Path 2.1: Chhattisgarhi Lokgeet, Lekh, Dr. Jeevan Yadu, Class IX, Hindi Book, Chhattisgarh Board, The Best Solutions.

डॉ. जीवन यदु – लेखक परिचय

लोकसाहित्य के अध्येता और छत्तीसगढ़ के प्रमुख गीतकारों में एक विशेष नाम है डॉ. जीवन यदु का। उनका जन्म 1 फरवरी सन् 1947 ई. को खैरागढ़ में हुआ। आपकी प्रारंभिक शिक्षा भी यहीं हुई। ‘लोकसाहित्य में आपको डॉक्टरेट की उपाधि मिली, कविता आपकी मुख्य विधा है, पर विचारपरक लेख भी आपने बहुत लिखे हैं। झील की मुक्ति के लिए (काव्य संग्रह), अनकहा है जो तुम्हारा (गीत संग्रह), छत्तीसगढ़ी कविता – संदर्भ एवं मूल्य (आलोचना), अइसनेच रात पहाही (छत्तीसगढ़ी काव्य नाटिका) तथा धान के कटोरा (कविता संग्रह) आपकी प्रमुख कृतियाँ हैं। नवसाक्षरों के लिए लिखी आपकी रचनाएँ भी प्रकाशित हुई हैं। वर्तमान में खैरागढ़ में ही निवासरत हैं। प्रस्तुत लेख उनके निबंध संग्रह लोकस्वप्न में लिलिहंसा से लिया गया है।

पाठ परिचय

डॉ. जीवन यदु द्वारा लिखित लेख छत्तीसगढ़ी लोकगीत हमें छत्तीसगढ़ी लोकगीतों की समृद्ध परंपरा से परिचित कराकर सौंदर्यबोध का विकास करने और इस अनूठी संस्कृति को इसकी विविधता और समृद्धि सहित बचाए रखने हेतु प्रेरित करता है।

छत्तीसगढ़ी लोकगीत

लोकगीत ‘लोक’ की आंतरिकता का लयबद्ध और संगीतबद्ध अभिव्यक्ति है। ‘लोक’ ने अपनी जिस आंतरिकता के प्रकाशन के लिए विभिन्न माध्यम अपनाए, वह आंतरिकता युगीन व्यवस्थाओं के दबावों से कभी मुक्त नहीं रही और न कभी हो सकती है। अतः लोकगीत ‘लोक’ की सांस्कृतिक यात्रा का ऐसा साक्षी है, जो अपनी परंपरा में नवीनता का पक्षधर है। आज के लोकगीत-संगीत आदिम गीत-संगीत नहीं हैं, यद्यपि उन्होंने उनसे रस अवश्य ग्रहण किया होगा। मनुष्य के शिकारी जीवन से निकलकर पशुपालक व्यवस्था में प्रवेश करने के बाद ही लोकगीत और लोकसंगीत ने रूप ग्रहण किया था। फिर वे कृषि व्यवस्था और सामंती व्यवस्था को पार कर, आज इस जटिल युग में अपने परिवर्तित रूप में पहुँचे हैं। लोक की आंतरिकता पर उन सभी व्यवस्थाओं का असर रहा है। लोकगीतों में उन व्यवस्थाओं की स्मृतियाँ, अवशेषादि इसीलिए आज भी मिलते हैं। उन व्यवस्थाओं को लेकर लोकमानस पर जो प्रतिक्रियाएँ हुईं, उन्हीं से लोक साहित्य सृजित हुआ, जिसका एक बड़ा हिस्सा संगीतमय है।

चूँकि लोकमानस एक-सा होता है, अतः लोकगीतों के आंतरिक एवं बाह्य बुनावट को क्षेत्रान्तर अधिक प्रभावित नहीं करता। किसी विशिष्ट व्यवस्था में रहते हुए दुख और सुख की असुरक्षा और संघर्ष की, जय और पराजय की अनुभूतियों का कलात्मक प्रकटीकरण लोक की सांस्कृतिक अनिवार्यता है। अतः यदि हम छत्तीसगढ़ क्षेत्र के लोकगीतों का अध्ययन करें, तो भी सारे क्षेत्रों के लोकगीतों की मूल प्रकृति, बनावट, बुनावट गुण-धर्म आदि स्पष्ट हो जाएँगे।

लोकगीत चूँकि सामाजिक व्यवस्थाओं और परंपराओं की देन हैं और उनकी रचना किसी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा न होकर, उन सामान्य व्यक्तियों द्वारा होती है जिनका व्यक्तित्व सामाजिक व्यक्तित्व में पूरे तौर पर रूपान्तरित अथवा समाहित हो चुका है। लोकगीतकारों और लोकगायकों के माध्यम से एक पूरी जाति अपनी बात समवेत सुर में रखती है। यही कारण है कि लोकगीतों में व्यक्ति विशेष के बदले पूरी जाति का व्यक्तित्व परिलक्षित होता है।

लोकगीतों में ऐसे गीतों का मिलना असंभव नहीं, तो मुश्किल ज़रूर है, जो अकेले आदमी की पुकार या ‘अरण्यरोदन’ बनकर लांछित हों। क्योंकि :

“डहर म रेंगय, हलाए डेरी हाथ।

अकेल्ला झन रेंगबे, बनाले संगी साथ॥”

(भावार्थ- बायाँ हाथ हिलाते हुए राह में अकेले मत चलो, किसी को अपना साथी बना लो।)

– जैसे विचारों को लेकर लोक जीवन चलता है।

दीपावली के अवसर पर छत्तीसगढ़ में ‘सुआगीत गाने की परंपरा है। चूँकि लोकगीतों में सुख और दुख दोनों का सामाजीकरण होता है, अतः सुआगीत की नारी पीड़ा समूची नारी जाति की पीड़ा बन जाती है।

“चंदा सुरुज तोर पैंया परत हँव,

तिरिया जनम झन देबे न रे सुआ न।

पहली गवन करि डेहरी बैठारे न रे सुआ न

धनि छोड़ चले बनिझार॥”

(भावार्थ- हे चाँद और सूरज, मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ अगले जन्म में मुझे स्त्री मत बनाना। गौना कराने के बाद मैं पहली बार अपने पति के घर आई हूँ, और मेरे पति है, कि मुझे यहाँ अकेली छोड़कर खुद काम पर चले गए हैं।)

“तुलसी के बिरवा जब झुरमुर होइ है,

रे सुआ न, मोर मयारू गए रन जूझ॥”

यह और बात है कि सुआगीत की नारी पीड़ा मध्य युगीन नारी-पीड़ा है, तब नारी होना अपने आप में पीड़ादायक बात मानी जाती थी। उन नारियों की करुणा लोकमानस में लगातार घुल रही है। इससे एक बात और स्पष्ट होती है, कि लोकगीतों में इतिहास छुपा होता है, उनके भावों में ही नहीं, उनके शब्दों में भी इतिहास की झलक होती है-

“पान खाय सुपारी खाय

सुपारी के

दुइ फोरा।

रंग- महल में बइठो मालिक

राम-राम लौ मोरा।”

‘राउत नाचा’ के इस दोहे में दो शब्द ‘रंगमहल’ और ‘मालिक’ सामंती व्यवस्था की याद दिलाते हैं, जो लोकमानस में घुल-मिल गए हैं।

