लेखक परिचय : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म 19 अगस्त 1907 में बलिया जिले के दुबे का छपरा नामक गांव में हुआ। परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। उनके पिता पंडित अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। प्राथमिक शिक्षा और मिडिल की पढ़ाई द्विवेदी जी ने गांव के स्कूल से ही की। ज्योतिष शास्त्र में आचार्य भी किया।
हजारी प्रसाद द्विवेदी की प्रमुख रचनाएँ कल्पलता, विचार और वितर्क, अशोक के फूल, कुटज, विचार- प्रवाह, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, आलोक
पर्व (निबंध संग्रह), बाणभट्ट की आत्मकथा, चारुचन्द्र लेख, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा (उपन्यास), कबीर, सूर साहित्य, हिंदी साहित्य का आदि-काल, हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास (साहित्येतिहास) आदि।
पुरस्कार और सम्मान : साहित्य अकादमी पुरस्कार ( आलोक पर्व पर), भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण, लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा डी. लिट् की उपाधि।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी के उन महान रचनाकारों में से एक हैं जिन्होंने हिंदी, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, बांग्ला आदि भाषाओं के साहित्य के साथ इतिहास, संस्कृति, धर्म, दर्शन आदि का गहन अध्ययन करने के बाद अपने विचारों के समग्रता के साथ प्रस्तुत किया।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी 4 फरवरी 1979 को पक्षाघात के शिकार हुए और 19 मई 1979 को ब्रेन ट्यूमर से दिल्ली में उनका निधन हो गया।
शिरीष के फूल
जहाँ बैठ के यह लेख लिख रहा हूँ उसके आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ, शिरीष के अनेक पेड़ हैं। जेठ की जलती धूप में, जबकि धरित्री निर्धूम अग्निकुंड बनी हुई थी, शिरीष नीचे से उपर तक फूलों से लद गया था। कम फूल इस प्रकार की गरमी में फूल सकने की हिम्मत करते हैं। कर्णिकार और आरग्वध (अमलतास) की बात मैं भूल नहीं रहा हूँ। वे भी आस-पास बहुत हैं। लेकिन शिरीष के साथ आरग्वध्य की तुलना नहीं की जा सकती। वह पंद्रह-बीस दिन के लिए फूलता है, वसंत ऋतु के पलाश की भाँति। कबीरदास को इस तरह पंद्रह दिन के लिए लहक उठना पसंद नहीं था। यह भी क्या कि दस दिन फूले और फिर खंखड़ के खंखड़ – ‘दिन दस फूला फूलिके खंखड़ भया पलास !’ ऐसे दुमदारों से तो लँडूरे भले। फूल है शिरीष। बसंत के आगमन के साथ लहक उठता है, आषाढ़ तक जो निश्चित रूप से मस्त बना रहता है। मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्घात फूलता रहता है। जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचार करता रहता है। यद्यपि कवियों की भाँति हर फूल-पत्ते को देखकर मुग्ध होने लायक हृदय विधाता ने नहीं दिया है, पर नितांत ठूंठ भी नहीं हूँ। शिरीष के पुष्प मेरे मानस में थोड़ा हिल्लोल जरुर पैदा करते हैं।
शिरीष के वृक्ष बड़े और छायादार होते हैं। पुराने भारत का रईस जिन मंगल-जनक वृक्षों को अपनी वृक्ष-वाटिका की चहारदीवारी के पास लगाया करता था, उनमें एक शिरीष भी है। (वृहतसंहिता 55,13) अशोक, अरिष्ट, पुन्नाग और शिरीष के छायादार और घनमसृण हरीतिमा से परिवेष्टित वृक्ष-वाटिका ज़रुर बड़ी मनोहर दिखती होगी। वात्स्यायन ने ‘कामसूत्र’ में बताया है कि वाटिका के सघन छायादार वृक्षों की छाया में ही झूला (प्रेखा दोला) लगाया जाना चाहिए। यद्यपि पुराने कवि बकुल के पेड़ में ऐसी दोलाओं को लगा देखना चाहते थे, पर शिरीष भी क्या बुरा है ! डाल इसकी अपेक्षाकृत कमजोर ज़रुर होती है, पर उसमें झूलनेवालियों का वज़न भी तो बहुत ज़्यादा नहीं होता। कवियों की यही तो बुरी आदत है कि वजन का एकदम खयाल नहीं करते। मैं तुंदिल नरपतियों की बात नहीं कह रहा हूँ, वे चाहें तो लोहे का पेड़ बनवा लें।
शिरीष का फूल संस्कृत-साहित्य में बहुत कोमल माना गया है। मेरा अनुमान है कि कालिदास ने यह बात शुरु-शुरु में प्रचार की होगी। उनका इस पुष्प पर कुछ पक्षपात था (मेरा भी है)। कह गए हैं, शिरीष पुष्प केवल भौरों के पदों का कोमल दबाव सहन कर सकता है, पक्षियों का बिलकुल नहीं – ‘पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीष पुष्पं न पुनः पतत्रिणाम्।’ अब मैं इतने बड़े कवि की बात का विरोध कैसे करूँ? सिर्फ विरोध करने की हिम्मत न होती तो भी कुछ कम बुरा नहीं था, यहाँ तो इच्छा भी नहीं है। खैर, मैं दुसरी बात कह रहा था। शिरीष के फूलों की कोमलता देखकर परवर्ती कवियों ने समझा कि उसका सब-कुछ कोमल है! यह भूल है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। जब तक नए फूल-पत्ते मिलकर, धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पुष्प पत्र से मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की बात याद आती है, जो किसी प्रकार ज़माने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नयी पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं।
मैं सोचता हूँ कि पुराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती? जरा और मृत्यु, ये दोनों ही जगत के अतिपरिचित और अतिप्रामाणिक सत्य हैं। तुलसीदास ने अफ़सोस के साथ इनकी सच्चाई पर मुहर लगाई थी – ‘धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!’ मैं शिरीष के फूलों को देखकर कहता हूँ कि क्यों नहीं फलते ही समझ लेते बाबा कि झड़ना निश्चित है! सुनता कौन हैं? महाकालदेवता सपासप कोड़े चला रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं, जिनमें प्राणकण थोड़ा भी ऊर्ध्वमुखी है, वे टिक जाते हैं। दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा जाएँगे। भोले हैं वे। हिलते डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे !
