कवि परिचय : मैथिलीशरण गुप्त
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झाँसी के चिरगाँव में 3 अगस्त, सन् 1886 ई० में हुआ था। वे भारतीय जीवन के कुशल चितेरे ने। उनमें बचपन से ही कविता लिखने की प्रवृति थी। उनकी कविता का प्रमुख स्वर राष्ट्रीयता है। गुप्त जी की कीर्ति भारत में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय बहुत ही प्रभावशाली सिद्ध हुई थी। इसी कारण से महात्मा गाँधी जी ने इन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि से सम्मानित किया था और आज भी हम लोग उनकी जयंती को एक कवि दिवस के रूप में मनाते हैं। इनके पिताजी का नाम सेठ रामचरण गुप्त और माता का नाम काशीवाई था। इनके पिता रामचरण गुप्त जी एक निष्ठावान् प्रसिद्ध रामभक्त और काव्यानुरागी थे। गुप्त ने सरस्वती सहित विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएँ लिखकर हिंदी साहित्य की दुनिया में प्रवेश किया। 1909
में, उनका पहला प्रमुख काम, रंग में भंग, इंडियन प्रेस द्वारा प्रकाशित किया गया था। भारत-भारती के साथ, उनकी राष्ट्रवादी कविताएँ उन भारतीयों के बीच लोकप्रिय हो गई, जो स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे। उनकी अधिकांश कविताएँ रामायण, महाभारत, बौद्ध कहानियों और प्रसिद्ध धार्मिक नेताओं के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती हैं। उनकी प्रसिद्ध कृति ‘साकेत’ रामायण के लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के इर्द-गिर्द घूमती है, जबकि दूसरी कृति ‘यशोधरा’ गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा उनकी कृतियों में देश का अतीत, वर्तमान और भविष्य बोलता है। वह मानववादी, नैतिक और सांस्कृतिक काव्यधारा के विशिष्ट कवि थे। उनके दो महाकाव्य, बीस खंडकाव्य, सत्रह गीतिकाव्य, चार नाटक और गीतिनाट्य, दो संस्मरणात्मक गद्य-कृतियाँ, चार निराख्यानक निबंध और अठारह अनूदित रचनाएँ उपलब्ध हैं।
प्रमुख कृतियाँ- महाकाव्य : साकेत (1931)
खंडकाव्य : रंग में भंग (1909), जयद्रथ वध (1910), शंकुतला (1914), पंचवटी (1915), किसान (1916), सैरंधी (1927), वकसंहार (1927), वन वैभव (1927), शक्ति (1927), यशोधरा (1932), द्वापर (1936)
मैथिलीशरण गुप्त जी का देहावसान 12 दिसंबर, 1964 को चिरगाँव में ही हुआ। इनके स्वर्गवास से हिंदी साहित्य को जो क्षति पहुँची, उनकी पूर्ति संभव नहीं है।
कैकेयी का अनुताप
यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को।’
चौंके सब सुन कर अटल कैकेयी – स्वर को।
सबने रानी की ओर अचानक देखा,
वैधव्य-तुषारावृता यथा विधु -लेखा।
बैठी थी अचल तथापि असंख्यतरंगा,
वह सिंही अब थी हा ! गोमुखी गंगा-
“हाँ, जनकर भी मैंने न भरत को जाना,
सब सुन लें तुमने स्वयं अभी यह माना।
यह सच है तो फिर लौट चलो घर भैया,
अपराधिन मैं हूँ तात, तुम्हारी मैया।
दुर्बलता का ही चिह्न विशेष शपथ है,
पर, अबलाजन के लिए कौन-सा पथ है?
यदि मैं उकसाई गई भरत से होऊँ,
तो पति समान ही स्वयं पुत्र भी खोउँ।
ठहरो, मत रोको मुझे, कहूँ सो सुन लो,
पाओ यदि उनमें सार उसे सब चुन लो।
करके पहाड़-सा पाप मौन रह जाऊँ?
राई भर भी अनुताप न करने पाऊँ?
