एक बार हू-हू नाम का एक गंधर्व स्त्रियों के साथ वन-विहार के लिए निकला। त्रिकूट पर्वत के मध्य ऋतुमान उद्यान में एक सुंदर सरोवर देखकर उसने अपना विमान नीचे उतारा और साथ आई स्त्रियों के साथ सरोवर के जल में कीड़ा करने लगा। उसी समय देवल ऋषि सरोवर के तट पर पहुँचे। सुंदर स्थान देखकर उन्होंने वहीं प्रभु का ध्यान लगाने की सोची, अत: उन्होंने अपने वस्त्र उतारे और स्नान करने के लिए सरोवर के जल में उतर गए।
गंधर्व स्त्रियों को मनोरंजन का एक और साधन मिल गया।
वे एक दूसरे पर पानी उछालती हुई कहने लगीं, “देखो, उस ऋषि को। पानी में भीगकर उसकी दाढ़ी कैसी लग रही है?”
दूसरी बोली, “उसकी कोपीन भी तो देखो। कैसी चिपकी जा रही है उसके शरीर से।”
“कुछ देर इसी से छेड़-छाड़ का आनंद क्यों न उठाया जाए?” तीसरी ने राय दी।
स्त्रियों को खुश करने के लिए हू-हू ने जल में गहरी डुबकी लगाई और जल के अंदर तैरता हुआ ऋषि के पास पहुँच गया। परिहास करने के उद्देश्य से उसने ऋषि का पाँव पकड़ लिया।
ऋषि ने चौंककर अपना पाँव खींचना चाहा, तो हू-हू ने उन्हें और भी नीचे खींच लिया। हू-हू ने ऋषि को दो-तीन बार डुबकियाँ लगवाईं, फिर उनका पाँव छोड़ दिया और जल के ऊपर आकर धृष्टतापूर्वक उनकी ओर देखकर हँसने लगा।
“गंधर्व की ऐसी धृष्टता देखकर ऋषि क्रोधित हो उठे। उन्होंने जल में खड़े होकर उसे शाप दे डाला, “अरे दुष्ट गंधर्व। तूने मेरे साथ बहुत घिनौना मजाक किया है। मैं तुझे शाप देता हूँ कि तू इसी क्षण ग्राह बन जा और जलचरों को खाकर अपना पेट भराकर।”
ऋषि का शाप सुनकर हू-हू बहुत घबराया। वह हाथ जोड़कर बोला, “मुझे क्षमा कर दो ऋषिवर। मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया। स्त्रियों के उकसावे में मैं आपका अपमान कर बैठा। मैं अपने किए पर बहुत लज्जित हूँ।”
“मेरा शाप अवश्य फलीभूत होगा दुष्ट।” ऋषि बोले, “तुझे अपने दुष्कर्म का दंड भोगना ही पड़ेगा।”
हू-हू बहुत गिड़गिड़ाया, किंतु ऋषि का मन न पसीजा। हू-हू बुरी तरह से रोने लगा, “मैं अपने किए का परिणाम भोगने को प्रस्तुत हूँ ऋषिवर, परंतु कृपा करके मुझे वह उपाय भी बता दीजिए जिससे आपके शाप से मैं मुक्त हो सकूँ।”
“तो सुन। अनंत समय के पश्चात् जब भगवान विष्णु का चक्र तुम्हारा स्पर्श करेगा, उसी समय मेरे शाप का प्रभाव समाप्त हो जाएगा और तुम पुनः अपना असली रूप पा जाओगे।” ऋषि ने कहा। ऋषि का शाप फलीभूत हुआ। उसी क्षण से हू-हू ग्राह की योनि में जा पड़ा और सघन वन के एक सरोवर में विचरण करने लगा।
उसी वन में एक हाथियों का मुखिया भी अपने पूर्व जन्म के शाप के कारण हाथी-योनि में पड़ा शाप को भोग रहा था। वह हाथी अपने पूर्व जन्म में इंद्र दमन नाम का एक धर्मपरायण राजा था, जो एक बार असावधानीवश महर्षि अगस्त्य के सम्मान में उठकर खड़ा न हो पाया था। महर्षि अगस्त्य ने उसे हाथी की योनि में पड़ जाने का शाप दे दिया था।
