब घटाओं में न रुकती
लास-तन्मय तड़ित् बाँधी,
धूलि की इस वीण पर मैं तार हर तृण का मिला लूँ!
भीत तारक मूँदते दृग
भ्रांत मारुत पथ न पाता,
छोड़ उल्का अंक नभ में
ध्वंस आता हरहराता,
उँगलियों की ओट में सुकुमार सब सपने बचा लूँ!
लय बनी मृदु वर्तिका
हर स्वर जला बन लौ सजीली,
फैलती आलोक-सी
झंकार मेरी स्नेह गीली,
इस मरण के पर्व को मैं आज दीपावली बना लूँ!
देखकर कोमल व्यथा को
आँसुओं के सजल रथ में,
मोम-सी साधें बिछा दीं
थीं इसी अंगार-पथ में
स्वर्ण हैं वे मत कहो अब क्षार में उनको सुला लूँ!
अब तरी पतवार ला कर
तुम दिखा मत पार देना,
आज गर्जन में मुझे बस
एक बार पुकार लेना!
ज्वार को तरणी बना मैं, इस प्रलय का पार पा लूँ!
आज दीपक राग गा लूँ!
महादेवी वर्मा का जन्म 1907 में फर्रुखाबाद में हुआ था। इनकी पढ़ाई-लिखाई इंदौर और इलाहाबाद में हुई थी। इलाहाबाद में स्थित प्रयाग महिला विद्यापीठ में वे प्रधानाचार्या के पद पर कार्यरत रहीं। उनकी मृत्यु 1987 में हुई।
महादेवी वर्मा ने कविता के अलावा सशक्त गद्य भी लिखा था। उनकी गद्य रचनाएँ भाषा और विचार की दृष्टि से अत्यंत परिपक्व मानी जाती हैं। ‘शृंखला की कड़ियाँ’ के लेखों में उन्होंने स्त्री-मुक्ति के प्रश्नों को जिस स्तर पर उठाया था वह आश्चर्यजनक है। मैनेजर पाण्डेय ने इस पुस्तक को रेखांकित करते हुए लिखा है कि सिमोन द बोउवार की पुस्तक ‘द सेकेण्ड सेक्स’ के प्रकाशन से भी पहले महादेवी की यह पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थी और इसके लेख तो और भी पहले प्रकाशित हो चुके थे। महादेवी वर्मा ने ‘चाँद’ पत्रिका के ‘विदुषी अंक’ का सम्पादन 1935 में किया था। यह अंक हिंदी में हुए स्त्री-विमर्श की परंपरा में विशेष महत्त्व रखता है। यह अंक उस जमाने में आया था जब इस तरह के विषय पर सोच-विचार की प्रवृत्ति आम नहीं थी। महादेवी का वैचारिक गद्य लेखन महत्त्वपूर्ण है।
छायावाद और रहस्यवाद की कवि के रूप में महादेवी वर्मा का स्थान अक्षुण्ण है। उनके पाँच काव्य-संग्रहों की कविताओं में छायावादी-रहस्यवादी प्रवृत्तियाँ तो हैं ही, उनमें स्त्री की पीड़ा और मुक्ति के प्रसंग भरे पड़े हैं। इनमें पीड़ा का विवरण भी व्यक्तित्व की दृढ़ता को व्यक्त करने के लिए किया गया है। इनमें प्रेम और प्रेमी का जिक्र भी मुक्ति के प्रतीक के रूप में किया गया है। महादेवी कोरी भावुकता की कविताएँ नहीं लिखती हैं। उनकी कविताओं में वैचारिक दृढ़ता हमेशा बनी रही।
काव्य-कृतियाँ
नीहार (1930), रश्मि (1932), नीरजा (1935), सांध्यगीत (1936), दीपशिखा (1942), हिमालय (1963), सप्तपर्णा (अनूदित – 1966), प्रथम आयाम (1982), अग्निरेखा (1990)
गद्य-कृतियाँ
अतीत के चलचित्र (रेखाचित्र – 1941), शृंखला की कड़ियाँ (नारी-विषयक सामाजिक निबंध – 1942), स्मृति की रेखाएँ (रेखाचित्र – 1943), पथ के साथी (संस्मरण – 1956), क्षणदा (ललित निबंध – 1956), साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध (आलोचनात्मक – 1960), संकल्पिता (आलोचनात्मक – 1969), मेरा परिवार (पशु-पक्षियों के संस्मरण 1971), चिंतन के क्षण (1986)
संकलन