लोकगीतों के शब्द और धुन, दोनों में मस्ती होती है। लोकजीवन उस मस्ती का अमृत पीकर अपने दुख को भी भूल जाता है। शृंगार और प्रेम की खुली अभिव्यक्ति लोकजीवन की उसी मस्ती का परिणाम है।

“बटकी म बासी अउ चुटकी म नून,

मैं गावत हौं ददरिया, तैं कान दे के सुन।”

लोकजीवन ‘नून और बासी खाकर भी ददरिया की मस्ती में डूब सकता है, शृंगार का सृजन कर सकता है और प्रेम को शब्द दे सकता है।

“अमली के लकड़ी, काटे म कटही।

तोर मोर पिरीत हा मरे म छुटही॥”

पूर्व में कहा जा चुका है कि लोकगीत लोक की सांस्कृतिक यात्रा का साक्षी है। लोकसंस्कारों की पूरी छाप लोकगीतों पर होती है, उनमें न केवल स्थूल लोकसंस्कार (कर्मकांड) ही प्रदर्शित होते हैं, वरन ऐसे लोकसंस्कार भी चित्रित होते हैं जो लोकस्वभाव में घुस कर लोकचरित्र में शामिल हो चुके हैं। उदाहरण के तौर पर विवाह संस्कार का यह गीत लिया जा सकता है-

“ददा तोर लानिथै हरदी – सुपारी वो,

दाई लानय तिला तेल।

कोन चढ़ाथय तोर मन भर हरदी वो,

कोन देवय अँचरा के छाँव।

फुफू चढ़ावै तोर तन भर हरदी वो,

दाई देवय अँचरा के छाँव।”

(भावार्थ – तुम्हारे पिता हल्दी- सुपारी लाते हैं और माँ तिल का तेल लाती है। कौन तुम्हें मन भर हल्दी चढ़ाएगा? कौन तुम्हें अपने आँचल की छाँव देगा? बुआ तुम्हारे तन पर हल्दी चढ़ाएगी और माँ अपने आँचल की छाँव देगी।)

इसी तरह इस गीत में सारे रिश्तेदारों को जगह दी जाती है। यदि हम इसमें गहरे उतरें तो लोकस्वभाव को देख और समझ पाएँगे। सहयोग लोक का स्वभाव है। विवाह जैसे कार्यों में सारे रिश्तेदारों का सहयोग होता है। उस सहयोग को लोकगीतकार सूक्ष्मता से रेखांकित करता है। ऐसे गीत आत्मीय वातावरण निर्मित करने में सक्षम होते हैं। इसी तरह एक विवाह गीत में रिश्तों के सर्वमान्य स्वभाव को रेखांकित किया गया है।

लोकगीत जनजीवन को पूरी बारीकी से खोलते हैं। यद्यपि वे अपनी ऊपरी परत से सामान्य लगते हैं, लेकिन उनमें लोकजीवन के संस्कार, व्यवहार और स्वभाव की गहराई होती है।

“देतो दाई, देतो दाई अस्सी वो रुपैया,

सुंदरी ला लातेव मैं बिहाय।

“तोर बर लानहूँ दाई रँधनी – परोसनी,

मोर बर घर के सिंगार।”

उपरांकित नहडोरी गीत में नायक अपनी माँ से निवेदन करता है कि हे माँ! मुझे अस्सी रुपए दे दो, जिससे मैं सुंदरी को ब्याह कर, आपके लिए राँधने-परोसने वाली और अपने घर का शृंगार ला सकूँ। इन चार पंक्तियों में कई बातें स्पष्ट होती हैं। पहले तो यह कि लोकजीवन में विवाह ज्यादा खर्चीला नहीं होता नायक अस्सी रुपए में सुंदरी नायिका से विवाह कर सकता है। यह तब की कल्पना हो सकती है, जब लोकजीवन में अस्सी रुपए का कोई बड़ा अर्थ रहा होगा। दूसरी बात यह कि उस विवाह से, नायक अपने लिए सिर्फ पत्नी ही नहीं लाएगा, अपनी माँ के लिए राँधने – परोसनेवाली भी लाएगा। वह ‘राँधने – परोसनेवाली’ उसकी पत्नी ही नहीं, उस घर का शृंगार भी होगी। इस तरह इससे छत्तीसगढ़ के लोकजीवन की आर्थिक स्थिति, लोकजीवन का स्वप्न, लोक जीवन की भीतरी आत्मीय दुनिया आदि एक साथ स्पष्ट होते हैं।

लोकगीत सहज संप्रेष्य होते हैं। इसके कुछ कारण हैं- पहला, लोकगीत किसी एक व्यक्ति की अभिव्यक्ति नहीं हैं। दूसरा, लोकगीत समूह की मानसिकता पर आधारित होते हैं। तीसरा, लोकगीत विचारों के वाहक ही नहीं, रंजन का साधन भी हैं और चौथा, लोकजीवन की सहजता लोकगीतों को असहज नहीं होने देती। ‘जँवारा-गीत’ की निम्नांकित पंक्तियाँ इसकी पुष्टि करती हैं-

“माता फूल गजरा गूँथव हो मालिन के

देहरी, हो फूल गजरा।

काहेन फूल के गजरा, काहेन फूल के हार।

काहेन फूल के तोर माथ मटुकिया, सोलहों सिंगार।

चंपा फूल के गजरा चमेली फूल के हार।

चमेली फूल के माथ मटुकिया, सोलहों सिंगार।”

इस लोकगीत में अध्यात्म या भक्ति के स्थान पर लोकजीवन में देवी माँ की कल्पना भी सादगीपूर्ण है- अपनी खुद की माँ की तरह सोने-चाँदी के गहनों के स्थान पर फूलों के गहने हैं, जो लोक को सुलभ है, वही लोक का सत्य है। लोक की सादगी ही लोक का ऐश्वर्य है। एक व्यक्ति की अभिव्यक्ति में ऐश्वर्य का रूप इससे अलग होता है। वह अभिव्यक्ति सहज संप्रेष्य नहीं होती है। समूह की मानसिकता पर आधारित होने के कारण लोकगीतों में जीवन के व्यवहारों का सामान्यीकरण हो जाता है। अतः हर आदमी के हृदय को गीत के लय और शब्द छू सकें।

लोकगीतों में बहुत से गीत ऐसे मिलेंगे जिनमें चित्रों की रचना हुई है। कथात्मक गीतों में यह बात निश्चित रूप से होती है। लोकगीतकार चित्रों की रचना इस तरह करते हैं कि श्रोताओं को वह घटना अपनी आँखों के सामने घटती-सी प्रतीत होती है। पंडवानी की इन पंक्तियों को बतौर उदाहरण रख सकते हैं-

“रानी के नेवता कीचक पावे जी,

साजे सिंगार राजा चलत हावै न,

माथे म मुकुट राजा बाँधत हावै जी,

काने म कुंडल राजा पहिरत हावै जी,

गले में गजमुक्ता के हार सोहै जी,

इन पंक्तियों में विराट राजा महाबाहु के साले और राज्य के सेनापति कीचक के उस शृंगार का चित्रात्मक वर्णन है, जिसे उसने सैरंध्री (द्रौपदी) के कक्ष में जाते समय धारण किया था। इसी तरह पंडवानी’ के सेना- प्रयाण के दृश्य को लोक गीतकार ने चित्र और ध्वनि के माध्यम से उभारा है।

