स्वयंभू मनु के पुत्र उत्तानपाद की दो रानियाँ थीं-सुरुचि और सुनीति। उत्तानपाद की सुरुचि में आसक्ति अधिक थी। फिर भी सुनीति बुरा नहीं मानती थी। वह अपने कर्तव्य का पालन बड़ी ही श्रद्धा और प्रेम के साथ करती थी। वह उदार और धार्मिक विचारों वाली महिला थी। सुरुचि और सुनीति- दोनों के एक-एक पुत्र था। सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम और सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव था। दोनों पुत्रों की समान वय थी – लगभग 5 या 6 वर्ष की। उत्तम सुरुचि के गर्भ से पैदा हुआ था, इसलिए वह उत्तानपाद को अधिक प्रिय था।
संध्या के पश्चात का समय था। उत्तानपाद सुरुचि के राजभवन में थे, सुरुचि से मधुर वार्तालाप कर रहे थे। उत्तम उनकी गोद में था। संयोग की बात ध्रुव भी घूमते-घूमते अपने पिता के पास जा पहुँचे। उत्तम को पिता की गोद में बैठा हुआ देखकर, वे भी गोद में बैठने का प्रयत्न करने लगे, पर सुरुचि ने उन्हें बैठने नहीं दिया। उसने उनका हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा, “तुम महाराज की गोद में नहीं बैठ सकते। यदि तुम महाराज की गोद मैं बैठना चाहते हो तो तप द्वारा श्रीहरि को प्रसन्न करके उनसे मेरे गर्भ से उत्पन्न होने का वर प्राप्त करो। मेरे गर्भ से उत्पन्न होने पर ही तुम महाराज की गोद में बैठ सकते हो।”
ध्रुव विमाता के कटुवचन और व्यवहार से सिसक-सिसक कर रोने लगे। किंतु फिर भी उत्तानपाद मौन ही रहे। उन्होंने न तो धुव्र को साँत्वना दी और न रानी को फटकार ही लगाई। मनुष्य जब मोह से ग्रसित हो जाता है, तो उसमें उचित और अनुचित के निर्णय का विवेक नहीं रह जाता।
पिता से भी प्यार न पाने पर धुव्र रोते हुए अपनी माँ के पास गए। सुनीति ने जब रोने का कारण पूछा तो ध्रुव ने पूरी घटना कह सुनाई। सुनीति ने ध्रुव को साँत्वना प्रदान करते हुए कहा, “बेटा, जिस तरह मैं तुम्हारी माँ हूँ, उसी तरह सुरुचि भी तुम्हारी माँ हैं। तुम उनके प्रति अपने मन में बुरे भाव मत लाना। यदि कोई मनुष्य बुरा बरताव करे तो भी उसके साथ अच्छा ही बरताव करना चाहिए। उत्तम मनुष्य का यही लक्षण है। तुम्हारी माँ सुरुचि ने ठीक ही कहा है। तुम्हें श्रीहरि को प्रसन्न करने के लिए उनका तप करना चाहिए। मनुष्य के जीवन का यही सबसे बड़ा धर्म है। जो मनुष्य श्रीहरि के चरणों में अनुराग नहीं करता, उसका जीवन व्यर्थ होता है। जगत में श्रीहरि के चरणों के अनुराग को छोड़कर सबकुछ मिथ्या है, असत्य है।”
ध्रुव को अपनी माँ के वचनों से अत्यधिक उत्साह मिला, अत्यधिक प्रेरणा मिली। वे माता-पिता और संबंधियों का मोह छोड़कर वन की ओर चल दिए। उस समय उनकी आयु केवल 5 या 6 वर्ष थी। मार्ग में ध्रुव की देवर्षि नारद से भेंट हुई। नारद के पूछने पर उन्होंने सबकुछ बता दिया कि वे कहाँ और क्यों जा रहे हैं। ध्रुव की बात सुनकर नारद ने उन्हें समझाते हुए कहा, “राजकुमार, श्रीहरि को प्रसन्न करके उनसे वर प्राप्त करना हंसी-खेल नहीं है। तुम अभी बहुत छोटे हो। तुम जिन हरि को प्रसन्न करना चाहते हो, उन्हें बड़े-बड़े योगी भी कठिन तप करके प्रसन्न नहीं कर पाते। वन में हिंसक पशु भी रहते हैं। शीत, धूप और वर्षा का उपद्रव भी होता रहता है। तुम यह सब कैसे सहन करोगे! जाओ, घर लौट जाओ।”