थी सनक्षत्र शशि- निशा ओस टपकाती,
रोती थी नीरव सभा हृदय थपकाती।
उल्का-सी रानी दिशा दीप्ति करती थी,
सब में भय – विस्मय और खेद भरती थी,
‘क्या कर सकती थी, मरी मन्थरा दासी,
मेरा ही मन रह सका न निज विश्वासी।
जल पंजर-गत अब अरे अधीर, अभागे,
ज्वलित भाव थे स्वयं तुझी में जागे।
पर था केवल क्या ज्वलित भाव ही मन में?
क्या शेष बचा था कुछ न और इस जन में?
कुछ मूल्य नहीं वात्सल्य- मात्र, क्या तेरा?
पर आज अन्य-सा हुआ वत्स भी मेरा।
थूके, मुझ पर त्रैलोक्य भले ही थूके,
जो कोई जो कह सके, कहे, क्यों चुके?
छीने न मातृपद किन्तु भरत का मुझसे,
रे राम, दुहाई करूँ और क्या तुझसे?
कहते आते थे अभी यही नर-देही,
‘माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही।’
अब कहें सभी यह हाय! विरुद्ध विधाता,-
“हैं पुत्र पुत्र ही, रहे कुमाता माता।”
बस मैंने इसका बाह्य मात्र ही देखा,
दृढ़ हृदय न देखा, मृदुल गात्र ही देखा
परमार्थ न देखा, पूर्ण स्वार्थ ही साधा,
इस कारण ही तो हाय आज यह बाधा !
युग युग तक चलती रहे कठोर कहानी-
“रघुकुल में भी थी एक अभागी रानी।”
निज जन्म जन्म में सुने जीव यह मेरा-
“धिक्कार उसे था महा स्वार्थ ने घेरा। “
“सौ बार धन्य वह एक लाल की माई,
जिस जननी ने है जना भरत-सा भाई।”
पागल-सी प्रभु के साथ सभा चिल्लाई-
‘सौ बार धन्य वह एक लाल की माई।”
कैकेयी का अनुताप – शब्दार्थ
Word (Original) | Hindi Meaning (हिंदी अर्थ) | Bengali Meaning (বাংলা অর্থ) | English Meaning |
कैकेयी | दशरथ की पत्नी, राम की विमाता | দশরথের স্ত্রী, রামের বিমাতা | Kaikeyi (Dasharatha’s wife, Rama’s stepmother) |
अनुताप | पश्चात्ताप, ग्लानि | অনুতাপ, অনুশোচনা | Repentance, remorse |
यह सच है | यदि यह सत्य है | এটা যদি সত্যি হয় | If this is true |
तो अब | तो अब | তাহলে এখন | Then now |
लौट चलो | वापस चलो | ফিরে চলো | Return, go back |
तुम घर को | तुम घर को, अपने घर | তুমি ঘরে | You to home |
चौंके | चौंक गए, आश्चर्यचकित हुए | চমকে উঠল | Were startled, surprised |
सब सुन कर | सब सुनकर | সবাই শুনে | Hearing all |
अटल | स्थिर, दृढ़, अविचल | অটল, স্থির | Firm, unwavering, resolute |
कैकेयी-स्वर | कैकेयी की आवाज़ | কৈকেয়ীর কণ্ঠস্বর | Kaikeyi’s voice |
सबने | सबने | সবাই | Everyone |
रानी की ओर | रानी की तरफ | রানীর দিকে | Towards the queen |
अचानक | एकाएक, सहसा | হঠাৎ | Suddenly |
देखा | देखा | দেখল | Looked |
वैधव्य | विधवापन | বৈধব্য | Widowhood |
तुषार | बर्फ, पाला | তুষার, বরফ | Frost, ice |
आवृता | ढकी हुई | আবৃত, ঢাকা | Covered |
यथा | जैसे | যেমন | As, like |
विधु-लेखा | चंद्रमा की कला, चाँद की किरण | চাঁদের কলা, চাঁদের আলো | Crescent moon, moonbeam |
बैठी थी | बैठी हुई थी | বসেছিল | Was sitting |
अचल | स्थिर, बिना हिले-डुले | অচল, স্থির | Motionless, fixed |
तथापि | फिर भी, तो भी | তবুও | Nevertheless, even then |