लुहँगी, साँप सँलगनी,

हाथी हदबद, गदहा गदबद,

घोड़ा सरपट, पैदल रटपट,

सेना करिन पयान।’

चूँकि लोकप्रकृति ‘मुक्ति’ की हामीदार है, मोक्ष की नहीं। अतः लोकसाहित्य में आए चमत्कारी देवता-लोक को भौतिक सुविधा प्रदान करने वाले लगते हैं। गोपालक जातियाँ ‘बाँस गीत’ गाती हैं-

“पहली धरती अउ पिरथी दूसर बंदव अहिरान

तीसर बंदव गाय- भुँइस ला, काटय चोला के अपराध।

चौथे बंदव नोई कसेली, राउत के करे प्रतिपाल।

पंचहे बंदव अहिर पिलोना, जनमें हे गोपी गुवाल।”

(भावार्थ- पहले धरती को प्रणाम करता हूँ, दूसरा प्रणाम सभी अहीरों को तीसरा प्रणाम गाय-भैंसों को करता हूँ जिनकी सेवा से पाप कट जाते हैं, चौथा प्रणाम नोई और कसेली को जिनसे मेरी आजीविका चलती है, पाँचवें यादव कुल को प्रणाम जिसमें श्रीकृष्ण और गोपी ग्वालों का जन्म हुआ था।)

‘मतराही जाने से पहले राउत अपने घर का भार अपने गृह देवता पर इस तरह डालता है, जैसे वे उसके घर के कोई बुजुर्ग हों-

बोकरा लेबे के भेड़ा रे, या लेबे रकत के धार,

मैं तो जावत हौं मतराही, तोला लगे हे घर के भार।”

(भावार्थ- हे गृह देवता ! तुम चढ़ावे के रूप में चाहे तो बकरा ले लो या चाहो भेड़ ले लो या फिर मेरे रक्त की धार ही ले लो। चूँकि मैं मतराही जा रहा हूँ इसलिए घर की सारी जिम्मेदारी अब तुम्हारी है।)

लोकगीतकारों ने संसार की वास्तविकता को स्वीकार करते हुए इसी तरह जगत को सत्य माना है। “हरदाही – गीत’ की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-

“खेल ले गोंदा जियत भर ले।

ये चोला नइ आवय घेरी-बेरी।”

लोकगीतों में विरोध का स्वर व्यंग्य में फूटता है। जमींदारी प्रथा से पीड़ित व्यक्ति अपने विरोध को प्रकट करने का मौका ढूँढ ही लेता है। ‘मँड़ई’ के समय राउत अपने दोहे में ‘ठाकुर’ को भी नहीं बख्शता-

“गाय बइला के सींग म, मैं हा देखँव माटी।

ठाकुर पहिरे सोना चाँदी ठकुराइन पहिरे घाँटी।”

इस तरह एक दोहे का उदाहरण और लिया जा सकता है-

“जइसे मालिक लिये दिये, तइसे देबो असीस।”

इस पंक्ति में लिये दिये’ और ‘तइसे देबों’ शब्द का एक विशिष्ट संबंध बनाकर वे व्यंग्यार्थ प्रकट करते हैं। यदि ठीक-ठाक लिया-दिया गया होगा, तभी हृदय से आशीर्वाद मिल सकता है, वरना नहीं।

लोकसाहित्य अपने परिवर्तन में ही विकास पाता है। वह इतिहास का हम कदम होता है। लोकगीतकार जब अपने युगबोध को स्वर देता है तब-

“पीपर के पाना हलर- हइया।

अँगरेजवा के राज कलर कइया।”

या

“नरवा के तिर हा दिखत हे हरियर।

टोपी वाला नइ दिखय बदे हौं नरियर।”

(भावार्थ- नदी के किनारे हरे-भरे हो गए हैं, मुझे टोपी वाला नहीं दिख रहा है इसके लिए मैंने नारियल के साथ मन्नत माँगी है।)

जैसी रचनाएँ लोकजीवन को आंदोलित करने लगती हैं। नाचा – गम्मतों में लोकगायक ज्वलंत समस्याओं को लेकर जीवंत अभिव्यक्ति देते हैं। इस तरह छत्तीसगढ़ी लोकगीतों के माध्यम से हम यहाँ के समग्र लोकजीवन और लोकसंस्कृति को समझ सकते हैं।

 

सारांश

छत्तीसगढ़ी लोकगीत लोकमानस की सांस्कृतिक, सामाजिक, और ऐतिहासिक यात्रा का जीवंत दस्तावेज हैं। ये गीत सामाजिक व्यवस्थाओं, परंपराओं, और लोकजीवन के सुख-दुख को संगीतमय रूप में व्यक्त करते हैं। इनमें शिकारी, पशुपालक, कृषि, और सामंती व्यवस्थाओं के प्रभाव दिखते हैं। सुआगीत, राउत नाचा, ददरिया, और विवाह गीत जैसे लोकगीतों में नारी पीड़ा, प्रेम, शृंगार, और सामाजिक सहयोग की भावना झलकती है। ये गीत सामूहिक मानसिकता को दर्शाते हैं, जहाँ व्यक्तिगत भावनाएँ सामाजिक व्यक्तित्व में समाहित हो जाती हैं। लोकगीतों में इतिहास, संस्कार, और व्यंग्य के माध्यम से सामाजिक व्यवस्था पर टिप्पणी भी होती है। ये सहज, संप्रेष्य, और चित्रात्मक होते हैं, जो लोकजीवन की सादगी और मस्ती को उजागर करते हैं।

 

शब्दार्थ

साक्षी – गवाह

लोकजन – आम जनता

बाह्य – बाहरी

क्षेत्रांतर – क्षेत्रों के बीच अंतर

रूपांतरित – परिवर्तित

परिलक्षित – दिखाई

लांछित – कलंकित

डहर – रास्ता

डेरी – बायाँ

झन रेंगबे – मत चलना;

झुरमुर – मुरझाना

मयारू प्रिय

नून – नमक

दुइ फोरा – फोड़कर दो भाग किया हुआ

फुफू – बुआ

रंधनी – पकाने की (का)

परोसनी – परोसने की

मटुकिया – मुकुट

घाँटी – लोहे की बड़ी घंटी जो पशुओं के गले में पहनाई जाती है

असीस – आशीष

कलर-कइया – झगड़ा कलह

नोई – गाय बाँधने की रस्सी

कसेली- दूध दुहने का बर्तन

मतराही – यादव जाति के द्वारा भाईदूज के दिन मनाया जाने वाला पर्व (मातर – पर्व)

नहडोरी – विवाह के समय वर या वधू के स्नान की प्रक्रिया

 

शब्द

हिंदी अर्थ

English Meaning

लोकमानस

सामूहिक जन-चेतना

Collective consciousness of the people

आंतरिकता

भीतरी भाव या स्वभाव

Inner essence or nature

युगीन

युग से संबंधित

Related to an era

साक्षी

गवाह, प्रमाण

Witness, evidence

परंपरा

रीति-रिवाज

Tradition

नवीनता

नयापन

Novelty

आदिम

प्राचीन, प्रारंभिक

Primitive, ancient

सामंती

जमींदारी व्यवस्था से संबंधित

Feudal

बुनावट

संरचना, बनावट

Structure, composition

सामाजीकरण

सामाजिक रूप देना

Socialization

अरण्यरोदन

जंगल में एकाकी रोना

Crying alone in the wilderness

सुआगीत

सुआ नृत्य के साथ गाए जाने वाले गीत

Songs sung with Sua dance

मयारू

प्रिय, पति

Beloved, husband

रंगमहल

सुसज्जित भवन

Ornate palace

मस्ती

उत्साह, आनंद

Exuberance, joy

संस्कार

रीति-रिवाज, संस्कृति

Rituals, cultural practices

सहज

स्वाभाविक, सरल

Natural, simple

संप्रेष्य

संदेश पहुँचाने योग्य

Communicative

चित्रात्मक

चित्रों जैसा जीवंत

Pictorial, vivid

व्यंग्य

कटाक्ष, तंज

Satire, irony

अभ्यास

पाठ से

  1. क्षेत्रीय लोकगीतों में पाई जाने वाली समानताएँ क्या-क्या हो सकती हैं?

