लेखक परिचय : मुंशी प्रेमचंद
मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1980 वाराणसी से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। उनका असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। 1906 से 1935 के बीच लिखा गया प्रेमचंद का साहित्य इन तीस वर्षों का सामाजिक सांस्कृतिक दस्तावेज है। इसमें उस दौर के समाजसुधार आन्दोलनों, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आन्दोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण है। उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छुआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष समानता आदि उस दौर की सभी प्रमुख समस्याओं का चित्रण मिलता है। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनके साहित्य की मुख्य विशेषता है। मुंशी प्रेमचंद की साहित्यिक यात्रा ‘नवाब राय’ उपनाम से प्रकाशित उनकी प्रारंभिक रचनाओं से शुरू हुई। ‘प्रेमचंद’ नाम अपनाने के बाद ही उनकी साहित्यिक प्रतिभा वास्तव में निखरी। उन्होंने उपन्यास, लघु कथाएँ, निबंध और नाटकों की विविध शृंखला का निर्माण करते हुए हिंदी और उर्दू में प्रचुर मात्रा में लिखा। प्रेमचंद का लेखन भारतीय समाज में प्रचलित सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर केन्द्रित था, जिसमें आम आदमी के लिए सहानुभूति पर गहरा जोर था। उनके ‘गोदान’, ‘निर्मला’ और ‘गबन’ जैसे उपन्यास मानवीय भावनाओं और सामाजिक गतिशीलता के व्यावहारिक चित्रण के लिए जाने जाते हैं। अपने काम के माध्यम से प्रेमचंद ने सामाजिक सुधार लाने वाले लोगों की दुर्दशा के बारे में जागरुकता बढ़ाने का प्रयास किया। भारतीय साहित्य में उनके योगदान ने उन्हें ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि दी, जिससे भारतीय इतिहास में सबसे प्रभावशाली लेखकों में से एक के रूप में उनकी विरासत मजबूत हुई।
प्रमुख रचनाएँ : उपन्यास-असरारे मआबिद (हिंदी में देवस्थान रहस्य), प्रेमा, रूठी रानी, सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि और गोदान, मंगलसूत्र (अपूर्ण)।
कहानी संग्रह : मानसरोवर (8 भाग), सप्तसरोज, नवनिधि आदि।
नाटक कर्बला, संग्राम, प्रेम की बेदी
निबन्ध – महाजनी सभ्यता, पुराना जमाना नया जमाना आदि।
8 अक्टूबर 1936 को मुंशी प्रेमचंद की बनारस में मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ने भी उन पर एक पुस्तक लिखी जिसका नाम था- प्रेमचंद घर में।
पुत्र-प्रेम
बाबू चैतन्यदास ने अर्थशास्त्र खूब पढ़ा था, और केवल पढ़ा ही नहीं था, उसका यथायोग्य व्यवहार भी वे करते थे। वे वकील थे, दो-तीन गाँवों में उनकी जमींदारी भी थी, बैंक में भी कुछ रुपये थे। यह सब उसी अर्थशास्त्र के ज्ञान का फल था। जब कोई खर्च सामने आता तब उनके मन में स्वभावतः प्रश्न होता था इससे स्वयं मेरा उपकार होगा या किसी अन्य पुरुष का? यदि दो में से किसी का कुछ भी उपकार न होता तो वे बड़ी निर्दयता से उस खर्च का गला दबा देते थे। ‘व्यर्थ’ को वे विष के समान समझते थे। अर्थशास्त्र के सिद्धांत उनके जीवन-स्तंभ हो गये थे।
बाबू साहब के दो पुत्र थे। बड़े का नाम प्रभुदास था, छोटे का शिवदास। दोनों कालेज में पढ़ते थे। उनमें केवल एक श्रेणी का अंतर था। दोनों ही चतुर, होनहार युवक थे। किंतु प्रभुदास पर पिता का स्नेह अधिक था। उसमें सदुत्साह की मात्रा अधिक थी और पिता को उसकी जात से बड़ी-बड़ी आशाएँ थीं। वे उसे विद्योन्नति के लिए इंग्लैंड भेजना चाहते थे। उसे बैरिस्टर बनाना उनके जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा थी।
किंतु कुछ ऐसा संयोग हुआ कि प्रभुदास को बी0ए0 की परीक्षा के बाद ज्वर आने लगा। डाक्टरों की दवा होने लगी। एक मास तक नित्य डाक्टर साहब आते रहे, पर ज्वर में कमी न हुई। दूसरे डाक्टर का इलाज होने लगा। पर उससे भी कुछ लाभ न हुआ। प्रभुदास दिनों दिन क्षीण होता चला जाता था। उठने-बैठने की शक्ति न थी। यहाँ तक कि परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने का शुभ-संवाद सुनकर भी उसके चेहरे पर हर्ष का कोई चिह्न न दिखाई दिया। वह सदैव गहरी चिंता में डूबा रहता था। उसे अपना जीवन बोझ-सा जान पड़ने लगा था। एक रोज चैतन्यदास ने डाक्टर साहब से पूछा- यह क्या बात है कि दो महीने हो गये और अभी तक दवा का कोई असर नहीं हुआ?
डाक्टर साहब ने संदेहजनक उत्तर दिया- मैं आपको संशय में नहीं डालना चाहता। मेरा अनुमान है कि यह ट्युबरक्युलासिस है।
चैतन्यदास ने व्यग्र होकर कहा- तपेदिक?
डाक्टर जी हाँ, उसके सभी लक्षण दिखायी देते हैं।
चैतन्यदास ने अविश्वास के भाव से कहा, मानो उन्हें कोई विस्मयकारी बात सुन पड़ी हो- तपेदिक हो गया।
डाक्टर ने खेद प्रकट करते हुए कहा- यह रोग बहुत ही गुप्तरीति से शरीर में प्रवेश करता है।
चैतन्यदास- मेरे खानदान में तो यह रोग किसी को न था।
डाक्टर- संभव है, मित्रों से इसके जर्म (कीटाणु) मिले हों।
चैतन्यदास कई मिनट तक सोचने के बाद बोले- अब क्या करना चाहिए?
डाक्टर – दवा करते रहिये। अभी फेफड़ों तक असर नहीं हुआ है। इनके अच्छे होने की आशा है।
चैतन्यदास- आपके विचार में कब तक दवा का असर होगा?
डाक्टर – निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता। लेकिन तीन-चार महीने में ये स्वस्थ हो जायेंगे। जाड़ों में इस रोग का जोर कम हो जाया करता है।
चैतन्यदास- अच्छे हो जाने पर ये पढ़ने में परिश्रम कर सकेंगे?
डाक्टर – मानसिक परिश्रम के योग्य तो ये शायद ही हो सकें।
चैतन्यदास – किसी सेनेटोरियम (पहाड़ी स्वास्थ्यालय) में भेज दूँ तो कैसा हो?
डाक्टर बहुत ही उत्तम।
चैतन्यदास – तब ये पूर्णरीति से स्वस्थ हो जाएँगे?
डाक्टर – हो सकते हैं, लेकिन इस रोग को दबा रखने के लिए इनका मानसिक परिश्रम से बचना ही
अच्छा है।
चैतन्यदास नैराश्य भाव से बोले- तब तो इनका जीवन ही नष्ट हो गया।
गर्मी बीत गयी। बरसात के दिन आये, प्रभुदास की दशा दिनोंदिन बिगड़ती गई। वह पड़े-पड़े बहुधा इस रोग पर की गई बड़े-बड़े डाक्टरों की व्याख्याएँ पढ़ा करता था। उनके अनुभवों से अपनी अवस्था की तुलना किया करता। पहले कुछ दिनों तक तो वह अस्थिरचित – सा हो गया था। दो-चार दिन भी दशा संभली रहती तो पुस्तकें देखने लगता और विलायत यात्रा की चर्चा करता। दो-चार दिन भी ज्वर का प्रकोप बढ़ जाता तो जीवन से निराश हो जाता। किंतु कई मास के पश्चात् जब उसे विश्वास हो गया कि इस रोग से मुक्त होना कठिन है तब उसने जीवन की भी चिंता छोड़ दी। पथ्यापथ्य का विचार न करता, घरवालों की निगाह बचाकर औषधियाँ जमीन पर गिरा देता। मित्रों के साथ बैठकर जी बहलाता। यदि कोई उससे स्वास्थ्य के विषय में कुछ पूछता तो चिढ़कर मुँह मोड़ लेता। उसके भावों में एक शांतिमय उदासीनता आ गई थी और बातों में एक दार्शनिक मर्मज्ञता पाई जाती थी। वह लोक रीति और सामाजिक प्रथाओं पर बड़ी निर्भीकता से आलोचनाएँ किया करता। यद्यपि बाबू चैतन्यदास के मन में रह-रहकर शंका उठा करती थी कि जब परिणाम विदित ही है तब इस प्रकार धन का अपव्यय करने से क्या लाभ, तथापि वे कुछ तो पुत्र – प्रेम और कुछ लोक-मत के भय से धैर्य के साथ दवा-दर्पण करते जाते थे।
जाड़े का मौसम था। चैतन्यदास पुत्र के सिरहाने बैठे हुए डाक्टर साहब की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देख रहे थे। जब डाक्टर साहब टेम्परेचर लेकर (थर्मामीटर लगाकर) कुर्सी पर बैठे तब चैतन्यदास ने पूछा- अब तो जाड़ा आ गया। आपको कुछ अंतर मालूम होता है?
