लेखक परिचय : जयशंकर प्रसाद
छायावाद के आधार स्तंभों में से एक जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी 1890 को काशी में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री देवी प्रसाद था। उनकी कविताएँ नाटक, उपन्यास और कहानी इन सभी क्षेत्रों में प्रसिद्ध कृतियाँ रही हैं। घर से ही प्रसाद जी ने हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषा के विद्वानों से साहित्य के साथ-साथ काव्य रचना की प्रारंभिक शिक्षा को प्राप्त किया। जयशंकर प्रसाद जी ने मात्र 9 वर्ष की बाल्यावस्था से ही साहित्य, काव्य, नाटक आदि के लेखन की शुरुआत की थी। जयशंकर प्रसाद जी की प्रमुख रचनाएँ कुछ इस प्रकार से हैं-
सज्जन, कल्याणी-परिणय, विशाख, जनमेजय का नागयज्ञ, कामना, प्रायश्चित्त, स्कन्दगुप्त, अजात शत्रु, एक घूँट, ध्रुवस्वामिनी।
करुणालय (1913), कानन कुसुम (1913), महाराणा का महत्त्व (1914), झरना (1918), चित्राधार (1918), प्रेम-पथिक, आँसू (1925), लहर 1935), कामायनी (1936) और प्रसाद- संगीत।
कंकाल, इरावती (अपूर्ण उपन्यास), तितली, प्रतिध्वनि, आँधी और इन्द्रजाल, छाया, आकाशदीप।
निबंध :- काव्य और कला।
जयशंकर प्रसाद जी का देहान्त 15 नवंबर, सन 1937 ई. में हो गया। प्रसाद जी भारत के उन्नत अतीत का जीवित वातावरण प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त थे। उनकी कितनी ही कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें आदि से अंत तक भारतीय संस्कृति एवं आदर्शो की रक्षा का सफल प्रयास किया गया है।
दासी
यह खेल किसको दिखा रहे हो बलराज?- कहते हुए फिरोजा ने युवक की कलाई पकड़ ली। युवक की मुट्ठी में एक भयानक छुरा चमक रहा था। उसने झुंझलाकर फिरोजा की तरफ देखा। वह खिलाखिलाकर हँस पड़ी। फिरोजा युवती से अधिक बालिका थी। अल्हड़पन, चंचलता और हँसी से बनी हुई वह तुर्क बाला सब हृदयों के स्नेह के समीप थी। नीली नसों से जकड़ी हुई बलराज की पुष्ट कलाई उन कोमल उँगलियों के बीच में शिथिल हो गई। उसने कहा-फिरोजा, तुम मेरे सुख में बाधा दे रही हो !
-सुख जीने में है बलराज ! ऐसी हरी-भरी दुनिया, फूल-बेलों से सजे हुए नदियों के सुंदर किनारे, सुनहला सवेरा, चाँदी की रातें इन सबों से मुँह मोड़कर आँखें बंद कर लेना! कभी नहीं! सबसे बढ़कर तो इसमें हमलोगों की उछल-कूद का तमाशा है। मैं तुम्हें मरने न दूँगी।
-क्यों?
-यों ही बेकार मर जाना! वाह, ऐसा नहीं हो सकता। जिहून के किनारे तुर्कों से लड़ते हुए मर जाना दूसरी बात थी। तब मैं तुम्हारी कब्र बनवाती, उस पर फूल चढ़ाती; पर इस गजनी नदी के किनारे अपना छुरा अपने कलेजे में भोंककर मर जाना बचपना भी तो नहीं है।
बलराज ने देखा, सुल्तान मसऊद के शिल्पकला-प्रेम की गम्भीर प्रतिमा, गजनी नदी पर एक कमानी वाला पुल अपनी उदास छाया जलधारा पर डाल रहा है। उसने कहा- वही तो, न जाने क्यों मैं उसी दिन नहीं मरा, जिस दिन मेरे इतने वीर साथी कटार से लिपटकर इसी गजनी की गोद में सोने चले गए। फिरोजा ! उन वीर आत्माओं का वह शोचनीय अंत! तुम उस अपमान को नहीं समझ सकती हो।
– सुल्तान ने सिल्जूको से हारे हुए तुर्क और हिंदू दोनों को ही नौकरी से अलग कर दिया। पर तुर्कों ने तो मरने की बात नहीं सोची?
– कुछ भी हो, तुर्क सुल्तान के अपने लोगों में हैं और हिंदू बेगाने ही हैं। फिरोजा ! यह अपमान मरने से बढ़कर है।
और आज किसलिए मरने जा रहे थे?
– वह सुनकर क्या करोगी?
– कहकर बलराज छुरा फेंककर एक लंबी साँस लेकर चुप हो रहा। फिरोजा ने उसका कंधा पकड़कर हिलाते हुए कहा-
सुनूँगी क्यों नहीं। अपनी… हाँ, उसी के लिए! कौन है वह ! कैसी है? बलराज ! गोरी-सी है, मेरी ही तरह वह भी दुबली-पतली है न? कानों में कुछ पहनती है? और गले में?
-कुछ नहीं फिरोजा, मेरी ही तरह वह भी कंगाल है। मैंने उससे कहा था कि लड़ाई पर जाऊँगा और सुल्तान की लूट में मुझे भी चाँदी सोने की ढेरी मिलेगी, जब अमीर हो जाऊँगा, तब आकर तुमसे ब्याह करूँगा।
-तब भी मरने जा रहे थे! खाली हाथ ही लौटकर उससे भेंट करने की, उसे एक बार देख लेने की, तुम्हारी इच्छा न हुई ! तुम बड़े पाजी हो। जाओ, मरो या जियो, मैं तुमसे न बोलूँगी।
सचमुच फिरोजा ने मुँह फेर लिया। वह जैसे रूठ गई थी। बलराज को उसके भोलेपन पर हँसी न आ सकी। वह सोचने लगा, फिरोजा के हृदय में कितना स्नेह ! कितना उल्लास है? उसने पूछा-फिरोजा, तुम भी तो लड़ाई में पकड़ी हुई गुलामी भुगत रही हो। क्या तुमने कभी अपने जीवन पर विचार किया है? किस बात का उल्लास है तुम्हें?
-मैं अब गुलामी में नहीं रह सकूँगी। अहमद जब हिंदुस्तान जाने लगा था, तभी उसने राजासाहब से कहा था कि मैं एक हजार सोने के सिक्के भेजूँगा। भाई तिलक ! तुम उसे लेकर फिरोजा को छोड़ देना और वह हिंदुस्तान आना चाहे तो उसे भेज देना। अब वह थैली आती ही होगी। मै छुटकारा पा जाऊँगी और गुलाम ही रहने पर रोने की कौन-सी बात है? मर जाने की इतनी जल्दी क्यों? तुम देख नहीं रहे हो कि तुर्कों में एक नई लहर आई है। दुनिया ने उनके लिए जैसे छाती खोल दी है। जो आज गुलाम है; वही कल सुल्तान हो सकता है। फिर रोना किस बात का जितनी देर हँस सकती हूँ, उस समय को रोने में क्यों बिताऊँ?
-तुम्हारा सुखमय जीवन और भी लंबा हो, फिरोजा; किंतु आज तुमने जो मुझे मरने से रोक दिया, यह अच्छा नहीं किया।
कहती तो हूँ, बेकार न मरो। क्या तुम्हारे मरने के लिए कोई …..?
– कुछ भी नहीं, फिरोजा ! हमारी धार्मिक भावनाएँ बँटी हुई है, सामाजिक जीवन दंभ से और राजनीतिक क्षेत्र कलह और स्वार्थ से जकड़ा हुआ है। शक्तियाँ हैं, पर उनका कोई केंद्र नहीं। किस पर अभिमान हो, किसके लिए प्राण दूँ?
-दुत, चले जाओ हिंदुस्तान में, मरने के लिए कुछ खोजो मिल ही जाएगा, जाओ न …… कहीं वह तुम्हारी मिल जाय तो किसी झोंपड़ी ही में काट लेना। न सही अमीरी, किसी तरह तो कटेगी। जितने दिन जीने के हों, उन पर भरोसा रखना।
बलराज ! न जाने क्यों मैं तुम्हें मरने देना नहीं चाहती। वह तुम्हारी राह देखती हुई कहीं जी रही हो, तब ! आह ! कभी उसे देख पाती तो इसका मुँह ही चूम लेती। कितना प्यार होगा उसके छोटे-से हृदय में? लो, ये पाँच दिरम, मुझे कल राजा साहब ने इनाम के दिए हैं। इन्हें लेते जाओ! देखो, उससे जाकर भेंट करना।
फिरोजा की आँखों में आँसू भरे थे, तब भी वह जैसे हँस रही थी। सहसा वह पाँच धातु के टुकड़ों को बलराज के हाथ पर रखकर झाड़ियों में घुस गई। बलराज चुपचाप अपने हाथ पर के उन चमकीले टुकड़ों को देख रहा था। हाथ कुछ झुक रहा था। धीरे-धीरे टुकड़े उसके हाथ से खिसक पड़े। वह बैठ गया- सामने एक पुरुष खड़ा मुस्करा रहा था।
-बलराज !
– राजा साहब। -जैसे आँख खोलते हुए बलराज ने कहा और उठकर खड़ा हो गया।
– मैं सब सुन रहा था। तुम हिंदुस्तान चले जाओ। मैं भी तुमको यही सलाह दूँगा। किंतु, एक बात है।
-वह क्या राजा साहब?
-मैं तुम्हारे दुःख का अनुभव कर रहा हूँ। जो बातें तुमने अभी फिरोजा से कही है, उन्हें सुनकर मेरा हृदय विचलित हो उठा है। किंतु क्या करूँ? आकांक्षा का नशा पी लिया है। वही मुझे बेबस किए है। जिस दुःख से मनुष्य छाती फाड़कर चिल्लाने लगता हो, सिर पीटने लगता हो, वैसी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मैं केवल सिर नीचा कर चुप रहना अच्छा समझता हूँ। क्या ही अच्छा होता कि जिस सुख में आनन्दातिरेक से मनुष्य उन्मत्त हो जाता है, उसे भी मुस्कराकर टाल दिया करूँ। सो नहीं होता। एक साधारण स्थिति से मैं सुल्तान के सलाहकारों के पद तक तो पहुँच गया हूँ। मैं भी हिंदुस्तान का ही एक कंगाल था। प्रतिदिन की मर्यादा- वृद्धि, राजकीय विश्वास और उसमें सुख की अनुभूति ने मेरे जीवन को पहेली बनाकर…… जाने दो। मैने सुल्तान के दरबार से जितना सीखा है, वही मेरे लिए बहुत है। एक बनावटी गंभीरता ! छल-पूर्ण विनय ! ओह, कितना भीषण है, वह विचार! मैं धीरे-धीरे इतना बन गया हूँ कि मेरी सहृदयता घूँघट पलटने नहीं पाती। लोगों को मेरी छाती में हृदय के होने का सन्देह हो चला है। फिर भी मैं तुमसे अपनी सहृदयता क्यों प्रकट करूँ? तब भी आज तुमने मेरे स्वभाव की धारा का बाँध तोड़ दिया है। और मैं…।
– बस राजा साहब और कुछ न कहिए। मैं जाता हूँ। मैं समझ गया कि….।
-ठहरो, मुझे अधिक अवकाश नहीं है। कल यहाँ से कुछ विद्रोही गुलाम, अहमद नियाल्तगीन के पास लाहौर जाने वाले हैं, उन्हीं के साथ तुम चले जाओ। यह लो ! कहते हुए सुल्तान के विश्वासी राजा तिलक ने बलराज के हाथों में थैली रख दी। बलराज वहाँ से चुपचाप चल पड़ा।
तिलक सुल्तान महमूद का अत्यंत विश्वासपात्र हिंदू कर्मचारी था। अपने बुद्धिबल से कट्टर यवनों के बीच अपनी प्रतिष्ठा दृढ़ रखने के कारण सुल्तान मसऊद के शासन काल में भी वह उपेक्षा का पात्र नहीं था। फिर भी वह अपने को हिंदू ही समझता था, चाहे अन्य लोग उसे जो भी समझते रहे हों। बलराज की बातें वह सुन चुका था। आज उसकी मनोवृत्तियों में भयानक हलचल थी। सहसा उसने पुकारा- फिरोजा !
झाड़ियों से निकलकर फिरोजा ने उसके सामने सिर झुका दिया। तिलक ने उसके सिर पर हाथ रखते हुए कोमल स्वर में पूछा- फिरोजा, तुम अहमद के पास हिन्दुस्तान जाना चाहती हो?
