मीराबाई (1498-1546)
हिंदी की कृष्ण भक्ति काव्य धारा में कवयित्री मीराबाई को महाकवि सूरदास जी के बाद ही स्थान प्राप्त है। हालाँकि हिंदी कवयित्रियों में आप अग्रणी स्थान की अधिकारी हैं। भारतीय जन साधारण के बीच कबीरदास, सूरदास और तुलसीदास के भजनों की तरह मीरा भजन भी समान रूप से प्रिय रहे हैं। कवयित्री मीराबाई द्वारा विरचित गीत- पद हिंदी के साथ-साथ भारतीय साहित्य की भी अमूल्य निधि हैं। भक्ति भावना एवं काव्यत्व के सहज संतुलन के कारण आपके गीत- पद अनूठे बन पड़े हैं।
कवयित्री मीराबाई भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य आराधिका थीं। अपने आराध्य के प्रति एकनिष्ठ प्रेम भक्ति के कारण आपको ‘कृष्ण प्रेम दीवानी’ की आख्या मिली। अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण एवं उनकी एकनिष्ठ साधना का जो दृष्टांत भक्त- कवयित्री मीराबाई ने प्रस्तुत किया, वह सबके लिए आदरणीय एवं अनुकरणीय है।
कृष्ण-प्रेम-भक्ति की सजीव प्रतिमा मीराबाई के जीवन वृत्त को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद रहा है। कहा जाता है कि आपका जन्म सन् 1498 के आस-पास प्राचीन राजपूताने के अंतर्गत ‘मेड़ता’ प्रांत के ‘कुड़की’ नामक स्थान में राठौड़ वंश की मेड़तिया शाखा में हुआ था। बचपन में ही माता के निधन होने और पिता राव रत्न सिंह के भी युद्धों में व्यस्त रहने के कारण बालिका मीराबाई का लालन-पालन उनके दादा राव दूदाजी की देखरेख में हुआ। परम कृष्ण-भक्त दादाजी के साथ रहते-रहते बालिका मीरों के कोमल हृदय में कृष्ण भक्ति का बीज अंकुरित होकर बढ़ने लगा। आगे आपने कृष्ण जी को ही अपना आराध्य प्रभु एवं पति मान लिया।
सन् 1516 में मेवाड़ के महाराजा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र कुँवर भोजराज के साथ मीराबाई का विवाह हुआ, परंतु दुर्भाग्यवश विवाह के सात वर्ष बाद ही भोजराज जी का स्वर्गवास हो गया। राजपूतों की तत्कालीन परंपरा का विरोध करते हुए क्रांतिकारिणी मीरा सती नहीं हुईं। वे जग सुहाग को मिथ्या और अविनाशी प्रभु कृष्ण जी को सत्य मानती थीं। प्रभु की आराधना और साधुओं की संगति में उनका समय बीतता चला। राजघराने की ओर से उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ दी जाने लगीं, परंतु मीराबाई भक्त प्रह्लाद की तरह टस से मस नहीं हुईं। अब वे अपने प्रभु गिरिधर नागर की खोज में राजप्रासाद से निकल पड़ी। साधु संतों के साथ घूमते-घामते और अपने प्रभु को रिझाने के लिए नाचते-गाते मीराबाई अंत में द्वारकाधाम पहुँचीं। प्रसिद्ध है कि वहाँ श्री रणछोड़ जी के मंदिर में अपने प्रभु गिरिधर गोपाल का भजन-कीर्तन करते-करते सन् 1546 के आसपास वे भगवान की मूर्ति में सदा के लिए विलीन हो गयीं।
कवयित्री मीराबाई की रचनाओं में प्रामाणिकता की दृष्टि से कृष्ण भक्तिपरक लगभग दो सौ फुटकर पद ही विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ये फुटकर पद मीराबाई की पदावली नाम से प्रसिद्ध हैं। ये पद कवयित्री मीराबाई के कृष्ण भक्तिमय हृदय के स्वतः उद्गार हैं। वैसे तो उन्होंने मुख्य रूप से हिंदी की उपभाषा राजस्थानी में काव्य रचना की है, परंतु उसमें ब्रज, खड़ी बोली, पंजाबी, गुजराती आदि के भी शब्द मिल जाते हैं। कृष्ण प्रेम-माधुरी सहज अभिव्यक्ति और सांगीतिक लय के मिलन से कवयित्री मीराबाई के पद त्रिवेदी संगम के समान पावन एवं महत्त्वपूर्ण बन पड़े हैं।
मीरा के पद-त्रय – पाठ का परिचय
‘पद-त्रय’ शीर्षक के अंतर्गत संकलित प्रथम पद में आराध्य प्रभु कृष्ण के श्री चरणों में कवयित्री मीराबाई के पूर्ण समर्पण का भाव व्यंजित हुआ है। वे कहती हैं कि मैं तो गोपाल जी के श्री चरणों की शरण में आ गई हूँ। पहले यह बात किसी को मालूम नहीं थी, पर अब तो संसार को इस बात का पता चल गया है। अतः प्रभु गिरिधर मुझ पर कृपा करें, मुझे दर्शन दें, शीघ्र ही मेरी सुध लें। मैं तो प्रभु जी के चरण-कमलों में अपने को न्योछावर कर चुकी हूँ।