असंख्य | अनगिनत, बहुत सारी | অগণিত, অসংখ্য | Innumerable, countless |
तरंगा | तरंगें, लहरें (यहाँ भावों की) | তরঙ্গ (এখানে ভাবের) | Waves (here of emotions) |
वह सिंही | वह शेरनी | সেই সিংহী | That lioness |
अब थी | अब थी | এখন ছিল | Now was |
हा! | हाय! (शोकसूचक) | হায়! (শোকসূচক) | Alas! (expression of sorrow) |
गोमुखी गंगा | गोमुख से निकली गंगा (शांत, पवित्र) | গোমুখ থেকে নির্গত গঙ্গা (শান্ত, পবিত্র) | Ganga from Gaumukh (calm, pure) |
हाँ, जनकर भी | हाँ, जन्म देकर भी | হ্যাঁ, জন্ম দিয়েও | Yes, even after giving birth |
मैंने न | मैंने नहीं | আমি না | I did not |
भरत को जाना | भरत को जाना (पहचाना) | ভরতকে চিনিনি (জানি নি) | Know (recognize) Bharata |
सब सुन लें | सब सुन लें | সবাই শুনে নিক | Let everyone hear |
तुमने स्वयं | तुमने खुद | তুমি নিজে | You yourself |
अभी यह माना | अभी यह माना (स्वीकार किया) | এইমাত্র এটি মেনে নিয়েছ | Just now accepted this |
यह सच है तो | यदि यह सच है तो | এটা যদি সত্যি হয় তাহলে | If this is true, then |
फिर लौट चलो | फिर वापस चलो | আবার ফিরে চলো | Then go back again |
घर भैया | घर, भैया | ঘরে ভাই | Home, brother |
अपराधिन | अपराधी, दोषी | অপরাধী, দোষী | Guilty, culprit |
तात | पुत्र, पिता (यहाँ पुत्र के लिए) | পুত্র, পিতা (এখানে পুত্রের জন্য) | Son, father (here for son) |
तुम्हारी मैया | तुम्हारी माँ | তোমার মা | Your mother |
दुर्बलता | कमजोरी | দুর্বলতা | Weakness |
चिह्न विशेष | विशेष चिह्न, पहचान | বিশেষ চিহ্ন, পরিচয় | Special mark, sign |
शपथ है | शपथ (कसम) है | শপথ (শপথ) | Oath is |
अबलाजन | असहाय स्त्रियाँ | অবলা নারী | Helpless women |
कौन-सा पथ है? | कौन-सा रास्ता है? | কোন পথ আছে? | What path is there? |
उकसाई गई | भड़काई गई | উস্কানি দেওয়া হয়েছিল | Was instigated |
भरत से होऊँ | भरत से हुई होऊँ | ভরতের দ্বারা হয়ে থাকি | Am done by Bharata |
तो पति समान ही | तो पति के समान ही | তাহলে পতির মতোই | Then just like my husband |
स्वयं | खुद | নিজেই | Myself |
पुत्र भी खोउँ | पुत्र को भी खो दूँ | পুত্রকেও হারাই | Lose my son too |
मत रोको मुझे | मुझे मत रोको | আমাকে আটকিও না | Don’t stop me |
कहूँ सो सुन लो | जो कहूँ, वह सुन लो | যা বলি, তা শুনে নাও | Listen to what I say |
पाओ यदि उनमें | यदि उनमें पाओ | যদি তাদের মধ্যে পাও | If you find in them |
सार | सार, महत्व, सत्य | সার, সত্য | Essence, truth |
उसे सब चुन लो | उसे सब चुन लो (ग्रहण कर लो) | সেটা সবাই গ্রহণ করো | Choose (accept) all of it |
पहाड़-सा पाप | पहाड़ जैसा बड़ा पाप | পাহাড়ের মতো পাপ | Mountain-like sin |
मौन रह जाऊँ? | चुप रह जाऊँ? | চুপ করে থাকব? | Should I remain silent? |
राई भर भी | राई के दाने भर भी (बहुत थोड़ा) | সর্ষের দানা পরিমাণও (সামান্য) | Even a mustard seed (very little) |
