कबीरदास (1398-1518)
हिंदी के जिन भक्त कवियों की वाणी आज भी प्रासंगिक है, उनमें संत कबीरदास जी अन्यतम हैं। उन्होंने आम जनता के बीच रहकर जनता की सरल-सुबोध भाषा में जनता के लिए उपयोगी काव्य की रचना की। आपकी कविताओं में भक्ति भाव के अलावा व्यावहारिक ज्ञान एवं मानवतावादी दृष्टि का समावेश हुआ है। आपकी कविताएँ अपने समय में बड़ी लोकप्रिय थीं। इसी लोकप्रियता को लक्षित करके असम-भूमि के श्रीमंत शंकरदेव ने अपने ग्रंथ ‘कीर्तन घोषा’ में लिखा है कि उरेषा, वाराणसी इत्यादि स्थानों पर साधु संत लोग कबीर विरचित गीत – पद गाते हैं
उरेषा वारानसी ठावे ठावे।
कबिर गीत शिष्टसवे गावे ॥ (कीर्तन घोषा – 3/32)
महात्मा कबीरदास की रचनाएँ अपने समय में भी लोकप्रिय थीं, आज भी वे लोकप्रिय हैं और यह लोकप्रियता आगे भी बनी रहेगी। कविताओं की तरह उनकी जीवन-गाथा भी अत्यंत रोचक है। कहा जाता है कि स्वामी रामानंद के आशीर्वाद के फलस्वरूप सन् 1398 में काशी में एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से आपका जन्म हुआ था। लोक-लज्जा के कारण जन्म के तुरंत बाद माँ ने इस दिव्य बच्चे को लहरतारा नामक स्थान के एक तालाब के किनारे छोड़ दिया था। वहाँ से गुजरते हुए नीरू और नीमा नामक मुसलमान जुलाहे दंपति को वह बालक मिला। खुदा का आशीर्वाद समझकर उन्होंने उस दिव्य बालक को गोद में उठा लिया। उन्होंने बालक का नाम रखा कबीर और उसे पाल-पोसकर बड़ा किया। ‘कबीर’ शब्द का अर्थ है बड़ा, महान, श्रेष्ठ। आगे चलकर कबीरदास जी सचमुच बड़े संत, श्रेष्ठ भक्त और महान कवि बने। सन् 1518 में मगहर स्थान में आपका देहावसान हुआ।
संत कबीरदास जी स्वामी रामानंद के योग्य शिष्य थे। वे इस संसार के रोम-रोम में रमने वाले, प्रत्येक अणु-परमाणु में बसने वाले निर्गुण निराकार ‘राम’ की आराधना करते थे। उन्होंने पालक पिता-माता नीरू-नीमा की आजीविका को ही अपनाया था।
कर्मयोगी कबीरजी जुलाहे का काम करते-करते अपने आराध्य के गीत गाया करते थे। अपने काम-काज के सिलसिले में घूमते-फिरते थे। वे लोगों को तरह-तरह के उपदेश देते थे। परवर्ती समय में शिष्यों ने उनकी अमृतोपम वाणियों को लिखित रूप प्रदान किया। महात्मा कबीरदास की रचनाएँ बीजक नाम से प्रसिद्ध हुई। इसके तीन भाग हैं-साखी, सबद और रमैनी।
भाषा पर कबीरदास जी का भरपूर अधिकार था। उनकी काव्य भाषा वस्तुतः तत्कालीन हिंदुस्तानी है, जिसे विद्वानों ने ‘सधुक्कड़ी’, ‘पंचमेल खिचड़ी’ आदि कहा है। जनता के कवि कबीरदास ने सरल, सहज बोध गम्य और स्वाभाविक रूप से आये अलंकारों से सजी भाषा का प्रयोग किया है। ज्ञान, भक्ति आत्मा, परमात्मा, माया, प्रेम, वैराग्य आदि गंभीर विषय उनकी रचनाओं में अत्यंत सुबोध एवं स्पष्ट रूप में व्यक्त हुए हैं।
कबीर की साखी का सामान्य परिचय
साखी शब्द मूल संस्कृत शब्द ‘साक्षी’ से विकसित है। ‘साक्षी’ से संबंधित ‘शब्द है ‘साक्ष्य’, जिसका अर्थ है- प्रत्यक्ष ज्ञान। गुरु सत्य के साक्ष्य प्रमाण के साथ शिष्य को इहलोक और परलोक के तत्वज्ञान की शिक्षा देते हैं। यद्यपि कबीरदास जी विविध शास्त्रों के विधिवत् अध्ययन से दूर थे, परंतु साधु संगति से उन्होंने
बहुत कुछ सीखा था। जीवन और जगत की खुली पुस्तक को भी आपने खूब पढ़ा था। उन्होंने अपने ज्ञान और भक्ति के बल पर अपने आराध्य का साक्षात्कार भी कर लिया था। अतः उनके द्वारा विरचित साखियों में हमें विविध विषयों के अनमोल ज्ञान एवं अमूल्य संदेश निहित मिलते हैं। आत्मा के रूप में व्यक्ति के भीतर ही परमात्मा की स्थिति, सद्गुरु की महिमा, गुरु-शिष्य का संबंध, कोरे पुस्तकीय ज्ञान की निरर्थकता, मानसिक शुद्धि की आवश्यकता, जाति के बजाय ज्ञान का महत्त्व, आत्म-निरीक्षण की जरूरत, गहन साधना एवं कर्म की आवश्यकता, प्रेम-भक्ति की महत्ता और यथासंभव शीघ्र कर्तव्य पालन की जरूरत- ये दस अनमोल बातें अग्रांकित दस साखियों के जरिए आकर्षक रूप में प्रस्तुत की गई हैं।
साखी
तेरा साईं तुज्झ में, ज्यों पुहुपन में बास।
कस्तूरी का मिरग ज्यों, फिर-फिर ढूँढ़े घास॥ [1]
सत गुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावणहार॥ [2]
गुरु कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ खोट।
अन्तर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट॥ [3]
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥ [4]
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर॥ [5]