डाक्टर – बिल्कुल नहीं, बल्कि रोग और भी दुस्साध्य होता जाता है।
चैतन्यदास ने कठोर स्वर में पूछा तब आप लोग क्यों मुझे इस भ्रम में डाले हुए थे कि जाड़े में अच्छे हो जायेंगे? इस प्रकार दूसरों की सरलता का उपयोग करना अपना मतलब साधने का साधन हो तो हो, इसे सज्जनता कदापि नहीं कह सकते।
डाक्टर ने नम्रता से कहा- ऐसी दशाओं में हम केवल अनुमान कर सकते हैं और अनुमान सदैव सत्य नहीं होते। आपको ज़ेरबारी अवश्य हुई, पर मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ मेरी इच्छा आपको भ्रम में डालने की नहीं थी।
शिवदास बड़े दिन की छुट्टियों में आया हुआ था, इसी समय वह कमरे में आ गया और डाक्टर साहब से बोला- आप पिता जी की कठिनाइयों का स्वयं अनुमान कर सकते हैं। अगर उनकी बात नागवार लगी तो उन्हें क्षमा कीजिएगा।
चैतन्यदास ने छोटे पुत्र की ओर वात्सल्य की दृष्टि से देखकर कहा- तुम्हें यहाँ आने की क्या जरूरत थी? मैं तुमसे कितनी बार कह चुका हूँ कि यहाँ मत आया करो। लेकिन तुमको सबर ही नहीं होता।
शिवदास ने लज्जित होकर कहा- मैं अभी चला जाता हूँ। आप नाराज न हों। मैं केवल डाक्टर साहब से यह पूछना चाहता था कि भाई साहब के लिए अब क्या करना चाहिए।
डाक्टर साहब ने कहा- अब केवल एक ही साधन और है। इन्हें इटली के किसी सेनेटोरियम में भेज देना चाहिए।
चैतन्यदास से सजग होकर पूछा- कितना खर्च होगा?
‘ज्यादा से ज्यादा तीन हजार। साल-भर रहना होगा।’
‘निश्चय है कि वहाँ से अच्छे होकर आवेंगे?’
‘जी नहीं। यह तो एक भयंकर रोग है, साधारण बीमारियों में भी कोई बात निश्चय रूप से नहीं कहीं जा सकती।’
‘इतना खर्च करने पर भी वहाँ से ज्यों के त्यों लौट आये तो?’
‘तो ईश्वर की इच्छा। आपको यह तसकीन हो जाएगी कि इनके लिए मैं जो कुछ कर सकता था, कर दिया।’
आधी रात तक घर में प्रभुदास को इटली भेजने के प्रस्ताव पर वाद-विवाद होता रहा। चैतन्यदास का कथन था कि एक संदिग्ध फल के लिए तीन हजार का खर्च उठाना बुद्धिमत्ता के प्रतिकूल है। शिवदास भी उनसे सहमत था। किंतु उसकी माता इस प्रस्ताव का बड़ी दृढ़ता के साथ विरोध कर रही थी। अंत में माता की धिक्कारों का यह फल हुआ कि शिवदास लज्जित होकर उसके पक्ष में हो गया। बाबू साहब अकेले रह गये। तपेश्वरी ने तर्क से काम लिया। पति के सद्भावों को प्रज्वलित करने की चेष्टा की। धन की नश्वरता की लोकोक्तियाँ कहीं। इन शस्त्रों से विजय – लाभ न हुआ तो अश्रु-वर्षा करने लगी। बाबू साहब जल- बिन्दुओं के इस शर- प्रहार के सामने न ठहर सके। इन शब्दों में हार स्वीकार की- अच्छा भाई, रोओ मत। जो कुछ कहती हो वही होगा।
तपेश्वरी तो कब?
‘रुपये हाथ में आने दो।’
‘तो यह क्यों नहीं कहते कि भेजना ही नहीं चाहते?’
‘भेजना चाहता हूँ किंतु अभी हाथ खाली है। क्या तुम नहीं जानतीं?’
‘बैंक में तो रुपये हैं? जायदाद तो है? दो-तीन हजार का प्रबन्ध करना ऐसा क्या कठिन है?’
चैतन्यदास ने पत्नी को ऐसी दृष्टि से देखा मानो उसे खा जायेंगे और एक क्षण के बाद बोले- बिल्कुल बच्चों की-सी बातें करती हो। इटली में ऐसी कोई संजीवनी नहीं रखी हुई है जो तुरंत चमत्कार दिखायेगी। जब वहाँ भी केवल प्रारब्ध ही की परीक्षा करनी है तो सावधानी से कर लेंगे। पूर्व पुरुषों की संचित जायदाद और रखे हुए रुपये मैं अनिश्चित हित की आशा पर बलिदान नहीं कर सकता।
तपेश्वरी ने डरते-डरते कहा- आखिर, आधा हिस्सा तो प्रभुदास का भी है?
बाबू साहब तिरस्कार करते हुए बोले- आधा नहीं, उसमें मैं अपना सर्वस्व दे देता, जब उससे कुछ आशा होती, वह खानदान की मर्यादा और ऐश्वर्य बढ़ाता और इस लगाए हुए धन के फलस्वरूप कुछ कर दिखाता। मैं केवल भावुकता के फेर में पड़कर धन का ह्रास नहीं कर सकता।
तपेश्वरी अवाक् रह गयी। जीतकर भी उसकी हार हुई।
इस प्रस्ताव के छ: महीने बाद शिवदास बी. ए. पास हो गया। बाबू चैतन्यदास ने अपनी जमींदारी के दो आने बंधक रखकर कानून पढ़ने के निमित्त उसे इंग्लैंड भेजा। उसे बंबई तक खुद पहुँचाने गये। वहाँ से लौटे तो उनके अन्तःकरण में सदिच्छाओं से परिमित लाभ होने की आशा थी। उनके लौटने के एक सप्ताह पीछे अभागा प्रभुदास अपनी उच्च अभिलाषाओं को लिए हुए परलोक सिधारा।
चैतन्यदास मणिकर्णिका घाट पर अपने संबंधियों के साथ बैठ चिता – ज्वाला की ओर देख रहे थे। उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। पुत्र-प्रेम एक क्षण के लिए अर्थ-सिद्धांत पर गालिब हो गया था। उस विरक्तावस्था में उनके मन में यह कल्पना उठ रही थी- संभव है, इटली जाकर प्रभुदास स्वस्थ हो जाता। हाय! मैंने तीन हजार का मुँह देखा और पुत्र रत्न को हाथ से खो दिया। यह कल्पना प्रतिक्षण सजग होती थी और उनको ग्लानि, शोक और पश्चात्ताप के कणों से बेध रही थी। रह-रहकर उनके हृदय में वेदना की शूल – सी उठती थी। उनके अंदर की ज्वाला उस चिता -ज्वाला से कम दग्धकारिणी न थी। अकस्मात् उनके कानों में शहनाइयों की आवाज आयी। उन्होंने आँख ऊपर उठाई तो मनुष्यों का एक समूह एक अर्थी के साथ आता हुआ दिखाई दिया। वे सबके सब ढोल बजाते, गाते, पुष्प आदि की वर्षा करते चले आते थे। घाट पर पहुँचकर उन्होंने अर्थी उतारी और चिता बनाने लगे। उनमें से एक युवक आकर चैतन्यदास के पास खड़ा हो गया। बाबू साहब ने पूछा- किस मुहल्ले में रहते हो?
युवक ने जवाब दिया- हमारा घर देहात में है। कल शाम को चले थे। ये हमारे बाप थे। हम लोग यहाँ कम आते हैं, पर दादा की अंतिम इच्छा थी कि हमें मणिकर्णिका घाट पर ले जाना।
चैतन्यदास- ये सब आदमी तुम्हारे साथ हैं?
युवक – हाँ, और लोग पीछे आते हैं। कई सौ आदमी साथ आये हैं। यहाँ तक आने में सैकड़ों उठ गये पर सोचता हूँ कि बूढ़े पिता की मुक्ति तो बन गई। धन और है ही किसलिए?
चैतन्यदास- उन्हें क्या बीमारी थी?