उत्तर – पाठ के अनुसार, लोकमानस एक जैसा होता है, इसलिए क्षेत्रीय लोकगीतों की आंतरिक और बाह्य बुनावट में अधिक अंतर नहीं होता। सभी क्षेत्रों के लोकगीतों में सुख-दुख, असुरक्षा-संघर्ष और जय-पराजय जैसी सामान्य मानवीय अनुभूतियों का कलात्मक प्रकटीकरण होता है। ये गीत सामाजिक व्यवस्थाओं और परंपराओं की देन होते हैं और पूरी जाति या समूह की भावनाओं को व्यक्त करते हैं।

  1. सुआगीत की विशेषताएँ लिखिए।

उत्तर – सुआगीत की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

यह गीत दीपावली के अवसर पर छत्तीसगढ़ की महिलाओं द्वारा गाया जाता है।

इसमें महिलाएँ अपनी व्यक्तिगत पीड़ा को पूरी नारी जाति की पीड़ा के रूप में प्रस्तुत करती हैं, जिससे सुख-दुख का समाजीकरण होता है।

इन गीतों में मध्ययुगीन नारी की करुणा और वियोग की पीड़ा व्यक्त होती है, जहाँ वे अपने भाग्य को कोसती हैं और अगले जन्म में स्त्री न बनने की कामना करती हैं।

  1. राउत नाचा के दोहों में से उदाहरणार्थ कोई दोहा लिखिए जिससे सामंती व्यवस्था की याद आती हो।

उत्तर – राउत नाचा का वह दोहा जिससे सामंती व्यवस्था की याद आती है:

“पान खाय सुपारी खाय

सुपारी के दुइ फोरा।

रंग- महल में बइठो मालिक

राम-राम लौ मोरा।”

इस दोहे में आए ‘रंगमहल’ और ‘मालिक’ जैसे शब्द सामंती व्यवस्था के प्रतीक हैं।

  1. ‘मतराही’ क्या है?

उत्तर – ‘मतराही’ (मातर पर्व) यादव जाति द्वारा भाई दूज के दिन मनाया जाने वाला एक पारंपरिक पर्व है।

  1. छत्तीसगढ़ के भक्ति संबंधी लोकगीत कौन-कौन से हैं?

उत्तर – पाठ के अनुसार, छत्तीसगढ़ के भक्ति संबंधी लोकगीतों में देवी-देवताओं की कल्पना सादगीपूर्ण और लोक-सुलभ होती है। इसके कुछ उदाहरण हैं –

जँवारा-गीत – इसमें देवी माँ का फूलों से शृंगार किया जाता है।

बाँस गीत – इसमें धरती, गाय-भैंस, और अपने कुल-देवताओं की वंदना की जाती है।

गृह-देवता के गीत – जैसे मतराही पर जाने से पहले राउत अपने गृह-देवता को घर की जिम्मेदारी सौंपता है।

  1. लोकगीत सहज संप्रेष्य क्यों होते हैं?

उत्तर – लोकगीत सहज संप्रेष्य इसलिए होते हैं क्योंकि –

ये किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि समूह की मानसिकता की अभिव्यक्ति होते हैं।

ये केवल विचारों के वाहक नहीं, बल्कि मनोरंजन का साधन भी हैं।

लोकजीवन की सहजता और सादगी इन्हें जटिल या असहज नहीं होने देती, जिससे हर व्यक्ति इनसे आसानी से जुड़ जाता है।

  1. पाठ में दिए गए कौन-कौन से लोकगीत पर्वों से संबंधित हैं?

उत्तर – पाठ में निम्नलिखित पर्वों से संबंधित लोकगीतों का उल्लेख है –

  • सुआगीत – दीपावली
  • राउत नाचा – दीपावली के बाद (मातर पर्व)
  • मतराही (मातर) – भाई दूज
  • जँवारा-गीत – नवरात्रि
  • मँड़ई के दोहे – मँड़ई (ग्राम मेला/पर्व)

 

 

पाठ से आगे

  1. आपके आसपास ऐसे कौन-कौन से लोकगीत हैं जो-

(क) केवल पुरुषों के द्वारा गाए जाते हैं?

उत्तर – बाँस गीत, पंडवानी (मुख्यतः), देवार गीत।

(ख) केवल महिलाओं के द्वारा गाए जाते हैं?

उत्तर – सुआगीत, भोजली गीत, विवाह के समय गाए जाने वाले गीत (सधौरी, चुलमाटी), सोहर गीत।

(ग) पुरुषों और महिलाओं के द्वारा सम्मिलित रूप से गाए जाते हैं?

उत्तर – करमा गीत, ददरिया, फाग गीत।

  1. जैसे होली के अवसर पर फाग गीत गाए जाते हैं, वैसे ही अन्य पर्वों पर कौन-कौन से लोकगीत गाए जाते हैं?

उत्तर – नवरात्रि – जँवारा गीत, माता सेवा गीत

हरेली – गेड़ी गीत

तीजा-पोला – भोजली गीत

छेरछेरा (पौष पूर्णिमा) – छेरछेरा गीत

  1. विवाहगीतों में हास्य-व्यंग्य कहाँ देखने को मिलता है? उदाहरण सहित लिखिए।

उत्तर – छत्तीसगढ़ी विवाह गीतों में हास्य-व्यंग्य सामाजिक रिश्तों, पारिवारिक मजाक, और लैंगिक भूमिकाओं को लेकर हल्के-फुल्के अंदाज में प्रकट होता है। ये गीत अक्सर रिश्तेदारों की छोटी-छोटी कमियों, दूल्हा-दुल्हन के व्यवहार, या सामाजिक रूढ़ियों पर चुटकी लेते हैं, जो आत्मीय और मनोरंजक माहौल बनाते हैं। उदाहरण:

“ददा तोर लानिथै हरदी – सुपारी वो,

दाई लानय तिला तेल।

कोन चढ़ाथय तोर मन भर हरदी वो,

कोन देवय अँचरा के छाँव।”

इस गीत में हल्दी और तेल लाने की जिम्मेदारी को लेकर रिश्तेदारों के योगदान पर हल्का-सा व्यंग्य है, जो यह दर्शाता है कि कौन कितना योगदान देगा, इस पर मजाकिया टिप्पणी की जाती है। यह सामाजिक सहयोग को हास्य के साथ उजागर करता है।

