दाज्यू
चौक से निकल कर बायीं ओर जो बड़े साइनबोर्डवाला छोटा कैफे है, वहीं जगदीशबाबू ने उसे पहली बार देखा था। गोरा चिट्टा रंग, नीली शफ्फ़ाफ़ आँखें, सुनहरे बाल और चाल में एक अनोखी मस्ती – पर शिथिलता नहीं। कमल के पत्ते पर फिसलती हुई पानी की बूँद की सी फुर्ती। आँखों की चंचलता देखकर उसकी उम्र का अनुमान केवल नौ-दस वर्ष ही लगाया जा सकता था और शायद यही उम्र उसकी रही होगी।
अधजली सिगरेट का एक लम्बा कश खींचते हुए जब जगदीशबाबू ने कैफे में प्रवेश किया तो वह एक मेज पर से प्लेटें उठा रहा था और जब वे पास ही कोने की टेबल पर बैठे तो वह सामने था। मानो, घंटों से उनकी, उस स्थान पर आनेवाले व्यक्ति की प्रतीक्षा कर रहा हो। वह कुछ बोला नहीं। हाँ, नम्रता प्रदर्शन के लिए थोड़ा झुका और मुस्कुराया भर था, पर उसके इसी मौन में जैसे सारा ‘मीनू’ समाहित था।‘सिंगल चाय’का आर्डर पाने पर वह एक बार पुनः मुस्करा कर चल दिया और पलक झपकते ही चाय हाज़िर थी।
मनुष्य की भावनाएँ बड़ी विचित्र होती है। निर्जन, एकांत स्थान में निस्संग होने पर भी कभी-कभी आदमी एकाकी अनुभव नहीं करता। लगता है, इस एकाकीपन में भी सब कुछ कितना निकट है, कितना अपना है। परंतु इसके विपरीत कभी-कभी सैकड़ों नर-नारियों के बीच जनरवमय वातावरण में रह कर भी सूनेपन की अनुभूति होती है। लगता है, जो कुछ है वह पराया है, कितना अपनत्वहीन ! पर यह अकारण ही नहीं होता। इस एकाकीपन की अनुभूति, इस अलगाव की जड़ें होती हैं- विछोह या विरक्ति की किसी कथा के मूल में।
जगदीशबाबू दूर देश से आये हैं, अकेले हैं। चौक की चहल-पहल कैफ़े के शोरगुल में उन्हें लगता है, सब कुछ अपनत्वहीन है। शायद कुछ दिनों रहकर, अभ्यस्त हो जाने पर उन्हें इसी वातावरण में अपनेपन की अनुभूति होने लगे, पर आज तो लगता है यह अपना नहीं अपनेपन की सीमा से दूर, कितना दूर है, और तब उन्हें अनायास ही याद आने लगते हैं, अपने गाँव पड़ोस के आदमी, स्कूल-कालेज के छोकरे, अपने निकट शहर के कैफे होटल…।
“चाय साब !”
जगदीशबाबू ने राखदानी में सिगरेट झाड़ी। उन्हें लगा, इन शब्दों की ध्वनि में वही कुछ है जिसकी रिक्तता उन्हें अनुभव हो रही है और उन्होंने अपनी शंका का समाधान कर लिया-
‘क्या नाम है तुम्हारा?”
‘मदन।’
‘अच्छा, मदन! तुम कहाँ के रहनेवाले हो?’
‘पहाड़ का हूँ, बाबूजी!’
पहाड़ तो सैकड़ों है- आबू, दार्जिलिंग, मसूरी, शिमला, अल्मोड़ा! तुम्हारा गाँव किस पहाड़ में है?’