फिरोजा के हृदय में कंपन होने लगा। वह कुछ न बोली। तिलक ने कहा- डरो मत, साफ-साफ कहो।
– क्या अहमद ने आपके पास दीनारें भेज दीं? कहकर फिरोजा ने अपनी उत्कण्ठाभरी आँखें उठाईं। तिलक ने हँसकर कहा- सो तो उसने नहीं भेजीं, तब भी तुम जाना चाहती हो, तो मुझसे कहो।
मैं क्या कह सकती हूँ? जैसी मेरी ….।
-कहते-कहते उसकी आँखों में आँसू छलछला उठे।
तिलक ने कहा – फिरोजा, तुम जा सकती हो। कुछ सोने के टुकड़ों के लिए मैं तुम्हारा हृदय नहीं कुचलना चाहता।
-सच! आश्चर्य-भरी कृतज्ञता उसकी वाणी में थी।
– सच फिरोजा। अहमद मेरा मित्र है और भी एक काम के लिए तुमको भेज रहा हूँ। उसे जाकर समझाओ कि वह अपनी सेना लेकर पंजाब के बाहर इधर-उधर हिंदुस्तान में लूट-मार न किया करे। मैं कुछ ही दिनों में सुल्तान से कहकर खजाने और मालगुजारी का अधिकार भी उसी को दिला दूँगा। थोड़ा समझकर धीरे-धीरे काम करने से सब हो जायेगा। समझी न, दरबार में इस पर गर्मागर्मी है कि अहमद की नीयत खराब है। कहीं ऐसा न हो कि मुझी को सुल्तान इस काम के लिए भेजें।
– फिरोजा, मैं हिंदुस्तान नहीं जाना चाहता। मेरी एक छोटी बहन थी, वह वहाँ है? क्या दुःख उसने पाया? मरी या जीती है, इन कई बरसों से मैंने इसे जानने की चेष्टा भी नहीं की। और भी…. मैं हिंदू हूँ, फिरोजा ! आज तक अपनी आकांक्षा में भूला हुआ, अपने आराम में मस्त, अपनी उन्नति में विस्मृत, गजनी में बैठा हुआ हिंदुस्तान को, अपनी जन्मभूमि को और उसके दुःख-दर्द को भूल गया हूँ। सुल्तान महमूद के लूटों की गिनती करना, उस रक्तरंजित धन की तालिका बनाना, हिंदुस्तान के ही शोषण के लिए सुल्तान को नई-नई तरकीबें बताना, यही तो मेरा काम था, जिससे आज मेरी इतनी प्रतिष्ठा है। दूर रहकर मैं वहाँ कुछ कर सकता था; पर हिंदुस्तान कहीं मुझे जाना पड़ा उसकी गोद में फिर रहना पड़ा तो मैं क्या करूँगा ! फिरोजा, मैं वहाँ जाकर पागल हो जाऊँगा। चिरनिर्वासित, विस्मृत अपराधी! इरावती मेरी बहन ! आह, मै उसे क्या मुँह दिखलाऊँगा। वह कितने कष्टों में जीती होगी ! और मर गई हो तो…. फिरोजा ! अहमद से कहना, मेरी मित्रता के नाते मुझे इस दुःख से बचा ले।
– मैं जाऊँगी और इरावती को खोज निकालूँगी – राजा साहब! आपके हृदय में इतनी टीस है, आज तक मैं न जानती थी। मुझे यही मालूम था कि अनेक अन्य तुर्क सरदारों के समान आप भी रंगरलियों में समय बिता रहे हैं, किंतु बरफ से ढकी हुई चोटियों के नीचे भी ज्वालामुखी होता है।
-तो जाओ फिरोजा ! मुझे बचाने के लिए, उस भयानक आग से, जिससे मेरा हृदय जल उठता है, मेरी रक्षा करो ! – कहते हुए राजा तिलक उसी जगह बैठ गए। फिरोजा खड़ी थी। धीरे-धीरे राजा के मुख पर एक स्निग्धता आ चली। अब अन्धकार हो चला। गजनी के लहरों पर से शीतल पवन उन झाड़ियों में भरने लगा था। सामने ही राजा साहब का महल था। उसका शुभ्र गुंबद उस अन्धकार में अभी अपनी उज्ज्वलता से सिर ऊँचा किये था। तिलक ने कहा- फिरोजा, जाने के पहले अपना वह गाना सुनाती जाओ।
फिरोजा गाने लगी। उसके गीत की ध्वनि थी- मैं जलती हुई दीप शिखा हूँ और तुम हृदय- रंजन प्रभात हो ! जब तक देखती नहीं, जला करती हूँ और जब तुम्हें देख लेती हूँ, तभी मेरे अस्तित्व का अन्त हो जाता है— मेरे प्रियतम !- सन्ध्या की अँधेरी झाड़ियों में गीत की गुंजार घूमने लगी।
यदि एक बार उसे फिर देख पाता; पर यह होने का नहीं। निष्ठुर नियति! उसकी पवित्रता पंकिल हो गई होगी। उसकी उज्ज्वलता पर संसार के काले हाथों ने अपनी छाप लगा दी होगी। तब उससे भेंट करके क्या करूँगा? क्या करूँगा अपने कल्पना के स्वर्ण मंदिर का खंडहर देखकर ! कहते-कहते बलराज ने अपने बलिष्ठ पंजों को पत्थरों से जकड़े हुए मंदिर के प्राचीर पर दे मारा। वह शब्द एक क्षण में विलीन हो गया। युवक ने आरक्त आँखों से उस विशाल मन्दिर को देखा और वह पागल सा उठ खड़ा हुआ। परिक्रमा के ऊँचे-ऊँचे खंभों से धक्के खाता हुआ घूमने लगा।
गर्भ गृह के द्वारपालों पर उसकी दृष्टि पड़ी। वे तेल से चुपड़े हुए काले-काले दूत अपने भीषण त्रिशूल से जैसे युवक की ओर संकेत कर रहे थे। वह ठिठक गया। सामने देवगृह के समीप घृत का अखण्ड दीप जल रहा था। केशर, कस्तूरी और अगरु से मिश्रित फूलों की दिव्य सुगन्ध की झकोर रह- रहकर भीतर से आ रही थी। विद्रोही हृदय प्रणत होना नहीं चाहता था, परंतु सिर सम्मान से झुक ही गया।
-देव! मैंने अपने जीवन में जान-बूझकर कोई पाप नहीं किया है। मैं किसके लिए क्षमा माँगूँ? गजनी के सुल्तान की नौकरी, वह मेरे वश की नहीं; किंतु मैं माँगता हूँ….. एक बार उस, अपनी प्रेम-प्रतिमा का दर्शन ! कृपा करो। मुझे बचा लो।
प्रार्थना करके युवक ने सिर उठाया ही था कि उसे किसी को अपने पास से खिसकने का संदेह हुआ। वह घूमकर देखने लगा। एक स्त्री कौशेय वसन पहने हाथ में फूलों से सजी डाली लिए चली जा रही थीं। युवक पीछे-पीछे चला। परिक्रमा में एक स्थान पर पहुँच कर उसने संदिग्ध स्वर से पुकारा – इरावती ! वह स्त्री घूमकर खड़ी हो गई। बलराज अपने दोनों हाथ पसार कर उसे आलिंगन करने के लिए दौड़ा। इरावती ने कहा- ठहरो। बलराज ठिठककर उसकी गंभीर मुखाकृति को देखने लगा। उसने पूछा- क्यों इरा ! क्या तुम मेरी वाग्दत्ता पत्नी नहीं हो? क्या हम लोगों का वह्नि – वेदी के सामने परिणय नहीं होने वाला था?
क्या….?
– हाँ, होने वाला था किंतु हुआ नहीं और बलराज ! तुम मेरी रक्षा नहीं कर सके। मैं आततायी के हाथ से कलंकित की गई। फिर तुम मुझे पत्नी रूप में कैसे ग्रहण करोगे? तुम वीर हो ! पुरुष हो ! तुम्हारे पुरुषार्थ के लिए बहुत-सी महत्वाकांक्षाएँ हैं। उन्हें खोज लो, मुझे भगवान् की शरण में छोड़ दो। मेरा जीवन, अनुताप की ज्वाला से झुलसा हुआ मेरा मन, अब स्नेह के योग्य नहीं।
– प्रेम की, पवित्रता की, परिभाषा अलग है इरा! मैं तुमको प्यार करता हूँ। तुम्हारी पवित्रता से मेरे मन का अधिक संबंध नहीं भी हो सकता है। चलो, हम…. और कुछ भी हो; मेरे प्रेम की वह्नि तुम्हारी पवित्रता को अधिक उज्ज्वल कर देगी।
-भाग चलूँ, क्यों? सो नहीं हो सकता। मैं क्रीत दासी हूँ। म्लेच्छों ने मुझे मुलतान की लूट में पकड़ लिया। मैं उनकी कठोरता में जीवित रहकर बराबर उनका विरोध ही करती रहीं। नित्य कोड़े लगते। बाँधकर मैं लटकाई जाती। फिर भी मैं अपने हठ से न डिगी। एक दिन कन्नौज के चतुष्पथ पर घोड़ों के साथ ही बेचने के लिए उन आततायियों ने मुझे भी खड़ा किया। मैं बिकी पाँच सौ दिरम पर, काशी के ही एक महाजन ने मुझे दासी बना लिया। बलराज ! तुमने न सुना होगा, कि मैं किन नियमों के साथ बिकी हूँ। मैंने लिखकर स्वीकार किया है, इस घर का कुत्सित से कुत्सित कर्म करूँगी और कभी विद्रोह न करूँगी न कभी भागने की चेष्टा करूँगी, न किसी के कहने से अपने स्वामी का अहित सोचूँगी। यदि मैं आत्महत्या भी कर डालूँ, तो मेरे स्वामी या उनके कुटुंब पर कोई दोष न लगा सकेगा ! वे गंगा स्नान किये-से पवित्र हैं। मेरे सम्बन्ध में वे सदा ही शुद्ध और निष्पाप हैं। मेरे शरीर पर उनका आजीवन अधिकार रहेगा। वे मेरे नियम विरुद्ध आचरण पर जब चाहें राजपथ पर मेरे बालों को पकड़कर मुझे घसीट सकते हैं। मुझे दण्ड दे सकते हैं। मैं तो मर चुकी हूँ। मेरा शरीर पाँच सौ दिरम पर जीकर जब तक सहेगा, खटेगा। वे चाहें तो मुझे कौड़ी के मोल भी किसी दूसरे के हाथ बेच सकते हैं। समझे! सिर पर तृण रखकर मैंने स्वयं अपने को बेचने में स्वीकृति दी है। उस सत्य को कैसे तोड़ दूँ?
बलराज ने लाल होकर कहा- इरावती, यह असत्य है, सत्य नहीं। पशुओं के समान मनुष्य भी बिक सकते है? मैं यह सोच भी नहीं सकता। यह पाखण्ड तुर्की घोड़ों के व्यापारियों ने फैलाया है। तुमने अनजान में जो प्रतिज्ञा कर ली है, वह ऐसा सत्य नहीं कि पालन किया जाए। तुम नहीं जानती हो कि तुमको खोजने के लिए ही मैने यवनों की सेवा की।
– क्षमा करो बलराज, मैं तुम्हारा तर्क नहीं समझ सकी। मेरी स्वामिनी का रथ दूर चला गया होगा, तो मुझे बातें सुननी पड़ेंगी क्योंकि आजकल मेरे स्वामी नगर से दूर स्वास्थ्य के लिए उपवन में रहते हैं। स्वामिनी देव दर्शन के लिए आई थीं।
-तब मेरा इतना परिश्रम व्यर्थ हुआ ! फिरोजा ने व्यर्थ ही आशा दी थी। मैं इतने दिनों भटकता फिरा। इरावती ! मुझ पर दया करो।
– फिरोजा कौन? – फिर सहसा रुककर इरावती ने कहा- क्या करूँ ! यदि मैं वैसा करती, तो मुझे जीवन की सबसे बड़ी प्रसन्नता मिलती; किंतु वह मेरे भाग्य में है कि नहीं, इसे भगवान् ही जानते होंगे? मुझे अब जाने दो। – बलराज इस उत्तर से खिन्न और चकराया हुआ काठ के किवाड़ की तरह इरावती के सामने से अलग होकर मंदिर के प्राचीर से लग गया। इरावती चली गई। बलराज कुछ समय तक स्तब्ध और शून्य – सा वहीं खड़ा रहा। फिर सहसा जिस ओर इरावती गई थी, उसी ओर चल पड़ा।
युवक बलराज कई दिन तक पागलों-सा धनदत्त के उपवन से नगर तक चक्कर लगाता रहा। भूख- प्यास भूलकर वह इरावती को एक बार फिर देखने के लिए विकल था; किंतु वह सफल न हो सका। आज उसने निश्चय किया था कि वह काशी छोड़कर चला जाएगा। वह जीवन से हताश होकर काशी से प्रतिष्ठान जाने वाले पथ पर चलने लगा। उसकी पहाड़ के ढोके-सी काया, जिसमें असुर-सा बल होने का अनुमान करते, निर्जीव-सी हो रही थी। अनाहार से उसका मुख विवर्ण था। वह सोच रहा था उस दिन विश्वनाथ के मंदिर में न जाकर मैंने आत्महत्या क्यों न कर ली ! वह अपनी उधेड़-बुन में चल रहा था। न जाने कब तक चलता रहा। वह चौंक उठा- जब किसी के डाँटने का शब्द सुनाई पड़ा – देखकर नहीं चलता। बलराज ने चौंककर देखा, अश्वारोहियों की लंबी पंक्ति, जिसमें अधिकतर अपने घोड़ों को पकड़े हुए पैदल ही चल रहे थे। वे सब तुर्क थे। घोड़ों के व्यापारी से जान पड़ते थे। गजनी के प्रसिद्ध महमूद के आक्रमणों का अन्त हो चुका था। मसऊद सिंहासन पर था। पंजाब तो गजनी के सेनापति नियाल्तगीन के शासन में था। मध्यप्रदेश में भी तुर्क व्यापारी अधिकतर व्यापारिक प्रभुत्व स्थापित करने के लिए प्रयत्न कर रहे थे। वह राह छोड़कर हट गया। अश्वारोही ने पूछा- बनारस कितनी दूर होगा?