युवक ने बड़ी सरलता से कहा, मानो वह अपने किसी निजी संबंधी से बात कर रहा हो- बीमारी का किसी को कुछ पता नहीं चला। हरदम ज्वर चढ़ा रहता था। सूखकर काँटा हो गये थे। तीन वर्ष तक खाट पर पड़े रहे। जिसने जहाँ बताया लेकर गये। चित्रकूट, हरिद्वार, प्रयाग सभी स्थानों में ले-लेकर घूमे। वैद्यों ने जो कुछ कहा उसमें कोई कसर नहीं की।
इतने में युवक का एक और साथी आ गया और बोला- साहब, मुँह देखी बात नहीं, नारायण लड़का दे तो ऐसा दे। इसने रुपयों को ठीक से समझा। घर की सारी पूँजी पिता की दवा-दारू में स्वाहा कर दी। थोड़ी-सी जमीन तक बेच दी पर काल बली के सामने आदमी का क्या बस है।
युवक ने गद्गद स्वर से कहा- भैया, रुपया-पैसा हाथ का मैल है। कहाँ आता है, कहाँ जाता है, मनुष्य नहीं मिलता। जिंदगानी है तो कमा खाउँगा। पर मन में यह लालसा तो नहीं रह गयी कि हाय ! यह नहीं किया, उस वैद्य के पास नहीं गया, नहीं तो शायद बच जाते। हम तो कहते हैं कि कोई हमारा सारा घर-द्वार लिखा ले, केवल दादा को एक बोल बुला दे। इसी माया-मोह का नाम जिंदगानी है, नहीं तो इसमें क्या रखा है? धन से प्यारी जान, जान से प्यारा ईमान। बाबू साहब, आपसे सच कहता हूँ, अगर दादा के लिए अपने बस की कोई बात उठा रखता तो आज रोते न बनता। अपना ही चित्त अपने को धिक्कारता। नहीं तो मुझे इस घड़ी ऐसा जान पड़ता है कि मेरा उद्धार एक भारी ऋण से हो गया। उनकी आत्मा सुख और शांति से रहेगी तो मेरा सब तरह कल्याण ही होगा।
बाबू चैतन्यदास सिर झुकाए ये बातें सुन रहे थे। एक-एक शब्द उनके हृदय में शर के समान चुभता था। इस उदारता के प्रकाश में उन्हें अपनी हृदय-हीनता, अपनी आत्मशून्यता, अपनी भौतिकता अत्यंत भयंकर दिखायी देती थी। उनके चित्त पर इस घटना का कितना प्रभाव पड़ा, यह इसी से अनुमान किया जा सकता है कि प्रभुदास के अन्त्येष्टि संस्कार में उन्होंने हजारों रुपये खर्च कर डाले। उनके सन्तप्त हृदय की शांति के लिए अब एकमात्र यही उपाय रह गया था।
कठिन शब्दों के अर्थ
हिंदी (कठिन शब्द) | हिंदी (सरल अर्थ) | बांग्ला (অর্থ) | अंग्रेज़ी (Meaning) |
यथायोग्य | उचित, ठीक | যথাযথ | Appropriately |
उपकार | भला, फायदा | উপকার | Benefit, Help |
निर्दयता | बेरहमी, क्रूरता | নির্মমতা | Ruthlessly |
व्यर्थ | बेकार, निरर्थक | নিরর্থক | Useless, Vain |
सिद्धांत | नियम, उसूल | নীতি, সূত্র | Principle |
जीवन-स्तंभ | जीवन का आधार | জীবন-স্তম্ভ | Pillar of life |
सदुत्साह | अच्छा उत्साह | সদ্-উৎসাহ | Good enthusiasm |
विद्योन्नति | विद्या में उन्नति | বিদ্যোন্নতি | Educational advancement |
अभिलाषा | इच्छा, चाह | আকাঙ্ক্ষা | Desire, Ambition |
ज्वर | बुखार | জ্বর | Fever |
क्षीण | कमज़ोर, दुबला | দুর্বল, ক্ষীণ | Weak, Frail |
शुभ-संवाद | अच्छी खबर | সুসংবাদ | Good news |
हर्ष | खुशी | আনন্দ | Joy, Happiness |
संशय | शक, संदेह | সন্দেহ | Doubt |
ट्युबरक्युलासिस | तपेदिक, क्षय रोग | যক্ষ্মা | Tuberculosis |
व्यग्र | परेशान, बेचैन | উদ্বিগ্ন | Anxious, Agitated |
अविश्वास | भरोसा न होना | অবিশ্বাস | Disbelief |
विस्मयकारी | आश्चर्यजनक | বিস্ময়কর | Astonishing |
खेद | दुख, अफ़सोस | দুঃখ, আক্ষেপ | Regret, Sorrow |
गुप्तरीति | चोरी-छिपे, रहस्यमय ढंग से | গোপন পদ্ধতি | Secretly |
खानदान | वंश, परिवार | বংশ, পরিবার | Family lineage |
जर्म | कीटाणु | জীবাণু | Germs, Bacteria |
फेफड़े | फुफ्फुस | ফুসফুস | Lungs |
मानसिक परिश्रम | दिमागी मेहनत | মানসিক পরিশ্রম | Mental exertion |
सेनेटोरियम | आरोग्य-निवास, स्वास्थ्यालय | স্যানাটোরিয়াম | Sanatorium |
नैराश्य | निराशा, हताशा | হতাশা | Despair |
बहुधा | अक्सर, प्रायः | প্রায়শই | Often |
अस्थिरचित्त | चंचल मन वाला | অস্থিরচিত্ত | Unstable-minded |
प्रकोप | तेज़ प्रभाव, आक्रमण | প্রকোপ | Outbreak, Intensity |
मुक्त होना | छुटकारा पाना | মুক্তি পাওয়া | To be freed from |
पथ्यापथ्य | खाने-पीने का विचार | পথ্যাপথ্য | Dietary considerations |
निगाह बचाकर | छुपकर | চোখ বাঁচিয়ে | Stealthily, Unnoticed |
जी बहलाना | मन लगाना | মন ভালো করা | To entertain oneself |
चिढ़कर | गुस्सा होकर | বিরক্ত হয়ে | Irritatedly |
शांति | सुकून | শান্তি | Peace |
उदासीनता | विरक्ति, बेरुखी | উদাসীনতা | Indifference |
दार्शनिक मर्मज्ञता | गहरा दार्शनिक ज्ञान | দার্শনিক উপলব্ধি | Philosophical insight |
निर्भीकता | निडरता | নির্ভীকতা | Fearlessness |
आलोचनाएँ | बुराई करना, समीक्षा | সমালোচনা | Criticisms |
शंका | संदेह, शक | সন্দেহ | Doubt |
अपव्यय | फ़िज़ूलखर्ची, बर्बादी | অপচয় | Wasteful expenditure |
लोक-मत | लोगों की राय | জনমত | Public opinion |
दवा-दर्पण | दवाई और उपचार | ওষুধ ও চিকিৎসা | Medicine and treatment |
सिरहाने | सिर की ओर | মাথার কাছে | By the bedside |
प्रश्नात्मक | प्रश्नवाला | প্রশ্নসূচক | Questioning |
टेम्परेचर | तापमान | তাপমাত্রা | Temperature |
अंतर | फ़र्क | পার্থক্য | Difference |
दुस्साध्य | मुश्किल से ठीक होने वाला | অসাধ্য | Incurable, Difficult to treat |
भ्रम | ग़लतफ़हमी, धोखा | বিভ্রম, ভুল | Illusion, Delusion |
सरलता | भोलापन, सीधापन | সরলতা | Simplicity, Innocence |
सज्जनता | भलमनसाहत, नेकी | সজ্জনতা | Gentleness, Decency |
नम्रता | विनम्रता, कोमलता | নম্রতা | Humility, Politeness |
ज़ेरबारी | परेशानी, मुसीबत | কষ্ট, ঝামেলা | Trouble, Burden |
विश्वास दिलाना | यकीन दिलाना | বিশ্বাস করানো | To assure |
बड़े दिन की छुट्टियाँ | क्रिसमस की छुट्टियाँ | বড়দিনের ছুটি | Christmas holidays |
वात्सल्य की दृष्टि | स्नेह भरी नज़र | বাৎসল্যপূর্ণ দৃষ্টি | Affectionate gaze |
सबर | धैर्य, धीरज | ধৈর্য | Patience |
लज्जित | शर्मिंदा | লজ্জিত | Ashamed, Embarrassed |
नाराज | गुस्सा | রাগ করা | Angry |
साधन | उपाय, तरीका | উপায় | Means, Remedy |
सेनेटोरियम | आरोग्य-निवास | স্যানাটোরিয়াম | Sanatorium |
सजग | चौकन्ना, सतर्क | সজাগ | Alert, Vigilant |
संदिग्ध फल | अनिश्चित परिणाम | সন্দেহজনক ফল | Doubtful outcome |
बुद्धिमत्ता | समझदारी | বুদ্ধিমত্তা | Wisdom |