यामा (नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत का संग्रह / 1936), संधिनी (कविता-संग्रह / 1964), स्मृतिचित्र (गद्य-संग्रह – 1966), महादेवी साहित्य (भाग – 1 – 1969), महादेवी साहित्य (भाग – 2 – 1970), महादेवी साहित्य (भाग – 31970), गीतपर्व (कविता-संग्रह – 1970), स्मारिका (1971), परिक्रमा (कविता संग्रह – 1974), सम्भाषण (कविता-संग्रह 1975), मेरे प्रिय निबंध (निबंध – संग्रह – 1981), आत्मिका (कविता-संग्रह – 1983), नीलाम्बरा (कविता-संग्रह – 1983), दीपगीत (कविता-संग्रह – 1983)
‘सब बुझे दीपक जला लूँ’ शीर्षक कविता/गीत ‘दीप-शिखा’ (1942) में संकलित है। इस कविता में महादेवी ने विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्ष करने की इच्छा-शक्ति के बारे में बताया है। रोमानी तरीके से लिखी गई यह कविता बताती है कि संघर्ष के लिए मन की मजबूती बहुत जरूरी है। कोमल भावों के सहारे कठोर संघर्ष की राह दिखानेवाली यह कविता प्रेरक है।
चारों ओर की समस्याओं से घिरा व्यक्ति प्रायः निराश हो जाता है। महादेवी जी कहती हैं कि उदासी के इस वातावरण में भी अपने छोटे-छोटे प्रयासों पर भरोसा करना चाहिए। रोमानी भाव से भी मन को मजबूती मिलती है। वास्तव में यह कविता भावनाओं की गहनता, संघर्ष, आशा और आत्मबल का प्रतीक है। इसमें दीपक को प्रतीक बनाकर जीवन की कठिनाइयों के बीच प्रकाश फैलाने, साहस बनाए रखने और विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्ष करते रहने का संदेश दिया गया है।
‘सब बुझे दीपक जला लूँ’ कविता में महादेवी आत्मविश्वास से कहती हैं चाहे जितनी भी परेशानियाँ हों, मैं संघर्ष के लिए तैयार हूँ। वे प्रत्येक संघर्ष को आत्मबल के सहारे जारी रखना चाहती हैं। इस कविता में प्रतीकों के माध्यम से ढेर सारी कठिनाइयों का जिक्र किया गया है, जैसे- आँधी, तड़ित, मारुत आदि। इन सबसे लड़ने के लिए महादेवी जिन उपकरणों का उपयोग करती हैं, वे हैं – तृण, ऊँगलियों की ओट आदि। रोमानी शैली में वर्णित इन प्रकरणों में मुख्य बात यही है कि आत्मविश्वास बनाए रखना चाहिए। महादेवी यह भी कहती हैं कि मेरी मदद करने का अहसान मुझ पर मत लादना। मैं ‘ज्वार’ को ही नौका बना लूँगी।
01
सब बुझे दीपक जला लूँ
घिर रहा तम आज दीपक-रागिनी अपनी जगा लूँ!
शब्दार्थ –
दीपक – दीया
तम – अंधकार
दीपक-रागिनी – दीपक राग- कहते हैं कि इस राग या रागिनी को सिद्धिपूर्वक गाने से दीपक जल उठते हैं, क्रांति की चेतना
प्रसंग –
‘सब बुझे दीपक जला लूँ’ शीर्षक कविता की यह पंक्तियाँ आत्मबल, संघर्ष और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का प्रतीक है। यह दर्शाती है कि जब चारों ओर अंधकार हो, जब जीवन में तूफान आए, जब सपनों पर खतरा हो, तब भी हमें हार नहीं माननी चाहिए। हमें अपने भीतर की लौ जलाए रखनी चाहिए और अपने संघर्ष को दीपावली की तरह उजाले में बदल देना चाहिए। कोमल भावों के सहारे कठोर संघर्ष की राह दिखानेवाली यह पंक्तियाँ सचमुच अतिप्रेरक हैं।
व्याख्या –
इन पंक्तियों में ‘तम’ का अर्थ अंधकार से है, जो जीवन के दुखों, संघर्षों और निराशा को दर्शाता है। महादेवी जी कहती हैं कि परिस्थितियाँ क्रमशः विपरीत होती जा रही हैं। ऐसे समय में जरूरी हो गया है कि मैं अपनी हर तरह की साधना को सजग कर लूँ! अपनी हर तरह की ऊर्जा अर्थात् आशा, शक्ति, आत्मबल को जाग्रत कर लूँ! वे प्रतीकों के माध्यम से कहती हैं कि अपने बुझे हुए सभी दीपकों को आज मैं जला लूँ! आज जब चारों तरफ अँधेरा छा रहा है तब मैं दीपक-राग का गायन करूँ ताकि बुझे हुए दीपक जाग जाएँ!