  1. सुआगीतों का संकलन कर उनके विषय को लिखिए।

उत्तर – सुआगीत छत्तीसगढ़ में दीपावली के अवसर पर सुआ नृत्य के साथ गाए जाते हैं। ये गीत मुख्य रूप से नारी जीवन की पीड़ा, सामाजिक बंधनों, और वैवाहिक जीवन की चुनौतियों को व्यक्त करते हैं। इनके प्रमुख विषय हैं –

नारी पीड़ा – सुआगीत में स्त्री का दुख, जैसे पति का परित्याग या ससुराल की कठिनाइयाँ, व्यक्त होता है। उदाहरण – “चंदा सुरुज तोर पैंया परत हँव, तिरिया जनम झन देबे न रे सुआ न।”

प्रेम और विरह – पति या प्रिय के बिछड़ने का दुख, जैसे “मोर मयारू गए रन जूझ।”

सामाजिक रूढ़ियाँ – मध्ययुगीन समाज में नारी की स्थिति पर टिप्पणी।

आध्यात्मिक प्रार्थना – चंद्र-सूर्य से अगले जन्म में पुरुष जन्म की माँग।

ये गीत व्यक्तिगत भावनाओं को सामाजिक बनाकर समूची नारी जाति की भावनाओं को उजागर करते हैं।

  1. सुआ, पंथी, कर्मा और राउत नाचा में गीत के साथ किए जा रहे नृत्य की पोशाक और प्रयुक्त अन्य सामग्रियों की सूची बनाइए।

उत्तर –

नृत्य

पोशाक

प्रयुक्त सामग्रियाँ

सुआ

रंग-बिरंगे साड़ी, घुँघरू, सिर पर फूलों का गजरा, पारंपरिक गहने (जैसे हार, चूड़ी)

सुआ (तोते की आकृति वाला बाँस का ढांचा), मटकी, घुंघरू

पंथी

पुरुष: धोती-कुर्ता, सिर पर पगड़ी, घुंघरू; महिला: साड़ी या लहंगा-चोली

मांदर, नगाड़ा, झांझ, मंजीरा

कर्मा

महिलाएँ: रंगीन साड़ी, लहंगा-चोली, फूलों के गहने; पुरुष: धोती-कुर्ता, पगड़ी

मांदर, नगाड़ा, बाँसुरी, झांझ, कर्मा वृक्ष की टहनी

राउत नाचा

पुरुष: रंगीन धोती, कुर्ता, पगड़ी, घुंघरू; महिला: साड़ी, गहने

डंडा (लाठी), मांदर, झांझ, मंजीरा

 

  1. लोककथाओं के आधार पर रचे गए लोकगीतों के नाम लिखिए।

उत्तर – छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में कई गीत लोककथाओं पर आधारित हैं, जो कथात्मक शैली में गाए जाते हैं। इनके नाम हैं:

  1. पंडवानी – महाभारत की कथाओं पर आधारित, जैसे द्रौपदी-चीरहरण, भीम-कीचक वध।
  2. चंदैनी – चंदन-चंदैनी की प्रेमकथा पर आधारित गीत।
  3. लोरिक-चंदा – लोरिक और चंदा की प्रेमकथा पर आधारित गीत।
  4. रामकथा गीत – रामायण की कथाओं, जैसे सीता-स्वयंवर या राम-वनवास, पर आधारित।
  5. धनकुल गीत – स्थानीय लोककथाओं और नायकों की गाथाओं पर आधारित। ये गीत कथाओं को गीत और नृत्य के माध्यम से जीवंत करते हैं, जो लोकमानस में गहरे बसे हैं।

 

  1. पंडवानी में गाई गई कथा के किसी एक प्रसंग को अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर – पंडवानी में गाया जाने वाला एक प्रसंग है कीचक वध। महाभारत के अनुसार, पांडव अज्ञातवास के दौरान विराट नगरी में छिपे थे। द्रौपदी सैरंध्री के रूप में रानी की सेवा में थी। कीचक, विराट का सेनापति, द्रौपदी पर बुरी नजर रखता था। वह बार-बार उसका अपमान करता। द्रौपदी ने भीम को अपनी व्यथा सुनाई। भीम ने रात में कीचक को गुप्त रूप से मिलने बुलाया और उसे मार डाला। पंडवानी में इस प्रसंग को चित्रात्मक रूप से गाया जाता है, जिसमें कीचक के शृंगार और भीम की वीरता का वर्णन जीवंत होता है।

 

भाषा के बारे में

  1. सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, वास्तविक आदि शब्द पाठ में आए हैं। इनमें मूल शब्दों में ‘इक’ प्रत्यय लगा है। इनके मूल शब्दों को पहचानकर लिखिए तथा ऐसे ही तीन उदाहरण और लिखिए।

उत्तर – सामाजिक – समाज + इक

सांस्कृतिक – संस्कृति + इक

आर्थिक – अर्थ + इक

वास्तविक – वास्तव + इक

अन्य तीन उदाहरण –

ऐतिहासिक – इतिहास + इक

धार्मिक – धर्म + इक

राजनीतिक – राजनीति + इक

  1. ‘अर्थ’ तथा ‘रस ऐसे शब्द हैं जिनके एक से अधिक अर्थ हैं। आप ऐसे ही और पाँच शब्द खोजकर लिखिए।

उत्तर – कर – हाथ, टैक्स

हार – पराजय, गले का आभूषण

फल – खाने वाला फल, परिणाम

उत्तर – जवाब, एक दिशा

पत्र – पत्ता, चिट्ठी

  1. पाठ से निम्नांकित शब्द लिए गए हैं। इन्हें स्त्रीलिंग और पुल्लिंग शब्दों के रूप में पहचानकर अलग कीजिए।

प्रकाशन, व्यवस्था, माध्यम, परंपरा, नवीनता, संगीत, रस, लोकगीत, स्मृतियाँ, प्रतिक्रियाएँ।

पुल्लिंग शब्द                 स्त्रीलिंग शब्द

प्रकाशन                     परंपरा

उत्तर – पुल्लिंग शब्द – प्रकाशन, माध्यम, संगीत, रस, लोकगीत।

स्त्रीलिंग शब्द – व्यवस्था, परंपरा, नवीनता, स्मृतियाँ, प्रतिक्रियाएँ।

  1. निम्नांकित शब्दों का उपयोग करते हुए एक कहानी लिखिए-

शिकारी, किसान, चरवाहा, जंगल, बाँसुरी, संगीत, वन्य पशु चिड़िया, शेर, चरवाहा, राजा, भय, पुरस्कार, प्रसन्नता दरबार।

उत्तर – एक जंगल में एक शिकारी और एक चरवाहा रहते थे। जहाँ शिकारी वन्य पशुओं का शिकार करता, वहीं चरवाहा अपनी गायों को चराता और अपनी बाँसुरी पर मधुर संगीत छेड़ता। उसकी बाँसुरी सुनते ही सभी पशु-पक्षी, यहाँ तक कि खूँखार शेर भी शांत हो जाते। पास के राज्य का राजा जब शिकार पर आया तो उसने यह अद्भुत दृश्य देखा। राजा के मन में जो भय था, वह चरवाहे का संगीत सुनकर प्रसन्नता में बदल गया। राजा उसे अपने दरबार में ले गया और उसे एक बड़ा पुरस्कार दिया।