प्रतिकूल | ख़िलाफ़, विपरीत | প্রতিকূল | Contrary, Against |
सहमत | राज़ी | সম্মত | Agreed |
माता की धिक्कारों | माँ की फटकारें | মায়ের তিরস্কার | Mother’s scolding |
दृढ़ता | मज़बूती | দৃঢ়তা | Firmness, Steadfastness |
पक्ष में हो गया | समर्थन करना | পক্ষে আসা | Sided with |
तपेश्वरी | चैतन्यदास की पत्नी का नाम | তপেশ্বরী (নাম) | Tapeshwari (name) |
तर्क | दलील, युक्ति | যুক্তি | Logic, Argument |
सद्भावों | अच्छी भावनाएँ | সদ্ভাব | Good feelings |
प्रज्वलित करना | जगाना, उभारना | প্রজ্বলিত করা | To ignite, To awaken |
नश्वरता | नाशवान होना | নশ্বরতা | Perishability |
लोकोक्तियाँ | कहावतें | প্রবাদ বাক্য | Proverbs |
शस्त्रों | हथियारों | অস্ত্র | Weapons |
विजय – लाभ | जीत हासिल करना | বিজয় লাভ | Victory |
अश्रु-वर्षा | आँसुओं की बौछार | অশ্রু-বর্ষণ | Shower of tears |
जल-बिन्दुओं का शर-प्रहार | आँसुओं का तीर की तरह प्रहार | জলবিন্দুর শর-প্রহার | Attack of tear-drops (like arrows) |
स्वीकार | मान लेना | স্বীকার করা | To accept |
जायदाद | संपत्ति | সম্পত্তি | Property, Estate |
तिरस्कार | अपमान, अनादर | তিরস্কার | Disdain, Contempt |
सर्वस्व | सब कुछ | সর্বস্ব | Everything, All |
मर्यादा | इज़्ज़त, प्रतिष्ठा | মর্যাদা | Dignity, Honor |
ऐश्वर्य | वैभव, समृद्धि | ঐশ্বর্য | Prosperity, Grandeur |
लगाए हुए धन के फलस्वरूप | निवेश किए गए धन के परिणामस्वरूप | বিনিয়োগকৃত অর্থের ফলস্বরূপ | As a result of invested money |
भावुकता | भावनात्मकता | আবেগপ্রবণতা | Emotionality |
ह्रास | कमी, नाश | হ্রাস | Decline, Loss |
अवाक् | निःशब्द, चुप | নির্বাক | Speechless |
बंधक रखकर | गिरवी रखकर | বন্ধক রেখে | By mortgaging |
कानून पढ़ने के निमित्त | कानून की पढ़ाई के लिए | আইন পড়ার জন্য | For the purpose of studying law |
अन्तःकरण | हृदय, मन | অন্তঃকরণ | Inner self, Heart |
सदिच्छाओं से परिमित लाभ | अच्छी इच्छाओं से मिलने वाला सीमित लाभ | সদিচ্ছা থেকে সীমিত লাভ | Limited benefit from good intentions |
अभागा | बदनसीब, दुर्भाग्यशाली | হতভাগ্য | Unfortunate |
उच्च अभिलाषाओं को लिए हुए | ऊँची इच्छाएँ मन में लिए हुए | উচ্চাকাঙ্ক্ষা নিয়ে | With high aspirations |
परलोक सिधारा | मर गया, स्वर्ग सिधार गया | পরলোক গমন করা | Passed away, Died |
मणिकर्णिका घाट | काशी का एक प्रसिद्ध श्मशान घाट | মণিকর্ণিকা ঘাট | Manikarnika Ghat (a famous cremation ghat in Kashi) |
चिता – ज्वाला | चिता की आग | চিতা-জ্বালা | Pyre flame |
अश्रुधारा | आँसुओं की धारा | অশ্রুধারা | Stream of tears |
प्रवाहित होना | बहना | প্রবাহিত হওয়া | To flow |
अर्थ-सिद्धांत पर गालिब होना | धन संबंधी सिद्धांतों पर हावी होना | অর্থ-নীতিকে পরাজিত করা | To overpower economic principles |
विरक्तावस्था | वैराग्य की अवस्था | বিরক্ত অবস্থা | State of detachment |
कल्पना | सोच, विचार | কল্পনা | Imagination, Thought |
पश्चात्ताप | पछतावा | অনুশোচনা | Remorse, Regret |
ग्लानि | पछतावा, शर्मिंदगी | গ্লানি | Reproach, Shame |
कणों से बेध रही थी | टुकड़ों से छेद रही थी | কণা দিয়ে বিদ্ধ করছিল | Piercing with particles |
वेदना की शूल | दर्द का काँटा | বেদনার কাঁটা | Thorn of pain |
दग्धकारिणी | जलाने वाली | দগ্ধকারী | Burning, Caustic |
अकस्मात् | अचानक | হঠাৎ | Suddenly |
शहनाइयों | एक प्रकार का वाद्य यंत्र | সানাই | Shehnai (a musical instrument) |
अर्थी | शव यात्रा | শবযাত্রা | Funeral procession |
देहात | गाँव | গ্রাম | Village |
मुक्ति | मोक्ष, छुटकारा | মুক্তি | Salvation, Liberation |
पूँजी | धन, संपत्ति | পুঁজি | Capital, Wealth |
स्वाहा कर दी | नष्ट कर दी, खर्च कर दी | শেষ করে দেওয়া | Consumed, Spent |
काल बली | शक्तिशाली मृत्यु | কাল বলী | Powerful death |
गद्गद स्वर | भावुक आवाज़ | গদ্গদ স্বর | Emotional voice |
हाथ का मैल | तुच्छ वस्तु, आसानी से मिलने वाला धन | হাতের ময়লা | Something easily acquired and discarded, trivial |
जिंदगानी | जीवन | জীবন | Life |
लालसा | इच्छा, चाह | লালসা | Longing, Craving |
उद्धार | छुटकारा, मोक्ष | উদ্ধার | Deliverance, Salvation |
ऋण | क़र्ज़ | ঋণ | Debt |
आत्मा | रूह, प्राण | আত্মা | Soul |
कल्याण | भलाई, मंगल | কল্যাণ | Well-being, Prosperity |
शर के समान चुभता था | तीर की तरह चुभता था | তীরের মতো বিঁধছিল | Pierced like an arrow |
उदारता | दरियादिली | উদারতা | Generosity |
हृदय-हीनता | दयाहीनता | হৃদয়হীনতা | Heartlessness |
आत्मशून्यता | आत्मिक शून्यता | আত্মশূন্যতা | Spiritual emptiness |
भौतिकता | सांसारिकता | বস্তুবাদ | Materialism |
भयंकर | डरावना, भयानक | ভয়ংকর | Dreadful, Terrible |
चित्त | मन | চিত্ত | Mind, Heart |
अन्त्येष्टि संस्कार | अंतिम संस्कार | অন্ত্যেষ্টি ক্রিয়া | Funeral rites |
सन्तप्त | दुखी, पीड़ित | সন্তপ্ত | Grieved, Afflicted |
एकमात्र | केवल एक ही | একমাত্র | Only one |
‘पुत्र-प्रेम‘ कहानी का केंद्रीय विषय
‘पुत्र-प्रेम’ कहानी का केंद्रीय विषय धन के प्रति अत्यधिक मोह और पुत्र के प्रति वास्तविक प्रेम के बीच का द्वंद्व है। बाबू चैतन्यदास का जीवन अर्थशास्त्र के सिद्धांतों पर आधारित था, जहाँ धन का सदुपयोग ही सर्वोपरि था, यहाँ तक कि पुत्र के जीवन से भी अधिक। वे अपने बड़े बेटे प्रभुदास को बीमारी में महँगे इलाज के लिए भेजने में हिचकिचाते हैं क्योंकि उन्हें इसमें धन का अपव्यय दिखता है, जबकि छोटे बेटे शिवदास की शिक्षा के लिए संपत्ति गिरवी रख देते हैं, क्योंकि उसमें उन्हें भविष्य का लाभ दिखता है।
कहानी दर्शाती है कि कैसे भौतिकता और अर्थशास्त्र की कठोरता ने मानवीय भावनाओं पर पर्दा डाल दिया था। अंत में, प्रभुदास की मृत्यु और घाट पर एक अन्य युवक के अपने पिता के प्रति नि:स्वार्थ प्रेम को देखकर चैतन्यदास को अपने हृदयहीनता का बोध होता है। उन्हें गहरा पश्चात्ताप होता है कि उन्होंने धन के लोभ में पुत्र-रत्न खो दिया। अतः, कहानी यह संदेश देती है कि सच्चा मानवीय संबंध और नि:स्वार्थ प्रेम, धन-संपत्ति से कहीं अधिक मूल्यवान हैं और वास्तविक शांति केवल इन्हीं से मिलती है।