अनुताप न करने पाऊँ? | पश्चात्ताप न करने पाऊँ? | অনুতাপ করতে না পারি? | Shouldn’t I be able to repent? |
थी सनक्षत्र शशि- निशा | तारों भरी चांदनी रात थी | তারা ভরা চাঁদনি রাত ছিল | It was a star-studded moonlit night |
ओस टपकाती | ओस टपका रही थी | শিশির ঝরাচ্ছিল | Was dripping dew |
नीरव सभा | शांत सभा | নীরব সভা | Silent assembly |
हृदय थपकाती | हृदय थपकाती हुई (दुख से) | হৃদয় চাপড়ে (দুঃখে) | Thumping the heart (with sorrow) |
उल्का-सी | उल्का के समान (तेज चमकती हुई) | উল্কার মতো (উজ্জ্বল) | Like a meteor (shining brightly) |
दिशा दीप्ति करती थी | दिशाओं को प्रकाशित कर रही थी | দিক আলোকিত করছিল | Was illuminating the directions |
भय-विस्मय | भय और आश्चर्य | ভয় ও বিস্ময় | Fear and astonishment |
और खेद | और दुख, पश्चात्ताप | আর দুঃখ, অনুশোচনা | And sorrow, regret |
भरती थी | भर रही थी | ভরে দিচ্ছিল | Was filling |
क्या कर सकती थी | क्या कर सकती थी | কি করতে পারত | What could she do |
मरी मन्थरा दासी | मरी हुई मंथरा दासी | মরা মন্থরা দাসী | Dead Manthara the maid |
मेरा ही मन | मेरा ही मन | আমার মনই | Only my mind |
रह सका न | रह सका नहीं | থাকতে পারল না | Could not remain |
निज विश्वासी | अपना विश्वासी, स्वयं पर विश्वास करने वाला | নিজের বিশ্বস্ত, নিজের উপর বিশ্বাসী | Self-believing, trusting in oneself |
जल | जल (जल जाना, जलना) | জল (জ্বলে যাওয়া, পোড়া) | Burn (to burn, to be inflamed) |
पंजर-गत | पिंजरे में पड़ा हुआ (शरीर) | খাঁচার মধ্যে থাকা (শরীর) | In the cage (body) |
अब अरे अधीर | अब अरे अधीर (मन) | এখন হে অধীর (মন) | Now oh impatient one (mind) |
अभागे | अभागे, दुर्भाग्यपूर्ण | হতভাগ্য | Unfortunate |
ज्वलित भाव | जलते हुए भाव, तीव्र भावनाएँ | জ্বলন্ত ভাব, তীব্র আবেগ | Inflamed emotions, intense feelings |
तुझी में जागे | तुझमें ही जागे | তোমার মধ্যেই জেগেছিল | Awoke in you only |
पर था | पर था, लेकिन था | কিন্তু ছিল | But was |
केवल क्या | केवल क्या | শুধু কি | Only what |
ज्वलित भाव ही | जलते हुए भाव ही | জ্বলন্ত ভাবই | Only inflamed emotions |
मन में? | मन में? | মনে? | In the mind? |
क्या शेष बचा था | क्या कुछ बचा था | আর কি কিছু অবশিষ্ট ছিল? | What else was left? |
कुछ न और | कुछ और नहीं | আর কিছু না | Nothing else |
इस जन में? | इस व्यक्ति में? | এই ব্যক্তির মধ্যে? | In this person? |
कुछ मूल्य नहीं | कुछ मूल्य नहीं | কোন মূল্য নেই | No value |
वात्सल्य-मात्र | केवल वात्सल्य (पुत्र प्रेम) | শুধু বাৎসল্য (পুত্রস্নেহ) | Only parental affection |
क्या तेरा? | क्या तेरा? | কি তোমার? | Is it yours? |
पर आज | पर आज, लेकिन आज | কিন্তু আজ | But today |
अन्य-सा हुआ | दूसरे जैसा हो गया | অন্যরকম হয়ে গেছে | Became like another |