एक-एक बार मुझे मालूम होता है कि यह शिरीष एक अद्भुत अवधूत है। दुःख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। न उधो का लेना, न माधो का देना। जब धरती और आसमान जलते रहते हैं तब भी यह हज़रत न जाने कहाँ से अपना रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं। एक वनस्पतिशात्री ने मुझे बताया है कि यह उस श्रेणी का पेड़ है जो वायुमण्डल से अपना रस खींचता है। ज़रुर खींचता होगा। नहीं तो भयंकर लू के समय इतने कोमल तंतुलाल और ऐसे सुकुमार केसर को कैसे उगा सकता था? अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं। कबीर बहुत कुछ इस शिरीष के समान ही थे, मस्त और बेपरवा, पर सरस और मादक। कालिदास भी जरुर अनासक्त योगी रहे होंगे। शिरीष के फूल फक्कड़ाना मस्ती से ही उपज सकते हैं और ‘मेघदूत’ का काव्य उसी प्रकार के अनासक्त अनाविल उन्मुक्त हृदय में उमड़ सकता है। जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलानें में उलझ गया, वह भी क्या कवि हैं? कहते हैं कर्णाट-राज की प्रिया विज्जिका देवी ने गर्वपूर्वक कहा था कि एक कवि ब्रह्मा थे, दूसरे बाल्मीकि और तीसरे व्यास एक ने वेदों को दिया, दूसरे ने रामायण को और तीसरे ने महाभारत को। इनके अतिरिक्त और कोई यदि कवि होने का दावा करे तो मैं कर्णाट-राज की प्यारी रानी उनके सिर पर अपना बायाँ चरण रखती हूँ – ‘तेषां मूर्ध्नि ददामि वामचरणं कर्णाट राजप्रिया!’ मैं जानता हूँ कि इस उपालंभ से दुनिया का कोई कवि हारा नहीं है, पर इसका मतलब यह नहीं कि कोई लजाया नहीं तो उसे डाँटा भी न जाए। पर मैं कहता हूँ कवि बनना है मेरे दोस्तों, तो फक्कड़ बनो। शिरीष की मस्ती की ओर देखो। लेकिन अनुभव ने मुझे बताया है कि कोई किसी की सुनता नहीं। मरने दो!
कालिदास वज़न ठीक रख सकते थे, क्योंकि वे अनासक्त योगी की स्थिर प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय पा चुके थे। कवि होने से क्या होता है? मैं भी छंद बना लेता हूँ, तुक जोड़ लेता हूँ और कालिदास भी छंद बना लेते थे- तुक भी जोड़ ही सकते होंगे इसलिए हम दोनों एक श्रेणी के नहीं हो जाते। पुराने सहदय ने किसी ऐसे ही दावेदार को फटकारते हुए कहा था ‘वयमपि कवयः कवयस्ते कालिदासाद्या!’ मैं तो मुग्ध और विस्मय-विमूढ़ होकर कालिदास के एक-एक श्लोक को देखकर हैरान हो जाता हूँ। अब इस शिरीष के फूल का ही एक उदाहरण लीजिए। शकुंतला बहुत सुंदर थी। सुंदर क्या होने से कोई हो जाता है? देखना चाहिए कि कितने सुंदर हृदय से वह सौन्दर्य डुबकी लगाकर निकला है। शकुंतला कालिदास के हृदय से निकली थी। विधाता की ओर से कोई कार्पण्य नहीं था, कवि की ओर से भी नहीं। राजा दुष्यन्त भी अच्छे-भले प्रेमी थे। उन्होंने शकुंतला का एक चित्र बनाया था। लेकिन रह-रहकर उनका मन खीझ उठता था। उहूँ, कहीं-न-कहीं कुछ छूट गया है। बड़ी देर के बाद उन्हें समझ में आया कि शकुंतला के कानों में वे उस शिरीष पुष्प को देना भूल गए हैं, जिसके केसर गंडस्थल तक लटके हुए थे, और रह गया है शरच्चंद्र की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार।
कालिदास सौंदर्य के बाह्य आवरण को भेदकर उसके भीतर तक पहुँच सकते थे, दुख हो कि सुख, वे अपना भाव-रस उस अनासक्त कृषीवल की भौति खींच लेते थे जो निर्दलित ईक्षुदंड से रस निकाल लेता है। कालिदास महान थे, क्योंकि वे अनासक्त रह सके थे। कुछ इसी श्रेणी की अनासक्ति आधुनिक हिंदी कवि सुमित्रानंदन पंत में हैं। कविवर रवीन्द्रनाथ में यह अनासक्ति थी। एक जगह उन्होंने लिखा- ‘राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही अभ्रभेदी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुन्दर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कर्तव्य है।’ फूल हो या पेड़, वह अपने आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है।
शिरीष तरु सचमुच पक्के अवधूत की भौति मेरे मन में ऐसी तरंगें जगा देता है जो ऊपर की ओर उठती रहती हैं। इस चिलकती धूप में इतना सरस वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाह्य परिवर्तन
धूप, वर्षा, आँधी, लू-अपने आपमें सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से जो यह मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवंडर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों संभव हुआ? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है। शिरीष वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर है। गांधी भी वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर हो सका था। मैं जब जब शिरीष की ओर देखता हूँ तब-तब हूक उठती है- हाय, वह अवधूत आज कहाँ है!
कठिन शब्दों के सरल अर्थ
Word (Hindi) | Meaning (Hindi) | Meaning (Bengali) | Meaning (English) |
धरित्री | पृथ्वी, धरती | পৃথিবী (Prithibi) | Earth, ground |
निर्धूम | बिना धुएँ का | ধোঁয়াহীন (Dhomahin) | Smokeless |
अग्निकुंड | अग्नि का गढ़ा, आग का स्थान | অগ্নিকুণ্ড (Agnikunda) | Fire pit, blazing furnace |
लद गया था | भर गया था, ढक गया था | ভরে গিয়েছিল (Bhore giyechilo) | Was laden with, covered with |
कर्णिकार | एक प्रकार का पीला फूल वाला वृक्ष (कनेर) | একটি হলুদ ফুল গাছ (Kaner) | Indian laburnum (Cassia fistula) |
आरग्वध | अमलतास | অমলতাস (Amoltas) | Golden shower tree (Cassia fistula) |
भाँति | तरह, समान | মতো (Moto) | Like, similar to |
लहक उठना | खिल उठना, चमक उठना | প্রস্ফুটিত হওয়া (Prosphutito howa) | To blossom, to flourish brightly |
खंखड़ | सूखा, निष्प्राण | শুকনো, প্রাণহীন (Shukno, pranheen) | Dry, lifeless, withered |
दुमदारों | पूँछ वाले, समर्थों से | লেজযুক্ত, শক্তিশালী (Lej-jukto, shaktishali) | Those with tails (figurative for showy/important ones) |