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥ [6]
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझ सा बुरा न कोय॥ [7]
जिन ढूँढ़ा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ।
जो बौरा डूबन डरा रहा किनारे बैठ॥ [8]
जा घट प्रेम न संचरै, सो घट जान मसान।
जैसे खाल लोहार की, साँस लेत बिनु प्रान॥ [9]
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होएगा, बहुरि करेगो कब॥ [10]
साखी – व्याख्या सहित
- तेरा साईं तुज्झ में, ज्यों पुहुपन में बास।
कस्तूरी का मिरग ज्यों, फिर-फिर ढूँढ़े घास॥
व्याख्या –
कबीर जी कहते हैं कि हे मनुष्य परमात्मा तुम्हारे भीतर ही है, जैसे फूल में खुशबू होती है। लेकिन इंसान इसे बाहरी दुनिया में खोजता रहता है, जैसे कस्तूरी मृग अपनी ही नाभि में स्थित सुगंध को न जानकर उसे जंगल में खोजता रहता है।
शब्द | हिंदी अर्थ | अंग्रेज़ी अर्थ |
साईं | ईश्वर, परमात्मा | God, Supreme Being |
पुहुप | फूल | Flower |
बास | सुगंध | Fragrance |
कस्तूरी | एक सुगंधित पदार्थ | Musk |
मिरग | हिरण | Deer |
02 सत गुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावणहार॥
व्याख्या –
कबीर अपने इस दोहे में कहाते हैं कि सच्चे गुरु की महिमा अनंत है, उन्होंने अपार उपकार किए हैं। वे दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं, जिससे सत्य का दर्शन होता है। सच्चा गुरु ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है।
शब्द | हिंदी अर्थ | अंग्रेज़ी अर्थ |
सतगुरु | सच्चा गुरु | True Guru |
महिमा | गौरव, विशेषता | Glory |
अनंत | जिसका अंत न हो | Infinite |
उपगार | उपकार | Benevolence |
लोचन | आँख | Eyes |
उघाड़िया | खोला | Opened |
- गुरु कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ खोट।
अन्तर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट॥
व्याख्या –
कबीर इस दोहे में गुरु की महिमा का बखान करते हुए कह रहे हैं कि गुरु कुम्हार के समान है और शिष्य मिट्टी के घड़े की तरह। वह बाहर से चोट करता है लेकिन अंदर से सहारा देता है, जिससे शिष्य को सही आकार मिले। वास्तव में एक गुरु ही है जो अपने शिष्यों को विविध परीक्षाओं से गुजारता है ताकि वे वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बना सके।
शब्द | हिंदी अर्थ | अंग्रेज़ी अर्थ |
कुम्हार | मिट्टी के बर्तन बनाने वाला | Potter |
सिष | शिष्य | Disciple |
कुंभ | घड़ा | Pot |
गढ़ि-गढ़ि | बार-बार सुधारकर | By shaping again and again |
काढ़ | निकालता है | Removes |
खोट | दोष | Defect |
सहार | सहारा | Support |
बाहै | मारता है | Hits |
- पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥
व्याख्या –
कबीर जी का यह दृश विश्वास है कि संसार में कई लोग ग्रंथ पढ़कर मर गए, लेकिन वे सच्चे ज्ञानी नहीं बन सके। कबीर के अनुसार तो जिसने प्रेम का वास्तविक अर्थ समझ लिया, वही सच्चा विद्वान है।
शब्द | हिंदी अर्थ | अंग्रेज़ी अर्थ |
पोथी | ग्रंथ, किताब | Book |
पढ़ि-पढ़ि | बार-बार पढ़कर | By reading repeatedly |
जग | संसार | World |
मुआ | मर गया | Died |
पंडित | ज्ञानी व्यक्ति | Scholar |
ढाई आखर | ‘प्रेम’ शब्द, स्नेह | The word ‘Prem’ (Love) |
- माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर॥
व्याख्या –
कबीर अपने इस दोहे में एक सत्य का उद्घाटन करते हुए कह रहे हैं कि लोग वर्षों तक माला फेरते रहते हैं, लेकिन उनका मन नहीं बदलता। असली साधना बाहरी नहीं, बल्कि आंतरिक परिवर्तन से होती है। इसलिए हमें बाहर के मनके का त्याग करके मन को बदलने को प्रयास करना चाहिए।
शब्द | हिंदी अर्थ | अंग्रेज़ी अर्थ |
माला | जपने की माला | Rosary |
फेरत | घुमाना | Rotating |
जुग | युग, लंबा समय | Era, Long time |
मनका | माला का दाना | Bead |
फेर | बदलाव | Change |
- जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥
व्याख्या –
कबीर जी का यह दृढ़ मत है कि हमें किसी संत की जाति नहीं पूछनी चाहिए, बल्कि उसका ज्ञान देखना चाहिए। क्योंकि हमेशा से तलवार की कीमत होती है, म्यान (खोल) की नहीं।
शब्द | हिंदी अर्थ | अंग्रेज़ी अर्थ |
जाति | सामाजिक वर्ग | Caste |
साधु | संत | Saint |
ज्ञान | विद्या, समझ | Knowledge |
मोल | मूल्य | Value |
तलवार | शस्त्र | Sword |
म्यान | खोल | Sheath |
- बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझ सा बुरा न कोय॥
व्याख्या –
कबीर जी अपने विचारों के मंथन से इस सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं कि जब मैंने दूसरों में बुराई ढूँढ़ी, तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला। लेकिन जब मैंने अपने भीतर झाँका, तो सबसे बुरा मैं स्वयं ही निकला। अर्थात् दूसरों की बुराई निकालने से पहले अपने मन की बुराइयों को सुधारना चाहिए।
शब्द | हिंदी अर्थ | अंग्रेज़ी अर्थ |
बुरा | दोषयुक्त | Bad |
देखन | देखने | To see |
मिलिया | मिला | Found |
खोजा | तलाशा | Searched |
- जिन ढूँढ़ा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ।
जो बौरा डूबन डरा रहा किनारे बैठ॥
व्याख्या –
कबीर जी इस विरोधाभासी दोहे के माध्यम से यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि जो गहरे में गया, उसने सत्य को पा लिया। अर्थात् जिसने ज्ञान को प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत की उसने असली सत्य का पता लगा लिया। लेकिन जो डर के कारण किनारे बैठा रहा, वह ज्ञान प्राप्त नहीं कर सका। अर्थात् जिसने ज्ञान प्राप्ति के लिए उद्यम ही नहीं किया वह अज्ञानी ही बनकर रह गया।
शब्द | हिंदी अर्थ | अंग्रेज़ी अर्थ |
ढूँढ़ा | खोजा | Searched |
पाइयाँ | प्राप्त किया | Found |
गहरे | गहराई में | Deep |
बौरा | मूर्ख | Fool |
डूबन | डूबने | To drown |
किनारे | तट | Shore |
- जा घट प्रेम न संचरै, सो घट जान मसान।
जैसे खाल लोहार की, साँस लेत बिनु प्रान॥
व्याख्या –
कबीर ने अपने इस दोहे में मानव के वास्तविक गुणों की पहचान बताई है। वे कहते हैं कि जिस शरीर में प्रेम नहीं है, वह श्मशान के समान है। जैसे लोहार की धौंकनी हवा तो लेती है, लेकिन उसमें जीवन नहीं होता। इसलिए हर मनुष्य में हर मनुष्य के लिए प्रेम भावना का होना मनुष्य होने की पहली और आवश्यक शर्त है।
शब्द | हिंदी अर्थ | अंग्रेज़ी अर्थ |
घट | शरीर | Body |
प्रेम | प्यार | Love |
मसान | श्मशान | Cremation ground |
खाल | चमड़ा | Skin |
लोहार | लोहे का कारीगर | Blacksmith |
- काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होएगा, बहुरि करेगो कब॥
व्याख्या –
कबीर जी अपने इस दोहे में समय की महत्ता का बोधा कराते हुए यह कह रहे हैं कि जो कल करना है, उसे आज कर लो, और जो आज करना है, उसे अभी कर लो। क्योंकि पल भर में प्रलय हो सकती है, फिर तुम कब करोगे? आशय यह है कि हमें समय का व्यय करना ही नहीं चाहिए।
शब्द | हिंदी अर्थ | अंग्रेज़ी अर्थ |
काल | कल | Tomorrow |
परलय | प्रलय, विनाश | Catastrophe |
बहुरि | फिर | Again |
अतिरिक्त शब्दार्थ
शब्दार्थ एवं टिप्पणी
साईं = प्रभु, ईश्वर, स्वामी
कर का = हाथ का
तुज्झ = तुझ
मनका = माला के दाने
पुहुपन = पुष्प, फूल
बास = सुगंध, खुशबू
मोल करो = मूल्य जान लो
मिलिया = मिला
कस्तूरी = एक प्रकार का हिरन जो ठंडे पर्वतीय भागों बौरा में रहता है, इसकी नाभि से कस्तूरी नामक सुगंधित पदार्थ निकलता है जो दवा के काम में आता है।
आपना = अपना
बौरा = पागल
मसान = श्मशान, मरा हुआ
परलय = प्रलय, सृष्टि का नाश
बहुरि = फिर, पुनः
करेगो = करोगे
मिरग = मृग, हिरन
फिर-फिर = बार-बार, पुनः पुनः
सिष = शिष्य, चेला
अनंत = जिसका अंत न हो, जो समाप्त न हो
खोट = कमी, दोष, त्रुटि
चोट = आघात, प्रहार, मार
उपगार = उपकार, भलाई
पोथी = धर्म-ग्रंथ, शास्त्र
लोचन = आँख, नयन, नेत्र
साखी = साक्षी, ज्ञान संबंधी दोहे
अनंत = अनादि अनंत परम,
घट = घड़ा, शरीर रूपी घड़ा
ब्रह्म, आराध्य प्रभु
बिनु = बिना
काढ़े = निकालते हैं, दूर करते हैं
बाहै = चलाते हैं
मुआ = मर गया
मन का फेर = मन के अपवित्र भाव चिंताएँ, सोच आदि
डारि दे = डाल दे, फेंक दे
म्यान = तलवार, कटार आदि रखने का खाना
कोय = कोई भी, एक भी
पैठ = डूबकी लगाकर
दोहा = हिंदी का एक प्रसिद्ध छंद, जिसके विषम (पहले और तीसरे) चरणों में तेरह-तेरह और सम (दूसरे और चौथे) चरणों में ग्यारह – ग्यारह मात्राएँ होती हैं। इस प्रकार प्रत्येक दल में चौबीस मात्राएँ होती हैं। अंत में लघु होना अनिवार्य है।
बोध एवं विचार
- सही विकल्प का चयन करो :-
(क) महात्मा कबीरदास का जन्म हुआ था।
(अ) सन् 1398 में
(आ) न् 1380 में
(इ) सन् 1370 में
(ई) सन् 1390 में
उत्तर – (अ) सन् 1398 में
(ख) संत कबीरदास के गुरु कौन थे?