इस बार शायद उसे पहाड़ और जिले का भेद मालूम हो गया। मुस्करा कर बोला-
“अल्मोड़ा सा’ब अल्मोड़ा।”
“अल्मोड़ा मैं कौन – सा गाँव है?”विशेष जानने की गरज से जगदीशबाबू ने पूछा।
इस प्रश्न ने उसे संकोच में डाल दिया। शायद अपने गाँव की निराली संज्ञा के कारण उसे संकोच हुआ था। इस कारण टालता हुआ सा बोला, वह तो दूर है सा’ब अल्मोड़ा से पंद्रह-बीस मील होगा।’
“फिर भी नाम तो कुछ होगा ही।” जगदीशबाबू ने जोर देकर पूछा।
‘डोट्यालगों’ वह सकुचाता हुआ सा बोला।
जगदीशबाबू के चेहरे पर पुती हुए एकाकीपन की स्याही दूर हो गयीं और जब उन्होंने मुस्करा कर मदन को बताया कि वे भी उसके निकटवर्ती गाँव के रहनेवाले हैं तो लगा जैसे प्रसन्नता के कारण अभी मदन के हाथ से ‘ट्रे’ गिर पड़ेगी। उसके मुँह से शब्द निकलना चाह कर भी न निकल सके। खोया-खोया सा वह अपने अतीत को फिर लौट लौट कर देखने का प्रयत्न कर रहा हो।
अतीत-गाँव… ऊँची पहाड़ियाँ… नदी… ईजा (माँ)…बाबा… दीदी… भुलि (छोटी बहन)… दाज्यू (बड़ा भाई)… ! मदन को जगदीशबाबू के रूप में किसकी छाया निकट जान पड़ी! ईजा?- नहीं, बाबा? नहीं, दीदी, … भुलि? नहीं, दाज्यू? हाँ, दाज्यू !
दो-चार ही दिनों में मदन और जगदीशबाबू के बीच की अजनबीपन की खाई दूर हो गयी। टेबल पर बैठते ही मदन का स्वर सुनाई देता-
‘दाज्यू, जैहिन्न…।’
‘दाज्यू, आज तो ठंड बहुत है।’
‘दाज्यू, क्या यहाँ भी ‘ह्यू’ (हिम) पड़ेगा?’
‘दाज्यू, आपने तो कल बहुत थोड़ा खाना खाया।’ तभी किसी ओर से ‘बॉय’ की आवाज़ पड़ती और मदन उस आवाज़ की प्रतिध्वनि के पहुँचने से पहले ही वहाँ पहुँच जाता! आर्डर लेकर फिर जाते जाते जगदीशबाबू से पूछता, दाज्यू, कोई चीज?”
‘पानी लाओ।’
‘लाया दाज्यू’ शब्द को उतनी ही आतुरता और लगन से दुहराता जितनी आतुरता से बहुत दिनों के बाद मिलने पर भी माँ अपने बेटे को चूमती है।
कुछ दिनों बाद जगदीशबाबू का एकाकीपन दूर हो गया। उन्हें अब चौक, कैफे ही नहीं सारा शहर अपनेपन के रंग में रंगा हुआ सा लगने लगा परंतु अब उन्हें यह बार- बार ‘दाज्यू’ कहलाना अच्छा नहीं लगता और यह मदन था कि दूसरी टेबल से भी ‘दाज्यू’…।
‘मदन! इधर आओ।’
‘आया दाज्यू !’
‘दाज्यू’ शब्द की आवृत्ति पर जगदीशबाबू के मध्यमवर्गीय संस्कार जाग उठे अपनत्व की पतली डोरी ‘अहं’ की तेज धार के आगे न टिक सकी।
‘दाज्यू’, चाय लाऊँ?”
“चाय नहीं, लेकिन यह दाज्यू- दाज्यू क्या चिल्लाते रहते हो दिन रात किसी की प्रेस्टिज का ख्याल भी नहीं है तुम्हें?”