एक दिन प्यास से व्याकुल होकर वह गजेंद्र अपने झुंड के साथ उस सरोवर में पहुँच गया और जल में उतरकर अपनी प्यास बुझाने लगा।
उसी समय उसी ग्राह ने अपना जबड़ा खोलकर उसका पाँव पकड़ लिया।
हाथी ने अपना पाँव छुड़ाने का भरसक प्रयत्न किया, किंतु वह अपना पाँव ग्राह के मुख से छुड़ाने में असफल रहा।
बहुत समय तक गज और ग्राह में बल परीक्षा होती रही। कभी हाथी ग्राह को किनारे तक घसीट लाता तो कभी ग्राह हाथी को गहरे जल में खींच ले जाता।
धीरे-धीरे हाथी का बल क्षीण होने लगा। ग्राह उस पर भारी पड़ने लगा। वह हाथी को गहरे जल में खींच ले चला। यह देखकर किनारे पर खड़े हाथी के साथी उसे छोड़कर चले गए।
हाथी का पूरा शरीर जल के अंदर समा गया। अब उसकी सूँड का कुछ ही भाग जल के ऊपर था, जिससे वह मुश्किल से साँस ले पा रहा था। बचने का कोई उपाय न देखकर हाथी ने बड़े ही करुण स्वर में भगवान श्रीहरि को पुकारना शुरू कर दिया, “हे प्रभु। हे दीनानाथ। कृपा करके मेरी रक्षा कीजिए। मुझे इस ग्राह के पंजे से छुड़ाइए, देव। मेरी रक्षा कीजिए।”
क्षीरसागर में शेष-शैय्या पर लेटे भगवान विष्णु ने हाथी की करुण पुकार सुनी। वे लक्ष्मी जी से बोले, “देवी लक्ष्मी। मृत्युलोक में मेरे किसी भक्त पर कोई महान विपत्ति आन पड़ी है, इसलिए वह बड़े करुण स्वर में मुझे पुकार रहा है। मुझे उसके कष्ट का निवारण करने के लिए तुरंत जाना ही होगा।”
भगवान विष्णु उसी समय गरुड़ पर सवार हुए और वन के उस स्थान पर पहुँचे जहाँ गज और ग्राह में बल परीक्षा हो रही थी।
अपने भक्त की रक्षा के लिए भगवान विष्णु ने तुरंत सुदर्शन चक्र निकाल लिया और ग्राह का निशाना बनाकर चक्र छोड़ दिया।
चक्र ने ग्राहका मुँह फाड़ डाला। हाथी का पाँव आजाद हो गया। चक्र के स्पर्श से ग्राह भी तुरंत शाप मुक्त हो गया और पुनः अपने गंधर्व स्वरूप में आ गया।
भगवान विष्णु के साक्षात दर्शन करके गजेंद्र भी शापमुक्त हो गया और वह भी अपना पूर्व स्वरूप पा गया। वह भगवान के चरणों में गिर गया और कहने लगा, “आपके दर्शन करके आज मैं भी शापमुक्त हो गया, प्रभु। अब से मैं अपना जीवन आपकी आराधना में व्यतीत कर दूँगा।”
इस प्रकार गज रूपी राजा इंद्र दमन और ग्राहरूपी योनि से हू-हू गंधर्व, दोनों ही भगवान के दर्शन कर शाप मुक्त हो गए और प्रभु क कृपा से बैकुंठ धाम को चले गए।
जो भी हरिभक्त सच्चे हृदय से भगवान का स्मरण करता है, वह भव बंधनों से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है। मृत्यु के पश्चात उसे बैकुंठ धाम में स्थान मिलता है।