लँडूरे | बिना पूँछ वाले, असमर्थ | লেজবিহীন, দুর্বল (Lej-bihin, durbol) | Tailless (figurative for insignificant/weak ones) |
आषाढ़ | हिन्दू कैलेंडर का चौथा महीना | আষাঢ় (Asharh) | Fourth month of the Hindu calendar (monsoon season) |
भादों | हिन्दू कैलेंडर का छठा महीना | ভাদ্র (Bhadra) | Sixth month of the Hindu calendar (late monsoon) |
निर्घात | लगातार, बिना बाधा के | অবিরাম (Obiram) | Continuously, without interruption |
उमस | गर्मी और नमी से उत्पन्न घुटन | ভ্যাপসা গরম (Vapsha gorom) | Humidity, mugginess |
प्राण उबलता रहता है | बहुत बेचैन होना, व्याकुल होना | প্রাণ অস্থির থাকে (Pran osthir thake) | To be extremely restless/agitated |
कालजयी | समय को जीतने वाला, अमर | কালজয়ী (Kaljoyi) | Timeless, immortal, victorious over time |
अवधूत | एक प्रकार का त्यागी, योगी, संसार से विरक्त | অবধূত (Obodhūt) | Ascetic, renunciant, mendicant |
अजेयता | जिसे जीता न जा सके, अपराजेयता | অজেয়তা (Ojoyota) | Invincibility |
विधाता | ईश्वर, ब्रह्मा | বিধাতা (Bidhata) | Creator, God |
नितांत | पूरी तरह, बिल्कुल | সম্পূর্ণভাবে (Shompurṇovabe) | Completely, absolutely |
ठूंठ | भावशून्य, संवेदनहीन | ভাবশূন্য, অনুভূতিহীন (Bhabshunyo, onubhutiheen) | Lifeless, insensitive, unfeeling |
हिल्लोल | तरंग, हलचल | তরঙ্গ, আলোড়ন (Torongo, aloron) | Wave, stir, ripple |
रईस | धनी व्यक्ति, कुलीन | ধনী ব্যক্তি, অভিজাত (Dhoni byakti, obhijat) | Aristocrat, wealthy person |
मंगल-जनक | शुभ करने वाला, कल्याणकारी | মঙ্গলজনক (Mongoljonok) | Auspicious, beneficial |
चहारदीवारी | चारदीवारी, बाड़ | প্রাচীর (Prachir) | Boundary wall, compound wall |
वृहतसंहिता | वराहमिहिर द्वारा रचित एक ज्योतिष ग्रंथ | বৃহৎসংহিতা (Brihatsamhita) | An encyclopedic Sanskrit text by Varāhamihira |
अरिष्ट | नीम का एक प्रकार, कड़वा | নিম গাছ (Nim gach) | A type of Neem tree (bitter) |
पुन्नाग | एक प्रकार का वृक्ष, सुगन्धित फूल वाला | নাগেশ্বর (Nageshwar) | Mastwood tree (Calophyllum inophyllum) |
घनमसृण | घना और चिकना | ঘন ও মসৃণ (Ghono o mosrin) | Dense and smooth |
हरीतिमा | हरियाली, हरापन | সবুজিমা (Sobujima) | Greenery, lushness |
परिवेष्टित | घिरा हुआ, लिपटा हुआ | পরিবেষ্টিত (Poribeshthito) | Surrounded, encircled |
मनोहर | मन को हरने वाला, सुंदर | মনোরম (Monorom) | Charming, beautiful |
वात्स्यायन | ‘कामसूत्र’ के रचयिता | বাৎস্যায়ন (Vātsyāyana) | Author of Kamasutra |
प्रेखा दोला | झूला | দোলনা (Dolna) | Swing |
बकुल | मौलसिरी का पेड़ | বকুল (Bokul) | Mimusops elengi tree |
तुंदिल | तोंदवाला, मोटा | মোটা, ভুড়িওয়ালা (Mota, bhuriwala) | Pot-bellied, corpulent |
नरपति | राजा | রাজা (Raja) | King |
पक्षपात | तरफदारी, भेदभाव | পক্ষপাত (Pokkhopat) | Bias, partiality |
पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीष पुष्पं न पुनः पतत्रिणाम् | शिरीष का फूल केवल भँवरे के कोमल पैरों का दबाव सहन कर सकता है, पक्षियों का नहीं | শিরীষ ফুল কেবল ভ্রমরের কোমল পদভার সহ্য করতে পারে, পাখিদের নয় | The Shirish flower can bear the gentle pressure of a bee’s foot, but not that of a bird. |
परवर्ती | बाद का, आगामी | পরবর্তী (Poroborti) | Later, subsequent |
खड़खड़ाते रहते हैं | आवाज करते रहते हैं, सूखेपन की ध्वनि | খড়খড় করে শব্দ করা (Khor khor kore shobdo kora) | Keep rattling, make a dry, rustling sound |
अधिकार-लिप्सा | अधिकार की इच्छा, लालच | অধিকার লিপ্সা (Odhikar lipsa) | Greed for power/authority |
जरा | बुढ़ापा | বার্ধক্য (Bardhokko) | Old age |
मृत्यु | मौत | মৃত্যু (Mrityu) | Death |
अतिपरिचित | बहुत जाना-पहचाना | অতি পরিচিত (Oti porichito) | Very familiar |
अतिप्रामाणिक | बहुत विश्वसनीय, प्रमाणित | অত্যন্ত নির্ভরযোগ্য (Otyonto nirbhorjoggyo) | Highly authentic/reliable |
मुहर लगाई थी | पुष्टि की थी, समर्थन किया था | মোহর লাগিয়েছিলেন (Mohor lagiyechilen) | Authenticated, confirmed |
जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना | जो फला वह गिरा, जो जला वह बुझ गया (अर्थात जो पैदा हुआ वह नष्ट होगा) | যা ফল ধরল তা ঝরে পড়ল, যা জ্বলল তা নিভে গেল | What bore fruit fell, what burned extinguished (i.e., what is born will perish) |
महाकालदेवता | मृत्यु के देवता, शिव | মহাকালদেবতা (Mahakaldevota) | Deity of time/death (Lord Shiva) |
सपासप कोड़े चला रहे हैं | तेज़ी से चाबुक चला रहे हैं | সপাসপ চাবুক চালাচ্ছেন (Sapasap chabuk chalachhen) | Whipping rapidly |
प्राणकण | जीवन का अंश, प्राण का छोटा हिस्सा | প্রাণকণা (Prankona) | A particle of life |
ऊर्ध्वमुखी | ऊपर की ओर मुख किया हुआ, प्रगतिशील | ঊর্ধ্বমুখী (Urdhomukhi) | Upward-looking, progressive |
टिक जाते हैं | ठहर जाते हैं, बचे रहते हैं | টিকে থাকে (Tike thake) | They survive, they remain |
दुरंत | कठिन, प्रचंड | দুরন্ত (Duronto) | Fierce, unmanageable |
कालाग्नि | समय की अग्नि, विनाशकारी शक्ति | কালাগ্নি (Kalagni) | Fire of time, destructive power |
मूर्ख | नासमझ, बेवकूफ | মূর্খ (Murkho) | Foolish, stupid |
आँख बचा जाएँगे | बच निकलेंगे, बच जाएंगे | চোখ বাঁচিয়ে যাবে (Chokh bachie jabe) | Will escape notice, will get away |
मौज में | मस्ती में, आनंद में | ফুর্তিতে (Furtite) | In a jovial mood, cheerfully |
आठों याम | आठों पहर, हमेशा | আট প্রহর (At prohor) | All eight periods of the day, always |
तंतुलाल | रेशेदार और लाल रंग का | তন্তুল (Tontulal) | Fibrous and reddish |