02
क्षितिज कारा तोड़ कर अब
गा उठी उन्मत्त आँधी,
अब घटाओं में न रुकती
लास-तन्मय तड़ित् बाँधी,
धूलि की इस वीण पर मैं तार हर तृण का मिला लूँ!
शब्दार्थ –
क्षितिज कारा – क्षितिज (Horizon) मानो कारागार की तरह हैं
उन्मत्त – पागल
तड़ित् – तेज़
लास-तन्मय – अपने लास्य-भाव में तन्मय, जो अपनी धुन में मग्न हो
वीण – वीणा
तृण – घास
प्रसंग –
‘सब बुझे दीपक जला लूँ’ शीर्षक कविता की यह पंक्तियाँ आत्मबल, संघर्ष और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का प्रतीक है। यह दर्शाती है कि जब चारों ओर अंधकार हो, जब जीवन में तूफान आए, जब सपनों पर खतरा हो, तब भी हमें हार नहीं माननी चाहिए। हमें अपने भीतर की लौ जलाए रखनी चाहिए और अपने संघर्ष को दीपावली की तरह उजाले में बदल देना चाहिए। कोमल भावों के सहारे कठोर संघर्ष की राह दिखानेवाली यह पंक्तियाँ सचमुच अतिप्रेरक हैं।
व्याख्या –
इन पंक्तियों में महादेवी जी कहती हैं कि परिस्थितियाँ इतनी विपरीत है कि आँधियों ने दिशाओं की सीमाओं को तोड़ डाला है। आँधियाँ ऐसे चल रही हैं मानो वे पागल हो गई हैं। बादलों की सीमाओं में बिजलियाँ नहीं समा रही हैं। ये विद्युत-शिखाएँ जब लपकती हैं तो लगता है मानो वे लास्य-भाव से भरकर तन्मयता के साथ नृत्य कर रही हैं! ऐसे में महादेवी जी कहती हैं कि उड़ती हुई धूलि को मैं वीणा बना लेना चाहती हूँ और चाहती हूँ कि घास के हर तिनके को इस वीणा के तार के रूप में सजा लूँ! इस कथन से मानव के छोटे-छोटे प्रयासों को भी महत्त्व दिया गया है।
03
भीत तारक मूँदते दृग
भ्रांत मारुत पथ न पाता,
छोड़ उल्का अंक नभ में
ध्वंस आता हरहराता,
उँगलियों की ओट में सुकुमार सब सपने बचा लूँ!