वत्स भी मेरा | मेरा पुत्र भी | আমার পুত্রও | My son too |
त्रैलोक्य | तीनों लोक (स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल) | ত্রিলোক | Three worlds |
भले ही थूके | भले ही थूकें | ইচ্ছে হলে থুতু ফেলুক | May spit as much as it wants |
जो कोई | जो कोई | যে কেউ | Whoever |
जो कह सके | जो कह सके | যা বলতে পারে | What can be said |
क्यों चुके? | क्यों चूके (पीछे हटे)? | কেন বাদ পড়বে? | Why should they miss? |
छीने न | छीने न, न छीने | যেন না কেড়ে নেয় | May not snatch away |
मातृपद | माता का पद, मातृत्व | মাতৃত্ব | Motherhood |
भरत का मुझसे | भरत का मुझसे | ভরতের থেকে আমার | Bharata’s from me |
दुहाई करूँ | दुहाई दूँ, विनती करूँ | দোহাই দিই, মিনতি করি | I plead, I implore |
कहते आते थे | कहते आते थे | বলতে থাকত | Used to say |
अभी यही | अभी तक यही | এখনো এটাই | Still this |
नर-देही | मनुष्य, मानव | মানব | Human being |
‘माता न कुमाता | ‘माता कुमाता नहीं होती’ | ‘মা কুমাতা হয় না’ | ‘Mother is not a bad mother’ |
पुत्र कुपुत्र भले ही‘ | ‘पुत्र भले ही कुपुत्र हो जाए’ | ‘পুত্র কুপুত্র হলেও’ | ‘Son may be a bad son’ |
अब कहें सभी | अब सब कहें | এখন সবাই বলবে | Now everyone will say |
यह हाय! | यह हाय! (शोकसूचक) | এই হায়! (শোকসূচক) | This alas! |
विरुद्ध विधाता | विधाता के विरुद्ध, भाग्य के विपरीत | বিধাতার বিরুদ্ধে, ভাগ্যের বিপরীত | Against destiny, contrary to fate |
“हैं पुत्र पुत्र ही | “पुत्र पुत्र ही होते हैं” | “পুত্র পুত্রই” | “Sons are indeed sons” |
रहे कुमाता माता।” | “माता कुमाता ही रही।” | “মা কুমাতাই রইল।” | “Mother remained a bad mother.” |
बाह्य मात्र | केवल बाहरी रूप | শুধু বাইরের রূপ | Only external form |
दृढ़ हृदय | दृढ़ हृदय, मजबूत मन | দৃঢ় হৃদয় | Firm heart |
मृदुल गात्र ही | केवल कोमल शरीर ही | শুধু কোমল শরীরই | Only soft body |
परमार्थ | परमार्थ, दूसरों का हित | পরমার্থ, অন্যের কল্যাণ | Highest good, welfare of others |
पूर्ण स्वार्थ ही साधा | केवल अपना स्वार्थ ही पूरा किया | শুধু নিজের স্বার্থই সিদ্ধ করেছি | Achieved only my own selfish interest |
इस कारण ही तो | इसी कारण से तो | এই কারণেই তো | For this very reason |
हाय आज यह बाधा! | हाय! आज यह बाधा (कष्ट)! | হায়! আজ এই বাধা (কষ্ট)! | Alas! Today this obstacle (distress)! |
युग युग तक | युगों-युगों तक | যুগ যুগ ধরে | For ages and ages |
चलती रहे | चलती रहे | চলতে থাকুক | May it continue to run |
कठोर कहानी | कठोर कहानी | কঠোর গল্প | Harsh story |
“रघुकुल में भी थी | “रघुकुल में भी थी” | “রঘুকুলেতেও ছিল” | “Even in Raghu’s clan there was” |
एक अभागी रानी।” | “एक अभागी रानी।” | “এক অভাগী রানী।” | “An unfortunate queen.” |
निज जन्म जन्म में | अपने हर जन्म में | নিজ জন্ম জন্মে | In my every birth |