  1. ‘लोक’ शब्द में गीत जोड़कर बना लोकगीत आप ‘लोक’ शब्द के साथ अन्य शब्द जोड़कर कितने शब्द बना सकते हैं? लिखिए।

उत्तर – लोकगीत

लोककथा

लोकतंत्र

लोकप्रिय

लोकपाल

लोकसभा

लोक-संस्कृति

लोक-कला

लोकमानस

लोकनायक

  1. निम्नांकित शब्द एक थीम की तरह दिए गए हैं। आपको इस थीम से संबंधित और शब्द लिखने हैं। यह खेल नीचे दिए गए उदाहरण की तरह होगा, याद रहे आपके शब्द उस ‘थीम’ के अंतर्गत ही होने चाहिए।

उदाहरण- संगीत

सितार

कलाकार

तबला

राग

बाँसुरी

गायक

नृत्य

दर्शक

(क) वर्षा

उत्तर – वर्षा: बादल, पानी, बिजली, इंद्रधनुष, गरजना, हरियाली, किसान, मेंढक।

(ख) विद्यालय

उत्तर – विद्यालय: छात्र, शिक्षक, कक्षा, पुस्तक, श्यामपट्ट, घंटी, प्रार्थना, परीक्षा।

 

योग्यता विस्तार

  1. छत्तीसगढ़ी विवाह गीतों का संकलन कर एक फाइल बनाइए।

उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।

  1. लोकगीतों के साथ प्रस्तुत किए जाने वाले नृत्यों के चित्र संकलित कर उनकी फाइल बनाइए।

उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।

  1. यहाँ ‘जसगीत की कुछ पंक्तियाँ दी जा रही हैं, इन्हें पढ़िए और समूह में गाइए।

माँ आशीष देबे हो,

तोरे सरन मा आयेन माँ, आशीष देबे हो

हम लइका हन हमला तैं हा

कभु नहीं बिसराबे वो

माँ आशीष देबे हो,

तोरे सरन मा आयेन माँ आशीष देबे हो।

तहीं भवानी तहीं शारदा तहीं हवस जगदंबा

तोर प्रतापे तोड़िन वो बेंदरा – भालु मन गढ़ लंका

माँ आशीष देबे हो

तोरे सरन मा आयेन माँ आशीष देबे हो।

 

बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

  1. लोकगीतों का मूल स्वरूप क्या दर्शाता है?
    a) व्यक्तिगत भावनाएँ
    b) सामूहिक लोकमानस
    c) केवल ऐतिहासिक घटनाएँ
    d) आधुनिक संगीत
    उत्तर – b) सामूहिक लोकमानस
  2. छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में कौन-सी व्यवस्था का प्रभाव नहीं है?
    a) शिकारी
    b) पशुपालक
    c) औद्योगिक
    d) सामंती
    उत्तर – c) औद्योगिक
  3. सुआगीत मुख्य रूप से कब गाए जाते हैं?
    a) विवाह के अवसर पर
    b) दीपावली के अवसर पर
    c) होली के अवसर पर
    d) जन्मोत्सव पर
    उत्तर – b) दीपावली के अवसर पर
  4. लोकगीतों में इतिहास कहाँ छुपा होता है?
    a) केवल शब्दों में
    b) भावों और शब्दों में
    c) केवल धुन में
    d) केवल कथानक में
    उत्तर – b) भावों और शब्दों में
  5. राउत नाचा के दोहे में कौन-से शब्द सामंती व्यवस्था की याद दिलाते हैं?
    a) रंगमहल और मालिक
    b) सुआ और मयारू
    c) बासी और नून
    d) गोंदा और चोला
    उत्तर – a) रंगमहल और मालिक
  6. लोकगीतों की मस्ती का परिणाम क्या है?
    a) दुख की अभिव्यक्ति
    b) शृंगार और प्रेम की खुली अभिव्यक्ति
    c) केवल भक्ति भाव
    d) सामाजिक विरोध
    उत्तर – b) शृंगार और प्रेम की खुली अभिव्यक्ति
  7. विवाह गीतों में लोकजीवन का कौन-सा स्वभाव उजागर होता है?
    a) व्यक्तिवाद
    b) सहयोग
    c) प्रतिस्पर्धा
    d) एकाकीपन
    उत्तर – b) सहयोग
  8. लोकगीतों में सुआगीत की नारी पीड़ा किस युग से संबंधित है?
    a) आधुनिक युग
    b) मध्य युग
    c) प्राचीन युग
    d) औपनिवेशिक युग
    उत्तर – b) मध्य युग
  9. लोकगीतों की सहजता का क्या कारण है?
    a) व्यक्तिगत रचना
    b) समूह की मानसिकता
    c) जटिल शब्दावली
    d) आधुनिक तकनीक
    उत्तर – b) समूह की मानसिकता
  10. पंडवानी गीतों में क्या विशेषता होती है?
    a) चित्रात्मक वर्णन
    b) केवल भक्ति भाव
    c) जटिल कथानक
    d) आधुनिक संदर्भ
    उत्तर – a) चित्रात्मक वर्णन
  11. लोकगीतों में विरोध का स्वर किस रूप में प्रकट होता है?
    a) क्रोध
    b) व्यंग्य
    c) शोक
    d) भक्ति
    उत्तर – b) व्यंग्य
  12. ‘बटकी म बासी अउ चुटकी म नून’ गीत का संबंध किस भाव से है?
    a) भक्ति
    b) शृंगार
    c) दुख
    d) विरोध
    उत्तर – b) शृंगार
  13. लोकगीतों में चित्रों की रचना का क्या प्रभाव होता है?
    a) श्रोता को घटना आँखों के सामने प्रतीत होती है
    b) गीत जटिल हो जाता है
    c) गीत का संदेश अस्पष्ट हो जाता है
    d) गीत केवल मनोरंजन करता है
    उत्तर – a) श्रोता को घटना आँखों के सामने प्रतीत होती है
  14. ‘बाँस गीत’ किस जाति से संबंधित है?
    a) राउत
    b) गोपालक
    c) किसान
    d) व्यापारी
    उत्तर – b) गोपालक
  15. लोकगीतों में ‘मुक्ति’ का क्या अर्थ है?
    a) मोक्ष
    b) भौतिक सुविधाएँ
    c) आध्यात्मिक शांति
    d) सामाजिक बंधन
    उत्तर – b) भौतिक सुविधाएँ
  16. ‘हरदाही गीत’ में क्या संदेश है?
    a) जीवन का आनंद लें
    b) मोक्ष की प्राप्ति
    c) सामाजिक सुधार
    d) धार्मिक भक्ति
    उत्तर – a) जीवन का आनंद लें
  17. लोकगीतों में सहयोग का स्वभाव किस अवसर पर स्पष्ट होता है?
    a) युद्ध
    b) विवाह
    c) व्यापार
    d) एकांत
    उत्तर – b) विवाह
  18. ‘जँवारा-गीत’ में देवी माँ की कल्पना कैसी है?
    a) सोने-चाँदी के गहनों वाली
    b) फूलों के गहनों वाली
    c) युद्धरत
    d) तपस्विनी
    उत्तर – b) फूलों के गहनों वाली
  19. लोकगीतों में सामाजिक व्यवस्था का प्रभाव कहाँ दिखता है?
    a) केवल धुन में
    b) शब्दों और भावों में
    c) केवल कथानक में
    d) केवल प्रदर्शन में
    उत्तर – b) शब्दों और भावों में
  20. ‘नहडोरी गीत’ में नायक अपनी माँ से क्या माँगता है?
    a) सोना-चाँदी
    b) अस्सी रुपए
    c) नया घर
    d) नौकरी
    उत्तर – b) अस्सी रुपए

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1: लोकगीत किसे कहते हैं?