पुत्र-प्रेम: विस्तृत सारांश
‘पुत्र-प्रेम’ प्रेमचंद द्वारा लिखित एक मार्मिक कहानी है जो बाबू चैतन्यदास के जीवन और उनके अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के प्रति उनकी गहरी निष्ठा को दर्शाती है। चैतन्यदास एक वकील, ज़मींदार और बैंकर थे, जिन्होंने अपने जीवन को अर्थशास्त्र के सिद्धांतों पर आधारित किया था। उनके लिए ‘व्यर्थ’ का कोई स्थान नहीं था; हर खर्च का मूल्यांकन इस आधार पर किया जाता था कि उससे स्वयं उनका या किसी अन्य का कितना उपकार होगा।
उनके दो पुत्र थे – प्रभुदास और शिवदास। प्रभुदास, बड़े पुत्र होने के कारण और अपनी होनहार प्रकृति के कारण, चैतन्यदास के विशेष स्नेहपात्र थे। पिता की यह प्रबल इच्छा थी कि प्रभुदास इंग्लैंड जाकर बैरिस्टर बनें।
दुर्भाग्यवश, बी.ए. की परीक्षा के बाद प्रभुदास को तपेदिक (ट्युबरक्युलासिस) हो गया। कई डॉक्टरों का इलाज चला, पर कोई लाभ नहीं हुआ। प्रभुदास दिन-ब-दिन कमज़ोर होते गए और जीवन से निराश रहने लगे। डॉक्टरों ने इटली के सेनेटोरियम में भेजने का सुझाव दिया, लेकिन इसका खर्च लगभग तीन हज़ार रुपये था, जिसकी कोई निश्चित गारंटी नहीं थी कि प्रभुदास पूरी तरह ठीक हो जाएँगे। डॉक्टरों ने यह भी बताया कि मानसिक परिश्रम से प्रभुदास को बचना होगा, जिससे चैतन्यदास को लगा कि उनका जीवन ही नष्ट हो गया।
चैतन्यदास को इस खर्च पर शंका थी क्योंकि उन्हें लग रहा था कि परिणाम अनिश्चित है और धन का अपव्यय होगा। लेकिन पत्नी तपेश्वरी के पुत्र-प्रेम और समाज के डर से वे इलाज जारी रखे हुए थे। जाड़ों में भी जब प्रभुदास की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ, तो चैतन्यदास ने डॉक्टरों से उनके झूठे आश्वासन के लिए नाराज़गी व्यक्त की।
इसी बीच, शिवदास छुट्टियों में घर आए और उन्होंने भी अपने भाई के लिए इटली जाने के प्रस्ताव का समर्थन किया, हालांकि शुरू में वे पिता से सहमत थे। रात भर प्रभुदास को इटली भेजने के मुद्दे पर घर में वाद-विवाद चलता रहा। चैतन्यदास धन के ह्रास के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि उनके अनुसार इससे खानदान की संचित संपत्ति खतरे में पड़ सकती थी। वे अपनी भावुकता पर अर्थशास्त्र को वरीयता दे रहे थे। तपेश्वरी ने पहले तर्क, फिर भावनात्मक अपील और अंत में आँसुओं से अपने पति को मना लिया। चैतन्यदास अंततः मान गए, लेकिन पैसे हाथ में आने की शर्त रख दी।
छह महीने बाद, प्रभुदास का निधन हो गया। चैतन्यदास ने इस दुखद घटना के छह महीने बाद अपनी जमींदारी के दो आने बंधक रखकर शिवदास को कानून पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेजा।
प्रभुदास के अंतिम संस्कार के समय, मणिकर्णिका घाट पर चैतन्यदास को अपने पुत्र-प्रेम की वास्तविक अनुभूति हुई। उन्हें गहरा पश्चात्ताप हुआ कि उन्होंने केवल तीन हज़ार रुपये के लिए अपने पुत्र-रत्न को खो दिया। इसी बीच, उन्होंने देखा कि एक और शव यात्रा आ रही थी, जहाँ लोग ढोल बजाते, गाते और फूल बरसाते हुए आ रहे थे। वहाँ उपस्थित एक युवक ने चैतन्यदास को बताया कि ये उसके पिता थे, जिनकी बीमारी का पता नहीं चला, लेकिन उसने उनकी दवा-दारू में अपनी सारी पूँजी खर्च कर दी, यहाँ तक कि ज़मीन तक बेच दी। युवक ने कहा कि “रुपया-पैसा हाथ का मैल है। … धन से प्यारी जान, जान से प्यारा ईमान।”
इस युवक की उदारता और निस्वार्थ प्रेम की बातें सुनकर चैतन्यदास को अपनी हृदय-हीनता, आत्मशून्यता और भौतिकता का भयंकर अनुभव हुआ। इस घटना का उन पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने प्रभुदास के अन्त्येष्टि संस्कार में हज़ारों रुपये खर्च कर डाले। यह उनके संतप्त हृदय की शांति के लिए एकमात्र उपाय था। इस प्रकार, कहानी दिखाती है कि कैसे धन का लोभ पुत्र-प्रेम पर हावी हो सकता है, लेकिन अंत में सच्चे मानवीय संबंध ही वास्तविक शांति प्रदान करते हैं।
पुत्र-प्रेम कहानी पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न
- बाबू चैतन्यदास का मुख्य पेशा क्या था?
अ) डॉक्टर
ब) वकील
स) शिक्षक
द) व्यापारी
उत्तर – ब) वकील - बाबू चैतन्यदास ने किस विषय का गहन अध्ययन किया था?
अ) दर्शनशास्त्र
ब) अर्थशास्त्र
स) साहित्य
द) चिकित्सा
उत्तर – ब) अर्थशास्त्र - चैतन्यदास के कितने पुत्र थे?
अ) एक
ब) दो
स) तीन
द) चार
उत्तर – ब) दो - बड़े पुत्र का नाम क्या था?
अ) शिवदास
ब) प्रभुदास
स) रामदास
द) हरिदास
उत्तर – ब) प्रभुदास - छोटे पुत्र का नाम क्या था?
अ) प्रभुदास
ब) शिवदास
स) रामदास
द) हरिदास
उत्तर – ब) शिवदास - प्रभुदास को कौन-सी बीमारी हो गई थी?
अ) मलेरिया
ब) ट्यूबरकुलोसिस
स) टाइफाइड
द) डेंगू
उत्तर – ब) ट्यूबरकुलोसिस - प्रभुदास को बीमारी के बाद क्या करने की शक्ति नहीं थी?
अ) लिखने की
ब) पढ़ने की
स) उठने-बैठने की
द) बोलने की
उत्तर – स) उठने-बैठने की - चैतन्यदास प्रभुदास को क्या बनाना चाहते थे?
अ) डॉक्टर
ब) बैरिस्टर
स) इंजीनियर
द) प्रोफेसर
उत्तर – ब) बैरिस्टर - डॉक्टर ने प्रभुदास के लिए क्या सुझाव दिया था?
अ) ऑपरेशन
ब) सेनेटोरियम में भेजना
स) घर पर ही इलाज
द) विदेश में सर्जरी
उत्तर – ब) सेनेटोरियम में भेजना - प्रभुदास को सेनेटोरियम भेजने का खर्च कितना अनुमानित था?
अ) एक हजार
ब) दो हजार
स) तीन हजार
द) चार हजार
उत्तर – स) तीन हजार - चैतन्यदास ने प्रभुदास को सेनेटोरियम भेजने के प्रस्ताव का विरोध क्यों किया?
अ) उनके पास पैसे नहीं थे
ब) संदिग्ध परिणाम के लिए खर्च को बुद्धिमानी के खिलाफ माना
स) उन्हें डॉक्टर पर भरोसा नहीं था
द) प्रभुदास ने मना किया था
उत्तर – ब) संदिग्ध परिणाम के लिए खर्च को बुद्धिमानी के खिलाफ माना - प्रभुदास की माता का नाम क्या था?
अ) तपेश्वरी
ब) सावित्री
स) लक्ष्मी
द) पार्वती
उत्तर – अ) तपेश्वरी - तपेश्वरी ने प्रभुदास को इटली भेजने के लिए क्या किया?
अ) पति से तर्क किया
ब) अश्रु-वर्षा की
स) दोनों (अ और ब)
द) कोई नहीं
उत्तर – स) दोनों (अ और ब) - प्रभुदास की मृत्यु के बाद चैतन्यदास कहाँ थे?
अ) घर पर
ब) मणिकर्णिका घाट पर
स) इटली में
द) अस्पताल में
उत्तर – ब) मणिकर्णिका घाट पर - चैतन्यदास ने प्रभुदास के अंत्येष्टि संस्कार में कितना खर्च किया?
