हजारी प्रसाद द्विवेदी : लेखक परिचय
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म 19 अगस्त 1907 में बलिया जिले के दुबे-का-छपरा नामक गाँव में हुआ। परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। उनके पिता पं. अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। प्राथमिक शिक्षा और मिडिल की पढ़ाई द्विवेदी जी ने गाँव के स्कूल से ही की। ज्योतिष शास्त्र में आचार्य भी किया। हजारी प्रसाद द्विवेदी की रचनाएँ हिंदी साहित्य की भूमिका, हिंदी साहित्य, हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास, हिंदी साहित्य का आदिकाल, नाथ संप्रदाय, सूर साहित्य, कबीर, बाणभट्ट की आत्मकथा, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा, चारु चंद्रलेख, मृत्युंजय रवींद्र, आलोक पर्व, कुटज आदि। द्विवेदी जी शान्तिनिकेतन में हिंदी के विभाग के अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे। बाद में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय एवं पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ में हिंदी के विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे। इसके बाद वह फिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के रेक्टर (मुख्य) बने। द्विवेदी जी जीवन पर्यंत साहित्य साधना में लगे रहे। हिंदी आलोचना में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के समकक्ष इनका योगदान एवं महत्त्व है। द्विवेदी जी भारतीय साहित्य, दर्शन एवं संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। वह गंभीर चिंतक, विचारक, उच्चकोटि के समीक्षक एवं कुशल वक्ता थे। हिंदी के श्रेष्ठ मौलिक निबंधकारों में उनका नाम उल्लेखनीय है।
विचार और वितर्क, विचार-प्रवाह, अशोक के फूल, कुटज, कल्पलता, आलोक-पर्व, साहित्य के साथी उनके प्रमुख निबंध संग्रह हैं। सूर-साहित्य, कबीर, हमारी साहित्यिक समस्याएँ, साहित्य का मर्म आदि उनकी आलोचनात्मक रचनाएँ हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास में भी द्विवेदी जी ने नई दृष्टि से शोध किए हैं। हिंदी साहित्य की भूमिका, हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास, हिंदी साहित्य का आदिकाल उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। बाणभट्ट की आत्मकथा, अनामदास का पोथा, चारू चन्द्रलेख, पुनर्नवा उनके उपन्यास हैं। प्राचीन भारत का कला विकास, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद उनकी भारतीय संस्कृति और इतिहास के संबंधित रचनाएँ हैं। उन्होंने अनेक रचनाओं का अनुवाद भी किया है।
लखनऊ विश्वविद्यालय से उन्हें डी.लिट् की उपाधि प्राप्त हुई। ‘कबीर’ कृति पर उन्हें मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्रदान किया गया है। भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित किया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का 4 फरवरी 1979 को पक्षाघात के शिकार हुए और 19 मई 1979 को ब्रेन ट्यूमर से दिल्ली में उनका निधन हो गया।
कुटज
कहते हैं, पर्वत शोभा-निकेतन होते हैं। फिर हिमालय का तो कहना ही क्या ! पूर्व और अपर समुद्र- महोदधि और रत्नाकर – दोनों को दोनों भुजाओं से थामता हुआ हिमालय पृथ्वी का ‘मानदण्ड’ कहा जाए तो गलत क्या है? कालिदास ने ऐसा ही कहा था। इसी के पाद- देश में यह शृंखला दूर तक लोटी हुई है, लोग इसे ‘शिवालिक’ कहते हैं। ‘शिवालिक’ का क्या अर्थ है? ‘शिवालिक’ शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा तो नहीं है। लगता तो ऐसे ही है। ‘सपादलक्ष’ या सवा लाख की मालगुजारी वाला इलाका तो वह लगता नहीं ! शिव की लटियायी जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती। वैसे, अलकनन्दा का स्रोत यहाँ से काफी दूरी पर है, लेकिन शिव का अलक तो दूर-दूर तक छितराया ही रहता होगा। सम्पूर्ण हिमालय को देखकर ही किसी के मन में समाधिस्थ महादेव की मूर्ति स्पष्ट हुई होगी। उसी समाधिस्थ महादेव के अलक-जाल के निचले हिस्से का प्रतिनिधित्व यह गिरि शृंखला कर रही होगी। कहीं-कहीं अज्ञात-नाम-गोत्र, झाड़-झंखाड़ और बेहया से पेड़ खड़े अवश्य दिख जाते हैं, पर और कोई हरियाली नहीं। दूब तक सूख गयी है ! काली-काली चट्टानें और बीच में शुष्कता की अन्तर्निरुद्ध सत्ता का इजहार करने वाली रक्ताभ रेती है! रस कहाँ! ये जो ठिंगने से लेकिन शानदार दरख्त गर्मी की भयंकर मार खा-खाकर और भूख-प्यास की निरन्तर चोट सह – सहकर भी जी रहे हैं, इन्हें क्या कहूँ? सिर्फ जी ही नहीं रहे हैं, हँस भी रहे है। बेहया हैं क्या? या मस्तमौला हैं? कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफी गहरी पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस गह्वर से अपना भोग्य खींच लाते हैं।
शिवालिक की सूखी नीरस पहाड़ियों पर मुस्कराते हुए ये वृक्ष द्वन्द्वातीत हैं, अलमस्त हैं। मैं किसी का नाम नहीं जानता, कुल नहीं जानता, शील नहीं जानता, पर लगता है, ये जैसे मुझे अनादि काल से जानते हैं। इन्हीं में छोटा-सा बहुत ही ठिंगना- पेड़ है, पत्ते चौड़े भी हैं, बड़े भी हैं। फूलों से तो ऐसा लदा है कि कुछ पूछिए नहीं। अजीब सी अदा है, मुस्कराता जान पड़ता है, पूछ रहा है कि क्या तुम मुझे नहीं पहचानते? पहचानता तो हूँ; अवश्य पहचानता हूँ। लगता है, बहुत बार देख चुका हूँ, पहचानता हूँ? नाम नहीं याद आता। पर नाम ऐसा है कि जब तक रूप के पहले ही हाजिर न हो जाए, तब तक रूप की पहचान अधूरी रह जाती है। भारतीय पण्डितों का सैकड़ों बार का कचारा-निचोड़ा प्रश्न सामने आ गया रूप मुख्य है या नाम? नाम बड़ा है या रूप? पद पहले है या पदार्थ? पदार्थ सामने है, पद नहीं सूझ रहा है। मन व्याकुल हो गया; स्मृतियों के पंख फैलाकर सुदूर अतीत के कोनों में झाँकता रहा। सोचता हूँ, इसमें व्याकुल होने की क्या बात है? नाम में क्या रखा है – ह्वाट्स देअर इन ए नेम ! नाम की जरूरत ही हो तो सौ दिये जा सकते हैं। सुस्मिता, गिरिकान्ता, वनप्रभा, शुभ्रकिरीटिनी, मंदोद्धता, विजितातपा, अलकावसंता बहुत से नाम हैं। या फिर पौरूष-व्यंजक नाम भी दिये जा सकते हैं- अकुतोभय, गिरिगौरव, कूटोल्लास, अपराजित, धरतीधकेल, पहाड़फोड़, पातालभेद। पर मन नहीं मानता। नाम इसलिए बड़ा नहीं है कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। रूप व्यक्ति सत्य है, नाम समाज सत्य नाम उस पद को कहते हैं, जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। आधुनिक शिक्षित लोग जिसे सोशल सैंक्शन कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि- मानव की चित्त गंगा में स्नात!
इस गिरिकूट – बिहारी का नाम क्या है? मन दूर-दूर तक उड़ रहा है- देश में और काल में, मनोरथानामगतिर्नविद्यते ! अचानक याद आया अरे, यह तो कुटज है! संस्कृत साहित्य का बहुत परिचित, किन्तु कवियों द्वारा अपमानित, यह छोटा-सा शानदार वृक्ष ‘कुटज’ है। ‘कूटज’ कहा गया होता तो कदाचित् ज्यादा अच्छा होता। पर नाम इसका चाहे ‘कुटज’ ही हो, विरूद तो निस्सन्देह ‘कुटज’ होगा। गिरिकूट पर उत्पन्न होने वाले इस वृक्ष को ‘कुटज’ कहने में विशेष आनन्द मिलता है। बहरहाल, यह कुटज-कुटज है, मनोहर कुसुमस्तवकों से झबराया, उल्लास-लोल चारुस्मित कुटज ! जी भर आया। कालिदास ने ‘आषाढस्य प्रथमदिवसे’ रामगिरि पर यक्ष को जब मेघ की अभ्यर्थना के लिए नियोजित किया तो कम्बख्त को ताजे कुटज पुष्यों की अंजलि देकर ही सन्तोष करना पड़ा। चम्पक नहीं, वकुल नहीं, नीलोत्पल नहीं, मल्लिका नहीं, अरविन्द नहीं फकत कुटज के फूल। यह और बात है कि आज आषाढ़ का नहीं, जुलाई का पहला दिन है! मगर फर्क भी कितना है! बार-बार मन विश्वास करने को उतारू हो जाता है कि यक्ष बहाना मात्र है, कालिदास ही कभी ‘शापेनास्तंगमितमहिमा ! (शाप से जिनकी महिमा का अंत हो गया हो) होकर रामगिरि पहुँचे थे, अपने ही हाथों इस कुटज पुष्य का अर्घ्य देकर उन्होंने मेघ की अभ्यर्थना की थी। शिवालिक की इस अनत्युच्च पर्वत शृंखला की भाँति… रामगिरि पर भी उस समय और कोई फूल नहीं मिला होगा। कुटज ने उनके सन्तप्त चित्त को सहारा दिया था – बड़भागी फूल है यह। धन्य हो कुटज, ‘तुम गाढ़े के साथी’ हो। उत्तर की ओर सिर उठाकर देखता हूँ, सुदूर तक ऊँची काली पर्वत शृंखला छायी हुई है और एकाध सफेद बादल के बच्चे उससे लिपटे खेल रहे हैं। मैं भी इन पुष्पों का अर्घ्य उन्हें चढ़ा दूँ? पर काहे वास्ते? लेकिन बुरा भी क्या है!
कुटज के ये सुन्दर फूल बहुत बुरे तो नहीं है। जो कालिदास के काम आया हो, उसे इज्जत मिलनी चाहिए। मिली कम है। पर इज्जत तो नसीब की बात है। रहीम को मैं बड़े आदर के साथ स्मरण करता हूँ। दरिया दिल आदमी थे, पाया सो लुटाया। लेकिन दुनिया है कि मतलब से मतलब है, रस चूस लेती हैं, छिलका और गुठली फेंक देती है। सुना है, रस चूस लेने के बाद रहीम को भी फेंक दिया गया था। एक बादशाह ने आदर के साथ बुलाया, दूसरे ने फेंक दिया ! हुआ ही करता है। इससे रहीम का मोल घट नहीं जाता। उनकी फक्कड़ाना मस्ती कहीं गई नहीं। अच्छे-भले कद्रदान थे। लेकिन बड़े लोगों पर भी कभी-कभी ऐसी वितृष्णा सवार होती है कि गलती कर बैठते हैं। मन खराब रहा होगा, लोगों की बेरूखी और बेकद्रदानी से मुरझा गए होंगे ऐसी ही मनःस्थिति में उन्होंने विचारे कुटज को भी एक चपत लगा दी। झुँझलाए थे, कह दिया-
वे रहीम अब बिरछ कहँ, जिनकर छाँह गंभीर।
बागन बिच-बिच देखियत, सेंहुड़ कुटज करीर॥
गोया कुटज अदना सा ‘बिरछ’ हो। छाँह ही क्या बड़ी बात है, फूल क्या कुछ भी नहीं? छाया के लिए न सही, फूल के लिए तो कुछ सम्मान होना चाहिए। मगर कभी-कभी कवियों का भी ‘मूड’ खराब हो जाया करता है। वे भी गलत बयानी के शिकार हो जाया करते हैं। फिर बागों से गिरिकूट बिहारी कुटज का क्या तुक है?