बलराज ने कहा- मुझे नहीं मालूम।
– तुम अभी उधर से चले आ रहे हो ओर कहते हो, नहीं मालूम। ठीक-ठीक बताओ, नहीं तो …..।
– नहीं तो क्या? मैं तुम्हारा नौकर हूँ। कहकर वह आगे बढ़ने लगा। अकस्मात् पहले अश्वारोही ने कहा – पकड़ लो इसको !
कौन ! नियाल्तगीन !
सहसा बलराज चिल्ला उठा।
– अच्छा, यह तुम्हीं हो बलराज ! यह तुम्हारा क्या हाल है, क्या सुल्तान की सरकार में अब तुम काम नहीं करते हो?
-नहीं, सुल्तान मसऊद का मुझ पर विश्वास नहीं है। मैं ऐसा काम नहीं करता, जिसमें संदेह मेरी परीक्षा लेता रहे; किंतु इधर तुम लोग क्यों?
-सुना है, बनारस एक सुंदर और धनी नगर है। और
और क्या?
– कुछ नहीं, देखने चला आया हूँ। काजी नहीं चाहता कि कन्नौज के पूरब भी कुछ हाथ-पाँव बढ़ाया जाये। तुम चलो न मेरे साथ। मैं तुम्हारी तलवार की कीमत जानता हूँ। बहादुर लोग इस तरह नहीं रह सकते। तुम अभी तक हिन्दू बने हो। पुरानी लकीर पीटने वाले, जगह-जगह झुकने वाले, सबसे दबते हुए, बनते हुए, कतराकर चलने वाले हिन्दू। क्यों? तुम्हारे पास बहुत-सा कूड़ा-कचड़ा इकट्ठा हो गया है, उनका पुरानेपन का लोभ तुमको फेंकने नहीं देता? मन में नयापन तथा दुनिया का उल्लास नहीं आने पाता? इतने दिन हम लोग साथ रहे, फिर भी….।
बलराज सोच रहा था, इरावती का वह सूखा व्यवहार। सीधा-सीधा उत्तर! क्रोध से वह अपना ओठ चबाने लगा। नियाल्तगीन बलराज को परख रहा था ! उसने कहा- तुम कहाँ हो? बात क्या है? ऐसा बुझा मन क्यों?
बलराज ने प्रकृतिस्थ होकर कहा- कहीं तो नहीं। अब मुझे छुट्टी दो, मैं जाऊँ। तुम्हारा बनारस देखने का मन है— इस पर तो मुझे विश्वास नहीं होता, तो भी मुझे इससे क्या? जो चाहो करो। संसार-भर में किसी पर दया करने की आवश्यकता नहीं-लूटो, काटो, मारो। जाओ, नियाल्तगीन।
नियाल्तगीन ने हँसकर कहा- पागल तो नहीं हो। इन थोड़े-से आदमियों से भला क्या हो सकता है। मैं तो एक बहाने से इधर आया हूँ। फिरोजा का बनारसी जरी के कपड़ों का …. I
क्या फिरोजा भी तुम्हारे साथ है?
– चलो, पड़ाव पर सब आप ही मालूम हो जायेगा !- कहकर नियाल्तगीन ने संकेत किया। बलराज के मन में न जाने कैसी प्रसन्नता उमड़ी। वह एक तुर्की घोड़े पर सवार हो गया।
दोनों ओर जवाहरात, जरी कपड़ों, बर्तन तथा सुगंधित द्रव्यों की सजी हुई दुकानों से, देश-विदेश के व्यापारियों की भीड़ और बीच-बीच में एक घोड़े के रथों से, बनारस की पत्थर से बनी हुई चौड़ी गलियाँ अपने ढंग की निराली दिखती थीं। प्राचीरों से घिरा हुआ नगर का प्रधान भाग त्रिलोचन से लेकर राजघाट तक विस्तृत था। तोरणों पर गांगेय देव के सैनिकों का जमाव था। कन्नौज के प्रतिहार सम्राट् से काशी छीन ली गई थी। त्रिपुरी उस पर शासन करती थी। ध्यान से देखने पर यह तो प्रकट हो जाता था कि नागरिकों में अव्यवस्था थी। फिर भी ऊपरी काम-काज, क्रय-विक्रय, यात्रियों का आवागमन चल रहा था।
फिरोजा कमख्वाब देख रही थी और नियाल्तगीन मणिमुक्ताओं की ढेरी से अपने लिए अच्छे-अच्छे नग चुन रहा था। पास ही दोनों दुकानें थीं. बलराज बीच में ही खड़ा था। अन्यमनस्क फिरोजा ने कई थान छाँट लिये थे। उसने कहा- बलराज ! देखो तो, इन्हें तुम कैसा समझते हो, हैं न अच्छे? उधर से नियाल्तगीन ने पूछा- कपड़े देख चुकी हो, तो इधर आओ। इन्हें भी देख लो ! फिरोजा उधर जाने लगी थी कि दुकानदार ने कहा- लेना न देना, झूठ-मूठ तंग करना। कभी देखा तो नहीं। कंगालों की तरह जैसे आँखों से देखकर ही खा जायेगी। फिरोजा घूमकर खड़ी हो गई। उसने पूछा- क्या बकते हो? – जा जा तुर्किस्तान के जंगलों में भेड़ चढ़ा। इन कपड़ों का लेना तेरा काम नहीं। – सटी हुई दुकानों से जौहरी अभी कुछ बोलता ही चाहता था कि बलराज ने कहा-
-चुप रह, नहीं तो जीभ खींच लूँगा।
– ओहो! तुर्की गुलाम का दास, तू भी ……। अभी इतना ही कपड़े वाले के मुँह से निकला था कि नियाल्तगीन की तलवार उसके गले तक पहुँच गई। बाजार में हलचल मची। नियाल्तगीन के साथी इधर- उधर बिखरे ही थे। कुछ तो वहीं आ गए औरों को समाचार मिल गया। झगड़ा बढ़ने लगा। नियाल्तगीन को कुछ लोगों ने घेर लिया था; किंतु तुर्की ने उसे छीन लेना चाहा। राजकीय सैनिक पहुँच गए। नियाल्तगीन को यह मालूम हो गया कि पड़ाव पर समाचार पहुँच गया है। उसने निर्भीकता से अपनी तलवार घुमाते हुए कहा-अच्छा होता कि झगड़ा यहीं तक रहता, नहीं तो हम लोग तुर्क हैं।
तुर्कों का आतंक उत्तरी भारत में फैल चुका था। क्षण-भर के लिए सन्नाटा तो हुआ, परंतु वणिक के प्रतिरोध के लिए नागरिकों का रोष उबल रहा था। राजकीय सैनिकों का सहयोग मिलते ही युद्ध आरंभ हो गया, अब और भी तुर्क आ पहुँचे थे। नियाल्तगीन हँसने लगा। उसने तुर्की में संकेत किया। बनारस का राजपथ तुर्कों की तलवार से पहली बार आलोकित हो उठा।
नियाल्तगीन के साथी संगठित हो गए थे। वे केवल युद्ध और आत्मरक्षा ही नहीं कर रहे थे, बहुमूल्य पदार्थों की लूट भी करने लगे। बलराज स्तब्ध था। वह जैसे एक स्वप्न देख रहा था। अकस्मात् उसके कानों में एक परिचित स्वर सुनाई पड़ा। उसने घूमकर देखा – जौहरी के गले पर तलवार पड़ा ही चाहती थी और इरावती ‘इन्हें छोड़ दो, न मारो’ कहती हुई तलवार के सामने आ गई थी। बलराज ने कहा- ठहरो, नियाल्तगीन। दूसरे ही क्षण नियाल्तगीन की कलाई बलराज की मुट्ठी में थी। नियाल्तगीन ने कहा- धोखेबाज काफिर यह क्या? – कई तुर्क पास आ गए थे ! फिरोजा का भी मुख तमतमा गया था। बलराज ने सबल होने पर भी बड़ी दीनता से कहा-फिरोजा, यही इरावती है। फिरोजा हँसने लगी। इरावती को पकड़कर उसने कहा – नियाल्तगीन ! बलराज को इसके साथ लेकर मैं चलती हूँ, तुम आना और इस जौहरी से तुम्हारा नुकसान न हो, तो न मारो! देखो, बहुत-से घुड़सवार आ रहे हैं। हम सबों का चलना ही अच्छा है।
नियाल्तगीन ने परिस्थिति एक क्षण में ही समझ ली। उसने जौहरी से पूछा- तुम्हारे घर में दूसरी ओर से बाहर जाया जा सकता है?
– हाँ ! – कँपे कण्ठ से उत्तर मिला।
-अच्छा चलो, तुम्हारी जान बच रही है। मैं इरावती को ले जाता हूँ। – कहकर नियाल्तगीन ने एक तुर्क के कान में कुछ कहा और बलराज को आगे चलने का संकेत करके इरावती और फिरोजा के पीछे धनदत्त के घर में घुसा। इधर तुर्क एकत्र होकर प्रत्यावर्तन कर रहे थे। नगर की राजकीय सेना पास आ रही थी।
चंद्रभागा के तट पर शिविरों की एक श्रेणी। उसके समीप ही घने वृक्षों के झुरमुट में इरावती और फिरोजा बैठी हुई सायंकालीन गंभीरता की छाया में एक-दूसरे का मुँह देख रही हैं। फिरोजा ने कहा-
-बलराज को तुम प्यार करती हो?
-मैं नहीं जानती एक आकस्मिक उत्तर मिला!
-और वह तो तुम्हारे ही लिए गजनी से हिंदुस्तान चला आया।
– तो क्यों आने दिया, वहीं रोक रखतीं।
– तुमको क्या हो गया है?
-मैं-मैं नहीं रही; मैं दासी हूँ; कुछ धातु के टुकड़ों पर बिकी हुई हाड़-मांस का समूह, जिसके भीतर एक सूखा हृदय पिण्ड है।
– इरा ! वह मर जायेगा- पागल हो जाएगा।
– और मैं क्या हो जाऊँ, फिरोजा?
अच्छा होता, तुम भी मर जातीं! – तीखेपन से फिरोजा ने कहा।
इरावती चौंक उठी। उसने कहा- बलराज ने वह भी न होने दिया। उस दिन नियाल्तगीन की तलवार ने यही कर दिया होता; किंतु मनुष्य बड़ा ही स्वार्थी है। अपने सुख की आशा में वह कितनों को दुखी बनाया करता है। अपनी साध पूरी करने में दूसरों की आवश्यकता ठुकरा दी जाती है। तुम ठीक कह रही हो फिरोजा, मुझे….
-ठहरो, इरा ! तुमने मन को कड़वा बनाकर मेरी बात सुनी है। उतनी ही तेजी से उसे बाहर कर देना चाहती हो।
– मेरे दुःखी होने पर जो मेरे साथ रोने आता है, उसे मैं अपना मित्र नहीं जान सकती, फिरोजा। मैं तो देखूँगी कि वह मेरे दुःख को कितना कम कर सका है। मुझे दुःख सहने के लिए जो छोड़ जाता है, केवल अपने अभिमान और आकांक्षा की तुष्टि के लिए। मेरे दुःख में हाथ बँटाने का जिसका साहस नहीं, जो मेरी स्थिति में साथी नहीं बन सकता, जो पहले अमीर बनना चाहता है फिर अपने प्रेम का दान करना चाहता है, वह मुझसे हृदय माँगे, इससे बढ़कर धृष्टता और क्या होगी?
-मैं तुम्हारी बहुत-सी बातें समझ नहीं सकी, लेकिन मैं इतना तो कहूँगी कि दुःखों ने तुम्हारे जीवन की कोमलता छीन ली है।
– फिरोजा …. मैं तुमसे बहस नहीं करना चाहती। तुमने मेरे प्राण बचाये हैं सही, किन्तु हृदय नहीं बचा सकतीं। उसे अपनी खोज-खबर आप ही लेनी पड़ेगी। तुम चाहे जो मुझे कह लो मैं तो समझती हूँ कि मनुष्य दूसरों की दृष्टि में कभी पूर्ण नहीं हो सकता! पर उसे अपनी आँखों से तो नहीं गिरना चाहिए।
फिरोजा ने संदेह से पीछे की ओर देखा। बलराज वृक्ष की आड़ से निकल आया। उसने कहा- फिरोजा, मैं जब गजनी के किनारे मरना चाहता था, तो क्या भूल कर रहा था? अच्छा, जाता हूँ।
इरावती सोच रही थी, अब भी कुछ बोलूँ-
फिरोजा सोच रही थी, दोनों को मरने से बचाकर क्या सचमुच मैंने कोई बुरा काम किया?