जीव यह मेरा | यह मेरा जीव | আমার এই আত্মা | This soul of mine |
“धिक्कार उसे था | “उसे धिक्कार था” | “তাকে ধিক্কার ছিল” | “Woe to her” |
महा स्वार्थ ने घेरा।” | “महा स्वार्थ ने घेरा।” | “মহা স্বার্থ তাকে ঘিরেছিল।” | “Great selfishness surrounded her.” |
“सौ बार धन्य | “सौ बार धन्य” | “শতবার ধন্য” | “A hundred times blessed” |
वह एक लाल की माई | वह एक पुत्र की माँ | সেই এক পুত্রের মা | That mother of one son |
जिस जननी ने है जना | जिस माँ ने जन्म दिया है | যে জননী জন্ম দিয়েছে | That mother who gave birth |
भरत-सा भाई।” | भरत जैसा भाई को।” | ভরতের মতো ভাইকে।” | A brother like Bharata.” |
प्रभु के साथ | प्रभु राम के साथ | প্রভু রামের সাথে | Along with Lord Rama |
व्याख्या
यह कविता ‘कैकेयी का अनुताप’ एक गहन भावनात्मक और नैतिक चिंतन प्रस्तुत करती है, जो रामायण के प्रसंग से प्रेरित है। यहाँ कैकेयी, जो राम को वनवास देकर भरत को सिंहासन देने के लिए जिम्मेदार थी, अपने किए पर पश्चात्ताप करती है। यह कविता उनके अंतर्द्वंद्व, आत्म-दोष और समाज के प्रति अपनी स्थिति को स्वीकार करने की पीड़ा को दर्शाती है।
- यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को। चौंके सब सुन कर अटल कैकेयी – स्वर को।
व्याख्या – कैकेयी अपने अपराध को स्वीकार करती है और कहती है कि अगर उसकी बात सही है, तो लोग अपने घरों को लौट जाएँ। उसका स्वर अटल है, जो उसके आत्म-विश्लेषण और पश्चात्ताप की गहराई को दिखाता है। सभा के लोग इस अप्रत्याशित बयान से हतप्रभ हैं।
- सबने रानी की ओर अचानक देखा, वैधव्य-तुषारावृता यथा विधु -लेखा।
व्याख्या – लोग कैकेयी की ओर देखते हैं, और उसका चेहरा वैधव्य (एकाकीपन और दुख) से ढका हुआ है, जैसे चाँद पर धुंध छाई हो। यहाँ उसकी मानसिक पीड़ा और शर्मिंदगी का चित्रण है।
- बैठी थी अचल तथापि असंख्यतरंगा, वह सिंही अब थी हा ! गोमुखी गंगा।
व्याख्या – कैकेयी बाहरी रूप से शांत है, लेकिन भीतर से अशांत है। पहले वह शक्ति (शेरनी) थी, जो अपने निर्णयों पर अडिग थी, लेकिन अब वह पश्चात्ताप से दुखी होकर नम्र गोमुखी गंगा की तरह हो गई है।
- “हाँ, जनकर भी मैंने न भरत को जाना, सब सुन लें तुमने स्वयं अभी यह माना।”
व्याख्या – कैकेयी स्वीकार करती है मैंने भारत को जन्म दिया है लेकिन फिर भी मैंने भरत को समझने की कोशिश नहीं की। यह मेरी भूल का खुलासा है।
- यह सच है तो फिर लौट चलो घर भैया, अपराधिन मैं हूँ तात, तुम्हारी मैया।
व्याख्या – वह राम को संबोधित करती है और कहती है कि वह अपराधिन है। यहाँ उसका पश्चात्ताप गहरा है, और वह अपने पुत्रों से क्षमा माँगती है और उन्हें वापस लौट आने को कहती है।
- दुर्बलता का ही चिह्न विशेष शपथ है, पर, अबलाजन के लिए कौन-सा पथ है?
व्याख्या – कैकेयी कहती है कि उसकी शपथ अर्थात् राजा दशरथ से वर माँगना उसकी कमजोरी थी। वह प्रश्न उठाती है कि एक असहाय स्त्री के लिए अपने आप को साबित करने का और कौन-सा रास्ता है?