कुटज अर्थात् जो कुट से पैदा हुआ हो। ‘कुट’ घड़े को भी कहते हैं, घर को भी कहते हैं। कुट अर्थात् घड़े से उत्पन्न होने के कारण प्रतापी अगस्त्य मुनि भी ‘कुटज’ कहे जाते हैं। घड़े से तो क्या उत्पन्न हुए होंगे। कोई और बात होगी। संस्कृत में ‘कुटहारिका’ और ‘कुटकारिका’ दासी को कहते हैं, क्यों कहते हैं? कुटिया या कुटीर शब्द भी कदाचित् इसी शब्द से संबद्ध है। क्या इस शब्द का अर्थ घर ही है? घर में काम-काज करने वाली दासी कुटकारिका और कुटहारिका कही ही जा सकती है। एक जरा गलत ढंग की दासी ‘कुट्टनी’ भी कही जाती है। संस्कृत में इसकी गलतियों को थोड़ा अधिक मुखर बनाने के लिए उसे ‘कुट्टनी’ कह दिया गया है। अगस्त्य मुनि भी नारदजी की तरह दासी के पुत्र थे क्या? घड़े से पैदा होने का तो कोई तुक नहीं है, न मुनि कुटज के सिलसिले में, न फूल कुटज के सिलसिले में, फूल गमले में होते अवश्य हैं, पर कुटज तो जंगल का सैलानी है। उसे घड़े या गमले से क्या लेना-देना। शब्द विचारोत्तेजक अवश्य है। कहाँ से आया? मुझे तो इसी में सन्देह है कि यह आर्य भाषाओं का शब्द है भी या नहीं। एक भाषाशास्त्री किसी संस्कृत शब्द को एक से अधिक रूप में प्रचलित पाते थे तो तुरन्त उसकी कुलीनता पर शक कर बैठते थे। संस्कृत में ‘कुटज’ रूप भी मिलता है और ‘कुटच’ भी मिलने को तो ‘कूटज’ भी मिल जाता है। तो यह शब्द किस जाति का है? आर्य जाति का तो नहीं जान पड़ता। सिलवाँ लेवी कह गए है कि संस्कृत भाषा में फूलों, वृक्षों और खेती – बागबानी के अधिकांश शब्द आग्नेय भाषा-परिवार के हैं। यह भी वहीं का तो नहीं है? एक जमाना था जब आस्ट्रेलिया और एशिया महाद्वीप मिले हुए थे, फिर कोई भयंकर प्राकृतिक विस्फोट हुआ और ये दोनों अलग हो गये। उन्नीसवीं शताब्दी के भाषा-विज्ञान पण्डितों को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि आस्ट्रेलिया के सुदूर जंगलों में बसी जातियों की भाषा एशिया में बसी हुई कुछ जातियों की भाषा से सम्बद्ध है। भारत की अनेक जातियाँ वह भाषा बोलती है, जिनमें सन्थाल, मुण्डा आदि भी शामिल है। शुरु-शुरु में इस भाषा का नाम आस्ट्रो-एशियाटिक दिया गया था। दक्षिण-पूर्व या अग्निकोण की भाषा होने के कारण इन्हें आग्नेय परिवार भी कहा जाने लगा। अब हम लोग भारतीय जनता के वर्ग-विशेष को ध्यान में रखकर और पुराने साहित्य का स्मरण करके इसे कोल-परिवार की भाषा कहने लगे है। पण्डितों ने बताया है कि संस्कृत भाषा के अनेक शब्द, जो अब भारतीय संस्कृत के अविच्छेद्य अंग बन गए हैं, इसी श्रेणी की भाषा के हैं। कमल, कुड्मल, कम्बु, कम्बल, ताम्बुल आदि शब्द ऐसे ही बताए जाते हैं। पेड़-पौधों, खेती के उपकरणों और औजारों के नाम भी ऐसे ही हैं। ‘कुटज’ भी हो तो क्या आश्चर्य? संस्कृत भाषा ने शब्दों के संग्रह में कभी छूत नहीं मानी। न जाने किस-किस नस्ल के कितने शब्द उसमें आकर अपने बन गए है। पण्डित लोग उसकी छान-बीन करके हैरान होते है। संस्कृत सर्वग्रासी भाषा है।
ये जो मेरे सामने कुटज का लहराता पौधा खड़ा है, वह नाम और रूप दोनों में अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा कर रहा है। इसीलिए यह इतना आकर्षक है। नाम है कि हजारों वर्षों से जीता चला आ रहा है। कितने नाम आये और गये। दुनिया उनको भूल गयी, वे दुनिया को भूल गये। मगर कुटज है कि संस्कृत की निरन्तर स्फीयमान शब्दराशि में जो जम के बैठा सो बैठा ही है। और रूप की तो बात ही क्या है। बलिहारी है इस मादक शोभा की। चारों ओर कुपित यमराज के दारुण निःश्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध अज्ञात जलस्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है और मूर्ख के मस्तिष्क से भी अधिक सूने गिरि कान्तार में भी ऐसा मस्त बना है कि ईर्ष्या होती है। कितनी कठिन जीवनी शक्ति है। प्राण ही प्राण को पुलकित करता है जीवनी-शक्ति ही जीवनी-शक्ति को प्रेरणा देती है। दूर पर्वतराज हिमालय की हिमाच्छादित चोटियाँ है, वहाँ कहीं भगवान् महादेव समाधि लगाकर बैठे होंगे, नीचे सपाट पथरीली जमीन का मैदान, कहीं-कहीं पर्वतनन्दिनी सरिताएँ आगे बढ़ने का रास्ता खोज रही होगी बीच में यह चट्टानों की ऊबड़- खाबड़ जटाभूमि है- सूखी, नीरस, कठोर। यही आसन मारकर बैठे हैं मेरे चिरपरिचित दोस्त कुटज। एकबार अपने झबरीले मूर्धा को हिलाकर समाधिनिष्ठ महादेव को पुष्पस्तवक का उपहार चढ़ा देते हैं और एक बार नीचे की ओर अपनी पाताल भेदी जड़ों को दबाकर गिरिनन्दिनी सरिताओं को संकेत से बता देते है कि रस का स्रोत कहाँ है। जीना चाहते हो? कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्य संग्रह करो; वायुमण्डल को चूसकर, झंझा-तूफान को रगड़कर, अपना प्राप्य वसूल लो; आकाश को चूसकर, अवकाश की लहरों में झूमकर, उल्लास खींच लो। कुटज का यही उपदेश है-
भित्त्वा पाषाणपिठरं छित्त्वा प्राभज्जनीं व्यथाम्
पीत्वा पातालपानीयं कुटजश्चुम्बते नभः।
दुरन्त जीवन-शक्ति है। कठिन उपदेश है। जीना भी एक कला है। लेकिन कला ही नहीं, तपस्या है। जियो तो प्राण ढाल दो जिन्दगी में, मन ढाल दो जीवनी रस के उपकरणों में! ठीक है। लेकिन क्यों? क्या जीने के लिए जीना ही बड़ी बात है? सारा संसार अपने मतलब के लिए ही तो जी रहा है। याज्ञवल्क्य बहुत बड़े ब्रह्मवादी ऋषि थे। उन्होंने अपनी पत्नी को विचित्र भाव से समझाने की कोशिश की कि सब कुछ स्वार्थ के लिए है। पुत्र के लिए पुत्र प्रिय नहीं होता, पत्नी के लिए पत्नी प्रिया नहीं होती सब अपने मतलब के लिए प्रिय होते हैं आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति’। विचित्र नहीं है यह तर्क? संसार में जहाँ कहीं प्रेम है, सब मतलब के लिए। सुना है, पश्चिम के हॉब्स हेल्वेशियस जैसे विचारकों ने भी ऐसी ही बात कही है। सुन के हैरानी होती है। दुनिया में त्याग नहीं है, प्रेम नहीं है, परार्थ नहीं है, परमार्थ नहीं है – केवल प्रचण्ड स्वार्थ; भीतर की जिजीविषा – जीते रहने की प्रचण्ड इच्छा ही अगर बड़ी बात हो तो फिर यह सारी बड़ी- बड़ी बोलियाँ, जिनके बल पर दल बनाये जाते हैं, शत्रु मर्दन का अभिनय किया जाता है, देशोद्धार का नारा लगाया जाता है, साहित्य और कला की महिमा गायी जाती है, झूठ हैं। इसके द्वारा कोई-न-कोई अपना बड़ा स्वार्थ सिद्ध करता है। लेकिन अन्तरतम से कोई कह रहा है, ऐसा सोचना गलत ढंग से सोचना है। स्वार्थ से भी बड़ी कोई-न-कोई बात अवश्य है, जिजीविषा से भी प्रचण्ड कोई-न-कोई शक्ति अवश्य है। क्या है?
याज्ञवल्क्य ने जो बात धक्कामार ढंग से कह दी थी वह अन्तिम नहीं थी। वे ‘आत्मनः’ का अर्थ कुछ और बड़ा करना चाहते थे। व्यक्ति की ‘आत्मा’ केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं है, वह व्यापक है। अपने में सब और सब में आप इस प्रकार की एक समष्टि- बुद्धि जब तक नहीं आती तब तक पूर्ण सुख का आनन्द भी नहीं मिलता। अपने-आपको दलित द्राक्षा की भाँति निचोड़कर जब तक ‘सर्व’ के लिए निछावर नहीं कर दिया जाता तब तक ‘स्वार्थ’ खण्ड- सत्य है, वह मोह को बढ़ावा देता है, तृष्णा को उत्पन्न करता है और मनुष्य को दंडनीय – कृपण-बना देता है। कार्पण्य दोष से जिसका स्वभाव उपहत हो गया है, उसकी दृष्टि म्लान हो जाती है। वह स्पष्ट नहीं देख पाता। वह स्वार्थ भी नहीं समझ पाता, परमार्थ तो दूर की बात है।
कुटज क्या केवल जी रहा है? वह दूसरे के द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता, कोई निकट आ गया तो भय के मारे अधमरा नहीं हो जाता, नीति और धर्म का उपदेश नहीं देता फिरता, अपनी उन्नति के लिए अफसरों का जूता नहीं चाटता फिरता, दूसरों को अपमानित करने के लिए ग्रहों की खुशामद नहीं करता। आत्मोन्नति हेतु नीलम नहीं धारण करता, अँगूठियों की लड़ी नहीं पहनता, दाँत नहीं निपोरता, बगलें नहीं झाँकता। जीता है और शान से जीता है- काहे वास्ते, किस उद्देश्य से! कोई नहीं जानता। मगर कुछ बड़ी बात है। स्वार्थ के दायरे से बाहर की बात है। भीष्म पितामह की भाँति अवधूत की भाषा में कह रहा है: ‘चाहे सुख हो या दुख, प्रिय हो या अप्रिय, जो मिल जाय उसे शान के साथ, हृदय से बिल्कुल अपराजित होकर, सोल्लास ग्रहण करो। हार मत मानो।’
सुखं वा यदि वा दुःखं प्रियं वा यदि वाऽप्रियम्
प्राप्तं प्राप्तमुपासीतं हृदयेनपराजितः।
शान्तिपर्व 25,1,26
हृदयेन पराजित: ! कितना विशाल वह हृदय होगा, जो सुख से, दुःख से, प्रिय से, अप्रिय से विचलित न होता होगा ! कुटज को देखकर रोमांच हो जाता है। कहाँ मिली है यह अकुतोभया वृत्ति, अपराजित स्वभाव, अविचल जीवन-दृष्टि !