सुकुमार | कोमल, नाजुक | সুকুমার (Sukumar) | Delicate, tender |
केसर | फूलों का मध्य भाग, पराग | কেশর (Keshor) | Stamen, saffron |
अनासक्त | मोह-माया से रहित, विरक्त | অনাসক্ত (Onashokto) | Detached, unattached |
योगी | तपस्वी, साधु | যোগী (Jogi) | Ascetic, yogi |
फक्कड़ाना | बेपरवाह, मस्ती भरा | ফক্কড়ানা (Fokkorana) | Carefree, bohemian |
मेघदूत | कालिदास का एक प्रसिद्ध काव्य | মেঘদূত (Meghdut) | A famous poem by Kalidasa |
अनाविल | शुद्ध, निर्मल | অনাবিল (Onabil) | Pure, unblemished |
उन्मुक्त | स्वतंत्र, खुला | উন্মুক্ত (Unmukto) | Free, uninhibited |
किए-कराए का लेखा-जोखा | किए गए कामों का हिसाब-किताब | কৃতকর্মের হিসাবনিকাশ (Kritokormer hisabnikash) | Account of deeds/actions |
कर्णाट-राज | कर्नाटक का राजा | কর্ণাট-রাজ (Karnat-raj) | King of Karnataka |
प्रिया विज्जिका देवी | कर्णाट-राज की प्रिय रानी विज्जिका देवी | প্রিয় বিজ্বিকা দেবী (Priyo Vijjika Debi) | Beloved Queen Vijjika Devi of Karnat-raj |
तेषां मूर्ध्नि ददामि वामचरणं कर्णाट राजप्रिया! | कर्णाट राज की प्यारी रानी उनके सिर पर अपना बायाँ चरण रखती हूँ | তাদের মস্তকে আমার বাম চরণ রাখি, কর্ণাট রাজপ্রিয়া! | The beloved queen of Karnat-raj places her left foot on their heads! |
उपालंभ | उलाहना, शिकायत | তিরস্কার (Tiroskar) | Reproach, rebuke |
लजाया नहीं | शर्मिंदा नहीं हुआ | লজ্জা পায়নি (Lojja paini) | Didn’t feel ashamed |
डाँटा भी न जाए | फटकारा भी न जाए | বকাও না হয় (Bokao na hoy) | Should not be scolded |
स्थिर प्रज्ञता | स्थिर बुद्धि, जिसमें कोई चंचलता न हो | স্থির প্রজ্ঞা (Sthir proggna) | Steadfast wisdom, equanimity |
विदग्ध प्रेमी | परिपक्व प्रेमी, अनुभवी प्रेमी | বিদগ্ধ প্রেমিক (Bidogdho premik) | Discerning lover, experienced lover |
छंद बना लेता हूँ | कविता की पंक्तियाँ बना लेता हूँ | ছন্দ তৈরি করতে পারি (Chhondo toiri korte pari) | Can compose verses/stanzas |
तुक जोड़ लेता हूँ | तुकबंदी कर लेता हूँ, कविता में मिला लेता हूँ | ছন্দ মেলাতে পারি (Chhondo melate pari) | Can rhyme, can make verses rhyme |
सहृदय | सहृदय, दूसरों के प्रति सहानुभूति रखने वाला | সহৃদয় (Sohridoy) | Kind-hearted, empathetic |
फटकारते हुए | डाँटते हुए | ধমক দিয়ে (Dhomok diye) | Scolding, reprimanding |
वयमपि कवयः कवयस्ते कालिदासाद्या! | हम भी कवि हैं, पर वे कालिदास आदि कवि हैं! | আমরাও কবি, কিন্তু তারা কালিদাস প্রমুখ কবি! | We are also poets, but Kalidasa and others are THE poets! |
मुग्ध | मोहित, मंत्रमुग्ध | মুগ্ধ (Mugdho) | Charmed, captivated |
विस्मय-विमूढ़ | आश्चर्यचकित, भौंचक्का | বিস্ময়-বিমূঢ় (Bismoy-bimurh) | Astonished, dumbfounded |
श्लोक | संस्कृत कविता का एक पद | শ্লোক (Shlok) | Verse (in Sanskrit poetry) |
कार्पण्य | कंजूसी, कृपणता | কার্পণ্য (Karpanyo) | Stinginess, miserliness |
रह-रहकर | बार-बार, रुक-रुक कर | বারবার (Barbar) | Repeatedly, intermittently |
खीझ उठता था | चिढ़ उठता था, झुंझला उठता था | বিরক্ত হয়ে উঠত (Birokto hoye uthto) | Would get irritated/annoyed |
गंडस्थल | गाल | গণ্ডস্থল (Gonḍosthol) | Cheek |
शरच्चंद्र | शरद ऋतु का चंद्रमा | শরৎচন্দ্র (Shorotchondro) | Autumn moon |
शुभ्र | सफेद, उज्ज्वल | শুভ্র (Shubhro) | White, bright |
मृणाल | कमल की डंडी, कमलनाल | মৃণাল (Mrinal) | Lotus stalk |
बाह्य आवरण | बाहरी परत, ऊपरी दिखावा | বাহ্যিক আবরণ (Bahyik aboron) | Outer covering, external appearance |
भेदकर | छेदकर, पार करके | ভেদ করে (Bhed kore) | Piercing through, penetrating |
भाव-रस | भावना का सार, आंतरिक रस | ভাবরস (Bhabros) | Emotional essence |
कृषीवल | किसान | কৃষক (Krishok) | Farmer |
निर्दलित | बिना रौंदा हुआ, बिना पीसा हुआ | নিষ্পেষিত নয় (Nishpeshito noy) | Uncrushed, unpressed |
ईक्षुदंड | गन्ने का डंडा | ইক্ষুদণ্ড (Ikkhudondo) | Sugarcane stalk |
अभ्रभेदी | आकाश को भेदने वाला, बहुत ऊँचा | আকাশভেদী (Akashbhedi) | Sky-piercing, very tall |
शिल्पकला | वास्तुकला, कला | শিল্পকলা (Shilpokola) | Architecture, craftsmanship |
गंतव्य स्थान | पहुँचने का स्थान, लक्ष्य | গন্তব্য স্থান (Gontobyo sthan) | Destination |
अतिक्रम | पार करना, उल्लंघन करना | অতিক্রম করা (Otirom kora) | To cross, to transcend |
चिलकती धूप | तेज़ धूप, चिलचिलाती धूप | তীব্র রোদ (Tibro rod) | Blazing sun, scorching sun |
बवंडर | आँधी, तूफान | ঘূর্ণিঝড় (Ghurṇijhoṛ) | Whirlwind, storm |
खून-खच्चर | रक्तपात, हिंसा | খুন-খারাবি (Khun-kharabi) | Bloodshed, massacre |
हूक उठती है | दर्द भरी कसक उठती है, टीस उठती है | হুক উঠা (Huk utha) | A pang of pain/longing arises |
‘शिरीष के फूल’ पाठ का सामान्य परिचय
यहाँ प्रस्तुत ललित निबंध शिरीष के फूल लेखक के संग्रह कल्पलता से उद्धृत है। इसमें लेखक आँधी, लू और गरमी की प्रचंडता में भी अवधूत की तरह अविचल होकर कोमल पुष्पों का सौंदर्य बिखेर रहे शिरीष के माध्यम से मनुष्य की अजेय जिजीविषा और तुमुल कोलाहल कलह के बीच धैर्यपूर्वक, लोक के साथ चिंतारत, कर्तव्यशील बने रहने को महान मानवीय मूल्य के रूप में स्थापित करता है। ऐसी भावधारा में बहते हुए उसे देह-बल के ऊपर आत्मबल का महत्त्व सिद्ध करने वाली इतिहास-विभूति गांधीजी की याद हो आती है तो वह गांधीवादी मूल्यों के अभाव की पीड़ा से भी कसमसा उठता है। निबंध की शुरुआत में लेखक शिरीष पुष्प की कोमल सुंदरता के जाल बुनता है, फिर उसे भेदकर उसके इतिहास में और फिर उसके ज़रिये मध्यकाल के सांस्कृतिक इतिहास में पैठता है फिर तत्कालीन जीवन व सामंती वैभव-विलास को सावधानी से उकेरते हुए उसका खोखलापन भी उजागर करता है। लेखक अशोक के फूल के भूल जाने की तरह ही शिरीष को नज़रअंदाज़ किए जाने की साहित्यिक घटना से आहत है और इसी में उसे सच्चे कवि का तत्त्व-दर्शन भी होता है। उसके अनुसार योगी की अनासक्त शून्यता और प्रेमी की सरस पूर्णता एक साथ उपलब्ध होना सत्कवि होने की एकमात्र शर्त है। ऐसा कवि ही समस्त प्राकृतिक और मानवीय वैभव में रमकर भी चुकता नहीं और निरंतर आगे बढ़ते जाने की प्रेरणा देता है।