- यदि मैं उकसाई गई भरत से होऊँ, तो पति समान ही स्वयं पुत्र भी खोउँ।
व्याख्या – वह कसम खाकर कहती है कि यदि भरत के द्वारा उन्हें उकसाया गया है तो वह अपने पति की तरह अपने पुत्र भरत को भी खो देगी।
- ठहरो, मत रोको मुझे, कहूँ सो सुन लो, पाओ यदि उनमें सार उसे सब चुन लो।
व्याख्या – वह कहती है कि उन्हें बोलने से न रोका जाए, और जो वह जो कह रही है, यदि उसमें कोई सत्य या सार लगे तो उसे स्वीकार कर लिया जाए।
- करके पहाड़-सा पाप मौन रह जाऊँ? राई भर भी अनुताप न करने पाऊँ?
व्याख्या – कैकेयी अपने अपराध को पहाड़ के समान मानती है और कहती है कि वह चुप नहीं रह सकती; उसे पश्चात्ताप करना होगा।
- थी सनक्षत्र शशि- निशा ओस टपकाती, रोती थी नीरव सभा हृदय थपकाती।
व्याख्या – यह दृश्य रात्रि का है, जहाँ प्रकृति और सभा दोनों कैकेयी के दुख में शामिल हैं। तारों भरी चाँदनी रात ओस टपका रही थी, और शांत सभा हृदय थपकाती हुई दुख से रो रही थी।
- उल्का-सी रानी दिशा दीप्ति करती थी, सब में भय – विस्मय और खेद भरती थी।
व्याख्या – कैकेयी उल्का तारे के समान दिशाओं को प्रकाशित कर रही थीं, और उनकी बातों से सबमें भय, आश्चर्य और खेद के भाव भर रहे थे।
- ‘क्या कर सकती थी, मरी मन्थरा दासी, मेरा ही मन रह सका न निज विश्वासी।‘
व्याख्या – कैकेयी मन्थरा को दोष देती है, और कहती है कि मैं क्या कर सकती थी, मेरी दासी मन्थरा ने मुझे उकसाया था लेकिन वह यह भी स्वीकार करती है कि उसका अपना मन कमजोर था।
- जल पंजर-गत अब अरे अधीर, अभागे, ज्वलित भाव थे स्वयं तुझी में जागे।
व्याख्या – वह अपने मन को संबोधित करती है और कहती है कि हे अधीर और अभागे मन, मेरे शरीर में जो ज्वलित अर्थात् जलन वाले भाव जगे थे, वे तुझमें ही उत्पन्न हुए थे। वह खुद को फँसी हुई और दुखी महसूस करती है।
- पर था केवल क्या ज्वलित भाव ही मन में? क्या शेष बचा था कुछ न और इस जन में?
व्याख्या – वह सोचती है कि क्या उसका जीवन केवल ज्वलित भावनाओं और लालच तक सीमित था, या उसमें कुछ और मूल्य भी शेष था।
- कुछ मूल्य नहीं वात्सल्य- मात्र, क्या तेरा? पर आज अन्य-सा हुआ वत्स भी मेरा।
व्याख्या – वह अपनी ममता को व्यर्थ मानती है क्योंकि उसकी वात्सल्य (ममता) का कोई मूल्य नहीं रहा क्योंकि उनका अपना पुत्र भरत भी आज उनके लिए पराया सा हो गया है, उससे दूर हो गया है।
- थूके, मुझ पर त्रैलोक्य भले ही थूके, जो कोई जो कह सके, कहे, क्यों चुके?
व्याख्या – वह समाज की निंदा स्वीकार करती है। वह कहती है कि तीनों लोक मुझपर थूकना चाहे तो थूकें, जिसे जो कहना है वो कहे। मैं अपने पाप का प्रायश्चित करने को तैयार हूँ।
- छीने न मातृपद किन्तु भरत का मुझसे, रे राम, दुहाई करूँ और क्या तुझसे?