द्वितीय पद में कवयित्री मीराबाई अपने जीवनाधार सुंदर श्याम जी को अपने घर आने का आमंत्रण देते हुए कहती हैं कि हे स्वामी! तुम्हारे विरह में मैं पके पाण की तरह पीली पड़ गयी हूँ। तुम्हारे आए बिना मैं सुध-बुध खो बैठी हूँ, मेरा ध्यान तो तुम्हीं पर है, मुझे किसी दूसरे की आशा नहीं है, अतः तुम जल्दी आकर मुझसे मिलो और मेरे मान की रक्षा करो।
तृतीय पद में कवयित्री मनुष्य मात्र से राम (कृष्ण) नाम का रस पीने का आह्वान करते हुए कहती हैं कि सभी मनुष्य कुसंग छोड़ें और सत्संग में बैठकर कृष्ण का कीर्तन सुनें, वे काम-क्रोधादि छह रिपुओं को चित्त से निकाल दें और प्रभु कृष्ण प्रेम-रंग-रस से सराबोर हो उठें।
पद-त्रय
(1)
मैं तो चरण लगी गोपाल।
जब लागी तब कोऊँ न जाने, अब जानी संसार।
किरपा कीजै, दरसन दीजै, सुध लीजै तत्काल।
मीरा कहै प्रभु गिरधर नागर चरण-कमल बलिहार॥
(2)
म्हारे घर आवौ सुंदर श्याम।
तुम आया बिन सुध नहीं मेरो, पीरी परी जैसे पाण।
म्हारे आसा और ण स्वामी, एक तिहारो ध्याण।
मीरा के प्रभु वेग मिलो अब, राषो जी मेरो माण॥
(3)
राम नाम रस पीजै मनुआँ, राम नाम रस पीजै।
तज कुसंग सतसंग बैठ णित हरि चरचा सुण लीजै।
काम क्रोध मद लोभ मोह कूँ, बहा चित्त सूँ दीजै।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, ताहि के रंग में भीजै॥
पद-त्रय – व्याख्या सहित
(1)
मैं तो चरण लगी गोपाल।
जब लागी तब कोऊँ न जाने, अब जानी संसार।
किरपा कीजै, दरसन दीजै, सुध लीजै तत्काल।
मीरा कहै प्रभु गिरधर नागर चरण-कमल बलिहार॥
शब्दार्थ –
मैं तो चरण लगी गोपाल – मैं तो गोपाल (कृष्ण) के चरणों में लग गई हूँ।
जब लागी – जब से यह भक्ति लगी।
तब कोऊँ न जाने – तब किसी को इसका पता नहीं चला।
अब जानी संसार – अब तो सारा संसार जान गया है।
किरपा कीजै – कृपा कीजिए।
दरसन दीजै – मुझे अपने दर्शन दीजिए।
सुध लीजै तत्काल – तुरंत मेरी सुध (खबर/देखभाल) लीजिए।
मीरा कहै – मीरा कहती है।
प्रभु गिरधर नागर – हे प्रभु गिरधर (कृष्ण) जी।
चरण-कमल बलिहार – मैं आपके चरण-कमलों पर बलिहारी जाती हूँ (अर्पित हो जाती हूँ)।
व्याख्या
यह पद मीराबाई की गहरी भक्ति, समर्पण और प्रेम को दर्शाता है। मीरा अपने इस पद में कहती हैं कि “हे गोपाल! मैं तो आपके चरणों में लग गई हूँ। जब मेरी भक्ति की शुरुआत हुई थी, तब किसी को इसकी जानकारी नहीं थी। लेकिन अब तो सारा संसार जान गया है कि मैं आपकी भक्ति में लीन हूँ। अर्थात् जब मेरे दिल में भक्ति की लौ जली, तब किसी को इसका पता ही नहीं चला। पर अब, पूरी दुनिया जान गई है कि मैं तो आपके प्रेम में डूब चुकी हूँ। हे प्रभु! आब आप मुझ पर कृपा कीजिए, मुझे अपने दर्शन दीजिए और तुरंत मेरी सुधि लीजिए। मेरा मन विरह में व्याकुल हो रहा है। मीरा कहती हैं कि हे गिरधर नागर कृष्ण, मैं तो आपके चरणों पर बलिहारी जाती हूँ, अपना सब कुछ अर्पित कर देती हूँ।
(2)
म्हारे घर आवौ सुंदर श्याम।
तुम आया बिन सुध नहीं मेरो, पीरी परी जैसे पाण।
म्हारे आसा और ण स्वामी, एक तिहारो ध्याण।
मीरा के प्रभु वेग मिलो अब, राषो जी मेरो माण॥
शब्दार्थ –
म्हारे घर आवौ – मेरे घर आइए
सुंदर श्याम – सुंदर श्याम (कृष्ण भगवान)
तुम आया बिन – तुम्हारे बिना आए
सुध नहीं मेरो – मेरी सुध (संज्ञान/होश) नहीं है
पीरी परी जैसे पाण – जैसे ज़हर पी लिया हो, वैसा हाल हो गया है
म्हारे आसा और ण स्वामी – मेरी आशा और स्वामी (प्रियतम) आप ही हैं
एक तिहारो ध्याण – केवल आपका ही ध्यान करती हूँ