ध्रुव ने उत्तर दिया, “मुनिवर ! मैं अब घर लौटकर नहीं जा सकता। जिस उद्देश्य और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मेरे पैर आगे बढ़े हैं, वे पीछे नहीं मुड़ सकते ! जो भी संकट सामने आएँगे, मैं उन्हें झेलूंगा। मैं मृत्यु की गोद में सो जाऊंगा, पर श्रीहरि को प्रसन्न करने का प्रयत्न अवश्य करूँगा।”
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देवर्षि नारद ध्रुव की दृढ़ता और उनकी लगन पर प्रसन्न हो उठे। वे प्रसन्न मुद्रा में बोले, ‘राजकुमार, मैं तुम्हारी दृढ़ता और तुम्हारे प्रेम पर प्रसन्न हूँ। तुम अवश्य सफलता प्राप्त करोगे। जिस मनुष्य के मन में लगन होती है, उसे कभी भी असफलता का सामना नहीं करना पड़ता। यमुना के किनारे एक पवित्र वन है – मधुवन ! उसमें जाकर तप करो और ‘ओम नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का जाप करो। तुम्हें अवश्य सफलता प्राप्त होगी। अवश्य श्रीहरि प्रकट होकर तुम पर कृपादृष्टि करेंगे।”
नारद द्वारा उत्साहित किए जाने पर ध्रुव मधुवन में जाकर तप करने लगे। उधर, देवर्षि नारद घूमते हुए उत्तानपाद की सेवा में उपस्थित हुए। उत्तानपाद ध्रुव के घर से चले जाने पर बहुत उदास थे। देवर्षि नारद ने उत्तानपाद को उदास देखकर उनसे पूछा, “राजन, आप बहुत दुखी और उदास दिखाई पड़ रहे हैं। क्या मैं आपके दुख और आपकी उदासीनता का कारण जान सकता हूँ ?”
उत्तानपाद ने उत्तर दिया, “महर्षि ! छोटी वय का पुत्र ध्रुव दुखी होकर वन में चला गया, मैं उसे रोक नहीं सका। वह न जाने कहाँ है ? जीवित भी है, या नहीं? मेरा मन रात-दिन उसके लिए आकुल रहता है।”
देवर्षि नारद ने उत्तानपाद को ढाढ़स बँधाते हुए कहा, “राजन! आपको अपने पुत्र ध्रुव के लिए चिंता नहीं करनी चाहिए। ध्रुव परम-तेजस्वी और परम प्रतापी है। वह मधुवन में श्रीहरि को प्रसन्न करने के लिए तप कर रहा है। उसके सामने श्रीहरि प्रकट होंगे और उस पर कृपादृष्टि करेंगे। ध्रुव लौटकर आपके पास आएगा। भगवान से वरदान प्राप्त करने के कारण वह तो धन्य बन ही जाएगा, आपको भी धन्य बना देगा।”
देवर्षि नारद उत्तानपाद को आश्वस्त करके चले गए। उधर, ध्रुव मधुवन में शीत, धूप और वर्षा आदि कष्टों को सहन करते हुए तप करने लगे। आंधियाँ चलती थीं, बिजली कड़कती थी, वृष्टि होती थी, सिंह गरजते थे, पर ध्रुव का ध्यान भंग नहीं होता था। वे अपनी साँसें रोककर भगवान श्रीहरि के चरणों में अपना ध्यान लगाए रहते थे। ध्रुव के साँस रोके जाने पर हवा की गति बंद हो गई।
देवताओं और प्राणियों को साँस लेने में कठिनाई मालूम होने लगी। देवता व्याकुल हो उठे।
उन्होंने श्रीहरि की सेवा में उपस्थित होकर पुकार की। श्रीहरि ने देवताओं को आश्वस्त करते हुए कहा, “देवताओ ! व्याकुल न हो। उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने प्राणायाम द्वारा अपनी साँसों को रोककर अपने चित्त को मेरे चरणों में लगा रखा है। मैं शीघ्र ही उसे दर्शन देकर कृतकृत्य करूँगा। फिर हवा चलने लगेगी। तुम्हारे संकट दूर हो जाएँगे।” श्रीहरि देवताओं को धीरज बंधाकर, गरुड़ पर सवार होकर ध्रुव के पास जा पहुँचे। ध्रुव ने आँखें खोलकर देखा, तो श्रीहरि उनके सामने उसी रूप में खड़े थे, जिस रूप में ध्रुव उन्हें अपने ध्यान में देख रहे थे।
ध्रुव ने खड़े होकर श्रीहरि को प्रणाम किया। उनके मन में इतना आनंद पैदा हुआ कि उनका कंठ अवरुद्ध हो गया। वे सबकुछ बोलना चाहते थे, श्रीहरि की प्रार्थना करना चाहते थे, पर कर नहीं पा रहे थे। वे मूक- -से बन गए थे।