शिरीष के पुराने फलों की अधिकार-लिप्सु खड़खड़ाहट और नए पत्ते-फलों द्वारा उन्हें धकियाकर बाहर निकालने में लेखक साहित्य, समाज व राजनीति में पुरानी और नयी पीढ़ी के द्वंद्व को संकेतित करता है तथा स्पष्ट रूप से पुरानी पीढ़ी और हम सब में नयेपन के स्वागत का साहस देखना चाहता है। इस निबंध का शिल्प इसी में चर्चित इक्षुदंड की तरह है – सांस्कृतिक संदर्भों व शब्दावली की भड़कीली खोल के भीतर सहज भावधारा के मधुरस से युक्त। यह हर तरह से आस्वाद्य और प्रयोजनीय है तथा इस प्रकार लेखक के प्रतिनिधि निबंधों में से एक है।
‘शिरीष के फूल’ पाठ का सारांश
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित निबंध ‘शिरीष के फूल’ एक ललित निबंध है, जिसमें लेखक ने शिरीष के फूल की तुलना एक ऐसे अवधूत (अनासक्त योगी) से की है जो ग्रीष्म की भीषण तपन सहकर भी खिला रहता है। लेखक ने इसके माध्यम से मनुष्य को यह संदेश दिया है कि उसे विपरीत स्थितियों में भी घबराना नहीं चाहिए अपितु कठिन से कठिन संकट का भी उसी प्रकार से सामना करना चाहिए अपितु कठिन से कठिन संकट का भी उसी प्रकार से सामना करना चाहिए जैसे जेठ की तपती दोपहरी में शिरीष फूलों से लदकर झूमते हुए अपनी मंद सुगंध चारों ओर बिखेरता रहता है।
शिरीष की प्रशंसा करते हुए लेखक लिखता है कि शिरीष ऐसा वृक्ष है जो छायादार होने के साथ ही अपने फूलों की महक वसंत के आगमन से लेकर भादों तक बिखेरता रहता है। जेठ की प्रचंड गर्मी को भी वह अपने कोमल फूलों के साथ झूम-झूम कर व्यतीत कर लेता है। गर्मी में जब अन्य वनस्पतियाँ तथा फूल आदि सूख जाते हैं। शिरीष कालजयी अवधूत के समान लहलहाता हुआ जीवन की अजेयता का संदेश देता रहता है। शिरीष के फूलों को इतना अधिक कोमल माना गया है कि ये केवल भँवरों के पैरों का बोझ ही सहन कर सकते हैं, पक्षियों का नहीं। फिर भी ये भीषण गर्मी को आसानी से झेल जाते हैं। कबीर और कालिदास को भी लेखक शिरीष के समान मानता है जो मस्ती, फक्कड़पन और मादकता में शिरीष के फूल के समान हैं। वे इन्हें अनासक्त योगी मानता है क्योंकि अनासक्त ही कवि हो सकता है। कबीर का फक्कड़पन और कालिदास का सौंदर्यबोध एवं मनोरम कल्पनाएँ शिरीष के समान ही हैं। सुमित्रानंदन पंत और टैगोर की भी वह शिरीष जैसी अनासक्ति से युक्त मानता है।
शिरीष के फूल जहाँ बहुत कोमल होते हैं, इसके फल बहुत कठोर होते हैं। वे अगली वसंत के आने तक भी गिरते नहीं हैं बल्कि सूख कर खड़खड़ाते रहते हैं। उन्हें नए पत्ते और नये फल ही धकेल कर उसी प्रकार से गिरा देते हैं जैसे बूढ़े नेताओं द्वारा कुर्सी खाली न करने पर उन्हें नए नेता पीछे धकेल देते हैं। अपने इस कथन से लेखक यह स्पष्ट करना चाहता है कि मनुष्य को अपनी अवस्था तथा स्थिति के अनुरूप कार्य करना चाहिए। समय की रफ्तार को पहचान कर स्वयं को उसी के अनुसार ढाल लेना चाहिए। अधिकार का लालच सदा नहीं बना रहना चाहिए। जिस प्रकार पुराने पत्ते झड़ जाते हैं तो नये पत्ते उनके स्थान पर आ जाते हैं उसी प्रकार से मनुष्य को भी कुर्सी से चिपके रहने के स्थान पर बुढ़ापा आने पर अपने उत्तराधिकारी की वह स्थान सौंप देना चाहिए। इस से युवा पीढ़ी को अनुभवी पीढ़ी को निर्देश में आगे बढ़ने का अवसर मिलता है। जिस प्रकार बचपन, जवानी, बुढ़ापा और मृत्यु एक सत्य है उसी प्रकार से मृत्यु के स्वागत के लिए भी सदा तैयार रहना चाहिए और उसके आकस्मिक रूप से आने से पहले ही सब प्रबंध कर देने चाहिए नहीं तो जैसे शिरीष के पुराने खड़खड़ाते फल को नये पत्ते और फल धकेल कर गिरा देते हैं वैसे ही अधिकार के लालची व्यक्ति को भी लोग धकेल देते हैं वह मनुष्य को गांधी जसै बनने के प्रेरणा देता है जो शिरीष के फूल के समान कोमल और शिरीष के फल के समान कठोर भी थें वे शिरीष के समान वातावरण से ही जीवन-वायु खींच कर संघर्ष करते हुए देश को स्वतंत्र कर सके थे।
इस प्रकार लेखक ने ‘शिरीष के फूल’ निबंध के माध्यम से मनुष्य को प्रेरित करते हुए यह कहा है कि उसे सुख-दुख में समभाव से रहते हुए जीवन संघर्ष से कभी निराश नहीं होना चाहिए, अपितु शिरीष के समान वायुमंडल से ही जीवन रस प्राप्त कर विपरीत स्थितियों का सामना उसी प्रकार से मुस्कराते हुए करना चाहिए जैसे शिरीष के फलू भीषण गर्मी में भी लहलहाते रहते हैं। कबीर विपरीत स्थितियों में भी अपने फक्कड़पन से समाज को अपना संदेश सुनाते रहे, कालिदास अनासक्त भाव से अपने सौंदर्य निरूपण में लगे रहे, गांधी जी अपने आस-पास के वातावरण से जीवन-रस प्राप्त कर विपरीत स्थितियों का सामना करते हुए विदेशियों से देश-स्वतंत्र कराने में सफल हुए। अतः वही व्यक्ति जीवन में सफल तथा महान बन सकता है जो शिरीष के समान वायुमंडल से रस खींचकर विपरीत स्थितियों में भी लहलहाता रहे और कोमलता तथा कठोरता का सहज मिश्रण हो। क्योंकि ऐसे अवधूत ही महान साहित्यकार, समाज सुधारक अथवा जननायक बन सकते हैं।
‘शिरीष के फूल’ पाठ पर बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर
- कविता में शिरीष के पेड़ कहाँ देखे गए हैं?
क. जंगल में
ख. लेखक के चारों ओर
ग. नदी के किनारे
घ. पहाड़ों पर
उत्तर – ख.
- जेठ की जलती धूप में शिरीष का क्या हाल था?
क. सूख गया था
ख. फूलों से लद गया था
ग. पत्ते गिर गए थे
घ. पूरी तरह जल गया था
उत्तर – ख.