मीरा के प्रभु – मीरा के भगवान
वेग मिलो अब – अब जल्दी मिलिए
राषो जी मेरो माण – मेरा मान (सम्मान/जीवन) आपकी कृपा पर है
व्याख्या –
मीराबाई इस पद में अपने प्यारे श्याम से विनती कर रही हैं कि हे सुंदर श्याम! मेरे घर पधारिए। जब से आप नहीं आए हैं, मुझे कोई सुध-बुध नहीं है। ऐसा लगता है जैसे मैंने कोई विष पी लिया हो, मन बेचैन है, शरीर असहाय हो गया है। हे प्रभु! मेरी सारी आशाएँ और मेरे स्वामी केवल आप ही हैं। मैं सिर्फ आपका ही ध्यान करती हूँ, और किसी की नहीं। मीरा कहती हैं – हे मेरे गिरधर नागर! अब तो जल्दी आ जाइए। मेरा मान, मेरा जीवन, मेरी आत्मा – सब आपकी कृपा पर ही टिकी है। यह पद मीरा बाई की गहन भक्ति, प्रेम में तड़प, और पूर्ण समर्पण को दर्शाता है।
(3)
राम नाम रस पीजै मनुआँ, राम नाम रस पीजै।
तज कुसंग सतसंग बैठ णित हरि चरचा सुण लीजै।
काम क्रोध मद लोभ मोह कूँ, बहा चित्त सूँ दीजै।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, ताहि के रंग में भीजै॥
शब्दार्थ –
राम नाम रस – राम नाम का रस
पीजै – पी
मनुआँ – मन
तज कुसंग – बुरी संगति
सतसंग बैठ – अच्छे लोगों की संगति में बैठ (Join holy company)
णित हरि चरचा – रोज़ हरि चर्चा
सुण लीजै – सुन ले
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह – वासनाएँ: कामना, ग़ुस्सा, अहंकार, लालच, मोह
बहा चित्त सूँ दीजै – मन से बहा दो
रंग में भीजै – रंग में रंग जाना
मीरा के प्रभु – मीरा के आराध्य भगवान
गिरधर नागर – श्रीकृष्ण का एक नाम (Another name of Krishna)
व्याख्या
मीराबाई का यह मानना है कि आत्मशक्ति बढ़ाने का सबसे अच्छा मार्ग है कि मन को मजबूत बनाया जाए। इसलिए मीरा अपने मन से कहती हैं कि हे मेरे मन! राम नाम के रस को पी – यह अमृत के समान है। बुरी संगति अर्थात् कुसंग को छोड़ दे और अच्छे लोगों की संगति में बैठकर हर रोज़ भगवान की चर्चा सुन। काम, क्रोध, अहंकार, लोभ और मोह जैसी बुरी भावनाओं को अपने मन से बहा दे – उन्हें निकाल बाहर कर। मीरा आगे कहती हैं कि मेरे प्रभु गिरधर नागर के कृष्ण रंग में रंग जा – उनके प्रेम में डूब जा। मुख्य रूप से इस पद में मीरा बाई मनुष्य को राम नाम की महिमा, सत्संग का महत्त्व और आंतरिक शुद्धि का संदेश देती हैं। वे कहती हैं कि भगवान के प्रेम में डूबकर ही सच्चा सुख और शांति मिलती है।
शब्दार्थ एवं टिप्पणी
चरण लगना = शरण में जाना
दरसन = दर्शन
गोपाल = गौ चराने वाले श्रीकृष्ण
सुध लीजै = खबर लीजिए
गिरधर = गिरिधर, गोवर्द्धन पर्वत को धारण करने वाले श्रीकृष्ण
नागर = चतुर, भला
म्हारे = हमारे
पीरी = पीली
आसा = आशा
सुध = होश, चेतना
ण = न, नहीं
वेग = तुरंत, जल्दी, शीघ्र
माण = मान, सम्मान, इज्जत
णित = नित, नित्य, सदा
कूँ = को
ताहि के = उनके
किरणा = कृपा
और = दूसरा
तिहारो = तुम्हारा
राषो = रक्षा करो, बचाओ
मनुआँ = मनुष्य
राम = विष्णु भगवान का एक अवतार, कृष्ण
बहा… दीजै = हृदय से दूर कर दीजिए
रंग… भीजै = प्रभु कृष्ण के प्रेम-रंग- रस से सराबोर हो उठिए
बोध एवं विचार
- ‘हाँ‘ या ‘नहीं‘ में उत्तर दो :
(क) हिंदी की कृष्ण भक्ति काव्य धारा में कवयित्री मीराबाई का स्थान सर्वोपरि है।
उत्तर – हाँ
(ख) कवयित्री मीराबाई भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य आराधिका थीं।
उत्तर – हाँ
(ग) राजपूतों की तत्कालीन परंपरा का विरोध करते हुए क्रांतिकारिणी मीरा सती नहीं हुईं।
उत्तर – हाँ
(घ) मीराबाई अपने को श्री कृष्ण जी के चरण-कमलों में पूरी तरह समर्पित नहीं कर पायी थीं।
उत्तर – नहीं
(ङ) मीराबाई ने सुंदर श्याम जी को अपने घर आने का आमंत्रण दिया है।
उत्तर – हाँ
- पूर्ण वाक्य में उत्तर दो :-
(क) कवयित्री मीराबाई का जन्म कहाँ हुआ था?