जगदीशबाबू का मुँह क्रोध के कारण तमतमा गया, शब्दों पर अधिकार नहीं रह सका। मदन ‘प्रेस्टिज’ का अर्थ समझ सकेगा या नहीं, यह भी उन्हें ध्यान नहीं रहा, पर मदन बिना समझाये ही सब कुछ समझ गया था। मदन को जगदीशबाबू के व्यवहार से गहरी चोट लगी। मैनेजर से सिरदर्द का बहाना कर वह घुटनों में सर दे कोठरी में सिसकियाँ भर-भर रोता रहा। घर-गाँव से दूर ऐसी परिस्थिति में मदन का जगदीशबाबू के प्रति आत्मीयता प्रदर्शन स्वाभाविक ही था। इसी कारण आज प्रवासी जीवन में पहली बार उसे लगा जैसे किसी ने उसे ईजा की गोदीं से, बाबा की बाँहों के और दीदी के आँचल की छाया से बलपूर्वक खींच लिया हो परंतु भावुकता स्थायी नहीं हो तो रो लेने पर अंतर की घुमड़ती वेदना की आँखों की राह बाहर निकाल लेने पर मनुष्य जो भी निश्चय करता है वे भावुक क्षणों की अपेक्षा अधिक विवेकपूर्ण होते हैं।
मदन पूर्ववत् काम करने लगा।
दूसरे दिन कैफे जाते हुए अचानक ही जगदीशबाबू की भेंट बचपन के सहपाठी हेमंत से हो गयी। कैफे में पहुँच कर जगदीशबाबू ने इशारे से मदन को बुलाया परंतु उन्हें लगा जैसे वह उनसे दूर-दूर रहने का प्रयत्न कर रहा हो। दूसरी बार बुलाने पर ही मदन आया। आज उसके मुँह पर वह मुस्कान न थी और न ही उसने ‘क्या लाऊँ दाज्यू’ कहा। स्वयं जगदीशबाबू को ही कहना पड़ा, ‘दो चाय, दो ऑमलेट’ परंतु तब भी ‘लाया दाज्यू’ कहने की अपेक्षा ‘लाया साब’ कहकर वह चल दिया। मानों दोनों अपरिचित हों।
‘शायद पहाड़िया है?’ हेमंत ने अनुमान लगाकर पूछा।
‘हाँ’, रूखा-सा उत्तर दे दिया जगदीशबाबू ने और वार्तालाप का विषय ही बदल दिया।
मदन चाय ले आया था।
‘क्या नाम है तुम्हारा लड़के?”हेमन्त ने अहसान चढ़ाने की गरज से पूछा।
कुछ क्षणों के लिए टेबुल पर गंभीर मौन छा गया। जगदीशबाबू की आँखें चाय की प्याली पर ही झुकी रह गयीं। मदन की आँखों के सामने विगत स्मृतियाँ घूमने लगीं… जगदीशबाबू का एक दिन ऐसे ही नाम पूछना … फिर… दाज्यू आपने तो कल थोड़ा ही खाया और एक दिन किसी की प्रेस्टिज का ख्याल नहीं रहता तुम्हें… ‘ जगदीशबाबू ने आँखें उठाकर मदन की ओर देखा, उन्हें लगा जैसे अभी वह ज्वालामुखीं सा फूट पड़ेगा। हेमंत ने आग्रह के स्वर में दुहराया, ‘क्या नाम है तुम्हारा?”
बॉय कहते हैं सा’ब मुझे। संक्षिप्त सा उत्तर देकर वह मुड़ गया। आवेश में उसका चेहरा लाल होकर और भी अधिक सुंदर हो गया था।
लेखक परिचय
शेखर जोशी
शेखर जोशी का जन्म 10 सितंबर 1932 को अल्मोड़ा (उत्तरांचल) के ओलियागाँव नामक स्थान पर हुआ। आपने केकड़ी एवं अजमेर में स्कूली शिक्षा प्राप्त की। लगभग तीस वर्षों तक इलाहाबाद के निकट एक सैनिक औद्योगिक प्रतिष्ठान में कार्यरत रहने के बाद आप स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। आपके चर्चित कहानीसंग्रह हैं ‘कोसी का घटवार’,’साथ के लोग’,’दाज्यू’,’हलवाहा’ एवं ‘नौरंगी बीमार है’। आपकी आदमी और कीड़े कहानी को 1955 में धर्मयुग द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया। नई कहानी आंदोलन के चर्चित कथाकार ‘महावीरप्रसाद द्विवेदी पुरस्कार’ और ‘पहल’सम्मान से सम्मानित।
‘दाज्यू’ कहानी परिचय
दाज्यू कहानी बाल-श्रमिक पर लिखी गई कहानी है। मदन एक पहाड़ी बालक है, जो पेट की आग बुझाने के लिए शहर में आकर एक होटल में काम करता है। भोलेपन में जिसे वह अपना ‘दाज्यू’अर्थात् बड़ा भाई समझने लगता है, वही किस प्रकार एक दिन उसके बाल मन पर आघात कर जाता है, इसका मार्मिक चित्रण इस कहानी में हुआ है।
‘दाज्यू’ एक संवेदनशील और भावनात्मक कहानी है, जो मानव संबंधों की आत्मीयता बनाम औपचारिकता के बीच की गहराई को दर्शाती है। यह कहानी हमें बताती है कि एक नए शहर में अकेलेपन से जूझ रहे व्यक्ति को कैसे एक छोटे बालक की निश्छल आत्मीयता अपनत्व का अनुभव कराती है, परंतु सामाजिक प्रतिष्ठा और औपचारिकता का बोझ उस रिश्ते को तोड़ देता है।
मुख्य विषयवस्तु
- आत्मीयता बनाम औपचारिकता
- रिश्तों में अपनत्व और दूरी
- प्रवासी जीवन की पीड़ा
- मासूम भावनाओं की अनदेखी
- प्रतिष्ठा और अहं के टकराव
मुख्य प्रतीक
- ‘दाज्यू‘ शब्द आत्मीयता का प्रतीक है।
- ‘बॉय‘ शब्द औपचारिकता और दूरी का प्रतिनिधित्व करता है।
वैचारिक बिन्दु
यह कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम रिश्तों में सच्चे अपनत्व को सामाजिक प्रतिष्ठा की आड़ में खोते जा रहे हैं?