उत्तर – लोकगीत ‘लोक’ यानी आम जन की आंतरिक भावनाओं की लयबद्ध और संगीतबद्ध अभिव्यक्ति है।

प्रश्न 2: लोकगीतों का विकास किन सामाजिक व्यवस्थाओं से होकर गुज़रा है?

उत्तर – लोकगीतों का विकास पशुपालक व्यवस्था, कृषि व्यवस्था और सामंती व्यवस्था से होकर आज के जटिल युग तक पहुँचा है।

प्रश्न 3: लोकगीतों में पूरी जाति का व्यक्तित्व क्यों परिलक्षित होता है?

उत्तर – लोकगीतों में पूरी जाति का व्यक्तित्व इसलिए परिलक्षित होता है क्योंकि इनकी रचना किसी एक व्यक्ति द्वारा न होकर, सामान्य व्यक्तियों द्वारा होती है जिनका व्यक्तित्व सामाजिक व्यक्तित्व में समाहित हो चुका होता है।

प्रश्न 4: छत्तीसगढ़ में दीपावली के अवसर पर कौन-सा गीत गाने की परंपरा है?

उत्तर – छत्तीसगढ़ में दीपावली के अवसर पर ‘सुआगीत’ गाने की परंपरा है।

प्रश्न 5: सुआगीत में नारी की पीड़ा किस प्रकार व्यक्त होती है?

उत्तर – सुआगीत में नारी अपनी पीड़ा को चाँद और सूरज से अगले जन्म में स्त्री न बनाने की विनती करके व्यक्त करती है, जो समूची नारी जाति की पीड़ा बन जाती है।

प्रश्न 6: ‘राउत नाचा’ के दोहे में कौन-से शब्द सामंती व्यवस्था की याद दिलाते हैं?

उत्तर – ‘राउत नाचा’ के दोहे में ‘रंगमहल’ और ‘मालिक’ जैसे शब्द सामंती व्यवस्था की याद दिलाते हैं।

प्रश्न 7: ददरिया गीत छत्तीसगढ़ के लोकजीवन की किस विशेषता को दर्शाता है?

उत्तर – ददरिया गीत यह दर्शाता है कि छत्तीसगढ़ का लोकजीवन ‘नून और बासी’ (नमक और बासी चावल) खाकर भी मस्ती में डूब सकता है और शृंगार व प्रेम का सृजन कर सकता है।

प्रश्न 8: विवाह गीत में किस लोकस्वभाव को प्रमुखता से दर्शाया गया है?

उत्तर – विवाह गीत में ‘सहयोग’ के लोकस्वभाव को प्रमुखता से दर्शाया गया है, जहाँ सभी रिश्तेदार मिलकर विवाह कार्य संपन्न कराते हैं।

प्रश्न 9: नहडोरी गीत से लोकजीवन के बारे में क्या पता चलता है?

उत्तर – नहडोरी गीत से पता चलता है कि पुराने समय में लोकजीवन में विवाह अधिक खर्चीला नहीं होता था और बहू को माँ की सहायिका तथा घर का शृंगार माना जाता था।

प्रश्न 10: लोकगीत सहजता से संप्रेष्य क्यों होते हैं? कोई दो कारण बताइए।

उत्तर – लोकगीत सहजता से इसलिए संप्रेष्य होते हैं क्योंकि ये समूह की मानसिकता पर आधारित होते हैं और ये केवल विचारों के वाहक ही नहीं, बल्कि मनोरंजन का साधन भी हैं।

प्रश्न 11: ‘जँवारा-गीत’ में देवी माँ की कल्पना किस रूप में की गई है?

उत्तर – ‘जँवारा-गीत’ में देवी माँ की कल्पना सोने-चाँदी के गहनों के स्थान पर चंपा-चमेली के फूलों के गहनों से सजी एक सादगीपूर्ण माँ के रूप में की गई है।

प्रश्न 12: ‘पंडवानी’ गायन की चित्रात्मक शैली का एक उदाहरण दीजिए।

उत्तर – ‘पंडवानी’ में कीचक के शृंगार का वर्णन “माथे म मुकुट राजा बाँधत हावै जी, काने म कुंडल राजा पहिरत हावै जी” पंक्तियों के माध्यम से चित्रात्मक रूप में किया गया है।

प्रश्न 13: गोपालक जातियाँ कौन-सा गीत गाती हैं?

उत्तर – गोपालक जातियाँ ‘बाँस गीत’ गाती हैं, जिसमें वे धरती, गाय-भैंस और अपने कुल को प्रणाम करते हैं।

प्रश्न 14: ‘मतराही’ जाने से पहले राउत अपने गृह देवता से क्या कहता है?

उत्तर – ‘मतराही’ जाने से पहले राउत अपने गृह देवता से कहता है कि मैं तो जा रहा हूँ, अब घर की सारी जिम्मेदारी तुम्हारी है।

प्रश्न 15: लोकगीतों में विरोध का स्वर किस प्रकार प्रकट होता है?

उत्तर – लोकगीतों में विरोध का स्वर सीधे तौर पर नहीं, बल्कि व्यंग्य के माध्यम से फूटता है।

प्रश्न 16: जमींदारी प्रथा से पीड़ित व्यक्ति अपना विरोध किस दोहे से प्रकट करता है?

उत्तर – जमींदारी प्रथा से पीड़ित व्यक्ति अपना विरोध “ठाकुर पहिरे सोना चाँदी ठकुराइन पहिरे घाँटी” जैसे दोहों के माध्यम से प्रकट करता है।

प्रश्न 17: लोकगीतकार अपने युगबोध को किस प्रकार स्वर देते हैं? उत्तर – लोकगीतकार अपने युगबोध को “अँगरेजवा के राज कलर कइया” जैसी पंक्तियों की रचना करके स्वर देते हैं, जो तत्कालीन समस्याओं को दर्शाती हैं।

प्रश्न 18: लोकगीत अकेलेपन के बजाय किसे महत्त्व देते हैं?

उत्तर – लोकगीत अकेलेपन के बजाय संगी-साथी बनाकर साथ चलने को महत्त्व देते हैं।

प्रश्न 19: लोकसाहित्य में देवता किस रूप में नजर आते हैं?

उत्तर – लोकसाहित्य में चमत्कारी देवता मोक्ष देने वाले नहीं, बल्कि लोक को भौतिक सुविधा प्रदान करने वाले लगते हैं।

प्रश्न 20: छत्तीसगढ़ी लोकगीतों के माध्यम से हम क्या समझ सकते हैं?