उत्तर – कवयित्री मीराबाई का जन्म प्राचीन राजपूताने के अंतर्गत ‘मेड़ता’ प्रांत के ‘कुड़की’ नामक स्थान में हुआ था।
(ख) भक्त कवयित्री मीराबाई को कौन-सी आख्या मिली है?
उत्तर – भक्त कवयित्री मीराबाई को ‘कृष्ण प्रेम दीवानी’ की आख्या मिली है।
(ग) मीराबाई के कृष्ण भक्तिपरक फुटकर पद किस नाम से प्रसिद्ध हैं?
उत्तर – मीराबाई के कृष्ण भक्तिपरक फुटकर पद ‘पदावली’ नाम से प्रसिद्ध हैं।
(घ) मीराबाई के पिता कौन थे?
उत्तर – मीराबाई के पिता का नाम राव रत्न सिंह था।
(ङ) कवयित्री मीराबाई ने मनुष्यों से किस नाम का रस पीने का आह्वान किया है?
उत्तर – कवयित्री मीराबाई ने मनुष्यों से राम नाम का रस पीने का आह्वान किया है।
- अति संक्षिप्त उत्तर दो (लगभग 25 शब्दों में) :-
(क) मीरा भजनों की लोकप्रियता पर प्रकाश डालो।
उत्तर – मीरा भजनों में भक्ति, प्रेम और संगीत का अद्भुत संगम है। सूर, तुलसी, कबीर जैसे संतों की तरह उनके भजन आज भी जनमानस में अत्यंत लोकप्रिय हैं।
(ख) मीराबाई का बचपन किस प्रकार बीता था?
उत्तर – मीरा का बचपन दादा राव दूदाजी के संरक्षण में बीता। कृष्ण-भक्त दादा के साथ रहते हुए उनके हृदय में भगवान श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति का बीज अंकुरित हुआ।
(ग) मीराबाई का देहावसान किस प्रकार हुआ था?
उत्तर – मीराबाई का देहावसान द्वारका में श्री रणछोड़ मंदिर में भजन करते हुए हुआ। ऐसा कहा जाता है कि वे भगवान की मूर्ति में विलीन हो गईं।
(घ) कवयित्री मीराबाई की काव्य भाषा पर प्रकाश डालो।
उत्तर – मीरा की काव्य भाषा मुख्यतः राजस्थानी है, जिसमें ब्रज, खड़ी बोली, पंजाबी और गुजराती के शब्द भी मिलते हैं। उनकी भाषा भावपूर्ण, सरल व संगीतमय है।
- संक्षेप में उत्तर दो (लगभग 50 शब्दों में) :-
(क) प्रभु कृष्ण के चरण कमलों पर अपने को न्योछावर करने वाली मीराबाई ने अपने आराध्य से क्या-क्या निवेदन किया है?
उत्तर – मीराबाई ने प्रभु श्रीकृष्ण से करुणा करने, दर्शन देने और शीघ्र सुधि लेने का निवेदन किया है। वे कहती हैं कि अब सारा संसार जान चुका है कि मैं तुम्हारी शरण में हूँ, इसलिए मुझे अपने चरणों की कृपा दो और अपने दिव्य स्नेह में मुझे समाहित करो।
(ख) सुंदर श्याम को अपने घर आने का आमंत्रण देते हुए कवयित्री ने उनसे क्या-क्या कहा है?
उत्तर – मीरा अपने आराध्य सुंदर श्याम से अपने घर आने का आग्रह करती हैं। वे कहती हैं कि तुम्हारे बिना मेरी सुध-बुध नहीं रही, ऐसा लगता है कि विष पी लेने के कारण मैं पीली पड़ गई हूँ। मेरा मन तुम्हारे ध्यान में ही रमा रहता है, मुझे किसी और की आशा नहीं, अतः जल्दी आकर मेरे मान की रक्षा करो।
(ग) मनुष्य मात्र से राम (कृष्ण) नाम का रस पीने का आह्वान करते हुए मीराबाई ने उन्हें कौन-सा उपदेश दिया है?