अ) सैकड़ों रुपये
ब) हजारों रुपये
स) लाखों रुपये
द) कोई खर्च नहीं
उत्तर – ब) हजारों रुपये - प्रभुदास की बीमारी के लक्षणों में क्या शामिल था?
अ) लगातार ज्वर
ब) शरीर का क्षीण होना
स) दोनों (अ और ब)
द) कोई नहीं
उत्तर – स) दोनों (अ और ब) - प्रभुदास ने अपनी बीमारी के प्रति अंत में क्या रवैया अपनाया?
अ) उत्साह
ब) उदासीनता
स) क्रोध
द) भय
उत्तर – ब) उदासीनता - चैतन्यदास ने शिवदास को कहाँ भेजा?
अ) अमेरिका
ब) इंग्लैंड
स) जर्मनी
द) फ्रांस
उत्तर – ब) इंग्लैंड - शिवदास को इंग्लैंड भेजने के लिए चैतन्यदास ने क्या किया?
अ) बैंक से लोन लिया
ब) जमींदारी का हिस्सा बंधक रखा
स) अपनी बचत खर्च की
द) कोई खर्च नहीं किया
उत्तर – ब) जमींदारी का हिस्सा बंधक रखा - कहानी में चैतन्यदास के आर्थिक सिद्धांतों का आधार क्या था?
अ) धन संचय
ब) व्यर्थ खर्च से बचना
स) दान देना
द) निवेश करना
उत्तर – ब) व्यर्थ खर्च से बचना - प्रभुदास की बीमारी के बारे में डॉक्टर का क्या अनुमान था?
अ) यह ठीक नहीं हो सकता
ब) यह कुछ महीनों में ठीक हो सकता है
स) यह मानसिक रोग है
द) यह संक्रामक नहीं है
उत्तर – ब) यह कुछ महीनों में ठीक हो सकता है - चैतन्यदास को प्रभुदास की बीमारी पर क्या संदेह था?
अ) यह उनके खानदान में नहीं था
ब) यह मलेरिया है
स) यह ठीक हो जाएगा
द) यह डॉक्टर की गलती है
उत्तर – अ) यह उनके खानदान में नहीं था - प्रभुदास की मृत्यु के बाद चैतन्यदास को क्या पछतावा हुआ?
अ) उसे इंग्लैंड नहीं भेजा
ब) उसे इटली नहीं भेजा
स) उसे पढ़ाई के लिए मजबूर किया
द) उसे दवा नहीं दी
उत्तर – ब) उसे इटली नहीं भेजा - मणिकर्णिका घाट पर चैतन्यदास ने किससे बात की?
अ) एक डॉक्टर से
ब) एक युवक से
स) एक पुजारी से
द) एक रिश्तेदार से
उत्तर – ब) एक युवक से - युवक ने अपने पिता की बीमारी के लिए क्या किया?
अ) कोई इलाज नहीं कराया
ब) सारी पूँजी खर्च कर दी
स) केवल घरेलू उपचार किया
द) डॉक्टर से सलाह नहीं ली
उत्तर – ब) सारी पूँजी खर्च कर दी - युवक ने धन के बारे में क्या कहा?
अ) धन सबसे महत्वपूर्ण है
ब) धन हाथ का मैल है
स) धन से सब कुछ खरीदा जा सकता है
द) धन संचय करना चाहिए
उत्तर – ब) धन हाथ का मैल है - चैतन्यदास को युवक की बातों से क्या महसूस हुआ?
अ) अपनी उदारता
ब) अपनी हृदय-हीनता
स) अपनी बुद्धिमत्ता
द) अपनी सफलता
उत्तर – ब) अपनी हृदय-हीनता - कहानी का मुख्य विषय क्या है?
अ) धन का महत्व
ब) पुत्र-प्रेम और आर्थिक सिद्धांतों का संघर्ष
स) बीमारी का इलाज
द) सामाजिक रीतियाँ
उत्तर – ब) पुत्र-प्रेम और आर्थिक सिद्धांतों का संघर्ष - प्रभुदास के व्यवहार में बीमारी के बाद क्या बदलाव आया?
अ) वह अधिक उत्साही हो गया
ब) वह शांत और दार्शनिक हो गया
स) वह क्रोधी हो गया
द) वह चुप रहने लगा
उत्तर – ब) वह शांत और दार्शनिक हो गया - कहानी का अंत किस भावना के साथ होता है?
अ) खुशी
ब) पश्चात्ताप और शोक
स) उत्साह
द) संतोष
उत्तर – ब) पश्चात्ताप और शोक
‘पुत्र-प्रेम’ कहानी पर आधारित एक वाक्य वाले प्रश्नोत्तर
- प्रश्न – बाबू चैतन्यदास ने अर्थशास्त्र का व्यवहारिक ज्ञान कहाँ-कहाँ उपयोग किया?
उत्तर – बाबू चैतन्यदास ने अर्थशास्त्र का व्यवहार अपने वकालत, जमींदारी और बैंक निवेश में किया। - प्रश्न – बाबू चैतन्यदास किस प्रकार के खर्च को व्यर्थ मानते थे?
उत्तर – बाबू चैतन्यदास उस खर्च को व्यर्थ मानते थे जिससे किसी का भी उपकार न होता हो। - प्रश्न – बाबू चैतन्यदास के कितने पुत्र थे और उनके नाम क्या थे?
उत्तर – बाबू चैतन्यदास के दो पुत्र थे, प्रभुदास और शिवदास। - प्रश्न – बाबू चैतन्यदास किस पुत्र को इंग्लैंड भेजना चाहते थे और क्यों?
उत्तर – वे प्रभुदास को इंग्लैंड भेजना चाहते थे क्योंकि वे उसे बैरिस्टर बनाना चाहते थे। - प्रश्न – प्रभुदास को कौन-सा रोग हो गया था?
उत्तर – प्रभुदास को तपेदिक (ट्युबरक्युलोसिस) हो गया था। - प्रश्न – प्रभुदास की बीमारी की पुष्टि किसने की थी?
उत्तर – प्रभुदास की बीमारी की पुष्टि डाक्टर साहब ने की थी। - प्रश्न – चैतन्यदास ने प्रभुदास के इलाज के लिए कौन-सा विकल्प सुझाया था?
उत्तर – उन्होंने उसे सेनेटोरियम भेजने का सुझाव डाक्टर से लिया था। - प्रश्न – डाक्टर के अनुसार प्रभुदास को कब तक आराम आने की संभावना थी?
उत्तर – डाक्टर के अनुसार तीन-चार महीने में आराम आने की संभावना थी। - प्रश्न – प्रभुदास बीमारी के दौरान कौन-सी पुस्तकें पढ़ा करता था?
उत्तर – प्रभुदास तपेदिक पर डाक्टरों की लिखी व्याख्याएँ पढ़ा करता था। - प्रश्न – बीमारी से निराश होकर प्रभुदास ने दवाइयों का क्या किया?
उत्तर – वह दवाइयाँ चुपके से जमीन पर गिरा देता था। - प्रश्न – प्रभुदास के स्वास्थ्य के विषय में प्रश्न पूछने पर उसका क्या व्यवहार होता था?
उत्तर – वह चिढ़कर मुँह मोड़ लेता था। - प्रश्न – जब प्रभुदास की दशा बिगड़ती गई तब चैतन्यदास ने क्या सोचना शुरू किया?
उत्तर – उन्होंने सोचना शुरू किया कि जब लाभ नहीं है तो खर्च करना व्यर्थ है। - प्रश्न – प्रभुदास को इटली भेजने के प्रस्ताव पर किसने दृढ़ता से विरोध किया?
उत्तर – प्रभुदास की माता तपेश्वरी ने दृढ़ता से विरोध किया। - प्रश्न – अंततः प्रभुदास को इटली भेजने का निर्णय क्यों नहीं लिया गया?
उत्तर – क्योंकि बाबू चैतन्यदास को खर्च की अनिश्चितता और लाभहीनता स्वीकार नहीं थी। - प्रश्न – बाबू साहब ने किसे इंग्लैंड भेजा और कैसे?
उत्तर – बाबू साहब ने शिवदास को इंग्लैंड भेजा और अपनी जमींदारी के दो आने बंधक रखे। - प्रश्न – प्रभुदास की मृत्यु कहाँ हुई?
उत्तर – प्रभुदास की मृत्यु इंग्लैंड भेजे जाने से पहले ही घर पर हुई। - प्रश्न – मणिकर्णिका घाट पर चिता के सामने बैठे चैतन्यदास के मन में क्या पश्चात्ताप था?
उत्तर – उन्हें पश्चात्ताप था कि यदि प्रभुदास को इटली भेजा होता तो शायद वह बच जाता। - प्रश्न – घाट पर मिले युवक ने अपने पिता के लिए क्या किया था?
उत्तर – युवक ने पिता की दवा के लिए सारी पूँजी और जमीन बेच दी थी। - प्रश्न – युवक की बातें सुनकर चैतन्यदास को अपने व्यवहार में क्या कमी लगी?