उत्तर – छत्तीसगढ़ी लोकगीतों के माध्यम से हम यहाँ के समग्र लोकजीवन, लोक-संस्कार, व्यवहार और लोकसंस्कृति को समझ सकते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

  1. लोकगीत क्या हैं और उनकी उत्पत्ति का आधार क्या है?
    उत्तर – लोकगीत लोकमानस की सांस्कृतिक और भावनात्मक अभिव्यक्ति हैं, जो सामाजिक व्यवस्थाओं और परंपराओं से उत्पन्न होते हैं। ये सामूहिक चेतना को दर्शाते हैं और शिकारी, पशुपालक, कृषि, व सामंती व्यवस्थाओं के प्रभाव को समेटे हुए हैं।
  2. छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में सुआगीत का क्या महत्त्व है?
    उत्तर – सुआगीत दीपावली के अवसर पर गाए जाते हैं और नारी पीड़ा को व्यक्त करते हैं। ये गीत व्यक्तिगत दुख को सामाजिक बनाकर समूची नारी जाति की भावनाओं को उजागर करते हैं, जो मध्ययुगीन नारी जीवन को दर्शाते हैं।
  3. लोकगीतों में सामंती व्यवस्था की झलक कैसे मिलती है?
    उत्तर – लोकगीतों में ‘रंगमहल’ और ‘मालिक’ जैसे शब्द सामंती व्यवस्था की याद दिलाते हैं। राउत नाचा के दोहों में ये शब्द सामाजिक संरचना और शक्ति के प्रतीक के रूप में लोकमानस में समाहित हैं।
  4. लोकगीतों की सहजता का क्या कारण है?
    उत्तर – लोकगीत समूह की मानसिकता पर आधारित होते हैं, न कि व्यक्तिगत अभिव्यक्ति पर। इनकी सादगी, सामाजिक संप्रेषण, और रंजन की क्षमता इन्हें सहज बनाती है, जो लोकजीवन की स्वाभाविकता को दर्शाती है।
  5. लोकगीतों में चित्रात्मकता का क्या प्रभाव है?
    उत्तर – लोकगीतों में चित्रात्मक वर्णन, जैसे पंडवानी में कीचक के शृंगार का वर्णन, घटनाओं को जीवंत बनाता है। इससे श्रोता को लगता है कि घटना उनकी आँखों के सामने घट रही है।
  6. ‘राउत नाचा’ के दोहों में व्यंग्य का प्रयोग कैसे होता है?
    उत्तर – ‘राउत नाचा’ के दोहों में व्यंग्य के माध्यम से सामाजिक असमानता, जैसे ठाकुरों की संपत्ति, पर तंज कसा जाता है। यह लोकजीवन की कुंठाओं को हल्के-फुल्के अंदाज में व्यक्त करता है।
  7. विवाह गीतों में लोक का कौन-सा स्वभाव उजागर होता है?
    उत्तर – विवाह गीतों में सहयोग का स्वभाव उजागर होता है। रिश्तेदारों के योगदान, जैसे हल्दी चढ़ाना या आँचल की छाँव देना, को गीतों में रेखांकित कर आत्मीय वातावरण बनाया जाता है।
  8. ‘बाँस गीत’ का क्या संदेश है?
    उत्तर – ‘बाँस गीत’ गोपालक जातियों द्वारा गाया जाता है, जो गाय-भैंसों की सेवा, आजीविका, और यादव कुल की महिमा को दर्शाता है। यह लोकजीवन की भौतिकता और सांस्कृतिक गौरव को व्यक्त करता है।
  9. लोकगीतों में प्रेम और शृंगार की अभिव्यक्ति का आधार क्या है?
    उत्तर – लोकगीतों में प्रेम और शृंगार की अभिव्यक्ति लोकजीवन की मस्ती से उपजती है। ‘बटकी म बासी’ जैसे गीत सादगी में भी प्रेम की गहराई को व्यक्त करते हैं, जो लोक की सहजता को दर्शाता है।
  10. लोकगीतों में इतिहास कैसे झलकता है?
    उत्तर – लोकगीतों में इतिहास शब्दों और भावों में छुपा होता है। ‘रंगमहल’, ‘मालिक’ जैसे शब्द सामंती युग को दर्शाते हैं, जबकि सुआगीत मध्ययुगीन नारी पीड़ा को उजागर करते हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

  1. छत्तीसगढ़ी लोकगीत लोकजीवन की सांस्कृतिक यात्रा के साक्षी कैसे हैं?
    उत्तर – छत्तीसगढ़ी लोकगीत लोकजीवन की सांस्कृतिक यात्रा के साक्षी हैं, क्योंकि वे शिकारी, पशुपालक, कृषि, और सामंती व्यवस्थाओं के प्रभाव को दर्शाते हैं। सुआगीत, राउत नाचा, और विवाह गीतों में सामाजिक संस्कार, सहयोग, और नारी पीड़ा जैसे तत्व समाहित हैं। ये गीत लोकमानस की भावनाओं, इतिहास, और परंपराओं को संगीतमय रूप में व्यक्त कर लोकजीवन की गहराई को उजागर करते हैं।
  2. लोकगीतों में सामाजिक व्यवस्थाओं का प्रभाव कैसे परिलक्षित होता है?
    उत्तर – लोकगीतों में सामाजिक व्यवस्थाओं का प्रभाव शब्दों, भावों, और कथानकों में दिखता है। ‘रंगमहल’ और ‘मालिक’ जैसे शब्द सामंती व्यवस्था को दर्शाते हैं, जबकि सुआगीत मध्ययुगीन नारी पीड़ा को उजागर करते हैं। विवाह गीतों में सहयोग और रिश्तों की आत्मीयता सामाजिक संरचना को प्रतिबिंबित करती है, जो लोकजीवन की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक यात्रा को चित्रित करता है।
  3. लोकगीतों की चित्रात्मकता और संप्रेषणीयता की विशेषताएँ क्या हैं?
    उत्तर – लोकगीतों की चित्रात्मकता घटनाओं को जीवंत बनाती है, जैसे पंडवानी में कीचक के शृंगार का वर्णन, जो श्रोताओं को दृश्य के सामने होने का आभास देता है। इनकी संप्रेषणीयता समूह की मानसिकता, सहज शब्दों, और रंजन की क्षमता से आती है। ये गीत सादगी और सामाजिक भावनाओं को व्यक्त कर हर हृदय को छूते हैं।
  4. लोकगीतों में व्यंग्य और विरोध का स्वर कैसे व्यक्त होता है?
    उत्तर – लोकगीतों में व्यंग्य और विरोध का स्वर सामाजिक असमानताओं पर तंज के रूप में प्रकट होता है। उदाहरण के लिए, राउत नाचा के दोहों में ठाकुरों की संपत्ति पर व्यंग्य किया जाता है। ‘जइसे मालिक लिये दिये, तइसे देबो असीस’ जैसे दोहे सामाजिक कुंठाओं को हल्के-फुल्के अंदाज में व्यक्त कर लोकमानस की भावनाओं को उजागर करते हैं।
  5. ‘नहडोरी गीत’ छत्तीसगढ़ी लोकजीवन की किन विशेषताओं को दर्शाता है?
    उत्तर – ‘नहडोरी गीत’ छत्तीसगढ़ी लोकजीवन की आर्थिक स्थिति, आत्मीयता, और स्वप्नों को दर्शाता है। नायक अस्सी रुपए में विवाह की कल्पना करता है, जो सादगी को दिखाता है। यह गीत पत्नी को घर का शृंगार और माँ के लिए सहायक के रूप में प्रस्तुत कर सामाजिक सहयोग और पारिवारिक मूल्यों को उजागर करता है।

 

You cannot copy content of this page