बलराज की ओर किसी ने न देखा। वह चला गया।
रावी के किनारे एक सुंदर महल में अहमद नियाल्तगीन पंजाब के सेनानी का आवास है। उस महल के चारों ओर वृक्षों की दूर तक फैली हुई हरियाली है, जिसमें शिविरों की श्रेणीं में तुर्क सैनिकों का निवास है।
बसन्त की चाँदनी रात अपनी मतवाली उज्ज्वलता में महल के मीनारों और गुम्बदों तथा वृक्षों की छाया में लड़खड़ा रही है, अब जैसे सोना चाहती हो। चन्द्रमा पश्चिम में धीरे-धीरे झुक रहा था। रावी की ओर एक संगमरमर की दालान में खाली सेज बिछी थी। जरी के परदे ऊपर की ओर बँधे थे। दालान की सीढ़ी पर बैठी हुई इरावती रावी का प्रवाह देखते-देखते सोने लगी थी उस महल की जैसे सजावट गुलाबी पत्थर की अचल प्रतिमा हो।
शयन कक्ष की सेवा का भार आज उसी पर था। वह अहमद के आगमन की प्रतीक्षा करते-करते सो गई थी। अहमद इन दिनों गजनी से मिले हुए समाचार के कारण अधिक व्यस्त था। सुल्तान के रोष का समाचार उसे मिल चुका था। वह फिरोजा से छिपाकर, अपने अंतरंग साथियों से, जिन पर उसे विश्वास था, निस्तब्ध रात्रि में मंत्रणा किया करता। पंजाब का स्वतंत्र शासक बनने की अभिलाषा उसके मन में जग गई थी, फिरोजा ने उसे मना किया था, किंतु एक साधारण तुर्क दासी के विचार राजकीय कामों में कितने मूल्य के हैं, इसे वह अपनी महत्त्वाकांक्षा की दृष्टि से परखता था। फिरोजा कुछ तो रूठी और कुछ उसकी तबीयत भी अच्छी न थी। वह बंद कमरे में जाकर सो रही। अनेक दासियों के रहते भी आज इरावती को ही वहाँ ठहरने के लिए उसने कह दिया था। अहमद सीढ़ियों से चढ़कर दालान के पास आया। उसने देखा एक वेदना – विमण्डित सुप्त सौंदर्य ! वह और भी समीप आया। गुम्बद के बगल से चन्द्रमा की किरणें ठीक इरावती के मुख पर पड़ रही थीं। अहमद ने वारुणीविलसित नेत्रों से देखा, उस रूपमाधुरी को, जिसमें स्वाभाविकता थी, बनावट थी, प्रमाद की गर्मी नहीं। एक बार सशंक दृष्टि से उसने चारों और देखा फिर इरावती खड़ी होकर अपने वस्त्र संभालने लगी। अहमद ने संकोच-भरी ढिटाई से कहा-
– तुम यहाँ क्यों सो रही हो, इरा?
– थक गई थी। कहिए, क्या लाऊँ?
-थोड़ी शीराजी – कहते हुए वह पलंग पर जाकर बैठ गया और इरावती का स्फटिक पात्र में शीराजी उड़ेलना देखने लगा। इरा ने जब पात्र भरकर अहमद को दिया, तो अहमद ने सतृष्ण नेत्रों से उसकी ओर देखकर पूछा- फिरोजा कहाँ है?
– सिर में दर्द है, भीतर सो रही है।
अहमद की आँखों में पशुता नाच उठी। शरीर में एक सनसनी का अनुभव करते हुए उसने इरावती का हाथ पकड़कर कहा- बैठो न, इरा ! तुम थक गई हो।
– आप शर्बत लीजिए। मैं जाकर फिरोजा को जगा दूँ।
– फिरोजा ! फिरोजा के हाथ बिक गया हूँ क्या, इरावती ! तुम-आह !
इरावती हाथ छुड़ाकर हटने वाली ही थी कि सामने फिरोजा खड़ी थी ! इसकी आँखों में तीव्र ज्वाला थी। उसने कहा – मै बिकी हूँ, अहमद तुम भला मेरे हाथ क्यों बिकने लगे? लेकिन तुमको मालूम है कि तुमने अभी राजतिलक को मेरा दाम नहीं चुकाया; इसलिए मैं जाती हूँ।
अहमद हत बुद्धि ! निष्प्रभ ! और फिरोजा चली। इरावती ने गिड़गिड़ाकर कहा- बहन, मुझे भी न लेती चलोगी……?
फिरोजा ने घूमकर एक बार स्थिर दृष्टि से इरावती की ओर देखा और कहा- तो फिर चलो। दोनों हाथ पकड़े सीढ़ी से उतर गई।
बहुत दिनों तक विदेश में इधर-उधर भटकने पर बलराज जब से लौट आया है, तब से चंद्रभागा-तट के जाटों मे एक नई लहर आ गई है। बलराज ने अपने सजातीय लोगों को पराधीनता से मुक्त होने का संदेश सुनाकर उन्हें सुल्तान – सरकार का अबाध्य बना दिया है। उद्दंड जाटों को अपने वश में रखना, उन पर सदा फौजी शासन करना, सुल्तान के कर्मचारियों के लिए भी बड़ा कठिन हो रहा था।
इधर फिरोजा के जाते ही अहमद अपनी कोमल वृत्तियों को भी खो बैठा। एक ओर उसके पास मसऊद के रोष के समाचार आते थे, दूसरी ओर वह जाटों की हलचल से खजाना भी नहीं भेज सकता था। वह झुंझला गया। दिखावे में तो अहमद ने जाटों को एक बार ही नष्ट करने का निश्चय कर लिया और अपनी दृढ़ सेना के साथ वह जाटों को घेरे में डालते हुए बढ़ने लगा; किंतु उसके हृदय में एक दूसरी ही बात थी। उसे मालूम हो गया था कि गजनी की सेना तिलक के साथ आ रही है; उसकी कल्पना का साम्राज्य छिन्न-भिन्न कर देने के लिए! उसने अंतिम प्रयत्न करने का निश्चय किया। अंतरंग साथियों की सम्मति हुई कि यदि विद्रोही जाटों को इस समय मिला लिया जाए, तो गजनी से पंजाब आज ही अलग हो सकता है। इस चढ़ाई में दोनों मतलब थे।
घने जंगल का आरंभ था। वृक्षों के हरे अंचल की छाया में थकी हुई दो युवतियाँ उनकी जड़ों पर सिर धरे हुए लेटी थीं। पथरीले टीलों पर पड़ती हुई घोड़ों की टापों के शब्द ने उन्हे चौंका दिया। वे अभी उठकर बैठ भी नहीं पाई थीं कि उनके सामने अश्वारोहियों का एक झुण्ड आ गया। भयानक भालों की नोक सीधी किए हुए स्वास्थ्य के तरुण तेज से उद्दीप्त जाट-युवकों का वह वीर दल था। स्त्रियों को देखते ही उनके सरदार ने कहा- माँ, तुमलोग कहाँ जाओगी?
अब फिरोजा और इरावती सामने खड़ी हो गई। सरदार ने घोड़े पर से उतरते हुए पूछा-फिरोजा, यह तुम हो बहन !
– हाँ भाई बलराज ! मैं हूँ और यह है इरावती ! पूरी बात जैसे न सुनते हुए बलराज ने कहा-फिरोजा, अहमद से युद्ध होगा। इस जंगल को पार कर लेने पर तुर्क सेना जाटों का नाश कर देगी, इसलिए यहीं उन्हें रोकना होगा। तुमलोग इस समय कहाँ जाओगी?
-जहाँ कहो, बलराज अहमद की छाया से तो मुझे भी बचना है। फिरोजा ने अधीर होकर कहा।
– डरो मत फिरोजा, यह हिंदुस्तान है और यह हम हिंदुओं का धर्मयुद्ध है। गुलाम बनने का भय नहीं। -बलराज अभी यह कह ही रहा था कि वह चौंककर पीछे देखता हुआ बोल उठा- अच्छा, वे लोग आ ही गए। समय नहीं है। बलराज दूसरे ही क्षण में अपने घोड़े की पीठ पर था। अहमद की सेना सामने आ गई। बलराज को देखते ही उसने चिल्लाकर कहा- बलराज ! यह तुम्हीं हो।
-हाँ, अहमद।
– तो हमलोग दोस्त भी बन सकते हैं। अभी समय है— कहते-कहते सहसा उसकी दृष्टि फिरोजा और इरावती पर पड़ी। उसने समस्त व्यवस्था भूलकर, तुरंत ललकारा – पकड़ लो इन औरतों को ! उसी समय बलराज का भाला हिल उठा। युद्ध का प्रारंभ था।
जाटों की विजय के साथ युद्ध का अंत होने ही वाला था कि एक नया परिवर्तन हुआ। दूसरी ओर से तुर्क सेना जाटों की पीठ पर थी। घायल बलराज का भीषण भाला अहमद की छाती में पार हो रहा था। निराश जाटों की रण-प्रतिज्ञा अपनी पूर्ति करा रही थी। मरते हुए अहमद ने देखा कि गजनी की सेना के साथ तिलक सामने खड़े थे। सब के अस्त्र तो रुक गए, परंतु अहमद के प्राण न रुके। फिरोजा उसके शव पर झुकी हुई रो रही थी और इरावती मूर्छित हो रहे बलराज का सिर अपनी गोद में लिए थी। तिलक ने विस्मित होकर यह दृश्य देखा।
बलराज ने जल का संकेत किया। इरावती के हाथों में तिलक ने जल का पात्र दिया। जल पीते ही बलराज ने आँखें खोलकर कहा- इरावती, अब मैं न मरूँगा?
तिलक ने आश्चर्य से पूछा- इरावती?
फिरोजा ने रोते हुए कहा- हाँ राजा साहब, इरावती?
मेरी दुखिया इरावती। मुझे क्षमा कर, मैं तुझे भूल गया था। तिलक ने विनीत शब्दों में कहा।
– भाई! इरावती आगे कुछ न कह सकी, उसका गला भर आया था। उसने तिलक के पैर पकड़ लिये।
बलराज जाटों का सरदार है, इरावती रानी। चनाब का वह प्रांत इरावती की करूणा से हरा-भरा हो रहा है; किंतु फिरोजा की प्रसन्नता की वहीं समाधि बन गई और वहीं वह झाडू देती, फूल चढ़ाती और दीप जलाती रही। उस समाधि की वह आजीवन दासी बनी रही।
कहानी – दासी – शब्दार्थ
शब्द | हिंदी अर्थ | बांग्ला अर्थ | अंग्रेजी अर्थ |
बलराज | कहानी का नायक | বলরাজ (Balraj) | Protagonist’s name |
फिरोजा | कहानी की एक महत्त्वपूर्ण पात्र, तुर्क बाला | ফিরোজা (Firoza) | Character’s name, a Turkic girl |
कलाई | हाथ का मणिबंध | কব্জি (Kobji) | Wrist |
छुराव | छोटा चाकू, कटार | ছোরা (Chhora) | Dagger, Knife |
झुंझलाकर | खीझकर, क्रोधित होकर | বিরক্ত হয়ে (Birokto Hoye) | Annoyed, Irritated |
खिलाखिलाकर | जोर से हँसकर, ठहाका लगाकर | খিলখিল করে হেসে (Khilkhil Kore Hese) | Giggling, Bursting into laughter |
अल्हड़पन | भोलापन, नादानी, चंचलता | আলতোপনা, চঞ্চলতা (Altopona, Choncholota) | Naiveté, Playfulness |
तुर्क बाला | तुर्की युवती/लड़की | তুর্কি মেয়ে (Turki Meye) | Turkic girl |
हृदयों के स्नेह के समीप | सबके दिलों के करीब | সবার মনের কাছাকাছি (Sobar Moner Kachhakachhi) | Close to everyone’s hearts |
नीली नसें | (यहाँ) मांसपेशियाँ, शिराएँ | নীল শিরা (Neel Shira) | Blue veins (here, implying muscle prominence) |
जकड़ी हुई | कसी हुई, बंधी हुई | বাঁধা (Badha) | Gripped, Held tightly |
पुष्ट | मजबूत, बलिष्ठ | শক্তিশালী (Shoktishaali) | Strong, Muscular |
शिथिल | ढीला, कमजोर | শিথিল (Shithil) | Loose, Weakened |
बाधा | रुकावट, विघ्न | বাধা (Badha) | Obstacle, Hindrance |
हरी-भरी दुनिया | सुंदर और जीवंत संसार | সবুজ-ভরা পৃথিবী (Sobuj-Bhora Prithibi) | Lush, vibrant world |
सुनहला सवेरा | सुनहरा प्रभात | সোনালী সকাল (Sonali Sakal) | Golden morning |
चाँदी की रातें | चाँदनी रातें | চাঁদের আলোয় ভরা রাত (Chander Alok Bhora Raat) | Silvery nights (moonlit nights) |
मुँह मोड़कर | अनदेखा करके, त्याग कर | মুখ ফিরিয়ে (Mukh Phiriye) | Turning away from, Rejecting |
उछल-कूद का तमाशा | खेल-कूद का नजारा | লাফালাফি খেলার মজা (Lafalafi Khel Bolte Maja) | Playful spectacle, fun activities |
जिहून | एक नदी का नाम | জিহুন (Jihun) | Name of a river |
कब्र | समाधि | কবর (Kobor) | Grave, Tomb |
गज़नी | एक शहर का नाम | গজনি (Gajni) | Name of a city (Ghazni) |
भोंककर | चुभाकर, मारकर | ঢুকিয়ে দিয়ে (Dhukiye Diye) | Stabbing, Piercing |
बचपना | बचपन की हरकत, नादानी | ছেলেমানুষি (Chelemanushi) | Childishness |
शिल्पकला-प्रेम | मूर्तिकला/कला के प्रति प्रेम | শিল্পকলা প্রেম (Shilpakola Prem) | Love for art/sculpture |
गम्भीर प्रतिमा | गंभीर छवि/आकृति | গম্ভীর মূর্তি (Gombhir Murti) | Serious figure/statue |
कमानी वाला पुल | धनुषाकार पुल | ধনুকাকৃতি সেতু (Dhanukakriti Setu) | Arched bridge |
उदास छाया | दुखी परछाई | দুঃখী ছায়া (Dukhi Chhaya) | Sad shadow |
जलधारा | पानी का बहाव | জলধারা (Joldhara) | Water stream |