(अ) गोरखनाथ
(आ) रामानंद
(इ) रामानुजाचार्य
(ई) ज्ञानदेव
उत्तर – (आ) रामानंद
(ग) कस्तूरी मृग वन-वन में क्या खोजता फिरता है?
(अ) कोमल घास
(आ) शीतल जल
(इ) कस्तूरी नामक सुगंधित पदार्थ
(ई) निर्मल हवा
उत्तर – (इ) कस्तूरी नामक सुगंधित पदार्थ
(घ) कबीरदास के अनुसार वह व्यक्ति पंडित है-
(अ) जो शास्त्रों का अध्ययन करता है।
(आ) जो बड़े-बड़े ग्रंथ लिखता है।
(इ) जो किताबें खरीदकर पुस्तकालय में रखता है।
(ई) ‘जो प्रेम का ढाई आखर’ पढ़ता है।
उत्तर – (ई) ‘जो प्रेम का ढाई आखर’ पढ़ता है।
(ङ) कवि के अनुसार हमें कल का काम कब करना चाहिए?
(अ) आज
(इ) परसों
(आ) कल
(ई) नरसों
उत्तर – (अ) आज
- एक शब्द में उत्तर दो –
(क) श्रीमंत शंकरदेव ने अपने किस ग्रंथ में कबीरदास जी का उल्लेख किया है?
उत्तर – कीर्तन घोषा
(ख) महात्मा कबीरदास का देहावसान कब हुआ था?
उत्तर – 1518
(ग) कवि के अनुसार प्रेमविहीन शरीर कैसा होता है?
उत्तर – श्मशान
(घ) कबीरदास जी ने गुरु को क्या कहा है?
उत्तर – कुम्हार
(ङ) महात्मा कबीरदास की रचनाएँ किस नाम से प्रसिद्ध हुईं?
उत्तर – बीजक
- पूर्ण वाक्य में उत्तर दो :-
(क) कबीरदास के पालक पिता-माता कौन थे?
उत्तर – कबीरदास जी के पालक पिता-माता नीरू और नीमा नामक मुसलमान जुलाहे थे।
(ख) ‘कबीर‘ शब्द का अर्थ क्या है?
उत्तर – ‘कबीर’ शब्द का अर्थ बड़ा, महान और श्रेष्ठ होता है।
(ग) साखी‘ शब्द किस संस्कृत शब्द से विकसित है?
उत्तर – ‘साखी’ शब्द संस्कृत के ‘साक्षी’ शब्द से विकसित हुआ है।
(घ) साधु की कौन-सी बात नहीं पूछी जानी चाहिए?
उत्तर – साधु की जाति नहीं पूछनी चाहिए, बल्कि उसका ज्ञान देखना चाहिए।
(ङ) डूबने से डरने वाला व्यक्ति कहाँ बैठा रहता है?
उत्तर – डूबने से डरने वाला व्यक्ति किनारे बैठा रहता है।
- अति संक्षिप्त उत्तर दो (लगभग 25 शब्दों में) :-
(क) कबीरदास जी की कविताओं की लोकप्रियता पर प्रकाश डालो।
उत्तर – कबीरदास जी की कविताएँ उनके समय में अत्यंत लोकप्रिय थीं और आज भी हैं। उनकी सरल भाषा, व्यावहारिक ज्ञान और भक्ति भाव ने जनता को आकर्षित किया। इसके अलावा विभिन्न स्थानों पर उनके पद गाए जाते हैं।
(ख) कबीरदास जी के आराध्य कैसे थे?
उत्तर – कबीरदास जी निर्गुण भक्ति के उपासक थे। वे साकार मूर्ति-पूजा में विश्वास नहीं करते थे, बल्कि संसार के कण-कण में व्याप्त निराकार परमात्मा ‘राम’ की आराधना करते थे।
(ग) कबीरदास जी की काव्य भाषा किन गुणों से युक्त है?