जो समझता है कि वह दूसरों का अपकार कर रहा है वह अबोध है, जो समझता है कि दूसरे उसका उपकार कर रहे है, वह भी बुद्धिहीन है। कौन किसका अपकार करता है, कौन किसका उपकार कर रहा है? मनुष्य जी रहा है, केवल जी रहा; अपनी इच्छा से नहीं, इतिहास – विधाता को योजना के अनुसार। किसी को उससे सुख मिल जाये, बहुत अच्छी बात है, नहीं मिल सका, कोई बात नहीं, परन्तु उसे अभिमान नहीं होना चाहिए। सुख पहुँचाने का अभिमान यदि गलत है, तो दुःख पहुँचाने का अभिमान तो नितान्त गलत है।
दुख और सुख तो मन के विकल्प हैं। सुखी वह है जिसका मन वश में है, दुःखी वह है जिसका मन परवश है। परवश होने का अर्थ है खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता, हाँ-हजूरी। जिसका मन अपने वश में नहीं वही दूसरे के मन का छन्दावर्त्तन करता है, अपने को छिपाने के लिए मिथ्या आडम्बर रचता है, दूसरों को फँसाने के लिए जाल बिछाता है। कुटज इन सब मिथ्याचारों से मुक्त है। वह वशी है। वह वैरागी है। राजा जनक की तरह संसार में रहकर, सम्पूर्ण भोगों को भोगकर भी उनसे मुक्त है। जनक की ही भाँति वह घोषणा करता है : ‘मैं स्वार्थ के लिए अपने मन को सदा दूसरे के मन में घुसाता नहीं फिरता, इसलिए मैं मन को जीत सका हूँ, उसे वश में कर सका हूँ:
नाहमात्मार्थमिच्छामि मनोनित्यं मनोन्तरे।
मनो में निर्जितं तत्मात् वशे तिष्ठति सर्वदा।
कुटज अपने मन पर सवारी करता है, मन को अपने पर सवार नहीं होने देता। मनस्वी मित्र, तुम धन्य हो।
शब्दार्थ
शब्द | हिंदी (Synonyms) | बांग्ला | English (Meaning) |
पाद-देश | पर्वत का निचला भाग, तलहटी, नीचे का हिस्सा | পাহাড়ের পাদদেশ, নিচের অংশ | Foothills, the lower part of a mountain range |
शृंखला | कतार, श्रेणी, परम्परा, माला | শৃঙ্খল, সারি, ক্রম | Chain, range (of mountains), series |
जटाजूट | जटाओं का समूह, उलझी हुई लटें | জটাজুট, জটলা | Matted hair, a mass of tangled locks (especially of Shiva) |
अलक | लट, घुंघराले बाल | অলক, চুলের গুচ্ছ | A lock of hair, a curl |
समाधिस्थ | समाधि में लीन, ध्यानमग्न, एकाग्रचित्त | সমাধিস্থ, ধ্যানে মগ্ন | Deep in meditation, engrossed in contemplation |
गिरि शृंखला | पर्वतों की कतार, पहाड़ी सिलसिला | পর্বতমালা, পাহাড়ের সারি | Mountain range, chain of hills |
अज्ञात-नाम-गोत्र | जिसका नाम और वंश ज्ञात न हो, बेनामी | অজানা নাম-গোত্র, অজ্ঞাতপরিচয় | Of unknown name and lineage, anonymous |
झाड़-झंखाड़ | कटीले और बेतरतीब झाड़ियाँ, झाड़ियाँ और लताओं का समूह | ঝোপঝাড়, জঙ্গল | Bushes, thickets, undergrowth |
बेहया | निर्लज्ज, बेशर्म, ढीठ, धृष्ट | বেহায়া, নির্লজ্জ | Shameless, impudent, brazen |
दूब | एक प्रकार की छोटी हरी घास | দূর্বা ঘাস | Bermuda grass, a type of common grass |
अन्तर्निरुद्ध | अंदर ही रुका हुआ, दबा हुआ, भीतर से अवरुद्ध | অভ্যন্তরীণভাবে রুদ্ধ, ভিতরে চাপা | Internally suppressed, restrained, confined within |
रक्ताभ | लालिमा लिए हुए, हल्का लाल, रक्त के समान आभा वाला | রক্তাভ, লালচে | Reddish, having a red tinge |
ठिंगने | छोटे कद के, नाटे, बौने | বেটে, খাটো | Short, stunted |
दरख्त | वृक्ष, पेड़ | গাছ, বৃক্ষ | Tree |
गह्वर | गुफा, गहरी खाई, खोह | গুহা, গভীর গর্ত | Cave, abyss, deep hollow |
भोग्य | उपभोग करने योग्य वस्तु, खाद्य पदार्थ, आहार | ভোগ করার যোগ্য বস্তু, উপভোগ্য | Consumables, something to be enjoyed or consumed |
द्वन्द्वातीत | द्वंद्वों से परे, सुख-दुख, लाभ-हानि आदि से ऊपर, निरपेक्ष | দ্বন্দ্বাতীত, দ্বন্দ্বের ঊর্ধ্বে | Beyond dualities (like joy/sorrow, gain/loss), transcendental |
अलमस्त | लापरवाह, बेफिक्र, अपनी धुन में मगन, मस्तमौला | আলসে, নিশ্চিন্ত, বেপরোয়া | Carefree, indifferent, self-absorbed in a joyful way |
शील | स्वभाव, चरित्र, आचरण, सदाचार | শীল, চরিত্র, স্বভাব | Character, moral conduct, nature |
अनादि काल | जिसका कोई आरंभ न हो, अत्यंत प्राचीन काल | অনাদি কাল, অসীম কাল | Time immemorial, beginningless time |
पदार्थ | वस्तु, चीज, तत्त्व, अर्थ | পদার্থ, বস্তু | Substance, matter, meaning |
स्मृतियों के पंख फैलाकर | पुरानी यादों को ताजा करना, अतीत में झाँकना | স্মৃতির ডানা মেলে, স্মৃতিচারণ করা | Spreading the wings of memories, delving into the past |
व्याकुल | बेचैन, परेशान, चिंतित, अशांत | ব্যাকুল, অস্থির | Anxious, restless, distressed |
पौरूष-व्यंजक | पौरुष या मर्दानगी को व्यक्त करने वाला, वीरतापूर्ण | পৌরুষ-ব্যঞ্জক, পুরুষত্ব প্রকাশক | Expressing masculinity, valorous |
अकुतोभय | जिसे किसी से भय न हो, निर्भय, निडर | নির্ভয়, অকুতোভয় | Fearless, dauntless |
मानदण्ड | मापदंड, मानक, पैमाने | মাপকাঠি, মানদণ্ড | Standard, criterion, benchmark |
कूटोल्लास | कूट (पर्वत शिखर) का उल्लास, पर्वत की ऊँचाई का आनंद | চূড়ার উল্লাস, পর্বতের শিখরের আনন্দ | Joy of the peak, exhilaration of the mountain summit |
अपराजित | जिसे हराया न जा सके, अजेय, अदम्य | অপরাজিত, অজেয় | Undefeated, unconquerable |
धरतीधकेल | धरती को धकेलने वाला, बहुत शक्तिशाली | মাটি ঠেলে ওঠা, অত্যন্ত শক্তিশালী | Earth-pushing (implying great strength), powerful |
पातालभेद | पाताल को भेदने वाला, अत्यंत गहरा भेदने वाला | পাতালভেদী, অত্যন্ত গভীর পর্যন্ত প্রবেশকারী | Hell-piercing (implying ability to penetrate deeply) |
सामाजिक स्वीकृति | समाज द्वारा स्वीकार किया जाना, सामाजिक मान्यता | সামাজিক স্বীকৃতি | Social acceptance, social sanction |
व्यक्ति सत्य | व्यक्तिगत सच्चाई, निजी वास्तविकता | ব্যক্তিগত সত্য | Individual truth, personal reality |
समाज सत्य | सामाजिक सच्चाई, सामूहिक वास्तविकता | সামাজিক সত্য | Social truth, collective reality |
पद | शब्द, पदवी, स्थान, पैर | পদ, শব্দ, পদবি | Word, term, position, foot |
मुहर | छाप, निशान, अनुमोदन | মোহর, ছাপ | Seal, stamp, approval |
समष्टि-मानव | समग्र मानव जाति, संपूर्ण मानवता | সমষ্টি-মানব, সমগ্র মানবজাতি | Collective humanity, entire human race |
चित्त गंगा | मन की पवित्र नदी, विचारों की धारा | চিত্ত গঙ্গা, মনের পবিত্র নদী | The Ganges of the mind, stream of thoughts (implying purity) |
स्नात | स्नान किया हुआ, पवित्र किया हुआ | স্নাত, স্নান করা | Bathed, purified |
गिरिकूट-बिहारी | पर्वत शिखर पर रहने वाला, पहाड़ों में विचरने वाला | পর্বতচূড়ায় বিচরণকারী | One who dwells on mountain peaks, a wanderer in the mountains |
मनोरथानामगतिर्नविद्यते | मनोरथों (इच्छाओं) की गति को रोका नहीं जा सकता (संस्कृत सूक्ति) | মনোরথগুলির গতি অবরুদ্ধ করা যায় না | There is no limit to the speed of desires (Sanskrit saying) |
विरूद | उपनाम, उपाधि, यश | বিরুদ, উপাধি, যশ | Epithet, title, fame, reputation |
मनोहर कुसुमस्तवकों | सुंदर फूलों के गुच्छों से | সুন্দর ফুলের গুচ্ছ | With beautiful clusters of flowers |
झबराया | घना, भरा हुआ (बालों या फूलों से) | ঘন, ভরা (চুল বা ফুলে) | Shaggy, thick with (hair or flowers) |
उल्लास-लोल | उल्लास से परिपूर्ण, आनंद से झूमता हुआ | উল্লাসে পূর্ণ, আনন্দে দোলায়মান | Full of joy, swaying with delight |
चारुस्मित | सुंदर मुस्कान वाला, मनमोहक हँसी वाला | মধুর হাসি, সুন্দর হাসি | Having a charming smile, sweet-smiling |
कम्बख्त | अभागा, बदनसीब, बेचारा | হতভাগ্য, অভাগা | Wretched, unfortunate, poor fellow |
अभ्यर्थना | प्रार्थना, अनुरोध, निवेदन | প্রার্থনা, অনুরোধ | Request, supplication, prayer |
नियोजित | नियुक्त किया गया, लगाया गया, कार्य पर लगाया गया | নিযুক্ত, স্থাপন করা | Appointed, engaged, employed |
अंजलि | हाथों को जोड़कर बनाई गई मुद्रा (फूल आदि चढ़ाने के लिए) | অঞ্জলি, দু’হাত জোড় করে | Cupped hands (for offering flowers etc.) |
चम्पक | चम्पा का फूल | চম্পক ফুল | Magnolia flower (Champa) |
वकुल | मौलसिरी का फूल | বকুল ফুল | Mimusops elengi flower (Bakul) |
नीलोत्पल | नीला कमल | নীল পদ্ম | Blue lotus |
मल्लिका | चमेली का फूल | মল্লিকা ফুল | Jasmine flower |
अरविन्द | कमल | অরবিন্দ, পদ্ম | Lotus |
फकत | केवल, सिर्फ, मात्र | কেবল, শুধুমাত্র | Only, merely, just |
शापेनास्तंगमितमहिमा | शाप से जिसकी महिमा अस्त हो गई हो, शापग्रस्त (कालिदास के मेघदूत से) | শাপে যাদের মহিমা শেষ হয়ে গেছে | Whose glory has set due to a curse (from Kalidasa’s Meghaduta) |
अर्घ्य | पूजा के लिए जल, फूल आदि का चढ़ावा | অর্ঘ্য, পূজার নৈবেদ্য | Offering (of water, flowers, etc.) in worship |