उत्तर – मीरा सभी से राम नाम के रस को पीने का आग्रह करती हैं। वे कहती हैं कि कुसंग छोड़कर सत्संग में बैठो, नित्य हरि की चर्चा सुनो, काम, क्रोध, मोह, लोभ जैसे दोषों को मन से निकालो और प्रभु गिरधर नागर के प्रेम में रंग जाओ — ईश्वर को प्राप्त करने का यही सच्चा मार्ग है।
- सम्यक् उत्तर दो (लगभग 100 शब्दों में)
(क) मीराबाई के जीवन वृत्त पर प्रकाश डालो।
उत्तर – मीराबाई का जन्म 1498 ई. के आसपास राजस्थान के मेड़ता राज्य के कुड़की गाँव में राठौड़ वंश में हुआ। बचपन में ही माता का निधन हो गया और उनका पालन-पोषण उनके दादा राव दूदाजी ने किया, जो परम कृष्णभक्त थे। उन्हीं के प्रभाव से मीराबाई के हृदय में भक्ति का बीज अंकुरित हुआ। उनका विवाह मेवाड़ के राजा भोजराज से हुआ, लेकिन सात वर्षों में ही वे विधवा हो गईं। मीराबाई ने सांसारिक बंधनों को त्याग कर कृष्ण भक्ति का मार्ग अपनाया। उन्होंने सामाजिक विरोध और यातनाओं के बावजूद अपने आराध्य के प्रति समर्पण नहीं छोड़ा। अंततः वे द्वारका गईं और श्रीकृष्ण की मूर्ति में विलीन हो गईं। उनका जीवन भक्ति, त्याग और प्रेम की अमर कथा है।
(ख) कवयित्री मीराबाई का साहित्यिक परिचय प्रस्तुत करो।
उत्तर – मीराबाई हिंदी भक्ति काल की प्रमुख कवयित्री थीं। उन्होंने कृष्ण भक्ति पर आधारित पदों की रचना की, जो आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। उनके पद ‘मीरा पदावली’ नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्होंने राजस्थानी भाषा में अधिक रचना की, परंतु उनकी भाषा में ब्रज, खड़ी बोली, गुजराती व पंजाबी के शब्द भी मिलते हैं। उनके भजनों में भक्ति, संगीत, प्रेम और आत्म-समर्पण का सुंदर संगम है। मीरा की कविता भावात्मक, संगीतमय और सरल होने के कारण जन-जन के हृदय में आज भी गूंजती है। उनके भजनों ने भारतीय स्त्री-कविता को नई ऊँचाई दी।
(ग) पठित पदों के आधार पर मीराबाई की भक्ति भावना का निरूपण करो।
उत्तर – पठित पदों से मीराबाई की भक्ति भावना की गहराई स्पष्ट होती है। वे प्रभु श्रीकृष्ण को अपना पति, स्वामी और जीवन का आधार मानती हैं। पहले पद में वे अपने आराध्य के चरणों में आत्मसमर्पण करती हैं और उनसे कृपा, दर्शन और सुध लेने का आग्रह करती हैं। दूसरे पद में वे विरह में तप्त हृदय से श्याम को घर बुलाती हैं और कहती हैं कि उनके बिना जीवन अधूरा है। तीसरे पद में वे संसार के सभी लोगों को राम नाम का रस पीने और कुसंग त्याग कर सत्संग अपनाने की प्रेरणा देती हैं। उनके पदों में भक्त और भगवान के बीच का आत्मिक प्रेम झलकता है, जो भक्ति का सर्वोच्च रूप है।
- सप्रसंग व्याख्या करो :
(क) “मैं तो चरण लगी…..
.. चरण-कमल बलिहार।”
उत्तर – संदर्भ –
यह पद भक्त कवयित्री मीराबाई द्वारा रचित है। इसमें उन्होंने श्रीकृष्ण के चरणों में अपने पूर्ण समर्पण की भावना प्रकट की है।
प्रसंग –
इस पद में मीराबाई कहती हैं कि उन्होंने प्रभु श्रीकृष्ण के चरणों को पकड़ लिया है और अब वह संसार से संबंध तोड़ चुकी हैं।
व्याख्या –
मीरा कहती हैं कि जब उन्होंने प्रभु के चरणों में अपना मन लगाया, तब किसी को इसकी खबर नहीं हुई। लेकिन अब पूरा संसार जान चुका है कि वह श्रीकृष्ण की भक्त हैं। अतः वे प्रभु से प्रार्थना करती हैं कि कृपा करें, दर्शन दें और शीघ्र उनकी सुध लें। मीरा अपने आराध्य के चरणों पर अपने को बलिहार जाती हैं — अर्थात् सम्पूर्ण रूप से समर्पित कर देती हैं। इस पद में गहन भक्ति, आत्मसमर्पण और प्रभु दर्शन की तड़प व्यक्त हुई है।
(ख) “म्हारे घर आवौ ….