- शिरीष के साथ कौन से पेड़ की तुलना नहीं की जा सकती?
क. कर्णिकार
ख. अमलतास
ग. पलाश
घ. बकुल
उत्तर – ख.
- पलाश कितने दिन फूलता है?
क. 15-20 दिन
ख. 10 दिन
ग. 30 दिन
घ. 5 दिन
उत्तर – ख.
- कबीरदास को पलाश की क्या आदत पसंद नहीं थी?
क. लंबे समय तक फूलना
ख. दस दिन फूलकर खंखड़ होना
ग. बहुत फूल देना
घ. कम फूल देना
उत्तर – ख.
- शिरीष कब तक मस्त बना रहता है?
क. वसंत तक
ख. आषाढ़ तक
ग. भादों तक
घ. सभी
उत्तर – घ.
- शिरीष को किसकी भाँति जीवन की अजेयता का मंत्र देने वाला बताया गया?
क. ऋषि
ख. कालजयी अवधूत
ग. योद्धा
घ. किसान
उत्तर – ख.
- शिरीष के फूलों से कवि के मन में क्या पैदा होता है?
क. क्रोध
ख. हिल्लोल (तरंग)
ग. उदासी
घ. डर
उत्तर – ख.
- पुराने भारत में शिरीष को किसके पास लगाया जाता था?
क. गरीबों
ख. रईसों
ग. किसानों
घ. साधुओं
उत्तर – ख.
- वृहतसंहिता में शिरीष का उल्लेख किस संदर्भ में है?
क. चिकित्सा
ख. वृक्ष-वाटिका
ग. युद्ध
घ. पूजा
उत्तर – ख.
- कामसूत्र में शिरीष की छाया का क्या उपयोग बताया गया?
क. झूला लगाने का
ख. फल उगाने का
ग. छिपने का
घ. पूजा का
उत्तर – क.
- शिरीष की डालें किसके वजन को सहन करती हैं?
क. भारी वजन
ख. हल्का वजन
ग. कोई वजन नहीं
घ. पत्थर का वजन
उत्तर – ख.
- संस्कृत-साहित्य में शिरीष के फूल को क्या माना गया?
क. मजबूत
ख. कोमल
ग. कठोर
घ. बेकार
उत्तर – ख.
- शिरीष के फूल कौन सा दबाव सहन करते हैं?
क. पक्षियों का
ख. भौरों का
ग. हवा का
घ. बारिश का
उत्तर – ख.
- कालिदास ने शिरीष के फूलों के प्रति क्या भाव रखा?
क. नफरत
ख. पक्षपात
ग. उदासीनता
घ. क्रोध
उत्तर – ख.
- शिरीष के फलों की क्या विशेषता है?
क. जल्दी गिर जाना
ख. मजबूत और डटे रहना
ग. कोमल होना
घ. रंगीन होना
उत्तर – ख.
- शिरीष के पुराने फलों की तुलना किससे की गई?
क. किसानों से
ख. नेताओं से
ग. बच्चों से
घ. सैनिकों से
उत्तर – ख.
- तुलसीदास ने जीवन-मृत्यु के सत्य को कैसे व्यक्त किया?
क. फूल खिलते हैं
ख. जो फरा सो झरा
ग. पेड़ हरे रहते हैं
घ. सूरज चमकता है
उत्तर – ख.
- शिरीष को कालाग्नि से बचने का क्या तरीका सुझाया गया?
क. जमे रहना
ख. हिलते-डुलते रहना
ग. सो जाना
घ. भाग जाना
उत्तर – ख.
- शिरीष का रस कहाँ से खींचा जाता है?
क. मिट्टी से
ख. वायुमंडल से
ग. नदी से
घ. हवा से
उत्तर – ख.
- शिरीष की तुलना किस महान व्यक्तित्व से की गई?
क. कबीर
ख. गांधी
ग. दोनों
घ. कोई नहीं
उत्तर – ग.
- कवि ने कवि बनने के लिए क्या सलाह दी?
क. धन कमाना
ख. फक्कड़ बनना
ग. लड़ाई करना
घ. सोचना बंद करना
उत्तर – ख.
- विज्जिका देवी ने कविता के संदर्भ में क्या कहा?
क. सभी कवि समान हैं
ख. केवल तीन महाकवि हैं
ग. कविता बेकार है
घ. कवि को धन चाहिए
उत्तर – ख.
- शकुंतला के चित्र में क्या कमी थी?
क. आँखें
ख. शिरीष का फूल
ग. मुस्कान
घ. कपड़े
उत्तर – ख.
- कालिदास के सौंदर्य-बोध का क्या आधार था?
क. बाहरी आवरण
ख. भीतरी गहराई
ग. धन
घ. शक्ति
उत्तर – ख.
- रवीन्द्रनाथ टैगोर ने फूल को क्या माना?
क. अंतिम गंतव्य
ख. इशारा
ग. बाधा
घ. सजावट
उत्तर – ख.
- शिरीष की अवधूतता देश की क्या स्थिति को दर्शाती है?
क. शांति
ख. मार-काट और अग्निदाह
ग. समृद्धि
घ. एकता
उत्तर – ख.
- कवि शिरीष को देखकर क्या महसूस करता है?
क. क्रोध
ख. हूक और अवधूत की याद
ग. खुशी
घ. उदासीनता
उत्तर – ख.
- शिरीष के फूलों की कोमलता और कठोरता का क्या संदेश है?
क. जीवन अनिश्चित है
ख. जीवन में संतुलन जरूरी है
ग. फूल बेकार हैं
घ. प्रकृति कमजोर है
उत्तर – ख.
- कविता में शिरीष को जीवन का क्या प्रतीक माना गया?
क. नाश
ख. अजेयता
ग. कमजोरी
घ. अंधकार
उत्तर – ख.
शिरीष के फूल पाठ पर आधारित एक वाक्य वाले प्रश्नोत्तर
प्रश्न – लेखक लेख कहाँ बैठकर लिख रहा है?
उत्तर – लेखक शिरीष के पेड़ों के बीच बैठकर लेख लिख रहा है।
प्रश्न – शिरीष किस ऋतु में अधिक फूलता है?
उत्तर – शिरीष वसंत से लेकर आषाढ़ तक अधिक फूलता है।
प्रश्न – लेखक के अनुसार शिरीष का फूल किसका प्रतीक है?
उत्तर – शिरीष का फूल जीवन की अजेयता का प्रतीक है।
प्रश्न – लेखक शिरीष की तुलना किन दो कवियों से करता है?
उत्तर – लेखक शिरीष की तुलना कबीर और कालिदास से करता है।
प्रश्न – लेखक ने किन फूलों की तुलना में शिरीष को श्रेष्ठ बताया है?
उत्तर – लेखक ने कर्णिकार और आरग्वध (अमलतास) की तुलना में शिरीष को श्रेष्ठ बताया है।
प्रश्न – आरग्वध कितने समय तक फूलता है?
उत्तर – आरग्वध लगभग पंद्रह-बीस दिन तक ही फूलता है।
प्रश्न – कबीर को पलाश का फूल क्यों पसंद नहीं था?
उत्तर – क्योंकि वह केवल दस दिन के लिए ही खिलता है और फिर मुरझा जाता है।
प्रश्न – लेखक के अनुसार शिरीष का फूल कब तक मस्त बना रहता है?