अनत्युच्च | बहुत ऊँचा न हो, अधिक ऊँचाई वाला न हो | খুব বেশি উঁচু নয় | Not very high, moderately high |
सन्तप्त चित्त | दुखी मन, पीड़ित हृदय | সন্তপ্ত চিত্ত, দুঃখিত মন | Distressed mind, suffering heart |
बड़भागी | भाग्यशाली, सौभाग्यशाली | ভাগ্যবান, সৌভাগ্যবান | Fortunate, blessed |
गाढ़े के साथी | बुरे वक्त के साथी, मुसीबत में साथ देने वाले | খারাপ সময়ের সঙ্গী, বিপদে সাহায্যকারী | Companion in tough times, one who helps in adversity |
रहीम | प्रसिद्ध हिंदी कवि अब्दुर्रहीम खानखाना | রহিম (কবি) | Rahim (a famous Hindi poet, Abdur Rahim Khan-i-Khana) |
दरिया दिल | उदार हृदय वाला, दानवीर, दयालु | দরিয়া দিল, উদার মনের | Generous-hearted, benevolent, magnanimous |
कद्रदान | किसी की कद्र करने वाला, गुणग्राहक, पारखी | কদরদান, গুণগ্রাহী | Appreciator, connoisseur, one who values |
वितृष्णा | अरुचि, विरक्ति, उदासीनता, घृणा | বিতৃষ্ণা, বিরক্তি | Aversion, disinterest, distaste |
गलत बयानी | गलत बयान देना, असत्य कहना, भ्रमित करना | ভুল বিবৃতি, মিথ্যা কথা | Misstatement, false declaration, misrepresentation |
तुक | औचित्य, मेल, संगति | মিল, সঙ্গতি, যুক্তি | Relevance, logic, sense |
प्रतापी | शक्तिशाली, तेजस्वी, प्रभावशाली | প্রতাপী, শক্তিশালী | Powerful, glorious, influential |
अगस्त्य मुनि | एक प्रसिद्ध वैदिक ऋषि | অগস্ত্য মুনি (ঋষি) | Agastya Muni (a famous Vedic sage) |
कुटहारिका/कुटकारिका | दासी, घर में काम करने वाली स्त्री | দাসী, পরিচারিকা | Female servant, maidservant |
कुटिया/कुटीर | छोटी झोपड़ी, आश्रम | কুটির, ঝুপড়ি | Hut, cottage, hermitage |
कुट्टनी | दलाल, दूती, वह स्त्री जो वेश्यावृत्ति के लिए सहायक हो | কুত্তনী, দালালি | Procuress, bawd |
तुक | औचित्य, मेल, संगति | যুক্তি, সঙ্গতি | Logic, sense, relevance |
सैलानी | यात्री, घूमने वाला, घुमक्कड़ | পর্যটক, ভ্রমণকারী | Traveler, wanderer |
विचारोत्तेजक | विचार पैदा करने वाला, चिंतन को प्रेरित करने वाला | চিন্তার উদ্রেককারী, উদ্দীপক | Thought-provoking, stimulating |
भाषाशास्त्री | भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन करने वाला व्यक्ति, भाषाविद् | ভাষাবিজ্ঞানী | Linguist |
कुलीनता | उच्च कुल में जन्म लेना, श्रेष्ठता, अभिजात्यता | কৌলীন্য, আভিজাত্য | Nobility, aristocratic quality |
आर्य भाषाओं | आर्य भाषा परिवार की भाषाएँ (जैसे संस्कृत, हिंदी) | আর্য ভাষা | Indo-Aryan languages |
आग्नेय भाषा-परिवार | ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार, दक्षिण-पूर्व एशियाई भाषाओं का समूह | অগ্নিকোন ভাষা পরিবার, অস্ট্রো-এশীয় ভাষা পরিবার | Austro-Asiatic language family, Mon-Khmer language family |
सन्थाल, मुण्डा | भारत की जनजातियाँ जो ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषाएँ बोलती हैं | সাঁওতাল, মুন্ডা (আদিবাসী জনগোষ্ঠী) | Santhal, Munda (tribal groups in India speaking Austro-Asiatic languages) |
कोल-परिवार | ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार का एक और नाम, विशेषकर भारत के संदर्भ में | কোল পরিবার (ভাষাগত) | Kolian family (another name for Austro-Asiatic languages in India) |
अविच्छेद्य अंग | अविभाज्य अंग, अभिन्न हिस्सा, जिसे अलग न किया जा सके | অবিচ্ছেদ্য অংশ, অবিচ্ছিন্ন অংশ | Indivisible part, integral part |
कुड्मल | कली, अधखिला फूल | কুঁড়ি, মুকুল | Bud, partially opened flower |
कम्बु | शंख | শঙ্খ | Conch shell |
ताम्बुल | पान | তাম্বুল, পান | Betel leaf |
सर्वग्रासी | सब कुछ निगलने वाली, हर चीज को आत्मसात करने वाली | সর্বগ্রাসী, সব কিছু গ্রহণকারী | All-devouring, all-assimilating |
अपराजेय | जिसे हराया न जा सके, अजेय, अविजित | অপরাজিত, অজেয় | Unconquerable, invincible |
जीवनी-शक्ति | जीने की शक्ति, जीवन की ऊर्जा | জীবনী-শক্তি, জীবনশক্তি | Life force, vitality |
स्फीयमान | बढ़ती हुई, विस्तृत होती हुई, फैलती हुई | স্ফীত, বাড়ন্ত | Expanding, increasing, growing |
बलिहारी | न्योछावर, कुर्बान, प्रशंसनीय | বলিহারী, উৎসর্গীকৃত | Sacrifice, devotion, admirable |
मादक शोभा | मन को मदहोश कर देने वाली सुंदरता, आकर्षक सौंदर्य | মাদক শোভা, মুগ্ধকর সৌন্দর্য | Intoxicating beauty, captivating charm |
कुपित यमराज | क्रोधित मृत्यु के देवता | কুপিত যমরাজ, ক্রুদ্ধ মৃত্যুর দেবতা | Enraged Yama (god of death) |
दारुण निःश्वास | भयंकर साँस, कठोर निश्वास (यहाँ गर्मी की लू के संदर्भ में) | দারুণ নিশ্বাস, কঠোর নিশ্বাস | Terrible breath, harsh sigh (referring to scorching wind) |
धधकती लू | जलती हुई गर्म हवा, तेज लू | জ্বলন্ত লু, তীব্র গরম বাতাস | Scorching hot wind, intense heatwave |
दुर्जन | दुष्ट व्यक्ति, बुरा आदमी | দুর্জ্জন, খারাপ লোক | Wicked person, evil individual |
पाषाण की कारा | पत्थर की जेल, पत्थरों का बंधन | পাথরের কারাগার, শিলার বন্ধন | Prison of stone, confinement of rocks |
रुद्ध | रुका हुआ, अवरुद्ध, बंद | রুদ্ধ, আবদ্ধ | Blocked, obstructed, confined |
सरस | रस से भरा हुआ, रसीला, आनंददायक | সরস, রসপূর্ণ | Juicy, delightful, vibrant |
मूर्ख | अज्ञानी, बेवकूफ, मंदबुद्धि | মূর্খ, বোকা | Fool, ignorant person |
गिरि कान्तार | पहाड़ी जंगल, बीहड़ पर्वत | পাহাড়ী জঙ্গল, বনভূমি | Mountain forest, wild mountainous region |
ईर्ष्या | जलन, डाह, द्वेष | ঈর্ষা, হিংসা | Envy, jealousy |
पुलकित | रोमांचित, प्रसन्न, प्रफुल्लित | পুলকিত, রোমাঞ্চিত | Thrilled, elated, excited |
हिमाच्छादित | बर्फ से ढका हुआ, बर्फीला | হিমাচ্ছাদিত, বরফে ঢাকা | Snow-covered, ice-capped |
सपाट | समतल, बराबर, चिकना | সমতল, সমান | Flat, even, smooth |
पर्वतनन्दिनी सरिताएँ | पहाड़ों से निकलने वाली नदियाँ (पर्वत की पुत्रियाँ) | পর্বতনন্দিনী সরিতা, পাহাড়ী নদী | Mountain-born rivers (daughters of the mountains) |
जटाभूमि | जटाओं के समान उलझी हुई भूमि, ऊबड़-खाबड़ जमीन | জটাভূমি, জট পাকানো ভূমি | Tangled land (like matted hair), rugged terrain |
मूर्धा | सिर का ऊपरी भाग, चोटी | মস্তক, চূড়া | Crown of the head, top |
पुष्पस्तवक | फूलों का गुच्छा, गुलदस्ता | পুষ্পস্তবক, ফুলের তোড়া | Bunch of flowers, bouquet |
पाताल भेदी | पाताल को भेदने वाली, बहुत गहराई तक जाने वाली | পাতালভেদী, গভীরে প্রবেশকারী | Piercing the underworld, deeply penetrating |
झंझा-तूफान | आँधी-तूफान, प्रचंड वायु | ঝড়-তুফান, প্রচণ্ড বাতাস | Storm, tempest, strong wind |
प्राप्य | प्राप्त करने योग्य, पाने लायक | প্রাপ্য, পাওয়ার যোগ্য | Obtainable, due, what is to be received |
अवकाश | खाली स्थान, अवसर, छुट्टी | অবকাশ, ফাঁকা জায়গা | Space, opportunity, leisure |
चुंबते नभः | आकाश को चूमता है, आकाश तक पहुँचता है (यहाँ ऊँचाई को दर्शाता है) | আকাশ চুম্বন করে, আকাশ স্পর্শ করে | Kisses the sky, reaches the sky (indicating height) |
दुरन्त | जिसका अंत न हो, प्रचंड, कठिन | দুরন্ত, কঠিন | Endless, formidable, difficult |
जिजीविषा | जीने की प्रबल इच्छा, जीवन की आकांक्षा | জীবনধারণের প্রবল ইচ্ছা, বাঁচবার ইচ্ছা | Strong desire to live, will to live |
दल | समूह, गुट, पार्टी | দল, গোষ্ঠী | Group, faction, party |
शत्रु मर्दन | शत्रु का नाश करना, शत्रुओं को कुचलना | শত্রু দমন, শত্রু বিনাশ | Crushing of enemies, vanquishing foes |
देशोद्धार | देश का उद्धार, देश को बचाना या उन्नत करना | দেশোদ্ধার, দেশের উন্নতি | National salvation, upliftment of the country |
अन्तरतम | सबसे अंदरूनी, हृदय का गहरा भाग | অন্তরতম, সবচেয়ে ভিতরের | Innermost, deepest part of the heart |
याज्ञवल्क्य | एक प्रसिद्ध वैदिक ऋषि और दार्शनिक | যাজ্ঞবল্ক্য (ঋষি) | Yajnavalkya (a famous Vedic sage and philosopher) |
ब्रह्मवादी | ब्रह्म का ज्ञान रखने वाला, ब्रह्म के संबंध में बात करने वाला | ব্রহ্মবাদী, ব্রহ্মজ্ঞান বিশারদ | One who believes in Brahman, a proponent of Brahman |
स्वार्थ | अपना हित, आत्महित, निजी लाभ | স্বার্থ, আত্মস্বার্থ | Self-interest, personal gain |
आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति | आत्मा की इच्छा के लिए सब कुछ प्रिय होता है (उपनिषद वाक्य) | আত্মার ইচ্ছার জন্য সবকিছু প্রিয় হয় | Everything becomes dear for the sake of the Self (Upanishadic saying) |