राषो जी मेरे माण।”
उत्तर – संदर्भ –
यह पद मीराबाई द्वारा विरह भाव में लिखा गया है। इसमें वे श्रीकृष्ण को प्रेमपूर्वक अपने घर आने का आमंत्रण दे रही हैं।
प्रसंग –
इस पद में मीरा ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण से भावुक याचना की है कि वे शीघ्र उनके पास आएँ क्योंकि उनका मन विरह में अत्यंत दुखी है।
व्याख्या –
मीरा कहती हैं कि सुंदर श्यामजी उनके घर आएँ, क्योंकि उनके बिना वे अपनी सुध-बुध खो चुकी हैं। वे कहती हैं कि जैसे पत्ते सूखकर पीले पड़ जाते हैं, वैसे ही वे पीर और विरह में पीली हो गई हैं। उनका कोई और सहारा नहीं है, केवल प्रभु का ध्यान ही उन्हें जीवन देता है। अतः हे प्रभु! जल्दी आओ और मेरे आत्मसम्मान की रक्षा करो। यह पद मीरा के एकनिष्ठ प्रेम और उनके प्रभु के प्रति अटूट विश्वास को दर्शाता है।
(ग) “राम नाम रस पीजै…….ताहि के रंग में भीजै।”
उत्तर – संदर्भ –
यह पद मीराबाई का उपदेशात्मक भजन है जिसमें उन्होंने समाज को सच्चे मार्ग की ओर प्रेरित किया है।
प्रसंग –
इस पद में मीराबाई सबको प्रभु-भक्ति का संदेश देती हैं और कहती हैं कि राम (कृष्ण) नाम का अमृत-रस पीना ही सच्चा जीवन है।
व्याख्या –
मीरा कहती हैं कि हे मन! राम नाम का रस पियो। कुसंग का साथ छोड़ो और सत्संग अर्थात् संतों का संग में बैठकर प्रभु की चर्चा सुनो। मन में बसे काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि विकारों को बहाकर निकाल दो। तभी तुम प्रभु गिरधर नागर के प्रेम-रंग में भीग सकोगे। यह पद आत्मशुद्धि, सत्संग की महत्ता और ईश्वर-प्रेम की महिमा का सुंदर चित्रण करता है।
भाषा एवं व्याकरण- ज्ञान
- निम्नांकित शब्दों के तत्सम रूप लिखो :-
किरपा, दरसन, आसा, चरचा, श्याम, धरम, किशन, हरख
उत्तर – किरपा – कृपा
दरसन – दर्शन
आसा – आशा
चरचा – चर्चा
श्याम – श्याम (यह पहले से ही तत्सम है)
धरम – धर्म
किशन – कृष्ण
हरख – हर्ष
- वाक्यों में प्रयोग करके निम्नलिखित लगभग समोच्चरित शब्द जोड़ों के अर्थ का अंतर स्पष्ट करो :-
संसार-संचार, चरण-शरण, दिन-दीन, कुल-कूल, कली- कलि, प्रसाद – प्रासाद, अभिराम-अविराम, पवन – पावन
उत्तर – संसार (दुनिया) – संचार (प्रसारण या गति)
संसार का अर्थ है यह भौतिक जगत।
संचार का अर्थ है सूचना या विचारों का आदान-प्रदान या किसी चीज की गति।
वाक्य –
यह संसार सुख-दुःख का मिश्रण है।
मोबाइल ने सूचना के संचार को आसान बना दिया है।
चरण (पाँव) – शरण (आश्रय)
चरण का अर्थ है पाँव या पद।
शरण का अर्थ है शरणागत होना या संरक्षण पाना।
वाक्य –
भक्त प्रभु के चरणों की वंदना करता है।
मुसीबत में मनुष्य ईश्वर की शरण में जाता है।
दिन (समय का भाग) – दीन (गरीब, दुखी)
दिन मतलब सुबह से शाम तक का समय।
दीन का अर्थ है दुखी, असहाय या गरीब व्यक्ति।
वाक्य –
आज का दिन बहुत व्यस्त रहा।
भगवान दीनों की रक्षा करते हैं।
कुल (वंश) – कूल (किनारा)
कुल का अर्थ है वंश या कुलीनता।
कूल का अर्थ है नदी या तालाब का किनारा।
वाक्य –
वह एक सम्मानित कुल में जन्मा है।
वह नदी के कूल पर बैठा गीत गा रहा था।
कली (फूल की कच्ची अवस्था) – कलि (कलियुग)
कली का अर्थ है फूल की कोमल कच्ची अवस्था।
कलि का अर्थ है कलियुग – जो चार युगों में अंतिम है।
वाक्य –
बगिया में गुलाब की कली खिली है।
कलि युग में भक्ति ही मोक्ष का साधन है।
प्रसाद (ईश्वर को अर्पित किया गया पदार्थ) – प्रासाद (महल)
प्रसाद का अर्थ है ईश्वर को चढ़ाया गया पवित्र भोजन।
प्रासाद का अर्थ है महल या भवन।
वाक्य –
मंदिर से प्रसाद लाया गया है।
राजा के प्रासाद की भव्यता अद्भुत है।
अभिराम (सुंदर, मनोहर) – अविराम (बिना रुके)
अभिराम का अर्थ है रमणीय, सुंदर।
अविराम का अर्थ है जो रुकता नहीं, निरंतर।
वाक्य –
वह एक अभिराम दृश्य था।
बारिश अविराम हो रही है।
पवन (हवा) – पावन (पवित्र)
पवन का अर्थ है वायु।
पावन का अर्थ है पवित्र या शुद्ध।
वाक्य –
सुबह की पवन मन को ताजगी देती है।
यह मंदिर बहुत पावन स्थल है।
- निम्नलिखित शब्दों के लिंग परिवर्तन करो :-