शोचनीय | दुःखद, खेदजनक | দুঃখজনক (Dukkhajonok) | Lamentable, Regrettable |
अपमान | अनादर, बेइज्जती | অপমান (Opoman) | Insult, Dishonor |
सिल्जूको | एक तुर्की वंश का नाम | সিলজুকো (Siljuko) | Seljuk (a Turkic dynasty) |
बेगाने | पराए, अजनबी | পর (Por) | Strangers, Outsiders |
निपट कपट चटसार | पूरी तरह कपट से भरी पाठशाला | সম্পূর্ণ কপটতায় ভরা পাঠশালা (Shompurṇo Kopototay Bhora Paṭhashala) | A school full of deceit |
साहू | सज्जन, सीधा व्यक्ति | ভালো মানুষ (Bhalo Manush) | Honest person, Gentleman |
एतबार | विश्वास, भरोसा | বিশ্বাস (Bishwash) | Trust, Belief |
प्रकृतिस्थ | सामान्य अवस्था में आना | স্বাভাবিক হওয়া (Shabhabik Hoya) | To become normal, Regain composure |
अहमद नियाल्तगीन | एक ऐतिहासिक सेनापति का नाम | আহমদ নিয়ালতগিন (Ahmad Nialtagin) | Name of a historical general |
पड़ाव | पड़ाव स्थल, डेरा | শিবির (Shibir) | Camp, Halt |
जवाहरात | रत्न, गहने | রত্ন (Rotno) | Jewels, Gems |
जरी कपड़ों | सोने-चांदी के तारों से बुने कपड़े | জরি কাপড় (Jori Kapod) | Zari embroidered clothes |
सुगंधित द्रव्यों | सुगंधित वस्तुएँ | সুগন্ধি দ্রব্য (Sugandhi Drobbo) | Fragrant substances |
तोरणों | द्वारों, प्रवेश-द्वारों | তোরণ (Toron) | Arches, Gateways |
गांगेय देव | एक शासक का नाम | গাঙ্গেয় দেব (Gangeya Deb) | Name of a ruler |
कन्नौज के प्रतिहार सम्राट् | कन्नौज के प्रतिहार वंश के सम्राट | কনৌজের প্রতিহার সম্রাট (Konaujer Protihar Somraṭ) | Pratihara Emperor of Kannauj |
त्रिपुरी | एक शहर का नाम (चेदि की राजधानी) | ত্রিপুরী (Tripuri) | Name of a city (capital of Chedi) |
कमख्वाब | एक प्रकार का रेशमी कपड़ा जिसमें सुनहरे धागे का काम होता है | কামখোয়াব (Kamkhoab) | Brocade (a type of rich silk fabric) |
मणिमुक्ताओं | मणियाँ और मोती | মণি-মুক্তা (Moni-Mukta) | Gems and pearls |
छूत-छूत | दूर-दूर, अलग-अलग (यहाँ दुकानों के पास होने का भाव) | লেগে থাকা (Lege Thaka) | Close by (here, shops being adjacent) |
तुर्की गुलाम का दास | तुर्की गुलाम का भी नौकर (तिरस्कारपूर्ण) | তুর্কি গোলামের দাস (Turki Golamer Das) | Slave of a Turkic slave (derogatory) |
कोप | क्रोध, गुस्सा | রাগ (Raag) | Anger |
हलचल | शोरगुल, गड़बड़ी | আলোড়ন (Aloṛon) | Commotion, Stir |
निर्विकारता | बिना किसी डर के | নির্ভয়ে (Nirbhoye) | Fearlessly |
आतंक | डर, भय | আতঙ্ক (Atongko) | Terror, Fear |
प्रतिरोध | विरोध, रोकना | প্রতিরোধ (Protiredh) | Resistance |
अश्वारोही | घुड़सवार | অশ্বারোহী (Oshwarohi) | Horseman, Cavalry |
निस्तब्ध रात्रि | शांत रात | নীরব রাত (Nirob Raat) | Silent night |
मंत्रणा | सलाह, गुप्त बातचीत | পরামর্শ (Poramorsho) | Consultation, Secret discussion |
अभिलाषा | इच्छा, आकांक्षा | আকাঙ্ক্ষা (Akankkha) | Desire, Ambition |
महत्वाकांक्षा | बड़ी चाहत, ऊँची इच्छा | উচ্চাকাঙ্ক্ষা (Uchchakaṅkṣhā) | Ambition |
कोमल वृत्तियाँ | कोमल भावनाएँ | কোমল অনুভূতি (Komal Onubhuti) | Tender feelings |
उद्दंड जाटों | शरारती, अशिष्ट जाट | দুর্দান্ত জাট (Durdanṭa Jaṭ) | Defiant Jats |
अबाध्य | आज्ञा न मानने वाला, विद्रोही | অবাধ্য (Obaddhyo) | Disobedient, Rebellious |
प्रत्यावर्तन | वापस लौटना | ফিরে আসা (Phire Asa) | Retreat, Return |
चंद्रभागा | एक नदी का नाम | চন্দ্রভাগা (Chondrobhaga) | Name of a river |
झुरमुट | पेड़ों का समूह, झाड़ी | ঝোপ (Jhop) | Bush, Thicket |
टीलों | छोटी पहाड़ियाँ, ऊँचे स्थान | টিলা (Ṭila) | Mounds, Small hills |
टापों | घोड़ों के खुरों की आवाज | খুরের শব্দ (Khurer Shobdo) | Hoofbeats |
उद्दीप्त | प्रदीप्त, चमकता हुआ | দীপ্ত (Dipto) | Illuminated, Radiant |
रण-प्रतिज्ञा | युद्ध की प्रतिज्ञा | যুদ্ধ প্রতিজ্ঞা (Juddho Protigya) | Battle vow |
विस्मित | आश्चर्यचकित, हैरान | বিস্মিত (Bismito) | Amazed, Astonished |
अनंत काल की दासी | जीवन भर की दासी | চিরকালের দাসী (Chirakaler Dasi) | Lifelong slave |
कहानी का ऐतिहासिक पक्ष
यह कहानी मध्यकालीन भारत के ऐतिहासिक परिवेश को लेकर रची गई है, जो गजनी के सुल्तान महमूद और उनके पुत्र मसऊद के शासनकाल (लगभग 11वीं शताब्दी) की पृष्ठभूमि पर आधारित है। कहानी में तुर्क आक्रमणों, हिंदू-तुर्क संबंधों, गुलामी और सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल को चित्रित किया गया है।
- ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: गजनी का शासन
सुल्तान महमूद और मसऊद का युग: कहानी सुल्तान महमूद गजनवी (998-1030 ई.) और उनके पुत्र मसऊद (1030-1041 ई.) के शासनकाल के समय की है। महमूद गजनवी अपने भारत पर आक्रमणों के लिए प्रसिद्ध था, विशेष रूप से सोमनाथ मंदिर (1025 ई.) की लूट के लिए। मसऊद का शासन उनके पिता की तुलना में कमजोर था और इस दौरान तुर्क साम्राज्य में आंतरिक विद्रोह और बाहरी चुनौतियाँ बढ़ रही थीं।
गजनी और पंजाब: कहानी में गजनी नदी और पंजाब का उल्लेख है, जो उस समय तुर्क शासन का केंद्र था। पंजाब में तुर्क सेनापतियों, जैसे अहमद नियाल्तगीन, को शासन की जिम्मेदारी दी गई थी। यह क्षेत्र तुर्कों और स्थानीय हिंदू समुदायों के बीच तनाव का केंद्र था।
सिल्जूक तुर्कों का प्रभाव: कहानी में सिल्जूक तुर्कों का उल्लेख है, जो 11वीं शताब्दी में मध्य एशिया में उभर रहे थे। वे गजनवी साम्राज्य के लिए एक चुनौती थे और मसऊद के शासन में उनकी बढ़ती शक्ति का असर दिखता है।
- तुर्क आक्रमण और लूट
लूट और गुलामी: कहानी में मुल्तान और कन्नौज की लूट का उल्लेख है, जो ऐतिहासिक रूप से सटीक है। सुल्तान महमूद ने मुल्तान (1005-06 ई.) और कन्नौज (1018-19 ई.) पर आक्रमण किए थे, जिनमें बड़ी संख्या में लोग बंदी बनाए गए और दास के रूप में बेचे गए। इरावती का दासी बनना और काशी में बिक्री इस ऐतिहासिक वास्तविकता को दर्शाती है।
व्यापार और बाजार: बनारस में तुर्क व्यापारियों का आगमन और वहाँ जरी के कपड़ों, जवाहरात और सुगंधित द्रव्यों की दुकानों का वर्णन उस समय के समृद्ध व्यापारिक केंद्रों को दर्शाता है। बनारस और कन्नौज उस समय के प्रमुख व्यापारिक और सांस्कृतिक केंद्र थे, जो तुर्क आक्रमणों के निशाने पर थे।
नागरिक अशांति: कहानी में बनारस के बाजार में तुर्कों और स्थानीय लोगों के बीच झगड़ा ऐतिहासिक रूप से तुर्क आक्रमणों के प्रति स्थानीय प्रतिरोध को दर्शाता है। तुर्कों का आतंक उत्तरी भारत में फैल चुका था, जैसा कि कहानी में वर्णित है।
- हिंदू-तुर्क संबंध
सहयोग और तनाव: कहानी में राजा तिलक जैसे हिंदू कर्मचारियों का सुल्तान के दरबार में उच्च पद पर होना ऐतिहासिक रूप से प्रासंगिक है। महमूद और मसऊद के शासन में कई हिंदू और स्थानीय लोग प्रशासन में शामिल थे जिनमें एक सेवंदराय भी थे। ऐसे कर्मचारी तुर्क शासकों के लिए कर संग्रह और शासन में सहायक थे। तिलक का अपराधबोध और हिंदू पहचान के प्रति उसकी निष्ठा उस समय के हिंदू बुद्धिजीवियों के द्वंद्व को दर्शाती है।
जाटों का विद्रोह: कहानी में जाटों का तुर्क शासन के खिलाफ विद्रोह ऐतिहासिक रूप से महत्त्वपूर्ण है। जाट समुदाय, विशेष रूप से पंजाब और हरियाणा क्षेत्र में, तुर्क शासन के खिलाफ कई बार विद्रोह कर चुके थे। बलराज का जाटों का सरदार बनना इस प्रतिरोध का प्रतीक है।
गुलामी की प्रथा: फिरोजा और इरावती की गुलामी उस समय की सामाजिक वास्तविकता को दर्शाती है। तुर्क आक्रमणों के दौरान हजारों लोग दास बनाए गए और दास व्यापार मध्य एशिया और भारत में प्रचलित था। कहानी में दासियों के नियम और उनके बिकने की प्रक्रिया इस प्रथा का यथार्थवादी चित्रण है।
- सामाजिक और सांस्कृतिक तत्त्व
हिंदू संस्कृति और मंदिर: विश्वनाथ मंदिर का उल्लेख और वहाँ की पूजा-अर्चना, घृत दीप और केशर-कस्तूरी की सुगंध हिंदू सांस्कृतिक परंपराओं को दर्शाती है। यह उस समय के धार्मिक जीवन और मंदिरों के महत्त्व को उजागर करता है, जो तुर्क आक्रमणों के बावजूद जीवित थे।
तुर्क संस्कृति: फिरोजा का गीत और तुर्कों की जीवनशैली, जैसे घोड़ों का व्यापार और उनकी सैन्य संगठन, तुर्क सांस्कृतिक तत्त्वों को दर्शाते हैं। तुर्कों की उभरती शक्ति और उनकी ‘नई लहर’ का उल्लेख उस समय के तुर्क साम्राज्य की विस्तारवादी नीति को दर्शाता है।
स्त्री की स्थिति: इरावती और फिरोजा के चरित्र उस समय की स्त्रियों की स्थिति को दर्शाते हैं। गुलामी और सामाजिक बंधनों के बावजूद, फिरोजा की सकारात्मकता और इरावती की नैतिक दृढ़ता नारी शक्ति को उजागर करती हैं।
- राजनीतिक परिदृश्य
पंजाब का स्वायत्त शासन: अहमद नियाल्तगीन का पंजाब को स्वतंत्र करने का प्रयास ऐतिहासिक रूप से प्रासंगिक है। गजनवी साम्राज्य के कमजोर होने पर कई स्थानीय शासक और सेनापति स्वतंत्रता की कोशिश करने लगे थे। पंजाब उस समय एक रणनीतिक क्षेत्र था, जो गजनी के नियंत्रण में था, लेकिन स्थानीय विद्रोहों का केंद्र भी था।
सुल्तान का रोष: कहानी में सुल्तान मसऊद के रोष और तिलक के साथ गजनी की सेना का आगमन उस समय की केंद्रीकृत शक्ति और विद्रोहों को दबाने की नीति को दर्शाता है।
- ऐतिहासिक प्रामाणिकता और साहित्यिक स्वतंत्रता
प्रामाणिकता: कहानी में गजनी, पंजाब, बनारस और कन्नौज जैसे स्थानों का उल्लेख ऐतिहासिक रूप से सटीक है। सुल्तान महमूद और मसऊद के शासन, तुर्क आक्रमण और जाट विद्रोह वास्तविक घटनाएँ हैं।
कहानी ‘दासी’ के प्रमुख पात्रों का परिचय
- बलराज
पृष्ठभूमि: बलराज एक हिंदू योद्धा है, जो गजनी के सुल्तान मसऊद की सेना में सेवा करता था। वह एक साहसी, संवेदनशील और आदर्शवादी व्यक्ति है, जो अपने अपमान और हार से गहरे दुख में है।
विशेषताएँ: बलराज में वीरता और प्रेम की गहरी भावना है, लेकिन वह अपनी विफलताओं और सामाजिक परिस्थितियों के कारण निराशा से ग्रस्त है। उसका प्रेम इरावती के प्रति अटूट है, पर वह गुलामी और सामाजिक बंधनों के कारण उसे पाने में असमर्थ महसूस करता है।
कहानी में भूमिका: बलराज कहानी का केंद्रीय पुरुष पात्र है। वह आत्महत्या की कगार पर होता है, लेकिन फिरोजा उसे जीवन की ओर प्रेरित करती है। बाद में, वह जाटों का सरदार बनता है और तुर्कों के खिलाफ युद्ध में नेतृत्व करता है। अंत में, वह इरावती के साथ जीवन बिताता है और चनाब प्रांत को समृद्ध बनाता है।