उत्तर – उन्हें अपनी आत्मशून्यता और हृदयहीनता का एहसास हुआ। - प्रश्न – प्रभुदास की मृत्यु के बाद चैतन्यदास ने क्या किया?
उत्तर – प्रभुदास की अंत्येष्टि में उन्होंने हजारों रुपये खर्च कर दिए।
‘पुत्र-प्रेम’ कहानी पर आधारित 40-50 शब्दों वाले प्रश्नोत्तर
- प्रश्न – बाबू चैतन्यदास का जीवन किस सिद्धांत पर आधारित था?
उत्तर – बाबू चैतन्यदास का जीवन अर्थशास्त्र के सिद्धांतों पर आधारित था। वे हर खर्च को उपयोगिता के पैमाने पर परखते थे, यह देखते हुए कि उससे स्वयं या किसी और का कितना उपकार होगा। ‘व्यर्थ’ को वे विष के समान मानते थे, जिसने उनके जीवन को नियंत्रित किया था।
- प्रश्न – चैतन्यदास के कितने पुत्र थे और उनके नाम क्या थे?
उत्तर – चैतन्यदास के दो पुत्र थे। बड़े पुत्र का नाम प्रभुदास था और छोटे पुत्र का नाम शिवदास था। दोनों ही होनहार और बुद्धिमान थे, लेकिन पिता का स्नेह प्रभुदास पर अधिक था।
- प्रश्न – चैतन्यदास की सबसे बड़ी अभिलाषा क्या थी?
उत्तर – चैतन्यदास की सबसे बड़ी अभिलाषा अपने बड़े पुत्र प्रभुदास को इंग्लैंड भेजकर बैरिस्टर बनाना था। उन्हें प्रभुदास से बड़ी आशाएँ थीं और वे उसे विद्या के क्षेत्र में उन्नति करते देखना चाहते थे।
- प्रश्न – प्रभुदास को कौन सी बीमारी हुई थी?
उत्तर – बी.ए. की परीक्षा के बाद प्रभुदास को तपेदिक (ट्युबरक्युलासिस) हो गया था। यह एक गंभीर बीमारी थी, जिसका इलाज लंबे समय तक चलने के बावजूद कोई खास असर नहीं दिखा रहा था और वह दिन-ब-दिन कमज़ोर होते जा रहे थे।
- प्रश्न – डॉक्टरों ने प्रभुदास के लिए क्या अंतिम सुझाव दिया?
उत्तर – डॉक्टरों ने प्रभुदास के लिए अंतिम सुझाव दिया कि उन्हें इटली के किसी सेनेटोरियम में भेजा जाए। उनका मानना था कि वहाँ के वातावरण और उपचार से शायद प्रभुदास के स्वास्थ्य में सुधार आ सके, हालाँकि उन्होंने पूर्ण ठीक होने की कोई गारंटी नहीं दी।
- प्रश्न – इटली भेजने के प्रस्ताव पर चैतन्यदास क्यों झिझक रहे थे?
उत्तर – चैतन्यदास इटली भेजने के प्रस्ताव पर इसलिए झिझक रहे थे क्योंकि इसमें तीन हजार रुपये का भारी खर्च था और डॉक्टरों ने ठीक होने की कोई निश्चित गारंटी नहीं दी थी। वे इसे धन का ‘अपव्यय’ मानते थे, जो उनके अर्थशास्त्रीय स्वभाव के विरुद्ध था।
- प्रश्न – तपेश्वरी ने पति को प्रभुदास को इटली भेजने के लिए कैसे मनाया?
उत्तर – तपेश्वरी ने पहले तर्क से काम लिया, फिर पति के सद्भावों को जगाने की कोशिश की और अंत में जब कोई उपाय नहीं चला, तो आँसुओं का सहारा लिया। उनकी भावनात्मक अपील और अश्रु-वर्षा के सामने चैतन्यदास को हार माननी पड़ी।
- प्रश्न – चैतन्यदास ने तपेश्वरी से क्या शर्त रखी जब वह इटली भेजने के लिए मान गए?
उत्तर – जब चैतन्यदास प्रभुदास को इटली भेजने के लिए मान गए, तो उन्होंने तपेश्वरी से यह शर्त रखी कि रुपये हाथ में आने पर ही ऐसा किया जाएगा। वे तुरंत अपनी संचित पूंजी खर्च नहीं करना चाहते थे और पैसे के इंतज़ाम में समय लेना चाहते थे।
- प्रश्न – चैतन्यदास ने प्रभुदास की बीमारी में अधिक धन खर्च करने से क्यों मना किया?
उत्तर – चैतन्यदास ने अधिक धन खर्च करने से मना किया क्योंकि उन्हें लगा कि यह अनिश्चित हित की आशा पर पैतृक संपत्ति का बलिदान होगा। वे केवल भावुकता के फेर में पड़कर धन का ह्रास नहीं करना चाहते थे, क्योंकि उन्हें प्रभुदास से अब कोई खास उम्मीद नहीं थी।
- प्रश्न – शिवदास को इंग्लैंड क्यों भेजा गया और इसका खर्च कैसे उठाया गया?
उत्तर – शिवदास को कानून पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेजा गया। चैतन्यदास ने अपनी जमींदारी के दो आने बंधक रखकर इस खर्च का प्रबंध किया। वे शिवदास से लाभ की आशा रखते थे, इसलिए उनके लिए यह निवेश उचित था।
- प्रश्न – प्रभुदास का निधन कब हुआ?
उत्तर – प्रभुदास का निधन छह महीने बाद हुआ, जब इटली भेजने का प्रस्ताव घर में पारित हो चुका था, लेकिन उन्हें भेजा नहीं जा सका था। शिवदास के इंग्लैंड जाने के एक सप्ताह बाद ही अभागे प्रभुदास परलोक सिधार गए।
- प्रश्न – मणिकर्णिका घाट पर चैतन्यदास को किस बात का पश्चात्ताप हुआ?
उत्तर – मणिकर्णिका घाट पर प्रभुदास के अंतिम संस्कार के समय चैतन्यदास को गहरा पश्चात्ताप हुआ कि उन्होंने केवल तीन हजार रुपये के मुँह देखा और अपने पुत्र-रत्न को हाथ से खो दिया। उन्हें लगा कि शायद इटली जाकर प्रभुदास बच जाते।
- प्रश्न – चैतन्यदास ने घाट पर किस युवक और उसकी शव यात्रा को देखा?
उत्तर – चैतन्यदास ने घाट पर एक ऐसे युवक को देखा जो अपने पिता की अर्थी के साथ आया था। वह युवक और उसके साथी ढोल बजाते, गाते और फूल बरसाते हुए आए थे, जो एक अलग ही दृश्य था।
- प्रश्न – युवक ने अपने पिता की बीमारी के बारे में क्या बताया?
उत्तर – युवक ने बताया कि उसके पिता को कोई ऐसी बीमारी थी जिसका पता नहीं चल पाया। उन्हें हमेशा बुखार चढ़ा रहता था और वे सूखकर काँटा हो गए थे। तीन साल तक खाट पर पड़े रहे, लेकिन बीमारी की पहचान नहीं हो पाई।
- प्रश्न – युवक ने अपने पिता के इलाज में कितना खर्च किया था?
उत्तर – युवक ने अपने पिता के इलाज में घर की सारी पूँजी स्वाहा कर दी, यहाँ तक कि थोड़ी-सी ज़मीन भी बेच दी। उसने चित्रकूट, हरिद्वार, प्रयाग जैसे कई स्थानों पर अपने पिता को ले जाकर दिखाया और कोई कसर नहीं छोड़ी।
- प्रश्न – युवक ने “रुपया-पैसा हाथ का मैल है” कहकर क्या संदेश दिया?
उत्तर – युवक ने “रुपया-पैसा हाथ का मैल है” कहकर यह संदेश दिया कि धन तो आता-जाता रहता है, लेकिन मनुष्य जीवन अमूल्य है। उसने बताया कि धन से प्यारी जान और जान से प्यारा ईमान है, और उसने अपने पिता के लिए सब कुछ न्योछावर कर दिया।
- प्रश्न – युवक के व्यवहार और बातों का चैतन्यदास पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर – युवक की उदारता, निस्वार्थ प्रेम और दार्शनिक बातों को सुनकर चैतन्यदास को अपनी हृदय-हीनता, आत्मशून्यता और भौतिकता का भयंकर अनुभव हुआ। युवक के शब्द उनके हृदय में तीर के समान चुभ रहे थे।
- प्रश्न – चैतन्यदास ने प्रभुदास के अंतिम संस्कार में हजारों रुपये क्यों खर्च किए?