व्याख्या – वह कहती है कि कोई मेरे मातृत्व को न छीने। वह राम से प्रार्थना करती है कि उसका मातृत्व बचा रहे, और भरत उससे कभी भी अलग न हो।
- कहते आते थे अभी यही नर-देही, ‘माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही।‘
व्याख्या – यह पारंपरिक कहावत है कि माता कुमाता नहीं हो सकती, माँ हमेशा पवित्र होती है भले ही पुत्र कुपुत्र क्यों न हो जाए।
- अब कहें सभी यह हाय! विरुद्ध विधाता, “हैं पुत्र पुत्र ही, रहे कुमाता माता।”
व्याख्या – अब लोग कहते हैं कि पुत्र पुत्र ही रहा, लेकिन माँ कुमाता हो गई। अब समाज उसे कुमाता अर्थात् खराब माँ मानता है, और यह विपरीत परिस्थिति का दुख है।
- बस मैंने इसका बाह्य मात्र ही देखा, दृढ़ हृदय न देखा, मृदुल गात्र ही देखा।
व्याख्या – कैकेयी अपनी गलती स्वीकार करती है: वह कहती है कि उन्होंने भरत के केवल ऊपरी रूप ही देखा, भरत का दृढ़ हृदय नहीं देखा, केवल उसके कोमल शरीर पर ही ध्यान दिया।
- परमार्थ न देखा, पूर्ण स्वार्थ ही साधा, इस कारण ही तो हाय आज यह बाधा!
व्याख्या – उन्होंने दूसरों के हित को नहीं देखा, केवल अपने पूर्ण स्वार्थ को ही साधा। इसी कारण आज उनके जीवन में यह बड़ी बाधा आ गई है।
- युग युग तक चलती रहे कठोर कहानी- “रघुकुल में भी थी एक अभागी रानी।”
व्याख्या – युगों-युगों तक यह कठोर कहानी चलेगी कि रघुकुल में एक अभागी रानी थी। उसका नाम इतिहास में कलंक के रूप में याद होगा।
- निज जन्म जन्म में सुने जीव यह मेरा- “धिक्कार उसे था महा स्वार्थ ने घेरा।”
व्याख्या – वह अपने लिए एक कठोर भविष्य का अनुमान लगाती है: मेरा जीव (आत्मा) अपने हर जन्म में यह सुनता रहेगा कि उसे धिक्कार था, क्योंकि उसे महा स्वार्थ ने घेर लिया था।
- “सौ बार धन्य वह एक लाल की माई, जिस जननी ने है जना भरत-सा भाई।”
व्याख्या – सौ बार धन्य है वह माँ, जिसने भरत जैसे भाई को जन्म दिया। यहाँ कैकेयी भरत की महानता को स्वीकार करती है और उसकी माँ होने पर गर्व करती है।
- पागल-सी प्रभु के साथ सभा चिल्लाई- ‘सौ बार धन्य वह एक लाल की माई।”
व्याख्या – सभी ने एक स्वर में भरत को जन्म देने वाली माँ कैकेयी को सौ-सौ बार धन्य कहा, क्योंकि भरत जैसा भाई इस संसार में दुर्लभ है। यह कैकेयी के पश्चात्ताप की सच्चाई और भरत के महान त्याग को प्रमाणित करता है।
समग्र भाव –
यह कविता कैकेयी के आत्म-चिंतन और पश्चात्ताप की गाथा है। वह अपनी गलती, स्वार्थ और मन्थरा के प्रभाव को स्वीकार करती है और राम-भरत के प्रति अपने कर्तव्य में विफलता पर शोक व्यक्त करती है। उसका दुख न केवल व्यक्तिगत है, बल्कि सामाजिक और नैतिक स्तर पर भी गहरा है, जहाँ उसे ‘कुमाता’ के रूप में जाना जाता है। अंत में, सभा का भरत की माँ के रूप में उसकी प्रशंसा करना एक विरोधाभास प्रस्तुत करता है, जो उसके चरित्र के जटिलता को दर्शाता है। यह कविता नैतिकता, मातृत्व और पश्चात्ताप के बीच संघर्ष को सुंदरता से उजागर करती है।