हॉब्स, हेल्वेशियस | पश्चिमी दार्शनिक (थॉमस हॉब्स, क्लाउड एड्रियन हेल्वेशियस) | হবস, হেল্ভেশিয়াস (পাশ্চাত্য দার্শনিক) | Hobbes, Helvétius (Western philosophers) |
त्याग | छोड़ना, बलिदान, परित्याग | ত্যাগ, বর্জন | Renunciation, sacrifice, abandonment |
परार्थ | दूसरों का हित, परोपकार | পরার্থ, পরের মঙ্গল | Altruism, welfare of others |
परमार्थ | मोक्ष, सर्वोच्च सत्य, अंतिम लक्ष्य | পরমার্থ, শ্রেষ্ঠ উদ্দেশ্য | Ultimate truth, spiritual liberation, highest good |
प्रचण्ड | अत्यंत तीव्र, भयंकर, उग्र | প্রচণ্ড, তীব্র | Fierce, intense, tremendous |
खण्ड-सत्य | अधूरा सत्य, आंशिक सत्य | খণ্ড-সত্য, আংশিক সত্য | Partial truth, incomplete truth |
मोह | अज्ञानता के कारण होने वाला लगाव, आसक्ति, भ्रम | মোহ, আসক্তি | Delusion, attachment, infatuation |
तृष्णा | प्यास, तीव्र इच्छा, लालसा, लिप्सा | তৃষ্ণা, প্রবল ইচ্ছা | Thirst, intense desire, craving |
दंडनीय-कृपण | दंड के योग्य और कंजूस, दयनीय और कंजूस | দণ্ডনীয়-কৃপণ, শাস্তিযোগ্য ও কৃপণ | Punishable and miserly, pitiable and stingy |
कार्पण्य दोष | कंजूसी का दोष, दीनता का दोष | কার্পণ্য দোষ, কৃপণতার দোষ | Fault of stinginess, defect of meanness |
उपहत | नष्ट, क्षतिग्रस्त, पीड़ित | উপহত, ক্ষতিগ্রস্ত | Ruined, damaged, afflicted |
म्लान | मुरझाया हुआ, उदास, फीका | ম্লান, মলিন | Faded, dim, withered |
दालित द्राक्षा | कुचली हुई अंगूर | পিষ্ট আঙুর | Crushed grapes |
निचोड़कर | रस निकालकर, दबाकर | নিংড়ে, চাপ দিয়ে | Squeezing out, pressing |
सर्व के लिए निछावर कर दिया जाता | सब के लिए समर्पित कर देना, त्याग देना | সবার জন্য উৎসর্গ করা | Sacrificed for all, dedicated to everyone |
भीष्म पितामह | महाभारत के एक महान योद्धा, कौरवों और पांडवों के संरक्षक | ভীষ্ম পিতামহ (মহাভারতের চরিত্র) | Bhishma Pitamah (a great warrior and patriarch from the Mahabharata) |
अवधूत | संसार से विरक्त योगी, मस्तमौला साधु | অবধূত, বিবাগী সাধু | Ascetic, renunciant, one who has renounced worldly attachments |
अकुतोभया वृत्ति | निर्भय स्वभाव, जिससे किसी से डर न लगे | নির্ভয় বৃত্তি, নির্ভীক স্বভাব | Fearless disposition, dauntless nature |
अपराजित स्वभाव | जिसे हराया न जा सके, अजेय प्रकृति | অপরাজিত স্বভাব, অজেয় প্রকৃতি | Undefeated nature, unconquerable disposition |
अविचल जीवन-दृष्टि | स्थिर जीवन-दृष्टि, अडिग जीवन-दर्शन | অবিচল জীবন-দৃষ্টি, স্থির জীবনবোধ | Unwavering outlook on life, steadfast life philosophy |
अपकार | बुराई करना, हानि पहुँचाना | অপকার, ক্ষতি করা | Harm, injury, ill-doing |
अबोध | अज्ञानी, नासमझ, मूर्ख | অবোধ, অজ্ঞান | Ignorant, innocent, naive |
उपकार | भलाई करना, सहायता करना | উপকার, সাহায্য করা | Benefit, help, favor |
इतिहास-विधाता | इतिहास को रचने वाला, भाग्य का निर्माता | ইতিহাস বিধাতা, নিয়তি নির্মাতা | Creator of history, destiny maker |
मन के विकल्प | मन के भेद, मन के विचार, मन की अवस्थाएँ | মনের বিকল্প, মনের ভাবনা | Mental variations, states of mind |
परवश | दूसरे के वश में, अधीन, परतंत्र | পরবশ, অধীন | Dependent, subservient, under someone else’s control |
खुशामद | चापलूसी, स्तुति, जी-हुजूरी | খোশামোদ, তোষামোদ | Flattery, sycophancy |
दाँत निपोरना | बेबसी दिखाना, गिड़गिड़ाना, चापलूसी करना | দাঁত বের করা, তোষামোদ করা | To show helplessness, to fawn, to grovel |
चाटुकारिता | चापलूसी, खुशामद | চাটুকারিতা, তোষামোদ | Flattery, sycophancy |
हाँ-हजूरी | हर बात में हाँ करना, जी-हुजूरी करना, अत्यधिक चापलूसी | হ্যাঁ-হুজুরি, জি-হুজুরি | Saying yes to everything, excessive flattery |
छन्दावर्त्तन | इच्छा के अनुसार चलना, दूसरों की इच्छा का पालन करना | ছানদাবর্তন, অন্যের ইচ্ছা অনুযায়ী চলা | Following someone’s will, complying with others’ wishes |
मिथ्या आडम्बर | झूठा दिखावा, पाखंड, ढोंग | মিথ্যা আড়ম্বর, ভণ্ডামি | False display, pretense, hypocrisy |
जाल बिछाना | फँसाने की योजना बनाना, षड्यंत्र रचना | জাল বিছানো, ফন্দি করা | Laying a trap, devising a conspiracy |
मिथ्याचारों | झूठे आचरणों, पाखंडों | মিথ্যাচার, ভণ্ডামি | False practices, hypocrisies |
वशी | अपने वश में रखने वाला, इंद्रियों को जीतने वाला | বশী, বশকারী | One who controls oneself, one who has mastered their senses |
वैरागी | संसार से विरक्त, त्यागी, उदासीन | বৈরাগী, উদাসীন | Ascetic, detached from worldly affairs |
राजा जनक | मिथिला के प्रसिद्ध राजा, जो ब्रह्मज्ञानी और वैरागी थे | রাজা জনক (মিথিলার রাজা) | King Janaka (a famous king of Mithila, known for his wisdom and detachment) |
भोगों को भोगकर भी उनसे मुक्त | सांसारिक सुखों का अनुभव करते हुए भी उनसे अनासक्त रहना | ভোগ করে থেকেও মুক্ত | Enjoying worldly pleasures yet remaining detached from them |
मनस्वी मित्र | आत्मविश्वासी मित्र, साहसी मित्र | মনস্বী মিত্র, আত্মবিশ্বাসী বন্ধু | Self-possessed friend, courageous friend |
कुटज कहानी का विस्तृत सारांश
यह निबंध हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों में बसे एक छोटे से वृक्ष ‘कुटज’ के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अपनी सादगी, जीवटता और दार्शनिक गहराई के माध्यम से जीवन के गूढ़ सत्यों को उजागर करता है। लेखक हज़ारी प्रसाद द्विवेदी हिमालय की भव्यता और शिवालिक पहाड़ियों की शुष्कता का वर्णन करते हुए कुटज वृक्ष की अनूठी उपस्थिति और उसकी प्रेरणादायक शक्ति पर विचार करते हैं। यह निबंध प्रकृति, दर्शन, संस्कृति और मानव जीवन के बीच एक सुंदर समन्वय प्रस्तुत करती है।
हिमालय और शिवालिक का परिदृश्य
निबंध की शुरुआत हिमालय की महिमा से होती है, जिसे कालिदास ने पृथ्वी का ‘मानदण्ड’ कहा था। हिमालय की तलहटी में शिवालिक पहाड़ियाँ फैली हैं, जिनका नाम लेखक शिव की जटाओं से जोड़कर देखते हैं। ये पहाड़ियाँ सूखी, नीरस और कठोर हैं, जहाँ हरियाली दुर्लभ है। काली चट्टानें, रक्ताभ रेत और शुष्कता यहाँ की विशेषता है। फिर भी, इन विषम परिस्थितियों में कुछ वृक्ष, विशेष रूप से कुटज, अपनी जीवटता और मुस्कान के साथ जीवित हैं। लेखक इन्हें ‘द्वन्द्वातीत’ और ‘अलमस्त’ कहते हैं, जो कठिनाइयों के बावजूद हँसते हुए जी रहे हैं।
कुटज का परिचय
कुटज एक छोटा, ठिंगना वृक्ष है, जिसके चौड़े और बड़े पत्ते, और फूलों से लदा हुआ रूप इसे आकर्षक बनाता है। लेखक इसे देखकर परिचित महसूस करते हैं, लेकिन इसका नाम तुरंत उन्हें याद नहीं आता। वह रूप और नाम के दार्शनिक प्रश्न पर विचार करते हैं, कि क्या नाम महत्त्वपूर्ण है या रूप। वे कई काल्पनिक नाम सुझाते हैं, जैसे सुस्मिता, गिरिकान्ता, अकुतोभय, कूटोल्लास आदि, लेकिन मन समाज द्वारा स्वीकृत नाम के लिए व्याकुल है। अंततः उन्हें ‘कुटज’ नाम याद आता है, जो संस्कृत साहित्य में परिचित लेकिन कवियों द्वारा उपेक्षित रहा है।
कालिदास और रहीम के संदर्भ
लेखक कालिदास के ‘मेघदूत’ का उल्लेख करते हैं, जहाँ यक्ष रामगिरि पर कुटज के फूलों से मेघ की अभ्यर्थना करता है। यह दर्शाता है कि कुटज का महत्त्व प्राचीन काल से रहा है, भले ही इसे अन्य सुंदर फूलों जैसे चम्पक या मल्लिका की तुलना में कम आँका गया हो। दूसरी ओर, रहीम के एक दोहे का उल्लेख है, जिसमें कुटज को ‘अदना’ वृक्ष कहकर उसकी उपेक्षा की गई। लेखक इसे रहीम के खराब मूड का परिणाम मानता है और कहता है कि कुटज की शोभा और जीवनी शक्ति को कम नहीं आँका जाना चाहिए।
कुटज का दार्शनिक महत्त्व
कुटज की जीवटता लेखक को जीवन के गहरे दर्शन की ओर ले जाती है। वह कुटज की तुलना एक तपस्वी से करते हैं, जो कठोर परिस्थितियों में भी अपनी जड़ों से रस खींचकर जीवित रहता है। कुटज का जीवन उपदेश है कि जीवन एक कला और तपस्या है। यह वृक्ष बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी की खुशामद किए, शान से जीता है। लेखक इसे भीष्म पितामह और राजा जनक जैसे दार्शनिक चरित्रों से जोड़ते हैं, जो सुख-दुख, प्रिय-अप्रिय में अविचलित रहते हैं। कुटज का जीवन स्वार्थ से परे, समष्टि-बुद्धि और व्यापक आत्मा का प्रतीक है।
भाषा और संस्कृति का विश्लेषण
लेखक ‘कुटज’ शब्द की उत्पत्ति पर भी विचार करते हैं। वे इसे संस्कृत का शब्द मानते हुए भी इसकी जड़ें आग्नेय (ऑस्ट्रो-एशियाटिक) भाषा परिवार से जोड़ते हैं। संस्कृत में फूलों और वृक्षों के कई नाम, जैसे कमल, ताम्बुल आदि, गैर-आर्य मूल के हैं। कुटज भी ऐसा ही हो सकता है। यह दर्शाता है कि संस्कृत ने विभिन्न स्रोतों से शब्दों को आत्मसात किया, जो संस्कृत भाषा की समावेशी प्रकृति को दर्शाता है।
कुटज से जीवन का उपदेश