उत्तर – शिरीष का फूल आषाढ़ तक निश्चित रूप से मस्त बना रहता है।
प्रश्न – लेखक ने शिरीष के किस गुण को कालजयी अवधूत की तरह बताया है?
उत्तर – शिरीष की लू और उमस में भी खिलते रहने की क्षमता को।
प्रश्न – लेखक शिरीष के पुष्पों को देखकर क्या अनुभव करता है?
उत्तर – लेखक के मानस में हलचल-सी उत्पन्न होती है।
प्रश्न – पुराने भारत में शिरीष को कहाँ लगाया जाता था?
उत्तर – वृक्ष-वाटिका की चहारदीवारी के पास।
प्रश्न – वात्स्यायन ने किस स्थान पर झूला लगाने की सलाह दी है?
उत्तर – सघन छायादार वृक्षों की छाया में।
प्रश्न – लेखक ने कवियों की किस आदत की आलोचना की है?
उत्तर – कवियों की वजन का ध्यान न रखने की आदत की।
प्रश्न – कालिदास के अनुसार शिरीष पुष्प क्या सह सकता है?
उत्तर – केवल भौंरे के पदों का कोमल दबाव।
प्रश्न – शिरीष के फल कब तक पेड़ पर टिके रहते हैं?
उत्तर – जब तक नए फूल-पत्ते उन्हें हटा न दें।
प्रश्न – पुराने फल लेखक को किसकी याद दिलाते हैं?
उत्तर – उन नेताओं की जो समय का रुख नहीं समझते।
प्रश्न – लेखक के अनुसार झड़ना कब निश्चित है?
उत्तर – फलते ही झड़ना निश्चित हो जाता है।
प्रश्न – लेखक महाकाल को किस रूप में प्रस्तुत करता है?
उत्तर – एक कोड़े चलाने वाले रूप में।
प्रश्न – अवधूत शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर – जो मस्त, बेपरवाह और अनासक्त होता है।
प्रश्न – लेखक को शिरीष का रस खींचने का तरीका कौन बताता है?
उत्तर – एक वनस्पतिशास्त्री बताता है।
प्रश्न – कबीर और शिरीष में क्या समानता बताई गई है?
उत्तर – दोनों मस्त, बेपरवाह और सरस हैं।
प्रश्न – कवि बनने के लिए लेखक क्या आवश्यक मानता है?
उत्तर – फक्कड़पन और अनासक्ति।
प्रश्न – लेखक किस आधुनिक हिंदी कवि में अनासक्ति देखता है?
उत्तर – सुमित्रानंदन पंत में।
प्रश्न – कवि रवीन्द्रनाथ का ‘सिंहद्वार’ संबंधी कथन क्या दर्शाता है?
उत्तर – जीवन में आगे बढ़ने और लक्ष्य की ओर इशारा करने की भावना।
प्रश्न – लेखक के अनुसार फूल या पेड़ क्या हैं?
उत्तर – किसी अन्य सत्य की ओर इशारा करने वाली उंगली।
प्रश्न – शिरीष में कोमलता और कठोरता कैसे सह-अस्तित्व में हैं?
उत्तर – वह कोमल फूल और कठोर फल दोनों देता है।
प्रश्न – लेखक ने गांधी की तुलना किससे की है?
उत्तर – शिरीष के पेड़ से।
प्रश्न – लेखक को शिरीष की मस्ती क्या याद दिलाती है?
उत्तर – अवधूतों और सच्चे कवियों की अनासक्ति।
प्रश्न – कालिदास शकुंतला के चित्र में किस वस्तु को जोड़ना भूल गए थे?
उत्तर – शिरीष पुष्प और मृणाल का हार।
प्रश्न – लेखक के अनुसार कालिदास महान क्यों थे?
उत्तर – क्योंकि वे अनासक्त रहकर भी भाव-रस खींच सकते थे।
‘शिरीष के फूल’ पाठ पर आधारित दो-तीन वाक्य वाले प्रश्न और उत्तर
- प्रश्न – लेखक कहाँ बैठकर यह लेख लिख रहे हैं और उनके आस-पास कौन से पेड़ हैं?
उत्तर – लेखक जहाँ यह लेख लिख रहे हैं, उसके आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ शिरीष के अनेक पेड़ हैं।
- प्रश्न – जेठ की जलती धूप में शिरीष की क्या स्थिति थी?
उत्तर – जेठ की जलती धूप में जब धरती निर्धूम अग्निकुंड बनी हुई थी, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लद गया था।
- प्रश्न – लेखक ने किस फूल की तुलना शिरीष से नहीं की जा सकने की बात कही है और क्यों?
उत्तर – लेखक ने आरग्वध (अमलतास) की तुलना शिरीष से नहीं की जा सकने की बात कही है, क्योंकि वह केवल पंद्रह-बीस दिन फूलता है।
- प्रश्न – कबीरदास को किस तरह के फूलों का लहक उठना पसंद नहीं था?
उत्तर – कबीरदास को उन फूलों का लहक उठना पसंद नहीं था जो दस-पंद्रह दिन फूलकर फिर खंखड़ हो जाते हैं, जैसे पलाश।
- प्रश्न – शिरीष कब से कब तक निश्चित रूप से फूलता रहता है?
उत्तर – शिरीष बसंत के आगमन के साथ लहक उठता है और आषाढ़ तक निश्चित रूप से मस्त बना रहता है, मन रम गया तो भादों में भी फूलता है।
- प्रश्न – उमस और लू में शिरीष किस प्रकार जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचार करता है?
उत्तर – जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचार करता है।
- प्रश्न – पुराने भारत के रईस अपनी वृक्ष-वाटिका में शिरीष को क्यों लगाते थे?
उत्तर – पुराने भारत के रईस शिरीष को मंगल-जनक वृक्षों में से एक मानते थे और उसे अपनी वृक्ष-वाटिका की चहारदीवारी के पास लगाते थे।
- प्रश्न – वात्स्यायन ने ‘कामसूत्र’ में झूले (प्रेखा दोला) को कहाँ लगाने की बात कही है?
उत्तर – वात्स्यायन ने ‘कामसूत्र’ में वाटिका के सघन छायादार वृक्षों की छाया में ही झूला (प्रेखा दोला) लगाने की बात कही है।
- प्रश्न – संस्कृत-साहित्य में शिरीष के फूल को कैसा माना गया है?
उत्तर – संस्कृत-साहित्य में शिरीष के फूल को बहुत कोमल माना गया है, जो केवल भौरों के पैरों का कोमल दबाव सहन कर सकता है।
- प्रश्न – शिरीष के फलों की क्या विशेषता है, जो परवर्ती कवियों की भूल को दर्शाती है?
उत्तर – परवर्ती कवियों ने शिरीष के फूलों की कोमलता देखकर उसके सब-कुछ को कोमल समझा, पर उसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते।
- प्रश्न – लेखक शिरीष के पुराने फलों को देखकर किनकी बात याद करते हैं?
उत्तर – लेखक शिरीष के पुराने फलों को देखकर उन नेताओं की बात याद करते हैं, जो ज़माने का रुख नहीं पहचानते और धक्का मारकर निकाले जाने तक जमे रहते हैं।
- प्रश्न – तुलसीदास ने जरा और मृत्यु के बारे में क्या कहा है?
उत्तर – तुलसीदास ने जरा और मृत्यु को जगत के अतिपरिचित और अतिप्रामाणिक सत्य मानते हुए कहा है, “धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!”
- प्रश्न – शिरीष को अद्भुत अवधूत क्यों कहा गया है?