विकास: बलराज निराशा से शुरू होकर एक साहसी नेता के रूप में उभरता है, जो अपनी प्रेमिका और समुदाय के लिए लड़ता है।
- फिरोजा
पृष्ठभूमि: फिरोजा एक तुर्क युवती है, जो गुलामी की जिंदगी जी रही है। वह अल्हड़, चंचल और जीवन से भरी हुई है, जो अपने सकारात्मक दृष्टिकोण से दूसरों को प्रेरित करती है।
विशेषताएँ: फिरोजा में करुणा, साहस और जीवन के प्रति उत्साह है। वह गुलामी के बावजूद हँसना और दूसरों को प्रेरित करना जानती है। उसका हृदय दूसरों के दुख के प्रति संवेदनशील है।
कहानी में भूमिका: फिरोजा कहानी की आत्मा है। वह बलराज को आत्महत्या से रोकती है, इरावती को बचाती है और तिलक के संदेश को अहमद तक पहुँचाने की कोशिश करती है। वह बलराज और इरावती के प्रेम को एकजुट करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अंत में, वह एक समाधि की देखभाल में अपना जीवन समर्पित कर देती है।
विकास: फिरोजा की यात्रा एक गुलाम से स्वतंत्र आत्मा तक की है, जो अपने बलिदान से दूसरों को जीवन देती है। उसका अंत करुण है, क्योंकि वह अपनी प्रसन्नता को त्यागकर दूसरों की सेवा में लग जाती है।
- इरावती
पृष्ठभूमि: इरावती बलराज की प्रेमिका और राजा तिलक की बहन है। वह मुल्तान की लूट में पकड़ी गई और काशी के एक महाजन द्वारा दासी बना ली गई। वह एक दुखी और टूटी हुई आत्मा है, जो अपनी गुलामी के बंधनों में बंधी है।
विशेषताएँ: इरावती में गहरी नैतिकता और आत्मसम्मान है। वह अपनी गुलामी को स्वीकार करती है और अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ने से इंकार करती है। वह बलराज के प्रेम को ठुकराती है, क्योंकि वह स्वयं को “कलंकित” मानती है।
कहानी में भूमिका: इरावती कहानी का दुखद और भावनात्मक केंद्र है। उसका बलराज के साथ पुनर्मिलन और फिर अलगाव कहानी को गहराई देता है। अंत में, वह बलराज की रानी बनती है और चनाब प्रांत को समृद्ध बनाने में योगदान देती है।
विकास: इरावती का चरित्र दुख और गुलामी से शुरू होकर स्वतंत्रता और प्रेम की ओर बढ़ता है। वह अपनी पहचान को पुनः प्राप्त करती है और तिलक के साथ अपने रिश्ते को भी जोड़ती है।
- राजा तिलक
पृष्ठभूमि: तिलक सुल्तान महमूद और मसऊद का विश्वासपात्र हिंदू कर्मचारी है। वह एक बुद्धिमान और उच्च पदस्थ व्यक्ति है, जो अपनी हिंदू पहचान और तुर्क शासन के बीच संतुलन बनाए रखता है।
विशेषताएँ: तिलक में गहरी संवेदनशीलता और अपराधबोध है। वह अपनी बहन इरावती को भूल जाने और हिंदुस्तान के शोषण में सुल्तान की मदद करने के लिए स्वयं को दोषी मानता है। वह अपनी आकांक्षाओं और कर्तव्यों के बीच उलझा हुआ है।
कहानी में भूमिका: तिलक एक सहायक पात्र है, जो बलराज को हिंदुस्तान जाने की सलाह देता है और फिरोजा को आजादी का वादा करता है। वह अहमद को सुल्तान के खिलाफ बगावत न करने की सलाह देने के लिए फिरोजा को भेजता है। अंत में, वह अपनी बहन इरावती को पहचानता है और उससे क्षमा माँगता है।
विकास: तिलक का चरित्र एक बनावटी गंभीरता से शुरू होकर अपनी संवेदनशीलता और हिंदू पहचान को पुनः प्राप्त करने की ओर बढ़ता है। वह अपने अपराधबोध से मुक्ति पाने की कोशिश करता है।
- अहमद नियाल्तगीन
पृष्ठभूमि: अहमद एक तुर्क सेनापति है, जो पंजाब में सुल्तान मसऊद के अधीन शासन करता है। वह महत्वाकांक्षी है और पंजाब को स्वतंत्र करने का सपना देखता है।
विशेषताएँ: अहमद में साहस, महत्त्वाकांक्षा और क्रूरता का मिश्रण है। वह फिरोजा और इरावती के प्रति आकर्षित है, लेकिन उसकी पशुता और स्वार्थ उसे नकारात्मक बनाते हैं।
कहानी में भूमिका: अहमद कहानी में एक विरोधी पात्र के रूप में उभरता है। वह बनारस में व्यापारियों के साथ झगड़ा करता है और जाटों के खिलाफ युद्ध छेड़ता है। अंत में, वह बलराज के भाले से मारा जाता है।
विकास: अहमद का चरित्र महत्वाकांक्षा से शुरू होकर हार और मृत्यु तक जाता है। उसकी स्वार्थी प्रवृत्ति उसे फिरोजा और इरावती दोनों से दूर कर देती है।
कहानी का विस्तृत सारांश
यह कहानी मध्यकालीन भारत के ऐतिहासिक और सामाजिक परिवेश को आधार बनाकर रची गई है, जिसमें गजनी के सुल्तान मसऊद के शासनकाल की पृष्ठभूमि में हिंदू और तुर्क समुदायों के बीच तनाव, व्यक्तिगत भावनाएँ, प्रेम, गुलामी और स्वतंत्रता की चाह को चित्रित किया गया है। कहानी के मुख्य पात्र बलराज, फिरोजा, इरावती और राजा तिलक हैं, जो अपने-अपने दुख, आकांक्षाओं और नैतिकता के द्वंद्व में उलझे हैं। यहाँ कहानी का विस्तृत सारांश प्रस्तुत है:
कहानी का प्रारंभ
कहानी की शुरुआत में फिरोजा, एक चंचल और जीवंत तुर्क दासी युवती, बलराज को आत्महत्या करने से रोकती है। बलराज, एक हिंदू योद्धा, गजनी नदी के किनारे अपने छुरे से आत्महत्या करने की सोच रहा है। फिरोजा उसकी कलाई पकड़कर उसे जीवन की सुंदरता और जीने की इच्छा का महत्त्व समझाती है। बलराज उदास और निराश है, क्योंकि वह सुल्तान मसऊद की सेना में अपनी हार और अपमान से आहत है। वह अपने वीर साथियों की मृत्यु और सुल्तान द्वारा हिंदुओं और तुर्कों को नौकरी से हटाए जाने के कारण टूट चुका है। फिरोजा उसे प्रेरित करती है कि जीवन में उछल-कूद और आनंद है और वह उसे मरने नहीं देगी।
बलराज और इरावती की प्रेम कहानी
बलराज फिरोजा को बताता है कि वह एक युवती से प्रेम करता है, जिसके लिए वह धन-संपत्ति इकट्ठा करना चाहता था ताकि वह उससे विवाह कर सके। लेकिन सुल्तान की लूट में हिस्सा न मिलने के कारण वह निराश हो गया। फिरोजा, जो स्वयं गुलामी की जिंदगी जी रही है, बलराज को हिंदुस्तान जाने और अपनी प्रेमिका से मिलने की सलाह देती है। वह उसे पाँच दिरम देती है, जो उसे इनाम में मिले थे और भावुक होकर कहती है कि वह उसकी प्रेमिका से मिलना चाहती है। फिरोजा की आँखों में आँसू हैं, लेकिन वह हँसते हुए बलराज को प्रेरित करती है।
राजा तिलक का परिचय
इस बीच, राजा तिलक, सुल्तान महमूद का विश्वासपात्र हिंदू कर्मचारी, बलराज और फिरोजा की बातें सुन लेता है। वह बलराज के दुख को समझता है और उसे हिंदुस्तान जाने की सलाह देता है। तिलक स्वयं अपनी स्थिति से जूझ रहा है। वह सुल्तान के दरबार में उच्च पद पर है, लेकिन उसका हृदय हिंदुस्तान और उसकी बहन इरावती के लिए तरसता है, जिसे उसने वर्षों से नहीं देखा। वह फिरोजा को भी आजादी का वादा करता है और उसे अहमद नियाल्तगीन के पास हिंदुस्तान भेजने का फैसला करता है, ताकि वह अहमद को सुल्तान के खिलाफ बगावत न करने की सलाह दे। तिलक अपनी पहचान और कर्तव्यों के बीच उलझा हुआ है और वह हिंदुस्तान लौटने से डरता है, क्योंकि वह वहाँ अपनी बहन के दुख और अपने अपराधबोध का सामना नहीं कर सकता।
बलराज और इरावती का पुनर्मिलन
बलराज भारत पहुँच जाता है और बनारस के विश्वनाथ मंदिर में जाता है, जहाँ उसे एक स्त्री दिखती है, जिसे वह इरावती समझकर पुकारता है। यह वास्तव में इरावती है, जो अब एक दासी बन चुकी है। वह बताती है कि मुल्तान की लूट में उसे पकड़ लिया गया था और काशी के एक महाजन ने उसे पाँच सौ दिरम में खरीद लिया। उसने कठोर नियमों के तहत अपनी गुलामी स्वीकार की है और स्वयं को बंधन से मुक्त करने में असमर्थ है। इरावती बलराज से कहती है कि वह अब उसके प्रेम के योग्य नहीं, क्योंकि वह ‘कलंकित’ हो चुकी है। बलराज उससे प्रेम की पवित्रता की बात करता है, लेकिन इरावती अपने कर्तव्य और गुलामी के बंधनों के कारण उसे ठुकरा देती है। बलराज निराश होकर काशी छोड़ने का फैसला करता है।
बनारस में तुर्कों का आगमन
कहानी में अहमद नियाल्तगीन और फिरोजा बनारस पहुँचते हैं, जहाँ वे व्यापारियों के साथ झगड़ा मोल लेते हैं। बलराज, जो वहाँ मौजूद है, इरावती को बचाने के लिए नियाल्तगीन की तलवार रोकता है। फिरोजा इरावती को पहचान लेती है और नियाल्तगीन को उसे छोड़ने के लिए कहती है। स्थिति बिगड़ने पर वे धनदत्त के घर में शरण लेते हैं और तुर्क सैनिक बनारस की सेना से भिड़ जाते हैं। इस बीच, फिरोजा और इरावती एक साथ चंद्रभागा के तट पर पहुँचती हैं, जहाँ उनकी भावनात्मक बातचीत होती है। इरावती अपनी गुलामी और दुख को व्यक्त करती है, जबकि फिरोजा उसे जीवन की कोमलता खोने के लिए ताने देती है। बलराज, जो उनकी बातें सुन लेता है, निराश होकर चला जाता है।
अंतिम युद्ध और समापन
कहानी का अंत रावी नदी के किनारे अहमद नियाल्तगीन और बलराज के बीच युद्ध के साथ होता है। बलराज जाटों का नेतृत्व करता है, जो सुल्तान के खिलाफ बगावत कर रहे हैं। अहमद, जो पंजाब को स्वतंत्र करने की योजना बना रहा है, जाटों को अपने साथ मिलाने की कोशिश करता है, लेकिन युद्ध में वह घायल हो जाता है। तिलक गजनी की सेना के साथ वहाँ पहुँचता है और युद्ध का अंत देखता है। मरते हुए अहमद को फिरोजा रोती हुई देखती है, जबकि इरावती घायल बलराज का सिर गोद में लिए होती है। तिलक को पता चलता है कि इरावती उसकी बहन है और वह भावुक होकर उससे क्षमा माँगता है।
समापन
कहानी का अंत सकारात्मक और करुण दोनों है। बलराज जाटों का सरदार बनता है और इरावती उनकी रानी। चनाब का प्रांत उनकी करुणा से हरा-भरा हो जाता है। लेकिन फिरोजा, जो बलराज और इरावती को बचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, एक समाधि की देखभाल में अपने जीवन को समर्पित कर देती है। वह उस समाधि की आजीवन दासी बन जाती है, जो उसकी प्रसन्नता और बलिदान का प्रतीक है।
कहानी दासी की मुख्य विशेषताएँ
- प्रेम और बलिदान: बलराज और इरावती का प्रेम गुलामी और सामाजिक बंधनों से जूझता है। फिरोजा का बलिदान और करुणा कहानी को गहराई देती है।
- गुलामी और स्वतंत्रता: कहानी में गुलामी की पीड़ा और स्वतंत्रता की चाह को दर्शाया गया है, विशेष रूप से फिरोजा और इरावती के माध्यम से।
- पहचान का संकट: तिलक और बलराज दोनों अपनी हिंदू पहचान और तुर्क शासन के बीच उलझे हैं।
- नारी शक्ति: फिरोजा और इरावती की भूमिकाएँ नारी के साहस, करुणा और दृढ़ता को दर्शाती हैं।
यह कहानी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में मानवीय भावनाओं, नैतिकता और सामाजिक संघर्षों का सुंदर चित्रण करती है।
प्रश्न और उत्तर: दासी
– बहुविकल्पीय प्रश्न (MCQ) और उत्तर
- बलराज गजनी नदी के किनारे क्या करने की सोच रहा था?