कवि, अधिकारिणी, बालिका, दादा, पति, भगवान, भक्तिन
उत्तर – उत्तर – कवि – पुल्लिंग – कवयित्री (स्त्रीलिंग)
अधिकारिणी – स्त्रीलिंग – अधिकारी (पुल्लिंग)
बालिका – स्त्रीलिंग – बालक (पुल्लिंग)
दादा – पुल्लिंग – दादी (स्त्रीलिंग)
पति – पुल्लिंग – पत्नी (स्त्रीलिंग)
भगवान – पुल्लिंग – भगवती / देवी (स्त्रीलिंग)
भक्तिन – स्त्रीलिंग – भक्त (पुल्लिंग)
- विलोमार्थक शब्द लिखो :
पूर्ण, सजीव, प्राचीन, कोमल, अपना विरोध, मिथ्या, कुसंग, सुंदर, अपमान, गुप्त, आनंद
उत्तर – पूर्ण – अपूर्ण / अधूरा
सजीव – निर्जीव
प्राचीन – नवीन / आधुनिक
कोमल – कठोर / सख़्त
अपना विरोध – अपना समर्थन
मिथ्या – सत्य
कुसंग – सत्संग
सुंदर – कुरूप / बदसूरत
अपमान – सम्मान
गुप्त – प्रकट / खुला
आनंद – दुःख / शोक
- निम्नलिखित शब्दों के वचन परिवर्तन करो :-
कविता, निधि, कवि, पौधा, कलम, औरत, सखी, बहू
उत्तर – कविता – कविताएँ
निधि – निधियाँ
कवि – कविगण
पौधा – पौधे
कलम – कलम
औरत – औरतें
सखी – सखियाँ
बहू – बहुएँ
योग्यता- विस्तार
- कवयित्री मीराबाई द्वारा विरचित निम्नलिखित पदों को समझने एवं गाने का प्रयास करो:-
(क) पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी म्हारे सत गुरु किरपा करि अपनायो।
जनम जनम की पूँजी, जग में सभी खोवायो।
खरचै नहीं कोई चोर न लेवै, दिन-दिन बढ़त सवायो।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तर आयो।
मीरों के प्रभु गिरधर नागर, हरख हरख हरख जस गायो।
उत्तर – यह पद भक्त कवयित्री मीराबाई द्वारा रचित एक अत्यंत प्रसिद्ध भक्ति गीत है जिसमें वे प्रभु श्रीराम के नाम को अमूल्य रत्नों के समान बताती हैं।
मीरा कहती हैं कि —
उन्हें राम नाम रूपी रत्न-धन प्राप्त हुआ है, जो अनमोल है। यह अमूल्य वस्तु उन्हें उनके सतगुरु की कृपा से प्राप्त हुई है। यह ऐसी पूँजी है जो अनेक जन्मों की साधना से प्राप्त होती है और संसार के लोग इसे नहीं पहचानते, इसलिए इसे खो बैठते हैं। यह राम नाम-धन ऐसा है जिसे न कोई चुरा सकता है, न समाप्त किया जा सकता है, बल्कि यह दिन-ब-दिन बढ़ता ही जाता है। सच्चे गुरु की कृपा से ही यह नामरूपी नौका मिलती है, जो संसार रूपी सागर से पार लगाती है। अंत में मीरा प्रसन्न होकर अपने प्रभु गिरधर नागर की आनंदपूर्वक स्तुति करती हैं।
मुख्य संदेश –
राम-नाम की भक्ति सबसे अमूल्य धन है, जो सच्चे गुरु की कृपा से प्राप्त होता है और जीवन को पूर्णता प्रदान करता है।
(ख) माई म्हें गोविंदो लीन्हो मोल।
कोई कहै सस्तो, कोई कहै महंगो, लीनो तराजू तोल।
कोई कहै घर में कोई कहै बन में, राधा के संग किलोल।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, आवत प्रेम के मोल।
उत्तर – इस पद में कवयित्री मीराबाई प्रभु श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम और समर्पण को भावपूर्ण ढंग से व्यक्त करती हैं।
मीरा कहती हैं कि —
मैंने अपने प्रभु गोविंद (कृष्ण) को प्रेम से खरीदा है। कुछ लोग कहते हैं कि यह सौदा सस्ता है, कुछ कहते हैं कि महँगा है — पर मीरा कहती हैं कि मैंने इसे प्रेम की तराजू में तौल कर खरीदा है। कोई कहता है कि गोविंद घर में हैं, कोई कहता है कि बन (वन) में हैं, लेकिन वे तो राधा के संग प्रेम क्रीड़ा में लगे हैं। मीरा अंत में कहती हैं कि मेरे प्रभु गिरधर नागर तो केवल प्रेम के मोल पर ही आते हैं, उन्हें धन या वैभव से नहीं पाया जा सकता।
मुख्य संदेश –
प्रभु श्रीकृष्ण को पाने का एकमात्र मार्ग है निश्छल प्रेम और भक्ति। उन्हें पाने के लिए धन नहीं, प्रेम चाहिए।
(ग) मैं गिरधर के घर जाऊँ।
गिरधर म्हारों साँचों प्रीतम, देखत रूप लुभाऊँ।
रैण पड़ै तब ही उठि जाऊँ, भोर भये उठि आऊँ।
रैण दिना वाके संग खेलूँ ज्यूँ त्यूँ वाहि लुभाऊँ।
जो पहिरावै सोई पहिरुं, जो दे सोई खाऊँ।
मेरी उणकी प्रीत पुराणी, उण विण पल न रहाऊँ।
जहँ बैठावे तितही बैठूं बेचे तो बिक जाऊँ।
मीरों के प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलि जाऊँ॥