- जगदीशबाबू
- परिचय: एक मध्यमवर्गीय, संवेदनशील व्यक्ति जो किसी काम के सिलसिले में अपने गाँव-घर से दूर शहर आया है।
- प्रवृत्ति: एकाकी, विचारशील, भावुक, परंतु सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रति सचेत।
- भावनात्मक यात्रा:
पहले वह अकेलापन महसूस करता है।
मदन की आत्मीयता से उसका अकेलापन कम होता है।
लेकिन जब मदन बार-बार ‘दाज्यू’ कहता है, तो वह ‘प्रेस्टिज’ के कारण क्रोधित हो जाता है।
अंततः पछताता है, लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है।
- मदन
- परिचय: एक 9-10 वर्षीय पहाड़ी बालक, जो अल्मोड़ा के निकट गाँव ‘डोट्यालगों’ से शहर काम करने आया है।
- प्रवृत्ति: चंचल, फुर्तीला, आत्मीय, अपनेपन से भरपूर।
- भावनात्मक जुड़ाव:
जगदीशबाबू से आत्मीयता अनुभव करता है और उन्हें ‘दाज्यू’ (बड़े भाई) कहकर पुकारता है।
जब जगदीशबाबू उसे डाँटते हैं, तो भावनात्मक रूप से टूट जाता है।
अंततः वह खुद को ‘बॉय’ कहकर संबोधित करता है — जो उसकी मासूमियत से परिपक्वता तक की पीड़ा दर्शाता है।
- मैनेजर (प्रबंधक)
परिचय: कैफ़े का प्रबंधक, जो मदन के कामकाज से संबंधित है।
भूमिका: प्रत्यक्ष संवाद कम है, लेकिन जब मदन रोता है, तो उससे सिरदर्द का बहाना कर काम से हटने देता है।
- हेमंत
परिचय: जगदीशबाबू का बचपन का सहपाठी, जो शहर में उनसे अचानक मिलता है।
भूमिका: छोटी लेकिन महत्त्वपूर्ण — उसके सवाल पर ही मदन का वह संवाद आता है: “बॉय कहते हैं सा’ब मुझे।”
‘दाज्यू’ कहानी का विस्तृत सार
परिचय –
‘दाज्यू’ कहानी लेखक की मानवीय संवेदनाओं को बहुत गहराई और मार्मिकता से प्रस्तुत करती है। यह कहानी एक प्रवासी जीवन की ऊहापोह, अपनत्व और सामाजिक प्रतिष्ठा के टकराव, और भावनात्मक संबंधों की टूटन को दर्शाती है। इसमें मुख्य पात्र हैं – जगदीशबाबू, एक प्रवासी, और मदन, एक पहाड़ी लड़का जो एक कैफे में वेटर का काम करता है।
कहानी का आरंभ –
कहानी की शुरुआत चौक के एक छोटे कैफे से होती है, जहाँ जगदीशबाबू पहली बार मदन को देखते हैं। उसका गोरा रंग, नीली आँखें, सुनहरे बाल और चंचल चाल उसे विशेष बना देते हैं। उसकी उम्र लगभग नौ-दस वर्ष की लगती है। वह तेज़-तर्रार, मृदुभाषी और अपने काम के प्रति समर्पित है।
जब जगदीशबाबू चाय का ऑर्डर देते हैं, तो वह बिना कुछ कहे मुस्कुरा कर काम कर जाता है, और चाय तुरंत हाज़िर कर देता है। इस छोटे से व्यवहार में ही मदन की विनम्रता और फुर्ती झलकती है।
जगदीशबाबू की मन:स्थिति –