उत्तर – चैतन्यदास ने प्रभुदास के अंतिम संस्कार में हजारों रुपये खर्च किए क्योंकि यह उनके संतप्त हृदय की शांति के लिए एकमात्र उपाय था। युवक की बातों से उन्हें अपने कृत्य पर गहरा पश्चात्ताप हुआ था और वे प्रायश्चित करना चाहते थे।
- प्रश्न – कहानी का मुख्य संदेश क्या है?
उत्तर – कहानी का मुख्य संदेश यह है कि धन से कहीं अधिक मूल्यवान मानवीय संबंध और पुत्र-प्रेम है। भौतिकवादी सोच कभी-कभी हमें भावनात्मक रूप से दिवालिया बना देती है, और सच्चा सुख त्याग व प्रेम में ही निहित है।
- प्रश्न – ‘पुत्र-प्रेम‘ शीर्षक कहानी के लिए कितना उपयुक्त है?
उत्तर – ‘पुत्र-प्रेम’ शीर्षक कहानी के लिए अत्यंत उपयुक्त है। यह न केवल चैतन्यदास के अपने पुत्रों के प्रति स्नेह को दर्शाता है, बल्कि यह भी उजागर करता है कि कैसे उनके अर्थशास्त्रीय सिद्धांत उनके पुत्र-प्रेम पर हावी हो गए थे, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें अंततः गहरा पश्चात्ताप हुआ।
‘पुत्र-प्रेम’ कहानी पर आधारित दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
- प्रश्न – बाबू चैतन्यदास के आर्थिक सिद्धांतों ने उनके पारिवारिक संबंधों को कैसे प्रभावित किया?
उत्तर – चैतन्यदास के आर्थिक सिद्धांतों ने हर खर्च को उपयोगिता के आधार पर परखने की आदत डाली, जिससे वे प्रभुदास के इलाज के लिए इटली भेजने में हिचकिचाए। यह सिद्धांत उनके पुत्र-प्रेम पर हावी रहा, जिसके कारण प्रभुदास की मृत्यु हुई। अंत में, मणिकर्णिका घाट पर युवक की उदारता ने उन्हें अपनी भौतिकता पर पछतावा कराया, जिससे उन्होंने अंत्येष्टि में हजारों रुपये खर्च किए। - प्रश्न – प्रभुदास की बीमारी ने उनके व्यक्तित्व में क्या बदलाव लाए?
उत्तर – प्रभुदास की ट्यूबरकुलोसिस ने उन्हें शारीरिक रूप से कमजोर और मानसिक रूप से उदासीन बना दिया। शुरू में वह अस्थिरचित्त था, लेकिन बाद में उसने जीवन से निराशा स्वीकार कर ली। वह सामाजिक रीतियों की आलोचना करने लगा और दार्शनिक दृष्टिकोण अपनाया। उसने पथ्य का ध्यान छोड़ दिया और मित्रों के साथ समय बिताकर जी बहलाने की कोशिश की, जिससे उसकी शांत उदासीनता झलकती थी। - प्रश्न – तपेश्वरी ने चैतन्यदास को प्रभुदास के इलाज के लिए मनाने में क्या रणनीतियाँ अपनाईं?
उत्तर – तपेश्वरी ने प्रभुदास को इटली भेजने के लिए चैतन्यदास को मनाने हेतु तर्क, भावनात्मक अपील और अश्रु-वर्षा का उपयोग किया। उसने धन की नश्वरता और प्रभुदास के जायदाद के हिस्से का तर्क दिया। उसकी दृढ़ता और भावनात्मक दबाव ने चैतन्यदास को मजबूर किया, लेकिन उनकी आर्थिक सोच ने निर्णय में देरी कराई, जिसका परिणाम प्रभुदास की मृत्यु के रूप में सामने आया। - प्रश्न – मणिकर्णिका घाट की घटना ने चैतन्यदास के दृष्टिकोण को कैसे बदला?
उत्तर – मणिकर्णिका घाट पर युवक ने अपने पिता के लिए सारी पूँजी खर्च करने की बात कही, जिसने चैतन्यदास को अपनी हृदय-हीनता का अहसास कराया। युवक का कथन कि “धन हाथ का मैल है” ने उनकी भौतिकता को चुनौती दी। इससे प्रेरित होकर, चैतन्यदास ने प्रभुदास की अंत्येष्टि में हजारों रुपये खर्च किए, जो उनके पश्चात्ताप और पुत्र-प्रेम की अंतिम अभिव्यक्ति थी। - प्रश्न – कहानी में पुत्र-प्रेम और आर्थिक सिद्धांतों के बीच संघर्ष को कैसे दर्शाया गया है?
उत्तर – कहानी में चैतन्यदास का पुत्र-प्रेम उनके आर्थिक सिद्धांतों से टकराता है, जो व्यर्थ खर्च को विष मानते हैं। प्रभुदास के इलाज के लिए इटली भेजने का प्रस्ताव उनकी आर्थिक सोच के कारण स्वीकार नहीं हुआ। तपेश्वरी के भावनात्मक दबाव और युवक की उदारता ने उनके हृदय को प्रभावित किया, लेकिन प्रभुदास की मृत्यु के बाद पश्चात्ताप ने उनके पुत्र-प्रेम को अंत्येष्टि में व्यक्त किया। - प्रश्न – शिवदास की भूमिका कहानी में क्या थी और उसने प्रभुदास के प्रति क्या भावनाएँ दिखाईं?
उत्तर – शिवदास, चैतन्यदास का छोटा पुत्र, प्रभुदास के प्रति सहानुभूति रखता था। उसने डाक्टर से प्रभुदास के इलाज के बारे में पूछा और पिता की कठोर बातों के लिए माफी माँगी। हालाँकि वह शुरू में इटली भेजने के खर्च के खिलाफ था, माता के दबाव में उसने उनका साथ दिया। उसकी संवेदनशीलता और भाई के प्रति चिंता कहानी में उसके सकारात्मक चरित्र को दर्शाती है। - प्रश्न – चैतन्यदास ने प्रभुदास की मृत्यु के बाद अपने निर्णयों पर क्यों पछतावा किया?
उत्तर – चैतन्यदास ने प्रभुदास को इटली न भेजने के निर्णय पर पछतावा किया, क्योंकि मणिकर्णिका घाट पर युवक की उदारता ने उन्हें अपनी भौतिकता का अहसास कराया। उन्हें लगा कि यदि वे तीन हजार रुपये खर्च कर प्रभुदास को इटली भेजते, तो शायद वह बच जाता। यह पछतावा उनके हृदय में ग्लानि और शोक के रूप में उभरा, जिसने उनकी आर्थिक सोच को पुत्र-प्रेम के सामने कमजोर सिद्ध किया। - प्रश्न – कहानी में डॉक्टरों की भूमिका और उनकी सलाह ने कथानक को कैसे प्रभावित किया?
उत्तर – डॉक्टरों ने प्रभुदास को ट्यूबरकुलोसिस का निदान किया और सेनेटोरियम में भेजने की सलाह दी, लेकिन उनकी अनिश्चित सलाह ने चैतन्यदास को भ्रम में डाला। डॉक्टरों का यह कहना कि जाड़ों में सुधार हो सकता है, गलत साबित हुआ, जिससे चैतन्यदास का विश्वास टूटा। उनकी सलाह ने चैतन्यदास के निर्णयों को जटिल बनाया, जिसके कारण प्रभुदास का इलाज समय पर नहीं हुआ और कहानी दुखद अंत की ओर बढ़ी। - प्रश्न – कहानी में सामाजिक रीतियों और प्रथाओं के प्रति प्रभुदास का दृष्टिकोण कैसा था?
उत्तर – प्रभुदास ने अपनी बीमारी के बाद सामाजिक रीतियों और प्रथाओं के प्रति उदासीन और आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाया। वह इन रीतियों पर निर्भीकता से टिप्पणी करता था और दार्शनिक मर्मज्ञता दिखाता था। उसकी यह उदासीनता उसके जीवन के प्रति निराशा और रोग से मुक्ति की असंभावना से उत्पन्न हुई, जो उसे सामाजिक बंधनों से अलग कर एक गहरे चिंतन की ओर ले गई। - प्रश्न – कहानी का अंत चैतन्यदास के लिए नैतिक और भावनात्मक स्तर पर क्या संदेश देता है?
उत्तर – कहानी का अंत चैतन्यदास के लिए यह संदेश देता है कि धन से अधिक पुत्र-प्रेम और मानवीय संवेदनाएँ महत्वपूर्ण हैं। युवक की उदारता ने उनकी भौतिकता को उजागर किया, जिससे उन्हें प्रभुदास के लिए किए गए निर्णयों पर पछतावा हुआ। अंत्येष्टि में भारी खर्च उनके पुत्र-प्रेम और पश्चात्ताप की अभिव्यक्ति था, जो यह सिखाता है कि मानवीय रिश्ते आर्थिक सिद्धांतों से ऊपर हैं।