उत्तर – कबीरदास जी की काव्य भाषा सरल, सहज, प्रभावशाली और जनसामान्य की भाषा थी। इसे ‘सधुक्कड़ी’ या ‘पंचमेल खिचड़ी’ कहा जाता है। उनके शब्दों में स्वाभाविक अलंकार और स्पष्टता पाई जाती है।
(घ) ‘तेरा साईं तुझ में, ज्यों पुहुपन में बास‘ का आशय क्या है?
उत्तर – इस पंक्ति का आशय है कि परमात्मा हमारे भीतर ही है, जैसे फूल में सुगंध होती है। अज्ञान के कारण मनुष्य बाहर उसे खोजता है, जबकि वह स्वयं के अंदर ही विद्यमान है।
(ङ) ‘सत गुरु की महिमा के बारे में कवि ने क्या कहा है?
उत्तर – कवि के अनुसार सतगुरु की महिमा अनंत है। वे अनंत उपकार करते हैं, आध्यात्मिक ज्ञान की आँखें खोलते हैं और साधक को सत्य का साक्षात्कार कराते हैं।
(च) ‘अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाह्रै चोट‘ का तात्पर्य बताओ।
उत्तर – इसका तात्पर्य है कि गुरु एक कुम्हार की तरह होता है, जो शिष्य को सही आकार देने के लिए बाहर से कठोर अनुशासन देता है, लेकिन भीतर से स्नेहपूर्वक उसका समर्थन करता है।
- संक्षेप में उत्तर दो (लगभग 50 शब्दों में) :
(क) बुराई खोजने के संदर्भ में कवि ने क्या कहा है?
उत्तर – कवि कहते हैं कि जब वह संसार में बुराई खोजने निकले, तो कोई बुरा नहीं मिला। लेकिन जब उसने अपने हृदय को देखा, तो पाया कि वही सबसे अधिक बुरे हैं। इससे तात्पर्य है कि मनुष्य को दूसरों की गलतियाँ निकालने के बजाय आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और अपनी बुराइयों को सुधारना चाहिए।
(ख) कबीर दास जी ने किसलिए मन का मनका फेरने का उपदेश दिया है?
उत्तर – कबीरदास जी ने कहा कि केवल बाहरी रूप से माला फेरने से कोई लाभ नहीं होता, यदि मन चंचल बना रहता है। इसलिए उन्होंने उपदेश दिया कि हाथ की माला छोड़कर मन की माला फेरनी चाहिए, अर्थात् मन को प्रभु-भक्ति में स्थिर करना चाहिए। यही सच्ची साधना और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग है।
(ग) गुरु शिष्य को किस प्रकार गढ़ते हैं?
उत्तर – कबीरदास जी गुरु को कुम्हार और शिष्य को कच्चे घड़े की तरह मानते हैं। जैसे कुम्हार घड़े को ठीक आकार देने के लिए बाहर से चोट करता है और अंदर से सहारा देता है, वैसे ही गुरु भी शिष्य को अनुशासन और प्रेम से शिक्षित कर उसे योग्य बनाते हैं।
(घ) कोरे पुस्तकीय ज्ञान की निरर्थकता पर कबीरदास जी ने किस प्रकार प्रकाश डाला है?
उत्तर – कबीरदास जी कहते हैं कि केवल किताबें पढ़ने से कोई विद्वान नहीं बनता। यदि कोई व्यक्ति सच्चा ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, तो उसे प्रेम और भक्ति का अनुभव करना चाहिए। वे कहते हैं कि “ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय,” अर्थात् प्रेम का वास्तविक ज्ञान ही सच्ची विद्वत्ता है।
- सम्यक् उत्तर दो (लगभग 100 शब्दों में) :
(क) संत कबीरदास की जीवन-गाथा पर प्रकाश डालो।
उत्तर – संत कबीरदास का जन्म 1398 ईस्वी में काशी (वाराणसी) में हुआ था। कहा जाता है कि वे एक विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे, जिन्हें जन्म के बाद लहरतारा तालाब के पास छोड़ दिया गया था। नीरू और नीमा नामक जुलाहा दंपत्ति ने उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया। कबीरदास जी ने स्वामी रामानंद को अपना गुरु माना और उनके उपदेशों से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया। वे निर्गुण भक्ति धारा के प्रमुख कवि थे और कर्मयोग के समर्थक थे। उन्होंने समाज में व्याप्त आडंबरों, पाखंड, जातिवाद और मूर्तिपूजा का विरोध किया। उन्होंने सहज जीवन जीते हुए ईश्वर की भक्ति को प्राथमिकता दी। उनका देहावसान 1518 ईस्वी में मगहर में हुआ।
(ख) भक्त कवि कबीरदास जी का साहित्यिक परिचय दो।