जगदीशबाबू अकेले हैं, और प्रवासी जीवन के कारण उनमें एक गहरा एकाकीपन बस गया है। कैफे की भीड़ और शहर की चहल-पहल के बीच भी वे स्वयं को अलग-थलग महसूस करते हैं। उन्हें अपने गाँव, बचपन, स्कूल, दोस्तों की याद सताने लगती है। तभी वह मदन से बात करना शुरू करते हैं।
पहचान और अपनापन –
जगदीशबाबू मदन से उसके गाँव के बारे में पूछते हैं। पहले तो मदन संकोच करता है, पर फिर बताता है कि वह अल्मोड़ा जिले के डोट्यालगों गाँव से है। यह जानकर जगदीशबाबू भावुक हो जाते हैं, क्योंकि वे भी उसी क्षेत्र से हैं। एक आत्मीय संबंध बनता है। मदन अब उन्हें “दाज्यू” (बड़े भाई) कहकर पुकारता है – जो पहाड़ी लोगों की आत्मीयता भरी भाषा है।
इसके बाद दोनों के बीच रिश्तों की गहराई बढ़ने लगती है। मदन हर बात में अपनापन दिखाता है – चाय देने से पहले हाल पूछना, ठंड का ज़िक्र करना, खाने की मात्रा पर ध्यान देना – जैसे वह अपना सगा भाई हो।
संवेदनाओं में दरार –
परंतु कुछ समय बाद जब जगदीशबाबू के भीतर का मध्यमवर्गीय अहंकार जागता है, तो वे सार्वजनिक स्थान पर बार-बार ‘दाज्यू’ कहे जाने को अपनी “प्रेस्टिज” पर आघात समझते हैं। क्रोधित होकर वे मदन को डाँटते हैं – “दाज्यू-दाज्यू क्या चिल्लाते रहते हो? किसी की प्रेस्टिज का ख्याल नहीं?”
यह सुनकर मदन गहराई से आहत होता है। उस पर तो मानो जगदीश बाबू की कठोर वाणी का वज्रपात हो गया हो। वह मैनेजर से सिरदर्द का बहाना कर एक कोने में जाकर रोता है – क्योंकि उसके लिए ‘दाज्यू’ शब्द में अपनत्व और परिवार था। आज उसे लगता है जैसे कोई उसे फिर से उसके ईजा, बाबा, दीदी, भुलि – उसके गाँव की आत्मीयता – से अलग कर रहा हो।
भावनात्मक टूटन और परिवर्तन –
कुछ देर रो लेने के बाद मदन संयमित हो जाता है और फिर से पूर्ववत् काम करने लगता है। लेकिन अब उसका व्यवहार बदल चुका होता है।
एक दिन जगदीशबाबू का मित्र हेमंत कैफे में आता है। वे मदन को बुलाते हैं, लेकिन वह दूर-दूर रहता है। अब वह ‘दाज्यू’ नहीं कहता, बल्कि ‘साब’ कहता है। उसकी मुस्कान भी गायब हो चुकी होती है।
‘क्या नाम है तुम्हारा लड़के? ”हेमन्त ने अहसान चढ़ाने की गरज से पूछा।
कुछ क्षणों के लिए टेबुल पर गंभीर मौन छा गया। जगदीशबाबू की आँखें चाय की प्याली पर ही झुकी रह गईं। मदन की आँखों के सामने विगत स्मृतियाँ घूमने लगीं… जगदीशबाबू का एक दिन ऐसे ही नाम पूछना … फिर… दाज्यू आपने तो कल थोड़ा ही खाया और एक दिन किसी की प्रेस्टिज का ख्याल नहीं रहता तुम्हें… ‘ जगदीशबाबू ने आँखें उठाकर मदन की ओर देखा, उन्हें लगा जैसे अभी वह ज्वालामुखीं-सा फूट पड़ेगा। हेमंत ने आग्रह के स्वर में दुहराया, ‘क्या नाम है तुम्हारा?”