निबंध का अंत कुटज के जीवन दर्शन पर होता है। यह वृक्ष न केवल जीवित है, बल्कि कठोर पत्थरों को भेदकर, पाताल से रस खींचकर, और तूफानों का सामना कर मस्ती से जीता है। लेखक इसे ‘अकुतोभया’ (न डरने वाला) और ‘अपराजित’ (अजेय) कहता है। कुटज का संदेश है कि जीवन में सुख-दुख को समान भाव से स्वीकार करो, स्वार्थ से परे जाओ, और अपनी आत्मा को व्यापक बनाओ। यह वृक्ष न तो किसी का अपकार करता है, न उपकार का अभिमान रखता है। यह केवल अपने होने का उत्सव मनाता है।
निष्कर्ष
कुटज निबंध प्रकृति, साहित्य और दर्शन का एक सुंदर मिश्रण है। यह निबंध एक साधारण वृक्ष के माध्यम से जीवन की गहन सच्चाइयों को उजागर करती है। कुटज न केवल एक वृक्ष है, बल्कि जीवन शक्ति, स्वाभिमान और अविचल दृष्टिकोण का प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि कठिन परिस्थितियों में भी हार न मानकर, स्वार्थ से परे जाकर, और अपनी आत्मा को व्यापक बनाकर जीना ही सच्चा जीवन है।
‘कुटज’ की विस्तृत व्याख्या पाठ के संदर्भ में
कुटज जिसे संस्कृत साहित्य में ‘कुटज’ या ‘कूटज’ के नाम से जाना जाता है, एक छोटा, लेकिन असाधारण वृक्ष है, जो अपनी प्राकृतिक, औषधीय और दार्शनिक विशेषताओं के लिए प्रसिद्ध है। यह पौधा भारत के हिमालयी क्षेत्र, विशेष रूप से शिवालिक पहाड़ियों, जंगलों और शुष्क क्षेत्रों में पाया जाता है। यहाँ कुटज की विशेषताओं का विस्तृत विवरण दिया गया है, जो निबंध के संदर्भ पर आधारित है:
1. प्राकृतिक और भौगोलिक विशेषताएँ
रूप और संरचना – कुटज एक छोटा, ठिंगना वृक्ष या झाड़ी है, जिसकी ऊँचाई आमतौर पर 3-10 मीटर तक होती है। इसके पत्ते चौड़े, बड़े और चमकदार होते हैं। फूल सफेद, सुगंधित और छोटे-छोटे समूहों (स्तवक) में खिलते हैं, जो इसे आकर्षक बनाते हैं। निबंध में इसका वर्णन “फूलों से लदा” और “मुस्कराता हुआ” किया गया है, जो इसकी सौंदर्यपूर्ण उपस्थिति को दर्शाता है।
शुष्क परिस्थितियों में जीवटता – कुटज की सबसे उल्लेखनीय विशेषता इसकी कठिन परिस्थितियों में जीवित रहने की क्षमता है। यह शिवालिक की शुष्क, नीरस और पथरीली पहाड़ियों में, जहाँ हरियाली दुर्लभ है, अपनी जड़ों से पत्थरों को भेदकर रस खींचता है। यह गर्मी, सूखा और पोषक तत्त्वों की कमी को सहन कर सकता है, जो इसकी असाधारण जीवन शक्ति को दर्शाता है।
प्राकृतिक आवास – कुटज मुख्य रूप से भारत, दक्षिण-पूर्व एशिया और अफ्रीका के शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में पाया जाता है। यह जंगलों, पहाड़ी ढलानों और मैदानी क्षेत्रों में उगता है। निबंध में इसे ‘गिरिकूट बिहारी’ कहा गया, जो इसके पर्वतीय क्षेत्रों से गहरा संबंध दर्शाता है।
2. सांस्कृतिक और साहित्यिक विशेषताएँ
संस्कृत साहित्य में स्थान – कुटज का उल्लेख प्राचीन भारतीय साहित्य, विशेष रूप से कालिदास के ‘मेघदूत’ में मिलता है, जहाँ यक्ष रामगिरि पर कुटज के फूलों से मेघ की अभ्यर्थना करता है। यह दर्शाता है कि कुटज, भले ही चम्पक या मल्लिका जैसे फूलों जितना प्रसिद्ध न हो, प्राचीन काल से महत्त्वपूर्ण रहा है।
नाम की उत्पत्ति – निबंध में लेखक ‘कुटज’ शब्द की उत्पत्ति पर विचार करता है। ‘कुट’ का अर्थ पहाड़, घर या घड़ा हो सकता है। कुछ विद्वान इसे आग्नेय (ऑस्ट्रो-एशियाटिक) भाषा परिवार से जोड़ते हैं, जो संस्कृत में गैर-आर्य शब्दों की उपस्थिति को दर्शाता है। यह इसकी सांस्कृतिक समावेशिता को उजागर करता है।
कवियों द्वारा उपेक्षा – रहीम के दोहे में कुटज को ‘अदना’ वृक्ष कहकर उसकी उपेक्षा की गई, लेकिन लेखक इसे अन्याय मानता है। कुटज का सौंदर्य और जीवटता इसे साहित्य में सम्मान का पात्र बनाती है।
3. दार्शनिक और प्रतीकात्मक विशेषताएँ
जीवन शक्ति का प्रतीक – निबंध में कुटज को एक तपस्वी के रूप में चित्रित किया गया है, जो कठोर परिस्थितियों में भी अविचलित रहता है। यह पत्थरों को भेदकर, पाताल से रस खींचकर और तूफानों का सामना कर जीवित रहता है। यह जीवन की कला और तपस्या का प्रतीक है।
स्वार्थ से परे जीवन – कुटज न तो किसी की खुशामद करता है, न ही किसी का अपकार। यह बिना अभिमान के, शान से जीता है। लेखक इसे भीष्म पितामह और राजा जनक जैसे दार्शनिक चरित्रों से जोड़ता है, जो सुख-दुख में समान भाव रखते हैं।
आत्मा की व्यापकता – कुटज का जीवन स्वार्थ से परे, समष्टि-बुद्धि और व्यापक आत्मा का प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि सच्चा जीवन वही है, जो दूसरों के लिए निछावर हो और जिसमें सुख-दुख को समान भाव से स्वीकार किया जाए।
अकुतोभया और अपराजित स्वभाव – कुटज का ‘अकुतोभया’ (न डरने वाला) और ‘अपराजित’ (अजेय) स्वभाव इसे एक प्रेरणादायक प्रतीक बनाता है। यह बिना किसी डर या परवशता के, अपने मन को वश में रखकर जीता है।
4. निबंध के संदर्भ में विशेषताएँ
मस्तमौला और द्वन्द्वातीत – निबंध में कुटज को ‘मस्तमौला’ और ‘द्वन्द्वातीत’ कहा गया है, जो इसकी बेफिक्री और सुख-दुख से परे रहने की क्षमता को दर्शाता है।
प्रेरणादायक उपदेश – कुटज का जीवन हमें सिखाता है कि कठिनाइयों में भी हार न मानें, स्वार्थ से परे जिएँ, और अपनी आत्मा को व्यापक बनाएँ। यह “पाषाण को भेदकर, पाताल से रस खींचने” का प्रतीक है।
सांस्कृतिक स्वीकृति – लेखक कुटज के नाम को समाज द्वारा स्वीकृत और इतिहास द्वारा प्रमाणित मानता है, जो इसकी सांस्कृतिक गहराई को दर्शाता है।
निष्कर्ष
कुटज एक साधारण वृक्ष नहीं, बल्कि प्रकृति, संस्कृति और दर्शन का एक जीवंत प्रतीक है। इसकी शारीरिक विशेषताएँ जैसे सुंदर फूल और कठिन परिस्थितियों में जीवटता और साहित्यिक-सांस्कृतिक महत्त्व इसे अनूठा बनाते हैं। दार्शनिक दृष्टि से, यह जीवन की तपस्या, स्वार्थ से मुक्ति और अपराजित स्वभाव का प्रतीक है। निबंध में कुटज एक प्रेरणादायक चरित्र के रूप में उभरता है, जो हमें सिखाता है कि जीवन को शान और मस्ती से जीना और हँसते हुए जीना चाहिए।
‘कुटज’ से संबंधित बहुविकल्पीय प्रश्न और उत्तर
- प्रश्न – कुटज मुख्य रूप से कहाँ पाया जाता है?
अ) रेगिस्तानी क्षेत्रों में
ब) शिवालिक पहाड़ियों और शुष्क क्षेत्रों में
स) समुद्री तटों पर
द) दलदली क्षेत्रों में
उत्तर – ब) शिवालिक पहाड़ियों और शुष्क क्षेत्रों में - प्रश्न – कुटज की सबसे उल्लेखनीय विशेषता क्या है?
अ) बड़े फल
ब) कठोर परिस्थितियों में जीवटता
स) लंबी जड़ें
द) रंगीन पत्तियाँ
उत्तर – ब) कठोर परिस्थितियों में जीवटता - प्रश्न – कुटज के फूलों का रंग क्या होता है?
अ) लाल
ब) पीला
स) सफेद
द) नीला
उत्तर – स) सफेद - प्रश्न – कुटज का उल्लेख किस साहित्यिक कृति में मिलता है?
अ) रामचरितमानस
ब) मेघदूत
स) गीतांजलि
द) कामायनी
उत्तर – ब) मेघदूत - प्रश्न – कालिदास ने कुटज का उपयोग किसके लिए किया?
अ) मेघ की अभ्यर्थना
ब) युद्ध में
स) भोजन के लिए
द) मंदिर निर्माण में
उत्तर – अ) मेघ की अभ्यर्थना - प्रश्न – रहीम ने कुटज को किस रूप में वर्णित किया?
अ) शानदार वृक्ष
ब) अदना वृक्ष
स) औषधीय पौधा
द) पवित्र वृक्ष
उत्तर – ब) अदना वृक्ष - प्रश्न – कुटज का शब्द मूल संभवतः किस भाषा परिवार से है?
अ) द्रविड़
ब) आग्नेय (ऑस्ट्रो-एशियाटिक)
स) तिब्बती-बर्मन
द) इंडो-यूरोपियन
उत्तर – ब) आग्नेय (ऑस्ट्रो-एशियाटिक) - प्रश्न – कुटज को निबंध में क्या कहा गया है?
अ) मस्तमौला और द्वन्द्वातीत
ब) कमजोर और नाजुक
स) आक्रामक और जहरीला
द) विशाल और छायादार
उत्तर – अ) मस्तमौला और द्वन्द्वातीत - प्रश्न – कुटज की जड़ें किस विशेषता के लिए जानी जाती हैं?
अ) मिट्टी को बाँधना
ब) फल उत्पन्न करना
स) रंग बदलना
द) पानी को शुद्ध करना
उत्तर – अ) मिट्टी को बांधना - प्रश्न – कुटज का दार्शनिक प्रतीक क्या है?
अ) स्वार्थ और लालच
ब) अपराजित और अकुतोभया स्वभाव
स) भय और कमजोरी
द) अस्थिरता
उत्तर – ब) अपराजित और अकुतोभया स्वभाव - प्रश्न – कुटज किस तरह की परिस्थितियों में जीवित रहता है?
अ) नम और ठंडी
ब) शुष्क और पथरीली
स) बर्फीली और ऊँची
द) उष्णकटिबंधीय
उत्तर – ब) शुष्क और पथरीली - प्रश्न – कुटज के फूलों की विशेषता क्या है?
अ) गंधहीन और बड़े
ब) सुगंधित और समूहों में
स) एकल और रंगीन
द) छोटे और कांटेदार
उत्तर – ब) सुगंधित और समूहों में - प्रश्न – कुटज का उपदेश क्या है?
अ) स्वार्थ के लिए जीना
ब) कठिनाइयों में शान से जीना
स) दूसरों पर निर्भर रहना
द) प्रकृति से दूरी बनाना
उत्तर – ब) कठिनाइयों में शान से जीना - प्रश्न – कुटज का पर्यावरणीय योगदान क्या है?
अ) जलवायु परिवर्तन को बढ़ाना
ब) जैव-विविधता और मिट्टी संरक्षण
स) वायु प्रदूषण
द) जंगल की आग
उत्तर – ब) जैव-विविधता और मिट्टी संरक्षण - प्रश्न – कुटज को किसके साथ तुलना की गई है?
अ) राजा जनक और भीष्म पितामह
ब) रावण और कंस
स) अर्जुन और युधिष्ठिर
द) दुर्योधन और शकुनि
उत्तर – अ) राजा जनक और भीष्म पितामह - प्रश्न – कुटज का नाम समाज में क्यों महत्त्वपूर्ण है?