श्रीहरि ने ध्रुव की विवशता देखकर, उनके कंठ से अपने शंख को छुआ दिया। वाणी की धारा फूट उठी। ध्रुव विनत होकर श्रीहरि की प्रार्थना करने लगे, “हे प्रभो, आप जगत के पालक हैं। मेरा भी पालन कीजिए। हे प्रभो, आप दीनों के बंधु हैं। मैं सबसे बड़ा दीन हूँ। मेरे भी बंधु बनकर मेरी सहायता कीजिए। हे प्रभो, आप अशरण शरण हैं, मुझे भी अपनी शरण में लीजिए। हे प्रभो, आप भव-भय हरण हैं। मेरे भी साँसारिक भय दूर कीजिए। हे प्रभो, आप भय-ताप हारी हैं। मेरे भी तापों को दूर कीजिए।” ध्रुव की प्रार्थना सुनकर श्रीहरि प्रसन्न हो उठे। उन्होंने प्रसन्न मुद्रा में कहा, “ध्रुव, मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हें अपना वह ध्रुव लोक दे रहा हूँ, जहाँ सप्तऋषियों की भी पहुँच नहीं होती। जाओ, घर लौट जाओ। बहुत दिनों तक राज्य करने के पश्चात् मेरे लोक में जाकर बसो। युग-युगों तक धरती पर तुम्हारे यश का गान होता रहेगा।”
भगवान श्रीहरि ध्रुव को वरदान देकर चले गए। श्रीहरि के दर्शन से ध्रुव आनंदित तो हुए, किंतु उनके मन में इस बात का बड़ा दुख रहा कि वे भगवान से पृथक हो गए। वे क्यों नहीं भगवान में समाविष्ट हो गए? उन्हें बहुत दिनों तक राज्य करना पड़ेगा, भगवान से पृथक रहना पड़ेगा, आह, यह क्या हुआ? सागर के तट पर पहुँचकर भी मैं प्यासा का प्यासा रह गया। पर अब क्या हो सकता था? ध्रुव मधुवन से अपने घर की ओर चल पड़े। जब वे नगर के पास पहुँचे तो उनके आने का समाचार उत्तानपाद के कानों में पड़ा। पहले तो उत्तानपाद को विश्वास ही नहीं हुआ, किंतु जब देवर्षि नारद के कथन का स्मरण हुआ तो हृदय में आनंद का सागर उमड़ उठा। वह रानियों, स्वजनों और पुरजनों के साथ ध्रुव के स्वागत के लिए चल पड़े।
उत्तानपाद ध्रुव को देखकर रथ से नीचे उतर पड़े। उन्होंने आगे बढ़कर ध्रुव को अपने गले से लगा लिया। ध्रुव माताओं से श्रद्धापूर्वक मिले। पुरजनों ने उनकी जय-जयकार की, स्वजनों ने उनसे मिल कर प्रसन्नता प्रकट की। धुव्र नगर में गए और आनंदपूर्वक दिन व्यतीत करने लगे। उत्तानपाद ने उचित
समय पर ध्रुव का राज्याभिषेक किया।
वह ध्रुव को राजसिंहासन पर बिठाकर तप करने के लिए वन में चले गए।
ध्रुव ने बहुत दिनों तक राज्य किया। उनके दो पुत्र थे-कल्प और वत्सर। उनके दोनों पुत्र बड़े प्रतापी और तेजस्वी थे। एक बार ध्रुव का भाई उत्तम अपनी माता के साथ आखेट के लिए हिमालय के अंचल में गया। एक यक्ष ने उत्तम और उनकी माँ को मृत्यु के मुख में पहुँचा दिया। ध्रुव को जब यह समाचार मिला तो वे बड़े दुखी हुए। वे अपने भाई की मृत्यु का बदला लेने के लिए यक्षों के देश में जा पहुँचे।
यक्षों को जब ध्रुव के आक्रमण का पता चला, तो उन्होंने बहुत बड़ी सेना के साथ ध्रुव को चारों ओर से घेर लिया, ध्रुव और यक्षों की सेना में तुमुल युद्ध हुआ। यक्षों की सेना ने प्रबल पराक्रम दिखाया, किंतु ध्रुव के शौर्य के सामने उनकी एक न चली। यक्षों की सेना में भगदड़ मच गई।