a) प्रेमिका से मिलने की योजना बनाना
b) आत्महत्या करना
c) तुर्कों से युद्ध करना
d) हिंदुस्तान लौटने की तैयारी करना
उत्तर: b) आत्महत्या करना - फिरोजा ने बलराज को आत्महत्या करने से रोकने के लिए क्या किया?
a) उसे तलवार दी
b) उसकी कलाई पकड़ी
c) उसे गीत सुनाया
d) उसे धमकी दी
उत्तर: b) उसकी कलाई पकड़ी - फिरोजा के चरित्र की सबसे प्रमुख विशेषता क्या थी?
a) क्रोध
b) जीवन के प्रति उत्साह और चंचलता
c) उदासीनता
d) स्वार्थ
उत्तर: b) जीवन के प्रति उत्साह और चंचलता - बलराज ने अपनी निराशा का कारण क्या बताया?
a) सुल्तान की लूट में हिस्सा न मिलना
b) इरावती का उसे छोड़ देना
c) तुर्कों से युद्ध में हार
d) अपने परिवार का खो जाना
उत्तर: a) सुल्तान की लूट में हिस्सा न मिलना - इरावती ने बलराज को अपने प्रेम को क्यों ठुकराया?
a) क्योंकि वह उससे प्रेम नहीं करती थी
b) क्योंकि वह गुलामी के बंधनों में बंधी थी
c) क्योंकि वह तुर्क सेना में शामिल हो गई थी
d) क्योंकि वह राजा तिलक की पत्नी थी
उत्तर: b) क्योंकि वह गुलामी के बंधनों में बंधी थी - राजा तिलक का सुल्तान के दरबार में क्या पद था?
a) सेनापति
b) सलाहकार
c) कोषाध्यक्ष
d) दूत
उत्तर: b) सलाहकार - फिरोजा ने बलराज को क्या देकर हिंदुस्तान जाने के लिए प्रेरित किया?
a) सोने के सिक्के
b) पाँच दिरम
c) एक तलवार
d) एक पत्र
उत्तर: b) पाँच दिरम - अहमद नियाल्तगीन का मुख्य उद्देश्य क्या था?
a) सुल्तान मसऊद की सेवा करना
b) पंजाब को स्वतंत्र करना
c) बलराज से मित्रता करना
d) फिरोजा से विवाह करना
उत्तर: b) पंजाब को स्वतंत्र करना - इरावती ने अपनी गुलामी के कठोर नियमों के बारे में क्या बताया?
a) वह कभी नहीं भाग सकती थी
b) वह अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करेगी
c) वह कभी आत्महत्या नहीं करेगी
d) उपरोक्त सभी
उत्तर: d) उपरोक्त सभी - बनारस में तुर्कों और स्थानीय लोगों के बीच झगड़े का कारण क्या था?
a) फिरोजा का अपमान
b) व्यापारियों का तुर्कों पर हमला
c) तुर्कों की लूट
d) बलराज का हस्तक्षेप
उत्तर: a) फिरोजा का अपमान - कहानी के अंत में बलराज का क्या पद था?
a) सुल्तान का सेनापति
b) जाटों का सरदार
c) गजनी का शासक
d) इरावती का दास
उत्तर: b) जाटों का सरदार - फिरोजा ने अंत में क्या किया?
a) बलराज के साथ विवाह किया
b) समाधि की दासी बनी
c) गजनी लौट गई
d) अहमद की सेना में शामिल हुई
उत्तर: b) समाधि की दासी बनी - तिलक ने फिरोजा को अहमद के पास क्यों भेजा?
a) उसे आजाद करने के लिए
b) सुल्तान के खिलाफ बगावत रोकने के लिए
c) इरावती को खोजने के लिए
d) व्यापार के लिए
उत्तर: b) सुल्तान के खिलाफ बगावत रोकने के लिए - इरावती ने बलराज को विश्वनाथ मंदिर में क्या कहा?
a) वह उससे प्रेम करती है
b) वह उसकी पत्नी नहीं बन सकती
c) वह गजनी वापस जाना चाहती है
d) वह उसका इंतजार कर रही थी
उत्तर: b) वह उसकी पत्नी नहीं बन सकती - कहानी में चनाब प्रांत का क्या महत्त्व था?
a) सुल्तान का मुख्यालय
b) बलराज और इरावती का शासित क्षेत्र
c) तुर्कों का व्यापारिक केंद्र
d) जाटों का विद्रोह स्थल
उत्तर: b) बलराज और इरावती का शासित क्षेत्र
एक-वाक्य प्रश्न और उत्तर
- प्रश्न: फिरोजा ने बलराज की कलाई क्यों पकड़ी?
उत्तर: फिरोजा ने बलराज की कलाई पकड़ी क्योंकि उसकी मुट्ठी में एक भयानक छुरा चमक रहा था।
- प्रश्न: फिरोजा युवती से अधिक क्या थी?
उत्तर: फिरोजा युवती से अधिक बालिका थी।
- प्रश्न: फिरोजा के अनुसार सुख किसमें है?
उत्तर: फिरोजा के अनुसार सुख जीने में है।
- प्रश्न: बलराज किस नदी के किनारे मरने जा रहा था?
उत्तर: बलराज गजनी नदी के किनारे मरने जा रहा था।
- प्रश्न: बलराज अपने मरने को क्यों अपमानजनक मानता था?
उत्तर: बलराज अपने मरने को अपमानजनक मानता था क्योंकि उसके वीर साथी कटार से लिपटकर गजनी की गोद में सो गए थे।
- प्रश्न: सुल्तान ने किन लोगों को नौकरी से अलग कर दिया था?
उत्तर: सुल्तान ने सिल्जूकों से हारे हुए तुर्क और हिंदू दोनों को नौकरी से अलग कर दिया था।
- प्रश्न: बलराज अपनी प्रेमिका के लिए क्या करने वाला था?
उत्तर: बलराज अपनी प्रेमिका से विवाह करने वाला था जब वह अमीर हो जाएगा।
- प्रश्न: फिरोजा ने बलराज को मरने से क्यों रोका?
उत्तर: फिरोजा ने बलराज को मरने से रोका क्योंकि वह उसे बेकार मरते हुए नहीं देखना चाहती थी।
- प्रश्न: फिरोजा की गुलामी से मुक्ति का क्या आधार था?
उत्तर: फिरोजा की गुलामी से मुक्ति का आधार अहमद द्वारा भेजे जाने वाले एक हजार सोने के सिक्के थे।
- प्रश्न: फिरोजा के अनुसार गुलाम होने पर भी क्यों नहीं रोना चाहिए?
उत्तर: फिरोजा के अनुसार गुलाम होने पर भी नहीं रोना चाहिए क्योंकि जो आज गुलाम है वही कल सुल्तान हो सकता है।
- प्रश्न: फिरोजा ने बलराज को कितने दिरम दिए?
उत्तर: फिरोजा ने बलराज को पाँच दिरम दिए।
- प्रश्न: बलराज के हाथों से दिरम फिसलने के बाद कौन सामने आया?
उत्तर: बलराज के हाथों से दिरम फिसलने के बाद राजा तिलक सामने आया।
- प्रश्न: राजा तिलक ने बलराज को हिंदुस्तान क्यों जाने की सलाह दी?
उत्तर: राजा तिलक ने बलराज को हिंदुस्तान जाने की सलाह दी क्योंकि वह उसके दुःख का अनुभव कर रहे थे।
- प्रश्न: तिलक सुल्तान महमूद का कैसा कर्मचारी था?
उत्तर: तिलक सुल्तान महमूद का अत्यंत विश्वासपात्र हिंदू कर्मचारी था।
- प्रश्न: तिलक ने फिरोजा से क्या प्रश्न पूछा?
उत्तर: तिलक ने फिरोजा से पूछा कि क्या वह अहमद के पास हिंदुस्तान जाना चाहती है।
- प्रश्न: तिलक ने फिरोजा को हिंदुस्तान क्यों भेजा?
उत्तर: तिलक ने फिरोजा को अहमद को यह समझाने के लिए भेजा कि वह पंजाब के बाहर लूटपाट न करे।
- प्रश्न: तिलक को अपनी किस बात का पश्चाताप था?
उत्तर: तिलक को अपनी बहन इरावती को भूल जाने का पश्चाताप था।
- प्रश्न: फिरोजा के गीत की ध्वनि क्या थी?
उत्तर: फिरोजा के गीत की ध्वनि थी कि वह जलती हुई दीप शिखा है और प्रियतम प्रभात है।
- प्रश्न: बलराज ने मंदिर के द्वारपालों को कैसा देखा?
उत्तर: बलराज ने मंदिर के द्वारपालों को तेल से चुपड़े हुए काले-काले दूतों के समान देखा।
- प्रश्न: बलराज ने मंदिर में किससे प्रार्थना की?
उत्तर: बलराज ने मंदिर में देव से अपनी प्रेम-प्रतिमा के दर्शन की प्रार्थना की।
- प्रश्न: इरावती ने बलराज से विवाह करने से क्यों इनकार कर दिया?
उत्तर: इरावती ने बलराज से विवाह करने से इनकार कर दिया क्योंकि वह आततायी के हाथ से कलंकित की गई थी।
- प्रश्न: इरावती कितने दिरम पर बिकी थी?
उत्तर: इरावती पाँच सौ दिरम पर बिकी थी।
- प्रश्न: इरावती को किसने दासी बनाया था?
उत्तर: इरावती को काशी के ही एक महाजन ने दासी बनाया था।
- प्रश्न: बलराज ने यवनों की सेवा क्यों की थी?
उत्तर: बलराज ने यवनों की सेवा इरावती को खोजने के लिए की थी।
- प्रश्न: बलराज काशी छोड़कर कहाँ जाने का निश्चय किया था?
उत्तर: बलराज काशी छोड़कर प्रतिष्ठान जाने का निश्चय किया था।
- प्रश्न: बनारस में अश्वारोही दल में कौन था?
उत्तर: बनारस में अश्वारोही दल में नियाल्तगीन था।
- प्रश्न: नियाल्तगीन बलराज को अपने साथ क्यों लेना चाहता था?
उत्तर: नियाल्तगीन बलराज को अपने साथ लेना चाहता था क्योंकि वह उसकी तलवार की कीमत जानता था।
- प्रश्न: बनारस की गलियों की क्या विशेषता थी?
उत्तर: बनारस की पत्थर से बनी हुई चौड़ी गलियाँ जवाहरात, जरी कपड़ों, बर्तन तथा सुगंधित द्रव्यों की सजी हुई दुकानों से निराली दिखती थीं।
- प्रश्न: बनारस में बाजार में झगड़ा क्यों हुआ?
उत्तर: बनारस में बाजार में झगड़ा तब हुआ जब दुकानदार ने फिरोजा को कंगाल कहा और बलराज ने उसे चुप रहने को कहा।
- प्रश्न: नियाल्तगीन ने बनारस में तुर्की में क्या संकेत किया?
उत्तर: नियाल्तगीन ने बनारस में तुर्की में संकेत किया कि वे युद्ध करें और लूटपाट करें।
- प्रश्न: युद्ध के दौरान इरावती ने जौहरी को बचाने के लिए क्या कहा?
उत्तर: युद्ध के दौरान इरावती ने जौहरी को बचाने के लिए कहा, “इन्हें छोड़ दो, न मारो।”
- प्रश्न: फिरोजा और इरावती युद्ध के बाद कहाँ बैठी थीं?
उत्तर: फिरोजा और इरावती चंद्रभागा के तट पर शिविरों के समीप घने वृक्षों के झुरमुट में बैठी थीं।
- प्रश्न: इरावती ने अपने आप को क्या कहा?
उत्तर: इरावती ने अपने आप को एक दासी कहा, “कुछ धातु के टुकड़ों पर बिकी हुई हाड़-मांस का समूह।”
- प्रश्न: अहमद नियाल्तगीन कहाँ का शासक बनने की अभिलाषा रखता था?
उत्तर: अहमद नियाल्तगीन पंजाब का स्वतंत्र शासक बनने की अभिलाषा रखता था।
- प्रश्न: अहमद ने इरावती से क्या लाने को कहा?
उत्तर: अहमद ने इरावती से थोड़ी शीराजी लाने को कहा।
- प्रश्न: फिरोजा अहमद को छोड़कर क्यों चली गई?
उत्तर: फिरोजा अहमद को छोड़कर चली गई क्योंकि अहमद ने तिलक को उसका दाम नहीं चुकाया था और उसने इरावती के प्रति अनुचित व्यवहार किया था।
- प्रश्न: बलराज ने जाटों को क्या संदेश दिया था?