उत्तर – कबीरदास जी हिंदी साहित्य के भक्ति काल के प्रमुख कवि थे। उनकी रचनाएँ सरल, सहज और जनमानस को प्रेरित करने वाली हैं। उनकी वाणी को उनके शिष्यों ने संकलित कर ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में संग्रहीत किया, जिसमें साखी, सबद और रमैनी तीन प्रमुख भाग हैं। उनकी भाषा ‘सधुक्कड़ी’ या ‘पंचमेल खिचड़ी’ कही जाती है, जिसमें हिंदी, अवधी, ब्रज, भोजपुरी और फारसी के शब्दों का समावेश है। उनके दोहे गहन अर्थपूर्ण होते हैं और समाज को सच्ची भक्ति, प्रेम, परोपकार और सदाचार का मार्ग दिखाते हैं। वे तर्कशीलता और व्यावहारिक ज्ञान पर बल देते थे और उनका साहित्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उनके समय में था।
- सप्रसंग व्याख्या करो :-
(क) जाति न पूछो साधु की…पड़ा रहन दो म्यान।
उत्तर – प्रसंग – यह दोहा संत कबीरदास जी की रचना से लिया गया है, जिसमें वे ज्ञान और साधुता की महत्ता को बताते हैं।
व्याख्या – कबीरदास जी कहते हैं कि किसी साधु या ज्ञानी व्यक्ति की जाति नहीं पूछनी चाहिए, बल्कि उसके ज्ञान को महत्त्व देना चाहिए। जैसे तलवार का मूल्य उसकी धार और उपयोगिता से होता है, न कि उसकी म्यान (म्यान = खोल) से, वैसे ही किसी व्यक्ति का मूल्य उसके विचारों और कर्मों से आंका जाना चाहिए, न कि उसकी जाति से।
(ख) “जिन ढूँढ़ा तिन पाइयाँ………. रहा किनारे बैठ।”
उत्तर – प्रसंग – यह दोहा संत कबीरदास जी द्वारा आत्म-साधना और परिश्रम के महत्त्व को समझाने के लिए कहा गया है।
व्याख्या – कबीरदास जी कहते हैं कि जिन्होंने साहस करके गहरे पानी में उतरने का प्रयास किया, उन्हें सफलता मिली। लेकिन जो व्यक्ति डूबने के डर से किनारे पर ही बैठा रहा, उसे कुछ प्राप्त नहीं हुआ। इसका तात्पर्य यह है कि सफलता उन्हीं को मिलती है जो प्रयास करने से नहीं डरते। जीवन में जो भी व्यक्ति भयभीत होकर कोशिश करने से पीछे हटता है, वह कभी किसी उपलब्धि तक नहीं पहुँचता।
(ग) “जा घट प्रेम न संचरै…साँस लेत बिनु प्रान।”
उत्तर – प्रसंग – यह दोहा प्रेम और भक्ति की महत्ता को दर्शाने के लिए संत कबीरदास जी ने कहा है।
व्याख्या – कबीरदास जी कहते हैं कि जिस शरीर में प्रेम और भक्ति का निवास नहीं है, वह शरीर श्मशान के समान है। जैसे लोहार की भट्टी में काम आने वाली धौंकनी (जो साँस लेने जैसी गति करती है) केवल हवा खींचने और छोड़ने का काम करती है, लेकिन उसमें जीवन नहीं होता, वैसे ही प्रेमविहीन व्यक्ति केवल सांस लेता है, लेकिन उसमें आत्मिक ऊर्जा नहीं होती।
(घ) काल करे सो आज कर…..……….. बहुरि करेगो कब।”
उत्तर – प्रसंग – यह दोहा समय के महत्त्व को दर्शाने के लिए संत कबीरदास जी ने कहा है।
व्याख्या – कबीरदास जी कहते हैं कि जो कार्य कल करने का विचार कर रहे हो, उसे आज ही कर लो, और जो कार्य आज करना है, उसे अभी कर लो। जीवन अनिश्चित है, अगले ही क्षण क्या होगा, कोई नहीं जानता। यदि अभी कार्य नहीं किया तो भविष्य में करने का कोई अवसर नहीं मिल सकता। अतः समय का सदुपयोग करना ही सबसे बड़ा धर्म है।
भाषा एवं व्याकरण-ज्ञान
- निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप बताओ :-
मिरग, पुहुप, सिष, आखर, मसान, परलय, उपगार, तीरथ
उत्तर – मिरग – मृग
पुहुप – पुष्प
सिष – शिष्य
आखर – अक्षर
मसान – श्मशान
परलय – प्रलय
उपगार – उपकार
तीरथ – तीर्थ
- वाक्यों में प्रयोग करके निम्नांकित जोड़ों के अर्थ का अंतर स्पष्ट करो :
मनका – मन का, करका-कर का, नलकी-नल की, पीलिया – पी लिया, तुम्हारे तुम हारे, नदी-न दी
उत्तर – मनका – मन का
संत कबीर ने कहा है कि मनका फेरने से नहीं, मन को बदलने से सच्ची भक्ति होती है।
सच्चा प्रेम मन का होता है, उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।
करका – कर का
साधु के हाथ में एक करका (छोटी लाठी) थी।
मेरे कर का (हाथ का) फल बहुत मीठा है।
नलकी – नल की
बाँस की पतली नलकी से बच्चे खेल रहे थे।
यह पानी नल की टंकी से आ रहा है।
पीलिया – पी लिया
अधिक गंदा पानी पीने से उसे पीलिया हो गया।
प्यास लगने पर उसने पूरा गिलास पानी पी लिया।
तुम्हारे – तुम हारे
यह किताब तुम्हारे लिए बहुत उपयोगी होगी।
मैच के अंतिम क्षणों में तुम हारे और विरोधी टीम जीत गई।
नदी – न दी
गंगा भारत की सबसे पवित्र नदी मानी जाती है।
रामा ने मुझे एक चॉकलेट भी न दी।
- निम्नलिखित शब्दों के लिंग निर्धारित करो :-