उत्तर – शिरीष को अद्भुत अवधूत इसलिए कहा गया है क्योंकि वह सुख-दुख में हार नहीं मानता और भयंकर गर्मी में भी वायुमंडल से रस खींचकर मस्त रहता है।
- प्रश्न – कर्णाट-राज की प्रिया विज्जिका देवी ने गर्वपूर्वक क्या कहा था?
उत्तर – विज्जिका देवी ने कहा था कि ब्रह्मा, वाल्मीकि और व्यास के अतिरिक्त कोई कवि होने का दावा करे तो वह उनके सिर पर अपना बायाँ चरण रखती हैं।
- प्रश्न – कालिदास सौंदर्य के बाह्य आवरण को भेदकर भीतर तक कैसे पहुँच सकते थे?
उत्तर – कालिदास सौंदर्य के बाह्य आवरण को भेदकर भीतर तक पहुँच सकते थे क्योंकि वे अनासक्त कृषीवल की भाँति निर्दलित ईक्षुदंड से भी रस निकाल लेते थे।
‘शिरीष के फूल’ पाठ पर आधारित दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
- कविता में शिरीष के फूलों का वर्णन कैसे किया गया है?
उत्तर – कविता में शिरीष के फूलों को जेठ की जलती धूप में भी फूलने वाला साहसी पेड़ बताया गया है। यह नीचे से ऊपर तक फूलों से लदा रहता है, जबकि अन्य फूल जैसे कर्णिकार और अमलतास कम फूलते हैं। शिरीष वसंत से आषाढ़ तक मस्त रहता है और भादों में भी फूलता है, उमस और लू में जीवन की अजेयता का मंत्र देता है। इसकी कोमलता और कठोरता दोनों प्रशंसनीय हैं।
- शिरीष को अन्य पेड़ों से अलग क्यों माना गया है?
उत्तर – शिरीष को अन्य पेड़ों जैसे पलाश, अमलतास से अलग माना गया क्योंकि यह जेठ की गर्मी में भी फूलता है, जबकि पलाश मात्र दस दिन फूलकर खंखड़ जाता है। शिरीष वसंत से आषाढ़ तक और कभी भादों में भी फूलता है, अपनी अजेयता दिखाता है। कबीरदास को पलाश की अल्पकालिक लहक पसंद नहीं, पर शिरीष की लंबी मस्ती उसे श्रेष्ठ बनाती है।
- कविता में शिरीष को अवधूत की संज्ञा क्यों दी गई है?
उत्तर – शिरीष को अवधूत कहा गया क्योंकि यह दुख-सुख में हार नहीं मानता। जेठ की लू और उमस में भी वायुमंडल से रस खींचकर कोमल फूल उगाता है, जो जीवन की अजेयता का प्रतीक है। यह मस्त और बेपरवाह रहता है, जैसे कबीर और कालिदास की अनासक्ति। गांधी की तरह कठोर और कोमल, शिरीष प्राकृतिक और मानवीय संकल्प का प्रतीक है।
- कालिदास और शिरीष के फूलों का संबंध कविता में कैसे दिखाया गया है?
उत्तर – कविता में कालिदास को शिरीष के फूलों से जोड़ा गया है, क्योंकि उन्होंने इसे भौरों के कोमल दबाव सहने वाला पुष्प बताया। कालिदास का शिरीष पर पक्षपात था, जो उनकी अनासक्ति और सौंदर्य-बोध को दर्शाता है। शकुंतला के कानों में शिरीष के फूल भूलने का उल्लेख उनकी गहराई को दिखाता है। कवि भी इस कोमलता से प्रभावित है, कालिदास की तरह अनासक्त हृदय से प्रेरित।
- शिरीष के फूलों से कवि ने समाज और नेताओं की क्या तुलना की है?
उत्तर – कवि ने शिरीष के पुराने फलों को, जो नए फूलों द्वारा हटाए जाते हैं, नेताओं से तुलना की है, जो समय का रुख न समझकर जमे रहते हैं। जैसे फल धक्का खाकर गिरते हैं, वैसे ही नई पीढ़ी पुराने नेताओं को हटाती है। यह समय और मृत्यु के सत्य को दर्शाता है, जहाँ तुलसीदास की “फरा सो झरा” पंक्ति सटीक बैठती है, समाज को जागरूक करने का संदेश देती है।
- शिरीष के वृक्ष की छाया का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व क्या है?
उत्तर – शिरीष की छाया को ऐतिहासिक रूप से पुराने भारत के रईसों ने अपनी वाटिका में लगाया, जहाँ अशोक, पुन्नाग जैसे पेड़ों के साथ यह मनोहर लगता था। वृहतसंहिता और कामसूत्र में इसे झूला लगाने योग्य सघन छाया वाला वृक्ष माना गया। कवि कहते हैं कि इसकी कमजोर डालें भी हल्के वजन को सहन करती हैं, जो सांस्कृतिक सौंदर्य और उपयोगिता को दर्शाता है।
- कविता में शिरीष के फूलों की कोमलता और कठोरता का वर्णन कैसे है?
उत्तर – शिरीष के फूलों की कोमलता कालिदास द्वारा भौरों के दबाव सहने में और कवि के मानस में हिल्लोल पैदा करने में दिखती है। कठोरता इसके फलों में है, जो नए फूलों के बावजूद डटे रहते हैं, धक्का खाकर ही हटते हैं। यह जीवन की दोहरी प्रकृति—सौंदर्य और मजबूती—को दर्शाता है, जो कवि को नेताओं और प्रकृति से जोड़ता है।
- कवि ने शिरीष के माध्यम से जीवन और मृत्यु के सत्य को कैसे व्यक्त किया?
उत्तर – कवि ने शिरीष के फूलों के फलने और झड़ने से जीवन-मृत्यु का सत्य व्यक्त किया। तुलसीदास की “फरा सो झरा” पंक्ति से प्रेरित होकर कहते हैं कि फूल समझ लें कि झड़ना निश्चित है। पुराने फलों का धक्का खाना और कालाग्नि का संघर्ष जीवन की अस्थायीता को दर्शाता है। शिरीष की मस्ती इस सत्य को स्वीकार कर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है।
- शिरीष को गांधी से जोड़ने का कवि का तर्क क्या है?
उत्तर – कवि शिरीष को गांधी से जोड़ता है क्योंकि दोनों वायुमंडल से रस खींचकर कोमल और कठोर बने। शिरीष लू में भी फूलता है, जैसे गांधी कठिनाइयों में अहिंसा और सत्य से लड़े। दोनों अवधूत की भाँति मस्त और बेपरवाह हैं, जो देश की मार-काट में भी स्थिर रहे। कवि की हूक—गांधी कहाँ है—शिरीष के माध्यम से उनके अवदान को याद करती है।
- कविता में कवि ने अनासक्त कवि होने की बात क्यों कही?
उत्तर – कवि ने अनासक्त कवि होने की बात कालिदास, कबीर और पंत जैसे महाकवियों से प्रेरित होकर कही। शिरीष की मस्ती और अनासक्ति से वे कहते हैं कि कवि को फक्कड़ और बेपरवाह रहना चाहिए, जैसे शिरीष वायुमंडल से रस लेकर फूलता है। जो लेखा-जोखा में उलझे, वे सच्चे कवि नहीं। विज्जिका देवी का उपालंभ और कालिदास की गहराई इस संदेश को मजबूत करती है।