शब्दार्थ –
भीत तारक – भयभीत सितारे, टिमटिमाते तारे मानो डरे हुए हैं
दृग – आँख
भ्रांत मारुत – दिशा भूली हुई हवा, दिग्भ्रमित लोग
पथ – मार्ग
अंक – गोद
ध्वंस – विनाश
ओट में – आड़ में
सुकुमार – कोमल
प्रसंग –
‘सब बुझे दीपक जला लूँ’ शीर्षक कविता की यह पंक्तियाँ आत्मबल, संघर्ष और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का प्रतीक है। यह दर्शाती है कि जब चारों ओर अंधकार हो, जब जीवन में तूफान आए, जब सपनों पर खतरा हो, तब भी हमें हार नहीं माननी चाहिए। हमें अपने भीतर की लौ जलाए रखनी चाहिए और अपने संघर्ष को दीपावली की तरह उजाले में बदल देना चाहिए। कोमल भावों के सहारे कठोर संघर्ष की राह दिखानेवाली यह पंक्तियाँ सचमुच अतिप्रेरक हैं।
व्याख्या –
कविता की इन पंक्तियों में कवयित्री महादेवी वर्मा जी कहती हैं कि तारे मानो भयभीत होकर आँखें बंद कर ले रहे हैं। हवाएँ ऐसे चल रही हैं मानो दिशा भूल कर भटक गई हों! उल्काएँ आकाश की गोद को छोड़कर ऐसे गिरी आ रही हैं मानो साक्षात् विध्वंस शोर मचाता हुआ चला आ रहा हो! इन विषम परिस्थितियों में मैं अपनी ऊँगलियों की ओट से अपने सुकुमार सपनों को बचा लेना चाहती हूँ! महादेवी जी की रोमानियत से भरी हुई संघर्ष करने की भावना ही उन्हें सामान्य से विशिष्ट की श्रेणी में ला खड़ा कर देती हैं।
04
लय बनी मृदु वर्तिका
हर स्वर जला बन लौ सजीली,
फैलती आलोक-सी
झंकार मेरी स्नेह गीली,
इस मरण के पर्व को मैं आज दीपावली बना लूँ!
शब्दार्थ –
मृदु वर्तिका – कोमल बाती
मरण के पर्व – मृत्यु जब त्योहार की तरह लगने लगे
प्रसंग –
‘सब बुझे दीपक जला लूँ’ शीर्षक कविता की यह पंक्तियाँ आत्मबल, संघर्ष और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का प्रतीक है। यह दर्शाती है कि जब चारों ओर अंधकार हो, जब जीवन में तूफान आए, जब सपनों पर खतरा हो, तब भी हमें हार नहीं माननी चाहिए। हमें अपने भीतर की लौ जलाए रखनी चाहिए और अपने संघर्ष को दीपावली की तरह उजाले में बदल देना चाहिए। कोमल भावों के सहारे कठोर संघर्ष की राह दिखानेवाली यह पंक्तियाँ सचमुच अतिप्रेरक हैं।
व्याख्या –
कवयित्री कहती हैं कि जो कोमल वर्तिका (बाती) थी, उसने दीपक-राग के प्रत्येक स्वर को अपने साथ मिला कर साध लिया है अब वह लय से जलती हुई सजी-धजी सी दिख रही है! मेरी करुणा से भरी हुई प्रत्येक पुकार ऐसे फैल रही है, जैसे प्रकाश फैलता है। ध्वनि और प्रकाश का विकट प्रसार मेरी आँखों के सामने हो रहा है। यह मरण का पर्व है जब हर चीज जल रही है और चारों तरफ करुण वातावरण है। ऐसे में मैं इस मरण पर्व को दीपावली की तरह बना लेना चाहती हूँ! यहाँ ‘मृत्यु’ को पर्व की संज्ञा दी गई है, जो यह दर्शाता है कि कवयित्री अपने संघर्ष और जीवन-मृत्यु की कठिनाइयों को भी उत्सव की तरह स्वीकार कर रही हैं। दीपावली की तरह ही वह हर संकट को उजाले में बदलने का संकल्प लेती है।
05
देखकर कोमल व्यथा को
आँसुओं के सजल रथ में,
मोम-सी साधें बिछा दीं
थीं इसी अंगार-पथ में
स्वर्ण हैं वे मत कहो अब क्षार में उनको सुला लूँ!