ध्रुव ने समझा, यक्षों की सेना पराजित होकर भाग गई है। किंतु ऐसा हुआ नहीं। यक्ष अपनी सेना का संहार होते देखकर छिप गए और अपनी माया की शक्ति से ध्रुव को पराजित करने का प्रयत्न करने लगे। यक्षों की माया से कभी तो सघन अंधकार हो जाता, तो कभी आकाश से अग्निवर्षा होने लगती थी। कभी प्रचंड आंधी चलने लगती, तो कभी वृष्टि होने लगती थी। कभी रक्त की वृष्टि होने लगती, तो कभी हड्डियों की वर्षा होने लगती थी। कभी आकाश भयानक स्वर से गूंज उठता, तो कभी चारों ओर सन्नाटा छा जाता था। यद्यपि ध्रुव यक्षों की माया को नष्ट करते जा रहे थे, किंतु यह बात सत्य तो है ही कि यक्षों की माया ने उन्हें व्याकुल कर दिया था।
ध्रुव को व्याकुल देखकर ऋषि और मुनि चिंतित हो उठे। उन्होंने ध्रुव से कहा, “ध्रुव, आप पर श्रीहरि की कृपा है। यक्षों की माया के विनाश के लिए आप उनका स्मरण करें।”
ध्रुव ने यक्षों की माया के विनाश के लिए नारायण अस्त्र के संधान का निश्चय किया। ज्यों ही उन्होंने अस्त्र को हाथ में लिया, त्यों ही उनके पितामह स्वयंभुव मनु मध्य आकाश में प्रकट हो उठे। उन्होंने ध्रुव को पुकारकर कहा, “बेटा ध्रुव, ऐसा मत करो। यदि तुम नारायण अस्त्र का प्रयोग करोगे तो समस्त यक्षों का विनाश हो जाएगा। क्रोध करना ठीक नहीं है। शत्रु के साथ भी दया और क्षमा का बरताव करना चाहिए। मनुष्य का जन्म और उसकी मृत्यु उसके कर्मों के अनुसार ही होती है। उत्तम और उसकी माँ की मृत्यु किसी यक्ष के द्वारा नहीं, बल्कि उनके कर्मों के कारण हुई है। तुम्हारे लिए यह उचित नहीं है कि तुम क्रोध में आकर समस्त यक्षों का विनाश करो।”
स्वयंभुव मनु के कथन का प्रभाव ध्रुव के हृदय पर पड़ा। उन्होंने अपने पितामह के समक्ष सिर झुका लिया। वे क्रोध करना छोड़कर अपने निवास स्थान पर चले गए।.
ध्रुव की सज्जनता और उनके त्याग पर यक्षों के राजा कुबेर मोहित हो गए। उन्होंने ध्रुव के सामने प्रकट होकर कहा, ‘“महाराज ध्रुव, आप धन्य हैं। आपने शक्ति रखते हुए भी यक्षों का विनाश न करके, मेरे मन को मोहित कर लिया है। आप मुझसे जो भी वर चाहें, माँग सकते हैं। “
ध्रुव ने विनीत वाणी में निवेदन किया, “यक्षाधिपति, मुझे कुछ नहीं चाहिए। आप मुझ पर ऐसी कृपा करें, जिससे श्रीहरि का अनुराग मेरे हृदय में बराबर बना रहे। मैं उन्हें कभी भी भूल न सकूँ।” कुबेर ‘तथास्तु’ कहकर अपने लोक में चले गए। ध्रुव राजसिंहासन पर बैठकर प्रजा का पालन करने लगे। जब राज्य करते हुए बहुत दिन बीत गए तो एक दिन श्रीहरि के दूत विमान लेकर उनकी सेवा में उपस्थित हुए। दूतों ने ध्रुव से निवेदन किया, “महाराज ध्रुव, आपको भगवान श्रीहरि ने स्मरण किया है। अब आप पृथ्वी छोड़कर श्रीहरि लोक में चलें। हम आपको लेने आए हैं।”
ध्रुव प्रसन्न हो उठे। वे पुरजनों और परिजनों से मिलकर विमान पर जा बैठे। विमान उन्हें लेकर उड़ चला। विमान जब कुछ दूर तक गया, तो ध्रुव को अपनी माँ सुनीति की याद आई। उन्होंने श्रीहरि के दूतों से कहा, “देवदूतो, विमान को पुनः धरती पर ले चलो। मैं अपनी माँ के बिना श्रीहरि के लोक में नहीं जाना चाहता।”
देवदूतों ने उत्तर दिया, “महाराज, आप चिंतित न हों। आपकी माँ का विमान आपके विमान के आगे-आगे चल रहा है।”
ध्रुव हर्षित होकर श्रीहरि के लोक में गए। श्रीहरि ने उन्हें ध्रुवलोक में रहने की अनुमति दी। ध्रुव आज भी ध्रुवलोक में रहते हैं। जो लोग सच्चे हृदय से श्रीहरि के चरणों में अनुराग करते हैं और उन्हीं को अपना सर्वस्व मानते हैं, उन्हें ध्रुव की भाँति ही सुख और शांति तो मिलती ही है, अमर पद भी प्राप्त होता है।