अ) यह धार्मिक अनुष्ठानों में प्रयुक्त होता है
ब) इसे समाज और इतिहास की स्वीकृति मिली है
स) यह केवल सजावटी है
द) यह व्यापारिक महत्त्व रखता है
उत्तर – ब) इसे समाज और इतिहास की स्वीकृति मिली है - प्रश्न – कुटज की तुलना निबंध में किससे की गई है?
अ) एक तपस्वी से
ब) एक योद्धा से
स) एक व्यापारी से
द) एक किसान से
उत्तर – अ) एक तपस्वी से - प्रश्न – कुटज का जीवन दर्शन क्या सिखाता है?
अ) सुख-दुख में विचलित होना
ब) स्वार्थ से परे, शान से जीना
स) केवल अपने लिए जीना
द) दूसरों की खुशामद करना
उत्तर – ब) स्वार्थ से परे, शान से जीना
कुटज पर आधारित प्रश्नोत्तर (एक वाक्य में)
- प्रश्न – हिमालय को ‘मानदण्ड’ क्यों कहा गया है?
उत्तर – क्योंकि वह पूर्व और पश्चिम समुद्र को थामते हुए पृथ्वी की भव्यता का प्रतीक है। - प्रश्न – ‘शिवालिक’ शब्द का क्या प्रतीकात्मक अर्थ है?
उत्तर – यह शिव की जटाओं जैसे सूखे, कठोर और नीरस पहाड़ों को दर्शाता है। - प्रश्न – लेखक कुटज वृक्ष को देखकर क्या अनुभव करते हैं?
उत्तर – उन्हें लगता है कि वह वृक्ष उसे अनादि काल से जानता है। - प्रश्न – लेखक कुटज का नाम सुनते ही व्याकुल क्यों हो गया था?
उत्तर – क्योंकि उसे उसका नाम याद नहीं आ रहा था और वह नाम के सामाजिक महत्त्व को समझते हैं। - प्रश्न – कुटज का महत्त्व कालिदास के मेघदूत में कैसे बताया गया है?
उत्तर – यक्ष ने मेघ को अर्घ्य देने के लिए कुटज पुष्पों का उपयोग किया था। - प्रश्न – लेखक रहीम की किस बात की प्रशंसा करता है?
उत्तर – उनके दरियादिल स्वभाव और फक्कड़ाना मिजाज की। - प्रश्न – रहीम ने कुटज के लिए क्या आलोचनात्मक पंक्ति कही थी?
उत्तर – “वे रहीम अब बिरछ कहँ, जिनकर छाँह गंभीर…” - प्रश्न – लेखक रहीम के उस कथन से सहमत क्यों नहीं है?
उत्तर – क्योंकि कुटज की छाँह नहीं सही, पर उसके फूलों का अपना मूल्य है। - प्रश्न – ‘कुटज’ शब्द का व्युत्पत्ति-सम्बन्ध किससे जोड़ा गया है?
उत्तर – ‘कुट’ अर्थात् घड़ा या घर, जिससे उत्पन्न होने वाला। - प्रश्न – लेखक कुटज शब्द की जातीयता पर क्यों प्रश्न उठाता है?
उत्तर – क्योंकि यह संस्कृत के अनेक अप्रचलित रूपों में मिलता है और संभवतः आग्नेय भाषाओं से आया है। - प्रश्न – लेखक कुटज को ‘गाढ़े का साथी’ क्यों कहता है?
उत्तर – क्योंकि यह कठोर परिस्थितियों में भी जीता और मुस्कराता है। - प्रश्न – कुटज की जीवनी शक्ति लेखक को किस बात की प्रेरणा देती है?
उत्तर – कि जीवन जीना तपस्या है और जूझकर जीना ही सच्चा जीवन है। - प्रश्न – लेखक जीवन को केवल जिजीविषा क्यों नहीं मानता?
उत्तर – क्योंकि वह मानता है कि जीवन में परार्थ और व्यापक आत्मा की अनुभूति भी आवश्यक है। - प्रश्न – ‘स्वार्थ से भी बड़ी कोई शक्ति’ लेखक को क्या प्रतीत होती है?
उत्तर – समष्टि की चेतना और निःस्वार्थ सेवा की भावना। - प्रश्न – लेखक ने ‘कुटज’ को किन प्रतीकों से जोड़ा है?
उत्तर – महादेव की समाधि, गिरिकूट, तपस्या, जीवनी-शक्ति, और आत्मनिर्भरता। - प्रश्न – ‘भित्त्वा पाषाणपिठरं…’ श्लोक का आशय क्या है?
उत्तर – कुटज पाषाण को चीरकर रस निकालता है और आकाश को चूमता है। - प्रश्न – लेखक कुटज को ‘मूर्ख के मस्तिष्क से भी अधिक सूने स्थान’ में कैसे सरस पाता है?
उत्तर – क्योंकि वह वहाँ भी रस और जीवन खींचने की क्षमता रखता है। - प्रश्न – लेखक जीवन को ‘कला’ और ‘तपस्या’ क्यों कहता है?
उत्तर – क्योंकि कठिन परिस्थितियों में भी सृजनशील और जीवंत रहना एक साधना है। - प्रश्न – लेखक कुटज की किस विशेषता से सबसे अधिक प्रभावित है?
उत्तर – उसकी अपराजेय जीवनी-शक्ति और आत्मनिर्भर उल्लास से। - प्रश्न – लेखक के अनुसार संस्कृत ने कुटज जैसे शब्दों को क्यों अपनाया?
उत्तर – क्योंकि संस्कृत एक सर्वग्राही भाषा है, जिसने विविध भाषाओं के शब्द आत्मसात किए हैं।
कुटज पर आधारित प्रश्नोत्तर (40-50 शब्दों में)
- प्रश्न – लेखक शिवालिक शृंखला को शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा क्यों मानते हैं?
उत्तर – लेखक शिवालिक की सूखी, नीरस और कठोर प्रकृति को देखकर उसे शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा मानते हैं। उनका मानना है कि समाधिस्थ महादेव की जटाएँ ही इतनी रूखी हो सकती हैं। यह कल्पना शिवालिक के ऊबड़-खाबड़ और शुष्क स्वरूप को महादेव के विराट रूप से जोड़ती है, जिससे पाठक को पर्वतों के प्रति एक आध्यात्मिक भावना महसूस होती है।
- प्रश्न – लेखक को शिवालिक की पहाड़ियों पर उगे ठिंगने दरख्तों को देखकर कैसा महसूस होता है और क्यों?
उत्तर – लेखक को शिवालिक की सूखी पहाड़ियों पर उगे ठिंगने दरख्तों को देखकर अचंभा और प्रशंसा महसूस होती है। भीषण गर्मी और भूख-प्यास सहकर भी वे सिर्फ जी नहीं रहे, बल्कि मुस्कुरा रहे हैं। लेखक उन्हें ‘द्वन्द्वातीत’ और ‘अलमस्त’ कहते हैं, क्योंकि वे विपरीत परिस्थितियों में भी अडिग और प्रसन्नचित्त बने हुए हैं।
- प्रश्न – लेखक नाम और रूप के बीच किस प्रश्न पर विचार करते हैं और इस पर उनका क्या मत है?
उत्तर – लेखक भारतीय पंडितों के चिरपरिचित प्रश्न “रूप मुख्य है या नाम?” पर विचार करते हैं। उनका मत है कि रूप व्यक्ति सत्य है, जबकि नाम समाज सत्य है। नाम वह है जिसे सामाजिक स्वीकृति और ऐतिहासिक प्रमाणिकता मिलती है, जिससे वह रूप से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
- प्रश्न – ‘कुटज’ शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर लेखक क्या संदेह व्यक्त करते हैं और क्यों?
उत्तर – लेखक ‘कुटज’ शब्द की आर्य भाषाओं से संबंधित होने पर संदेह व्यक्त करते हैं। वे बताते हैं कि संस्कृत में इसके विभिन्न रूप (‘कुटच’, ‘कूटज’) मिलते हैं। भाषाशास्त्री सिलवाँ लेवी के अनुसार संस्कृत में फूलों और वृक्षों के अधिकांश शब्द आग्नेय भाषा-परिवार के हैं, जिससे लेखक को लगता है कि ‘कुटज’ भी उसी परिवार का हो सकता है।
- प्रश्न – संस्कृत भाषा को लेखक ‘सर्वग्रासी’ क्यों कहते हैं?
उत्तर – लेखक संस्कृत भाषा को ‘सर्वग्रासी’ इसलिए कहते हैं क्योंकि इसने शब्दों के संग्रह में कभी कोई भेद नहीं किया। न जाने कितने नस्लों और भाषाओं के शब्द इसमें आकर अपने बन गए हैं। यह इसकी समावेशी प्रकृति को दर्शाता है, जहाँ विभिन्न स्रोतों से आए शब्द भारतीय संस्कृति का अविच्छेद्य अंग बन गए हैं।
- प्रश्न – कुटज की जीवनी-शक्ति को लेखक किन विपरीत परिस्थितियों में भी अपराजेय बताते हैं?
उत्तर – लेखक कुटज की जीवनी-शक्ति को भीषण गर्मी, कुपित यमराज के दारुण निःश्वास जैसी धधकती लू, कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध जलस्रोत की कमी, और मूर्ख के मस्तिष्क से भी सूने गिरि कान्तार जैसी विपरीत परिस्थितियों में भी अपराजेय बताते हैं। इन सब में भी वह हरा-भरा और सरस बना रहता है।
- प्रश्न – कुटज हिमालय से और गिरिनन्दिनी सरिताओं से किस प्रकार संवाद स्थापित करता है?
उत्तर – कुटज अपने झबरीले मूर्धा को हिलाकर समाधिनिष्ठ महादेव को पुष्पस्तवक का उपहार चढ़ाकर हिमालय से संवाद करता है। वहीं, अपनी पाताल भेदी जड़ों से गिरिनन्दिनी सरिताओं को संकेत से बताता है कि रस का स्रोत कहाँ है। यह उसके प्रकृति के साथ गहरे जुड़ाव और समन्वय को दर्शाता है।
- प्रश्न – कुटज हमें जीवन जीने के संबंध में क्या उपदेश देता है?
उत्तर – कुटज हमें कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्य संग्रह करने; वायुमंडल को चूसकर, झंझा-तूफान को रगड़कर अपना प्राप्य वसूलने; और आकाश को चूसकर, उल्लास खींचने का उपदेश देता है। यह जीना एक कला और तपस्या है, जिसमें व्यक्ति को पूरी शक्ति लगानी चाहिए।
- प्रश्न – याज्ञवल्क्य ऋषि के “आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति” कथन का लेखक ने क्या विश्लेषण किया है?
उत्तर – याज्ञवल्क्य के कथन को लेखक ने प्रारंभिक बताया है। उनका मानना है कि ‘आत्मा’ केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं, बल्कि व्यापक है। जब तक ‘समष्टि-बुद्धि’ नहीं आती और व्यक्ति खुद को ‘सर्व’ के लिए न्यौछावर नहीं कर देता, तब तक ‘स्वार्थ’ एक ‘खण्ड-सत्य’ है जो मोह और तृष्णा उत्पन्न करता है।
- प्रश्न – लेखक के अनुसार स्वार्थ एक ‘खण्ड-सत्य’ कब बन जाता है?
उत्तर – लेखक के अनुसार, स्वार्थ एक ‘खण्ड-सत्य’ तब बन जाता है जब व्यक्ति अपनी ‘आत्मा’ को व्यापक नहीं मानता और खुद को ‘सर्व’ के लिए निचोड़कर निछावर नहीं करता। यह मोह और तृष्णा को जन्म देता है, जिससे मनुष्य दंडनीय और कृपण बन जाता है और उसकी दृष्टि म्लान हो जाती है।
- प्रश्न – कुटज को लेखक क्यों ‘वशी’ और ‘वैरागी’ मानते हैं?