बॉय कहते हैं सा’ब मुझे। संक्षिप्त सा उत्तर देकर वह मुड़ गया। आवेश में उसका चेहरा लाल होकर और भी अधिक सुंदर हो गया था।
यह वाक्य एक साधारण उत्तर नहीं, बल्कि उसकी टूटी हुई आत्मा की झलक है। अब वह केवल एक वेटर है – न कोई दाज्यू है, न कोई अपना। वह अपनी पहचान खो चुका है।
निष्कर्ष –
यह कहानी एक गहरी सामाजिक और भावनात्मक टिप्पणी है। यह दर्शाती है कि कैसे सामाजिक प्रतिष्ठा, औपचारिकता और अहंकार सच्चे अपनत्व को कुचल सकते हैं।
मदन मासूम बालक है, जो अपनापन खोजता है, पर शहर की रूखी औपचारिकता से उसे अस्वीकार कर दिया जाता है।
जगदीशबाबू स्वयं अपनत्व के भूखे होते हुए भी, सामाजिक दिखावे के कारण उस आत्मीय संबंध को खो बैठते हैं।
कहानी एक सशक्त प्रश्न छोड़ जाती है – क्या आज की दुनिया में अपनत्व, मासूमियत और सादगी के लिए कोई जगह बची है?
मुख्य विषयवस्तु
- आत्मीयता बनाम औपचारिकता
मदन, एक पहाड़ी लड़का, जब जगदीशबाबू को अपने जैसे गाँव से आया पाकर आत्मीय संबोधन ‘दाज्यू’ कहता है, तो उसमें एक निष्कलुष आत्मीयता का भाव झलकता है। पर जगदीशबाबू धीरे-धीरे इस संबोधन को असहज महसूस करने लगते हैं, जब उनकी “प्रेस्टिज” का प्रश्न आता है। यही क्षण इस कहानी का संवेदनात्मक बिंदु है – जहाँ सच्चे अपनत्व को ‘सोशल स्टेटस’ की दीवारें तोड़ देती हैं।
- प्रवास और जड़ें
जगदीशबाबू और मदन दोनों ही अपने गाँव से दूर महानगर में प्रवासी के रूप में रहते हैं। लेकिन जहाँ मदन अपने गाँव की स्मृतियों से जुड़कर आत्मीयता ढूँढता है, वहीं जगदीशबाबू उस अपनत्व से धीरे-धीरे कतराने लगते हैं। यह कहानी एक प्रवासी के आत्मविरोधाभास को उजागर करती है – जो अपनेपन को चाहता तो है, पर जब वह सामने आता है, तो उसका वहन और सहन नहीं कर पाता। इसके पीछे मदन का एक कैफे में वेटर के तौर पर काम करना भी शामिल है।
- बालक मदन का मानसिक परिपक्वता
कहानी का सबसे मार्मिक और सशक्त पहलू मदन का चरित्र है – उसका भोलापन, अपनापन, फिर उसके भोलेपन, अपनेपन का चोटिल होना, और अंत में एक आत्म-सम्मानपूर्ण चुप्पी में सिमटना। कहानी के अंत में जब वह अपना नाम पूछे जाने पर कहता है “बॉय कहते हैं साब मुझे”, तब यह संवाद पूरे भाव-पटल पर जैसे एक करारा तमाचा बनकर उभरता है – जो संवेदनहीन सभ्यता पर प्रश्नचिह्न लगा देता है।
प्रमुख प्रतीक
- दाज्यू– केवल एक संबोधन नहीं, बल्कि पहाड़ी संस्कृति की आत्मीयता, अपनापन, भाईचारे का प्रतीक।
- प्रेस्टिज– मध्यमवर्गीय मानसिकता का प्रतिनिधि जो सार्वजनिक छवि को आत्मीय संबंधों पर हावी कर देता है।
- बॉय कहते हैं साब मुझे– यह वाक्य पहचान के गुम हो जाने का प्रतीक है – जैसे मदन ने अपनी अस्मिता को ही खो दिया हो।
शैली और भाषा
- संवेदनात्मक शैली– कहानी में भावनाओं का प्रवाह सहज, स्वाभाविक और गहरे स्तर तक उतरनेवाला है।
- संवादात्मक सादगी– संवादों के माध्यम से ही चरित्रों की गहराई और उनके मनोद्वंद्व को लेखक ने प्रभावी रूप से उभारा है।
- प्राकृतिक चित्रण– गाँव, पहाड़, रिश्ते – सभी कुछ बेहद सजीव रूप में प्रस्तुत हैं।
प्रमुख संवाद –
- “दाज्यू, जैहिन्न…”
- “दाज्यू, आपने तो कल बहुत थोड़ा खाना खाया।”
- “किसी की प्रेस्टिज का ख्याल भी नहीं है तुम्हें?”