उत्तर – इस पद में भक्त कवयित्री मीराबाई अपने आराध्य प्रभु श्रीकृष्ण (गिरधर) के प्रति गहन प्रेम, पूर्ण समर्पण और निस्वार्थ भक्ति को व्यक्त करती हैं।
मीरा कहती हैं कि —
मैं तो अब अपने गिरधर के घर जा रही हूँ। वही मेरे सच्चे प्रीतम हैं और उनका रूप देखकर मैं मोहित हो जाती हूँ। रात हो या सुबह — जैसे ही समय मिले, मीरा प्रभु के पास पहुँच जाती हैं। दिन-रात वह उन्हीं के साथ रहना चाहती हैं, उनके साथ खेलना, प्रेम करना चाहती हैं। वे कहती हैं कि प्रभु जो पहनाएँगी, वही पहनूँगी; जो दें, वही खाऊँगी। मीरा का प्रेम प्रभु गिरधर से बहुत पुराना है — वे उनके बिना एक पल भी नहीं रह सकतीं। वो जहाँ बिठाएँगे, वहीं बैठूँगी, और अगर बेचेंगे तो बिना झिझक बिक भी जाऊँगी। अंत में मीरा अपने प्रभु गिरधर नागर पर बार-बार बलिहार जाती हैं।
मुख्य संदेश –
इस पद में अनन्य प्रेम, पूर्ण समर्पण, और प्रभु पर निर्भरता का भाव प्रकट हुआ है। यह सिखाता है कि सच्ची भक्ति में स्वयं का अहं मिटाकर ईश्वर के प्रति समर्पण ही सबसे बड़ा सुख है।
- कवयित्री मीराबाई के पदों में निहित संदेशों की प्रासंगिकता पर कक्षा में चर्चा करो।
उत्तर – कक्षा चर्चा विषय: कवयित्री मीराबाई के पदों में निहित संदेशों की प्रासंगिकता पर मुख्य चर्चा के बिंदु –
एकनिष्ठ भक्ति और समर्पण – मीराबाई के पद हमें यह सिखाते हैं कि जब प्रेम और भक्ति सच्चे हृदय से की जाए, तो वह भगवान तक अवश्य पहुँचती है। आज के युग में भी सच्ची आस्था की आवश्यकता है।
आंतरिक शांति की खोज – मीराबाई संसारिक सुखों को अस्थायी मानती थीं और आत्मिक आनंद को श्रेष्ठ। आज की भागदौड़ भरी दुनिया में यह सीख बहुत प्रासंगिक है।
साहस और आत्मबल – मीराबाई ने समाज के विरोध और यातनाओं के बावजूद अपने विश्वास को नहीं छोड़ा। यह हमें प्रेरणा देता है कि सच्चाई और विश्वास के लिए डटे रहना चाहिए।
सत्संग और सदाचरण का महत्त्व – उन्होंने कुसंग को त्यागने और सत्संग अपनाने का संदेश दिया, जो आज की पीढ़ी को अच्छे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।
सामाजिक बंधनों से मुक्ति – मीराबाई ने परंपराओं और सामाजिक बंधनों के विरुद्ध खड़े होकर अपनी राह चुनी। यह स्वतंत्र सोच और आत्मनिर्णय का सुंदर उदाहरण है।
निष्कर्ष –
मीराबाई के पद न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से समृद्ध हैं, बल्कि वे आज के समय में नैतिक शिक्षा, आत्मबल, नारी शक्ति और आत्मिक शांति की प्रेरणा भी देते हैं।
- अपने पति भोजराज की मृत्यु के पश्चात् राजपूतों की प्रचलित परंपरा का विरोध करते हुए मीराबाई सती नहीं हुई थीं। सती प्रथा के बारे में जानकारी एकत्र करो।
उत्तर – सती प्रथा के बारे में जानकारी –
सती प्रथा प्राचीन भारत की एक सामाजिक कुप्रथा थी, जिसमें किसी स्त्री को उसके पति की मृत्यु के बाद पति की चिता पर स्वयं को जीवित जलाकर बलिदान देना पड़ता था। यह प्रथा विशेष रूप से राजपूत समुदाय में प्रचलित थी और इसे वीरता, निष्ठा तथा पतिव्रता धर्म का प्रतीक माना जाता था।
इस प्रथा की प्रमुख तथ्य –
यह प्रथा स्वेच्छा और सामाजिक दबाव — दोनों ही रूपों में चलती थी।
सती होने वाली स्त्रियों को ‘पवित्र’ और ‘आदर्श नारी’ माना जाता था।
कई बार महिलाओं को जबरदस्ती सती बनाया जाता था, खासकर संपत्ति या सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण।
यह प्रथा स्त्री स्वतंत्रता, जीवन और मानवाधिकारों का उल्लंघन थी।
सती प्रथा का विरोध –
समाज सुधारकों जैसे राजा राममोहन राय ने इस अमानवीय प्रथा का कठोर विरोध किया।
ब्रिटिश सरकार ने 1829 में इसे कानूनी रूप से प्रतिबंधित कर दिया।
मीराबाई इस प्रथा का पहला ऐतिहासिक विरोध करने वाली साहसी महिला मानी जाती हैं। उन्होंने पति भोजराज की मृत्यु के बाद सती होने से मना कर दिया और ईश्वर-भक्ति के मार्ग पर चल पड़ीं।
निष्कर्ष –
सती प्रथा एक क्रूर सामाजिक परंपरा थी, जिसे समाज सुधारकों और कानून के प्रयासों से समाप्त किया गया। मीराबाई जैसी महिलाओं ने इसे अस्वीकार कर महिलाओं के आत्मसम्मान और स्वतंत्रता की नई राह बनाई।