शब्दार्थ –
व्यथा – परेशानी
मोम-सी साधें बिछा दीं – सपनों को मोम की तरह कोमल बनाकर उस रास्ते पर बिछा देना।
अंगार-पथ – आग से भरा रास्ता
प्रसंग –
कि ‘सब बुझे दीपक जला लूँ’ शीर्षक कविता की यह पंक्तियाँ आत्मबल, संघर्ष और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का प्रतीक है। यह दर्शाती है कि जब चारों ओर अंधकार हो, जब जीवन में तूफान आए, जब सपनों पर खतरा हो, तब भी हमें हार नहीं माननी चाहिए। हमें अपने भीतर की लौ जलाए रखनी चाहिए और अपने संघर्ष को दीपावली की तरह उजाले में बदल देना चाहिए। कोमल भावों के सहारे कठोर संघर्ष की राह दिखानेवाली यह पंक्तियाँ सचमुच अतिप्रेरक हैं।
व्याख्या –
यहाँ आँसू, मोम, और अंगार तीन प्रतीकात्मक शब्द हैं। आँसू करुणा और संवेदनशीलता के प्रतीक हैं, मोम साधना और त्याग का प्रतीक है और अंगार जीवन की कठोर सच्चाइयों का प्रतीक है। कवयित्री कहती हैं कि उसने अपने आँसुओं और भावनाओं को इस कठिन मार्ग पर समर्पित कर दिया है, जिससे यह मार्ग अब सिर्फ संघर्ष का नहीं, बल्कि साधना और प्रकाश का मार्ग बन गया है। कवयित्री ने कोमल व्यथा को आँसुओं के सजल रथ पर आते देखा था। उसे आते देखकर उसके स्वागत में मैंने अपने सपनों को मोम की तरह कोमल बनाकर उस रास्ते पर बिछा दिया था। यह अलग बात है कि वह रास्ता अंगारों से भरा था। मुझे मत बताओ कि मेरे सपने स्वर्ण-निर्मित हैं। परिस्थितियाँ इतनी विपरीत हैं कि इन स्वर्ण-निर्मित सपनों को मुझे धूल में सुला लेने दो! कुल मिलाकर यही ध्येय है कि किसी भी विषम या दुखभरी स्थिति में अपने सपनों के साथ समझौता नहीं करना है।
06
अब तरी पतवार ला कर
तुम दिखा मत पार देना,
आज गर्जन में मुझे बस
एक बार पुकार लेना!
ज्वार को तरणी बना मैं, इस प्रलय का पार पा लूँ!
आज दीपक राग गा लूँ!
शब्दार्थ –
तरी पतवार – छोटी नाव और चप्पू,
गर्जन – शोर
ज्वार को तरणी बना – ऊँची लहरों को नौका बना लेना, प्रतिकूल को अनुकूल बना लेना
प्रलय – कयामत
प्रसंग –
‘सब बुझे दीपक जला लूँ’ शीर्षक कविता की यह पंक्तियाँ आत्मबल, संघर्ष और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का प्रतीक है। यह दर्शाती है कि जब चारों ओर अंधकार हो, जब जीवन में तूफान आए, जब सपनों पर खतरा हो, तब भी हमें हार नहीं माननी चाहिए। हमें अपने भीतर की लौ जलाए रखनी चाहिए और अपने संघर्ष को दीपावली की तरह उजाले में बदल देना चाहिए। कोमल भावों के सहारे कठोर संघर्ष की राह दिखानेवाली यह पंक्तियाँ सचमुच अतिप्रेरक हैं।
व्याख्या –
कविता की अंतिम पंक्तियों में कवयित्री महादेवी वर्मा जी कहती हैं कि इन कठिनाइयों के बीच मेरी मदद करने के क्रम में तुम ऐसा कभी मत करना कि मेरे लिए एक छोटी-सी नाव और पतवार लेकर चले आओ! यह भी मत करना कि मुझे किनारा दिखाओ! इस गर्जन-तर्जन से भरे माहौल में बस इतना करना कि मुझे एक बार पुकार लेना! मैं ज्वार की तरह उठती इन लहरों को ही नौका बना लूँगी और प्रलय को पार कर लूँगी! अब आज मुझे दीपक राग गा लेने दो! मैं चाहती हूँ कि मेरे संघर्ष के प्रत्येक दीपक की लौ जल उठे! यहाँ महादेवी जी का अंतिम संकल्प और लक्ष्य तक पहुँचने का दृढ़ निश्चय दृष्टिगोचर होता है।
इस कविता में विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्ष करने की इच्छा-शक्ति के बारे में बताया गया है।
यह कविता रोमानी तरीके से लिखी गई है।
संघर्ष के लिए मन की मजबूती बहुत जरूरी है।
कोमल भावों के सहारे कठोर संघर्ष की राह दिखानेवाली यह कविता प्रेरक है।
पूरी कविता में 28-28 मात्राओं की पंक्तियों का उपयोग हुआ है। टेक की पंक्ति ‘सब बुझे दीपक जला लूँ’ तथा ‘आज दीपक राग गा लूँ!’ में 14 मात्राएँ हैंI