- “बॉय कहते हैं साब मुझे।”
निष्कर्ष
‘दाज्यू’ एक ऐसी कहानी है जो मानव संबंधों की उस दरार को दर्शाती है जो आधुनिकता, औपचारिकता और सामाजिक प्रतिष्ठा की दीवारों से बनती है। यह कहानी उस मासूमियत की हत्या की तरह है जो रिश्तों को केवल दिल से देखती है, दिमाग से नहीं।
मदन का मौन अंत में सबसे अधिक बोलता है – यह मौन तिरस्कार, समझ और आत्मसम्मान तीनों का प्रतिनिधि है।
वैचारिक बिंदु
‘पत्नी’ एक सशक्त मनोवैज्ञानिक कहानी है, जो निजी जीवन और सामाजिक आदर्शों के द्वंद्व को बारीकी से दिखाती है। यह स्त्री के मौन को स्वर देती है, जो केवल सेवा और समर्पण नहीं, बल्कि सोच, भाव और गरिमा से भी भरी है।
यह कहानी एक प्रश्न की तरह है—
“देश की आज़ादी के लिए क्या घर की स्त्रियों की मौन कुर्बानियाँ भी गिनी जाएँगी?”
‘पत्नी’ केवल एक स्त्री की कहानी नहीं है; यह उन हजारों भारतीय स्त्रियों की छवि है जो अपने पतियों के सपनों और आदर्शों को निःशब्द सहारा देती हैं, स्वयं की इच्छाओं का बलिदान करके। सुनंदा का दर्द, उसकी चुप स्वीकृति और उसकी सेवा में छिपा प्रेम—कहानी को करुणा और गहराई से भर देता है।
यह कहानी पढ़ने के बाद पाठक सिर्फ आज़ादी के संघर्ष को नहीं, बल्कि उस संघर्ष में शामिल निजी कुर्बानियों को भी महसूस करता है, जिन्हें इतिहास शायद कभी नहीं दर्ज करता।
नैतिक मूल्य (Moral Value)
“दाज्यू” कहानी शब्दों और भावों के माध्यम से यह दिखाती है कि भाषा में सिर्फ शब्द नहीं होते – वे रिश्ते, स्मृतियाँ और आत्मीयता के पुल होते हैं।
1.आत्मीयता का सम्मान करना – छोटे मदन की मासूम आत्मीयता को जगदीशबाबू पहले अपनाते हैं, पर अंत में उसे ठुकरा देते हैं। यह दर्शाता है कि हमें दिल से मिलने वाले अपनत्व को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए।
- संवेदनशीलता – कहानी हमें दूसरों की भावनाओं के प्रति संवेदनशील बनने की शिक्षा देती है, विशेषकर बच्चों की मासूम भावनाओं के प्रति।
- अहंकार से दूरी – ‘प्रेस्टिज’ के नाम पर जगदीशबाबू का व्यवहार दिखाता है कि अहंकार रिश्तों को तोड़ सकता है। हमें ‘अहम’ को पीछे छोड़कर रिश्तों को प्राथमिकता देनी चाहिए।
- प्रवासी जीवन की पीड़ा की समझ – मदन व जगदीशबाबू दोनों अपने गाँव-घर से दूर हैं। कहानी हमें सिखाती है कि ऐसे लोगों के साथ सहानुभूति और अपनापन ज़रूरी है।
- प्रत्युत्तर में प्रेम और सेवा – मदन ने जगदीशबाबू से कोई अपेक्षा नहीं रखी, केवल सेवा, स्नेह और सम्मान दिया। यह बिना स्वार्थ प्रेम की मिसाल है।
- समय रहते भावनाओं को समझना – कहानी यह सिखाती है कि अगर हम समय पर किसी के भाव को नहीं समझते, तो पछताने के अलावा कुछ नहीं बचता।
‘दाज्यू‘ कहानी हमें सिखाती है कि जीवन में भावनात्मक रिश्तों को बनाए रखना, उन्हें समझना और उनका आदर करना, मानवीय मूल्यों में सबसे ऊपर है। केवल औपचारिकता या ‘प्रेस्टिज’ के कारण आत्मीयता को ठुकराना, अंततः हमें भी अकेला और पश्चात्ताप से भरा बना देता है।