महिमा, चोट, लोचन, तलवार, ज्ञान, घट, साँस, प्रेम
उत्तर – महिमा – स्त्रीलिंग
चोट – स्त्रीलिंग
लोचन – पुल्लिंग
तलवार – स्त्रीलिंग
ज्ञान – पुल्लिंग
घट – पुल्लिंग
साँस – स्त्रीलिंग
प्रेम – पुल्लिंग
- निम्नांकित शब्द-समूहों के लिए एक-एक शब्द लिखो :-
(क) मिट्टी के बर्तन बनाने वाला व्यक्ति
उत्तर – (क) कुम्हार
(ख) जो जल में डूबकी लगाता हो
उत्तर – गोताखोर
(ग) जो लोहे के औजार बनाता है
उत्तर – लोहार
(घ) सोने के गहने बनाने वाला कारीगर
उत्तर – सुनार
(ङ) विविध विषयों के गंभीर ज्ञान रखने वाला व्यक्ति
उत्तर – विद्वान
- निम्नांकित शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखो :-
साईं, पानी, पवन, फूल, सूर्य, गगन, धरती
उत्तर – 1. साईं – ईश्वर, प्रभु
- पानी – जल, नीर
- पवन – वायु, समीर
- फूल – पुष्प, कुसुम
- सूर्य – रवि, भानु
- गगन – आकाश, नभ
- धरती – भूमि, वसुंधरा
योग्यता- विस्तार
- महात्मा कबीरदास द्वारा विरचित निम्नलिखित दोहों के आशय जानने का प्रयास करो :-
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रुचै, सीस दै लै जाय॥
उत्तर – संत कबीरदास जी प्रेम की महत्ता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि प्रेम न तो खेतों में उपजाया जा सकता है और न ही बाजार में खरीदा या बेचा जा सकता है। यह एक विशुद्ध आत्मिक अनुभव है, जो न किसी धन-संपत्ति से प्राप्त होता है और न ही बाहरी साधनों से। प्रेम को पाने के लिए व्यक्ति को अपने अहंकार और स्वार्थ का त्याग करना पड़ता है। राजा हो या प्रजा, जो भी सच्चे प्रेम की राह पर चलना चाहता है, उसे अपने सिर (अहंकार) का बलिदान देकर ही इसे प्राप्त करना होगा।
आये हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जंजीर॥
उत्तर – इस दोहे में कबीरदास जी संसार की नश्वरता को उजागर कर रहे हैं। वे कहते हैं कि इस संसार में जो भी आया है, उसे एक न एक दिन अवश्य जाना पड़ेगा, चाहे वह राजा हो, गरीब हो या फकीर। अंतर केवल इतना है कि कोई व्यक्ति जीवन में ऐश्वर्य और वैभव का अनुभव करता है, तो कोई दुख और बंधनों में बँधा रहता है। परंतु अंततः मृत्यु सबको समान कर देती है, इसलिए मनुष्य को अहंकार और मोह से मुक्त होकर सत्य को अपनाना चाहिए।
चारि भुजा के भजन में भूलि परे सब संत।
कबिरा सुमिरै तासु को, जाके भुजा अनंत॥
उत्तर – इस दोहे में कबीरदास जी ईश्वर के स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं। वे कहते हैं कि लोग चार भुजाओं वाले देवताओं (जैसे भगवान विष्णु) की पूजा में लगे रहते हैं, लेकिन वे उस परम तत्त्व को भूल जाते हैं, जिसकी भुजाएँ अनंत हैं। कबीर का संकेत उस परमात्मा की ओर है, जो निराकार और सर्वव्यापक है, जिसे किसी मूर्ति या प्रतीक के रूप में सीमित नहीं किया जा सकता। वे सच्चे भक्ति मार्ग की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि हमें उस परम सत्ता का स्मरण करना चाहिए, जो हर स्थान पर व्याप्त है और जिसकी शक्ति अनंत है।
- कबीरदास जी द्वारा विरचित प्रसिद्ध साखियों का संग्रह करके अपने सहपाठियों के बीच अंत्याक्षरी का खेल खेलो।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।
- संत कबीरदास विरचित साखियों में निहित संदेशों की प्रासंगिकता पर अपने मित्रों के बीच चर्चा करो।
उत्तर – संत कबीरदास की साखियाँ न केवल उनके समय में बल्कि आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। इन साखियों में जीवन, समाज, भक्ति, प्रेम, ज्ञान, कर्म और सत्य की शिक्षा दी गई है। जब हम अपने मित्रों के साथ इन साखियों की चर्चा करेंगे, तो हमें इनमें छिपे गहरे अर्थ और उनकी आधुनिक संदर्भों में उपयोगिता समझने का अवसर मिलेगा।
मुख्य बिंदु जिन पर चर्चा की जा सकती है –
आत्मनिरीक्षण और स्वयं में सुधार
“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझ सा बुरा न कोय॥”
इस साखी में कबीरदास हमें यह सिखाते हैं कि हमें दूसरों में बुराई देखने की बजाय पहले अपने अंदर झांकना चाहिए। यह आज के समय में भी बहुत आवश्यक है क्योंकि हम दूसरों की गलतियों को तुरंत देख लेते हैं लेकिन अपनी भूलों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