उत्तर: बलराज ने जाटों को पराधीनता से मुक्त होने का संदेश सुनाकर उन्हें सुल्तान-सरकार का अबाध्य बना दिया था।
- प्रश्न: युद्ध में अहमद की छाती में क्या पार हो रहा था?
उत्तर: युद्ध में अहमद की छाती में बलराज का भीषण भाला पार हो रहा था।
- प्रश्न: घायल बलराज का सिर किसकी गोद में था?
उत्तर: घायल बलराज का सिर इरावती की गोद में था।
- प्रश्न: फिरोजा ने आजीवन किसकी दासी बनी रही?
उत्तर: फिरोजा आजीवन अहमद की समाधि की दासी बनी रही।
– प्रश्न और उत्तर (लगभग 40 शब्द)
- प्रश्न: फिरोजा ने बलराज को मरने से क्यों रोका, और उसका जीवन के प्रति क्या दृष्टिकोण था?
उत्तर: फिरोजा ने बलराज को मरने से रोका क्योंकि वह मानती थी कि सुख जीने में है, न कि मरने में। उसका मानना था कि इस हरी-भरी दुनिया, नदियों के किनारे, सुनहरे सवेरे और चाँदी की रातों का आनंद लेना ही वास्तविक सुख है, और बेकार मरना बचपना है।
- प्रश्न: बलराज क्यों मरने को तैयार था, और उसे किस बात का अपमान महसूस हो रहा था?
उत्तर: बलराज अपने वीर साथियों की शोचनीय मृत्यु के कारण मरने को तैयार था, जिन्हें सुल्तान ने नौकरी से निकाल दिया था। उसे यह अपमान महसूस हो रहा था कि तुर्क सुल्तान के अपने लोग थे, जबकि हिंदू बेगाने, और यह अपमान मरने से भी बढ़कर था।
- प्रश्न: बलराज ने अपनी प्रेमिका के बारे में फिरोजा को क्या बताया था?
उत्तर: बलराज ने बताया कि उसकी प्रेमिका भी उसकी तरह कंगाल थी। उसने वादा किया था कि वह लड़ाई पर जाएगा, सुल्तान की लूट में धन कमाएगा, और अमीर होकर उससे शादी करेगा।
- प्रश्न: फिरोजा अपनी गुलामी से कैसे मुक्त होने की उम्मीद कर रही थी?
उत्तर: फिरोजा अपनी गुलामी से मुक्त होने की उम्मीद कर रही थी क्योंकि अहमद ने राजा तिलक को एक हजार सोने के सिक्के भेजने का वादा किया था, ताकि फिरोजा को आज़ाद किया जा सके और वह हिंदुस्तान जा सके।
- प्रश्न: राजा तिलक बलराज को हिंदुस्तान जाने की सलाह क्यों दे रहे थे, और उनके मन में क्या चल रहा था?
उत्तर: राजा तिलक बलराज के दुख को समझते हुए उसे हिंदुस्तान जाने की सलाह दे रहे थे। उनके मन में अपनी बहन इरावती और हिंदुस्तान के प्रति अपनी उपेक्षा का गहरा पश्चाताप था, जिसे वे अपनी आकांक्षाओं में भूल गए थे।
- प्रश्न: तिलक ने फिरोजा को अहमद के पास हिंदुस्तान क्यों भेजा था?
उत्तर: तिलक ने फिरोजा को अहमद के पास हिंदुस्तान इसलिए भेजा था ताकि वह अहमद को समझाए कि वह पंजाब के बाहर लूटपाट न करे, और यह भी बताया कि वह सुल्तान से अहमद को खजाने और मालगुजारी का अधिकार दिला देंगे।
- प्रश्न: इरावती ने बलराज से विवाह करने से क्यों मना कर दिया था?
उत्तर: इरावती ने बलराज से विवाह करने से मना कर दिया क्योंकि वह आततायी के हाथों कलंकित हो गई थी। उसने कहा कि उसका जीवन अनुताप की ज्वाला से झुलसा हुआ है और वह स्नेह के योग्य नहीं है, और वह एक क्रीत दासी थी।
- प्रश्न: इरावती ने अपनी दासी के रूप में अपनी स्थिति का वर्णन कैसे किया?
उत्तर: इरावती ने खुद को “क्रीत दासी” बताया, जिसे पाँच सौ दिरम पर बेचा गया था। उसने कहा कि उसका शरीर धातु के टुकड़ों पर बिका हुआ हाड़-मांस का समूह है, जिसके भीतर एक सूखा हृदय है, और वह अपने स्वामी के कठोर नियमों से बंधी थी।
- प्रश्न: बनारस में बलराज की मुलाकात नियाल्तगीन से कैसे हुई, और नियाल्तगीन ने बलराज से क्या कहा?
उत्तर: बलराज जब काशी छोड़कर जा रहा था, तो उसकी मुलाकात अश्वारोहियों के एक दल से हुई, जिसमें नियाल्तगीन भी था। नियाल्तगीन ने बलराज को अपने साथ चलने को कहा, क्योंकि वह उसकी तलवार की कीमत जानता था और उसे हिंदू बने रहने के लिए ताना मारा।
- प्रश्न: बनारस के बाज़ार में फिरोजा के साथ क्या हुआ, और बलराज ने इसमें कैसे हस्तक्षेप किया?
उत्तर: बनारस के बाज़ार में एक दुकानदार ने फिरोजा को “कंगाल” कहकर अपमानित किया। इस पर बलराज ने दुकानदार को चुप रहने की चेतावनी दी, जिसके बाद नियाल्तगीन ने तलवार निकाली और बाज़ार में हंगामा मच गया।
- प्रश्न: युद्ध के दौरान इरावती और फिरोजा की भूमिका क्या थी, और उन्हें किसने बचाया?
उत्तर: युद्ध के दौरान, इरावती ने जौहरी को बचाने की कोशिश की, और फिरोजा ने बलराज से इरावती को लेकर चलने को कहा। नियाल्तगीन ने इरावती को अपने साथ ले जाने का निर्णय लिया, और बलराज, इरावती व फिरोजा को सुरक्षित बाहर निकाला गया।
- प्रश्न: इरावती और फिरोजा चंद्रभागा के तट पर क्या बात कर रही थीं?
उत्तर: चंद्रभागा के तट पर इरावती और फिरोजा बलराज के प्रति इरावती के प्रेम के बारे में बात कर रही थीं। इरावती ने अपनी दासी होने की स्थिति और दुख भरे जीवन के कारण प्यार को स्वीकार करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की।
- प्रश्न: अहमद नियाल्तगीन की महत्वाकांक्षा क्या थी, और उसने जाटों के खिलाफ क्यों युद्ध छेड़ा?
उत्तर: अहमद नियाल्तगीन पंजाब का स्वतंत्र शासक बनना चाहता था। उसने दिखावे के लिए जाटों के खिलाफ युद्ध छेड़ा, लेकिन उसका असली मकसद उन्हें अपने साथ मिलाकर गजनी से पंजाब को अलग करना था, क्योंकि उसे सुल्तान के रोष और तिलक के साथ गजनी की सेना के आने की खबर थी।
- प्रश्न: युद्ध का अंत कैसे हुआ, और बलराज व अहमद की क्या दशा हुई?
उत्तर: युद्ध जाटों की जीत के साथ समाप्त होने ही वाला था कि तिलक के नेतृत्व में गजनी की सेना आ गई। बलराज ने घायल होकर अहमद को भाले से मार दिया। अहमद की मृत्यु हुई, और बलराज घायल होकर इरावती की गोद में मूर्छित हो गया।
- प्रश्न: कहानी के अंत में बलराज, इरावती और फिरोजा का क्या भाग्य हुआ?
उत्तर: बलराज जाटों का सरदार बना और इरावती उसकी रानी बनकर चनाब प्रांत को अपनी करुणा से हरा-भरा करने लगी। फिरोजा की प्रसन्नता की समाधि वहीं अहमद के शव पर बनी, और वह आजीवन उस समाधि की दासी बनी रही।
प्रश्न और उत्तर (लगभग 70 शब्द)
- बलराज की निराशा और आत्महत्या के विचार का कारण क्या था और फिरोजा ने उसे कैसे रोका?
उत्तर: बलराज सुल्तान मसऊद की सेना में हार, अपने साथियों की मृत्यु और लूट में हिस्सा न मिलने के अपमान से निराश था, जिसके कारण वह गजनी नदी के किनारे आत्महत्या करना चाहता था। फिरोजा ने उसकी कलाई पकड़कर, जीवन की सुंदरता और उछल-कूद के तमाशे की बात की और उसे पाँच दिरम देकर हिंदुस्तान जाने के लिए प्रेरित किया। - फिरोजा का चरित्र कहानी में किस प्रकार उभरता है और उसका बलराज के साथ संबंध कैसा है?
उत्तर: फिरोजा एक चंचल, उत्साही और करुणामयी तुर्क दासी है, जो गुलामी के बावजूद जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखती है। वह बलराज को आत्महत्या से रोकती है, उसे पाँच दिरम देती है और उसकी प्रेमिका इरावती से मिलने की प्रेरणा देती है, जो उनके बीच गहरी मित्रता और भावनात्मक बंधन को दर्शाता है। - इरावती ने विश्वनाथ मंदिर में बलराज के प्रेम को क्यों ठुकराया और उसकी गुलामी की स्थिति क्या थी?
उत्तर: इरावती ने बलराज के प्रेम को ठुकराया क्योंकि वह मुल्तान की लूट में पकड़ी गई थी और काशी के एक महाजन ने उसे पाँच सौ दिरम में दासी बना लिया था। उसने कठोर नियमों के तहत गुलामी स्वीकार की थी, जिसके कारण वह स्वयं को “कलंकित” और प्रेम के अयोग्य मानती थी। - राजा तिलक का हिंदू पहचान और सुल्तान के प्रति कर्तव्य के बीच क्या द्वंद्व था?
उत्तर: राजा तिलक सुल्तान महमूद और मसऊद का सलाहकार था, जिसने उसे प्रतिष्ठा दी, लेकिन वह अपनी हिंदू पहचान और अपनी बहन इरावती के प्रति अपराधबोध से जूझता था। उसने हिंदुस्तान के शोषण में सुल्तान की मदद की, जिससे वह अपनी जन्मभूमि के दुख को भूल गया और हिंदुस्तान लौटने से डरता था। - बनारस में तुर्कों और स्थानीय लोगों के बीच झगड़े का कारण और परिणाम क्या था?
उत्तर: बनारस में एक व्यापारी ने फिरोजा का अपमान किया, जिसके कारण नियाल्तगीन और बलराज ने हस्तक्षेप किया और तुर्कों व स्थानीय लोगों के बीच युद्ध शुरू हुआ। तुर्कों ने लूट शुरू की और नियाल्तगीन ने इरावती और फिरोजा को धनदत्त के घर ले जाकर बचाया, जिससे स्थिति और तनावपूर्ण हो गई। - अहमद नियाल्तगीन की महत्वाकांक्षा और उसका अंत कैसे हुआ?
उत्तर: अहमद नियाल्तगीन पंजाब को सुल्तान मसऊद से स्वतंत्र करने की महत्वाकांक्षा रखता था और जाटों को अपने पक्ष में करने की कोशिश की। लेकिन रावी नदी के युद्ध में बलराज के भाले से घायल होकर उसकी मृत्यु हो गई और उसकी योजना विफल हो गई। - फिरोजा ने कहानी के अंत में समाधि की दासी बनने का निर्णय क्यों लिया?
उत्तर: फिरोजा ने अपनी करुणा और बलिदान की भावना के कारण समाधि की दासी बनने का निर्णय लिया, जो उसके जीवन के उल्लास और दूसरों के लिए त्याग को दर्शाता है। वह बलराज और इरावती को एकजुट करने के बाद स्वयं को समाधि की सेवा में समर्पित कर देती है। - इरावती और फिरोजा के बीच चंद्रभागा तट पर संवाद का क्या महत्त्व था?
उत्तर: चंद्रभागा तट पर इरावती और फिरोजा का संवाद उनकी भावनात्मक गहराई और दृष्टिकोण के अंतर को दर्शाता है। इरावती अपनी गुलामी और दुख से टूटी हुई है, जबकि फिरोजा उसे जीवन की कोमलता की याद दिलाती है, जो उनके चरित्रों और बलराज के प्रति उनके दृष्टिकोण को उजागर करता है। - बलराज और जाटों के विद्रोह का कहानी में क्या महत्त्व था?
उत्तर: बलराज ने जाटों को सुल्तान के खिलाफ विद्रोह के लिए संगठित किया, जो तुर्क शासन के प्रति स्थानीय प्रतिरोध को दर्शाता है। यह विद्रोह उनकी नेतृत्व क्षमता और हिंदू पहचान की पुनर्स्थापना को उजागर करता है, जिसके परिणामस्वरूप वह जाटों का सरदार बना और चनाब प्रांत को समृद्ध किया। - तिलक ने अपनी बहन इरावती के प्रति अपराधबोध क्यों महसूस किया?
उत्तर: तिलक ने अपनी बहन इरावती को वर्षों तक भूलने और हिंदुस्तान के शोषण में सुल्तान की मदद करने के कारण अपराधबोध महसूस किया। वह अपनी हिंदू पहचान और अपनी बहन के दुखों को नजरअंदाज करने के लिए स्वयं को दोषी मानता था, जिसे उसने अंत में इरावती से क्षमा माँगकर व्यक्त किया।