उत्तर – लेखक कुटज को ‘वशी’ और ‘वैरागी’ मानते हैं क्योंकि वह दूसरे के द्वार पर भीख नहीं मांगता, भयभीत नहीं होता, चाटुकारिता नहीं करता, और आत्मोन्नति के लिए नीलम जैसे आडंबर नहीं अपनाता। वह अपने मन पर सवारी करता है, न कि मन को अपने पर सवार होने देता है, ठीक राजा जनक की तरह।
- प्रश्न – भीष्म पितामह के ‘हृदयेनपराजितः’ कथन का कुटज के संदर्भ में क्या महत्त्व है?
उत्तर – भीष्म पितामह का कथन ‘सुखं वा यदि वा दुःखं… हृदयेनपराजितः’ कुटज के संदर्भ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यह कुटज की अकुतोभया वृत्ति, अपराजित स्वभाव और अविचल जीवन-दृष्टि को दर्शाता है। वह सुख-दुख, प्रिय-अप्रिय, जो भी मिले, उसे हृदय से अपराजित होकर सोल्लास ग्रहण करता है, हार नहीं मानता।
- प्रश्न – लेखक के अनुसार कौन बुद्धिहीन है और क्यों?
उत्तर – लेखक के अनुसार, वह व्यक्ति बुद्धिहीन है जो यह समझता है कि दूसरे उसका उपकार कर रहे हैं। उनका तर्क है कि मनुष्य इतिहास-विधाता की योजना के अनुसार केवल जी रहा है, न कि अपनी इच्छा से। किसी को सुख मिले या न मिले, उसे अभिमान नहीं होना चाहिए क्योंकि यह सब उसकी इच्छा पर निर्भर नहीं करता।
- प्रश्न – ‘मन के विकल्प’ से लेखक का क्या आशय है और सुखी व्यक्ति की क्या पहचान है?
उत्तर – ‘मन के विकल्प’ से लेखक का आशय मन की विभिन्न अवस्थाओं और विचारों से है। लेखक कहते हैं कि सुखी वह है जिसका मन वश में है, और दुखी वह है जिसका मन परवश है। परवश मन खुशामद, चाटुकारिता और मिथ्या आडंबरों में लिप्त रहता है।
- प्रश्न – कालिदास और रहीम द्वारा कुटज के प्रति किए गए व्यवहार में लेखक क्या विरोधाभास देखते हैं?
उत्तर – लेखक बताते हैं कि कालिदास ने कुटज के फूलों को मेघ की अभ्यर्थना के लिए अर्पित कर उसे सम्मान दिया था (“गाढ़े के साथी”)। वहीं, रहीम ने कुटज को अदना ‘बिरछ’ कहकर उसकी उपेक्षा की, यह कहकर कि उसकी छाँव गंभीर नहीं है। लेखक इसे रहीम के ‘मूड’ खराब होने या गलतबयानी का परिणाम मानते हैं, जो कुटज के गौरव को कम नहीं करता।
कुटज पर आधारित प्रश्नोत्तर (40-50 शब्दों में)
- प्रश्न – लेखक शिवालिक शृंखला को शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा क्यों मानते हैं?
उत्तर – लेखक शिवालिक की सूखी, नीरस और कठोर प्रकृति को देखकर उसे शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा मानते हैं। उनका मानना है कि समाधिस्थ महादेव की जटाएँ ही इतनी रूखी हो सकती हैं। यह कल्पना शिवालिक के ऊबड़-खाबड़ और शुष्क स्वरूप को महादेव के विराट रूप से जोड़ती है, जिससे पाठक को पर्वतों के प्रति एक आध्यात्मिक भावना महसूस होती है।
- प्रश्न – लेखक को शिवालिक की पहाड़ियों पर उगे ठिंगने दरख्तों को देखकर कैसा महसूस होता है और क्यों?
उत्तर – लेखक को शिवालिक की सूखी पहाड़ियों पर उगे ठिंगने दरख्तों को देखकर अचंभा और प्रशंसा महसूस होती है। भीषण गर्मी और भूख-प्यास सहकर भी वे सिर्फ जी नहीं रहे, बल्कि मुस्कुरा रहे हैं। लेखक उन्हें ‘द्वन्द्वातीत’ और ‘अलमस्त’ कहते हैं, क्योंकि वे विपरीत परिस्थितियों में भी अडिग और प्रसन्नचित्त बने हुए हैं।
- प्रश्न – लेखक नाम और रूप के बीच किस प्रश्न पर विचार करते हैं और इस पर उनका क्या मत है?
उत्तर – लेखक भारतीय पंडितों के चिरपरिचित प्रश्न “रूप मुख्य है या नाम?” पर विचार करते हैं। उनका मत है कि रूप व्यक्ति सत्य है, जबकि नाम समाज सत्य है। नाम वह है जिसे सामाजिक स्वीकृति और ऐतिहासिक प्रमाणिकता मिलती है, जिससे वह रूप से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
- प्रश्न – ‘कुटज’ शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर लेखक क्या संदेह व्यक्त करते हैं और क्यों?
उत्तर – लेखक ‘कुटज’ शब्द की आर्य भाषाओं से संबंधित होने पर संदेह व्यक्त करते हैं। वे बताते हैं कि संस्कृत में इसके विभिन्न रूप (‘कुटच’, ‘कूटज’) मिलते हैं। भाषाशास्त्री सिलवाँ लेवी के अनुसार संस्कृत में फूलों और वृक्षों के अधिकांश शब्द आग्नेय भाषा-परिवार के हैं, जिससे लेखक को लगता है कि ‘कुटज’ भी उसी परिवार का हो सकता है।
- प्रश्न – संस्कृत भाषा को लेखक ‘सर्वग्रासी’ क्यों कहते हैं?
उत्तर – लेखक संस्कृत भाषा को ‘सर्वग्रासी’ इसलिए कहते हैं क्योंकि इसने शब्दों के संग्रह में कभी कोई भेद नहीं किया। न जाने कितने नस्लों और भाषाओं के शब्द इसमें आकर अपने बन गए हैं। यह इसकी समावेशी प्रकृति को दर्शाता है, जहाँ विभिन्न स्रोतों से आए शब्द भारतीय संस्कृति का अविच्छेद्य अंग बन गए हैं।
- प्रश्न – कुटज की जीवनी-शक्ति को लेखक किन विपरीत परिस्थितियों में भी अपराजेय बताते हैं?
उत्तर – लेखक कुटज की जीवनी-शक्ति को भीषण गर्मी, कुपित यमराज के दारुण निःश्वास जैसी धधकती लू, कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध जलस्रोत की कमी, और मूर्ख के मस्तिष्क से भी सूने गिरि कान्तार जैसी विपरीत परिस्थितियों में भी अपराजेय बताते हैं। इन सब में भी वह हरा-भरा और सरस बना रहता है।
- प्रश्न – कुटज हिमालय से और गिरिनन्दिनी सरिताओं से किस प्रकार संवाद स्थापित करता है?
उत्तर – कुटज अपने झबरीले मूर्धा को हिलाकर समाधिनिष्ठ महादेव को पुष्पस्तवक का उपहार चढ़ाकर हिमालय से संवाद करता है। वहीं, अपनी पाताल भेदी जड़ों से गिरिनन्दिनी सरिताओं को संकेत से बताता है कि रस का स्रोत कहाँ है। यह उसके प्रकृति के साथ गहरे जुड़ाव और समन्वय को दर्शाता है।
- प्रश्न – कुटज हमें जीवन जीने के संबंध में क्या उपदेश देता है?
उत्तर – कुटज हमें कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्य संग्रह करने; वायुमंडल को चूसकर, झंझा-तूफान को रगड़कर अपना प्राप्य वसूलने; और आकाश को चूसकर, उल्लास खींचने का उपदेश देता है। यह जीना एक कला और तपस्या है, जिसमें व्यक्ति को पूरी शक्ति लगानी चाहिए।
- प्रश्न – याज्ञवल्क्य ऋषि के “आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति” कथन का लेखक ने क्या विश्लेषण किया है?
उत्तर – याज्ञवल्क्य के कथन को लेखक ने प्रारंभिक बताया है। उनका मानना है कि ‘आत्मा’ केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं, बल्कि व्यापक है। जब तक ‘समष्टि-बुद्धि’ नहीं आती और व्यक्ति खुद को ‘सर्व’ के लिए न्यौछावर नहीं कर देता, तब तक ‘स्वार्थ’ एक ‘खण्ड-सत्य’ है जो मोह और तृष्णा उत्पन्न करता है।
- प्रश्न – लेखक के अनुसार स्वार्थ एक ‘खण्ड-सत्य’ कब बन जाता है?
उत्तर – लेखक के अनुसार, स्वार्थ एक ‘खण्ड-सत्य’ तब बन जाता है जब व्यक्ति अपनी ‘आत्मा’ को व्यापक नहीं मानता और खुद को ‘सर्व’ के लिए निचोड़कर निछावर नहीं करता। यह मोह और तृष्णा को जन्म देता है, जिससे मनुष्य दंडनीय और कृपण बन जाता है और उसकी दृष्टि म्लान हो जाती है।
- प्रश्न – कुटज को लेखक क्यों ‘वशी’ और ‘वैरागी’ मानते हैं?
उत्तर – लेखक कुटज को ‘वशी’ और ‘वैरागी’ मानते हैं क्योंकि वह दूसरे के द्वार पर भीख नहीं मांगता, भयभीत नहीं होता, चाटुकारिता नहीं करता, और आत्मोन्नति के लिए नीलम जैसे आडंबर नहीं अपनाता। वह अपने मन पर सवारी करता है, न कि मन को अपने पर सवार होने देता है, ठीक राजा जनक की तरह।
- प्रश्न – भीष्म पितामह के ‘हृदयेनपराजितः’ कथन का कुटज के संदर्भ में क्या महत्त्व है?
उत्तर – भीष्म पितामह का कथन ‘सुखं वा यदि वा दुःखं… हृदयेनपराजितः’ कुटज के संदर्भ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यह कुटज की अकुतोभया वृत्ति, अपराजित स्वभाव और अविचल जीवन-दृष्टि को दर्शाता है। वह सुख-दुख, प्रिय-अप्रिय, जो भी मिले, उसे हृदय से अपराजित होकर सोल्लास ग्रहण करता है, हार नहीं मानता।
- प्रश्न – लेखक के अनुसार कौन बुद्धिहीन है और क्यों?
उत्तर – लेखक के अनुसार, वह व्यक्ति बुद्धिहीन है जो यह समझता है कि दूसरे उसका उपकार कर रहे हैं। उनका तर्क है कि मनुष्य इतिहास-विधाता की योजना के अनुसार केवल जी रहा है, न कि अपनी इच्छा से। किसी को सुख मिले या न मिले, उसे अभिमान नहीं होना चाहिए क्योंकि यह सब उसकी इच्छा पर निर्भर नहीं करता।
- प्रश्न – ‘मन के विकल्प’ से लेखक का क्या आशय है और सुखी व्यक्ति की क्या पहचान है?
उत्तर – ‘मन के विकल्प’ से लेखक का आशय मन की विभिन्न अवस्थाओं और विचारों से है। लेखक कहते हैं कि सुखी वह है जिसका मन वश में है, और दुखी वह है जिसका मन परवश है। परवश मन खुशामद, चाटुकारिता और मिथ्या आडंबरों में लिप्त रहता है।
- प्रश्न – कालिदास और रहीम द्वारा कुटज के प्रति किए गए व्यवहार में लेखक क्या विरोधाभास देखते हैं?
उत्तर – लेखक बताते हैं कि कालिदास ने कुटज के फूलों को मेघ की अभ्यर्थना के लिए अर्पित कर उसे सम्मान दिया था (“गाढ़े के साथी”)। वहीं, रहीम ने कुटज को अदना ‘बिरछ’ कहकर उसकी उपेक्षा की, यह कहकर कि उसकी छाँव गंभीर नहीं है। लेखक इसे रहीम के ‘मूड’ खराब होने या गलतबयानी का परिणाम मानते हैं, जो कुटज के गौरव को कम नहीं करता।