समय का सदुपयोग
“काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब॥”
यह साखी हमें यह सिखाती है कि किसी भी कार्य को टालना नहीं चाहिए, क्योंकि समय कभी किसी के लिए रुकता नहीं। आज के तेज़ रफ्तार जीवन में यह सीख और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
सच्ची भक्ति और आडंबरों से बचाव
“माला फेरत जुग गया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर॥”
कबीरदास इस साखी के माध्यम से दिखावे की भक्ति को निरर्थक बताते हैं और सच्चे मन से ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखने का संदेश देते हैं।
जाति-पाति की संकीर्णता से ऊपर उठना
“जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥”
इस साखी में कबीर जाति-पाति को व्यर्थ बताते हैं और ज्ञान को सर्वोच्च स्थान देते हैं। आज के समय में जब सामाजिक भेदभाव और असमानता की बातें होती हैं, यह साखी हमें एक समतावादी समाज बनाने की प्रेरणा देती है।
सच्चे प्रेम की महत्ता
“प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रुचै, सीस दै लै जाय॥”
कबीर प्रेम को सर्वोच्च मानते हैं और बताते हैं कि इसे न खरीदा जा सकता है और न ही बेचा जा सकता है। यह त्याग और निःस्वार्थ भावना से ही प्राप्त होता है।
निष्कर्ष –
कबीर की साखियाँ हमें जीवन की सच्चाइयों से अवगत कराती हैं और नैतिक मूल्यों की शिक्षा देती हैं। यदि हम अपने मित्रों के बीच इन साखियों की चर्चा करें, तो हम अपनी सोच को और अधिक सकारात्मक व व्यावहारिक बना सकते हैं। साथ ही, यह चर्चा हमें आत्ममूल्यांकन करने और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की प्रेरणा दे सकती है।
- कबीरदास जी की ‘सधुक्कड़ी‘ भाषा के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करो।
उत्तर – कबीरदास जी की भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ कहा जाता है। यह भाषा आम बोलचाल की भाषा थी, जिसमें कई भाषाओं के शब्दों का मिश्रण था। सधुक्कड़ी भाषा को ‘पंचमेल खिचड़ी’ भी कहा जाता है क्योंकि इसमें संस्कृत, अवधी, ब्रज, खड़ी बोली, पंजाबी, राजस्थानी और अरबी-फारसी के शब्द मिलते हैं।
विशेषताएँ –
सरल, सहज और जनसामान्य को समझ में आने वाली भाषा।
लोकप्रचलित शब्दों और मुहावरों का प्रयोग।
कठिन संस्कृत या फारसी शब्दों की बजाय सीधे और प्रभावी शब्दों का चयन।
दोहे और साखियों में प्रतीकों और बिंबों का सुंदर प्रयोग।
- जीवन, कर्म और भक्ति भावना की दृष्टि से संत कबीरदास और श्रीमंत शंकरदेव की तुलना करने का प्रयास करो।
उत्तर –
विषय | संत कबीरदास | श्रीमंत शंकरदेव |
जन्म | 1398, काशी (उत्तर प्रदेश) | 1449, असम |
आध्यात्मिक दृष्टिकोण | निर्गुण भक्ति के प्रवर्तक, ईश्वर को निराकार मानते थे। | सगुण भक्ति के प्रवर्तक, श्रीकृष्ण के उपासक थे। |
भाषा | सधुक्कड़ी, जिसमें विभिन्न भाषाओं का मिश्रण था। | असमिया भाषा में लेखन, सरल व जनसामान्य को समझने योग्य। |
साहित्य | ‘बीजक’ में साखी, सबद, रमैनी संकलित हैं। | ‘कीर्तन घोषा’ और नाटक, भक्ति साहित्य का प्रचार। |
सामाजिक सुधार | अंधविश्वास, जातिवाद और बाह्य आडंबरों का विरोध। | असम में एकता और भक्ति आंदोलन का प्रचार। |
कर्म और भक्ति | उन्होंने भक्ति के साथ कर्मयोग को महत्त्व दिया। | भक्ति, नाटक और संगीत के माध्यम से धर्म का प्रचार किया। |
लोकप्रियता | पूरे भारत में प्रसिद्ध, हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों में सम्मानित। | असम और पूर्वोत्तर भारत में अत्यधिक पूजनीय। |
कबीरदास और श्रीमंत शंकरदेव दोनों ने भक्ति आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। कबीर ने निर्गुण भक्ति को अपनाकर समाज को रूढ़ियों से मुक्त करने का प्रयास किया, जबकि शंकरदेव ने कृष्ण भक्ति को प्रचारित किया। दोनों संतों का जीवन और संदेश आज भी प्रासंगिक हैं और हमें प्रेम, भक्ति और समाज सुधार की प्रेरणा देते हैं।