Hindi Sourabh Class X Hindi solution Odisha Board (TLH) 2.बोध प्रेमचंद

प्रेमचंद का जन्म उत्तर प्रदेश के बनारस के पास लमही नामक गाँव में 31 जुलाई, सन् 1880 को एक कायस्थ परिवार में हुआ था। प्रेमचंद के बचपन का नाम धनपतराय था। उनके पिता अजायब लाल डाक-मुंशी थे। जब प्रेमचंद सात साल के थे, माता चल बसीं और चौदह की उम्र में पिता भी चल बसे। प्रेमचंद ने ट्यूसन करके परिवार चलाया। आरम्भ में उन्होंने उर्दू-फारसी की शिक्षा पायी। फिर मैट्रिक परीक्षा पास की। स्कूल में बीस रुपये वेतन में अध्यापक बन गए। आगे उन्होंने बी. ए. पास किया। कुछ दिन स्कूल में अध्यापक रहने के बाद सन् 1921 ईस्वी में प्रेमचंद गोरखपुर में स्कूलों के डिप्टी इंस्पेक्टर बन गए। उन दिनों महात्मा गांधी के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आन्दालन चलाया जा रहा था। प्रेमचंद इससे बड़े प्रभावित हुए, फिर नौकरी से उन्होंने इस्तीफा दे दी।

सन् 1901 के लगभग प्रेमचंद ने पहले कहानियों को लिखना शुरू किया। 5-6 साल बाद उन्होंने उपन्यास लिखे। वे पहले उर्दू में लिखा करते थे, फिर हिन्दी में लिखा। उनकी कहानियाँ उर्दू पत्रिका ‘जमाना’ में छपती थीं। प्रेमचंद ने लगभग ढाई सौ से ज्यादा कहानियाँ लिखीं, बारह उपन्यास लिखे और कुछ निबंध भी। प्रेमचंद ‘मर्यादा’ और ‘माधुरी’ पत्रिका का संपादन किया करते थे। फिर उन्होंने बनारस में सरस्वती प्रेस की स्थापना की एवं ‘हंस’ मासिक तथा ‘जागरण’ साप्ताहिक पत्रिका का संपादन किया। सन् 1934-35 में उन्होंने बम्बई (मुम्बाई) की फिल्म दुनिया में काम किया। पर ज्यादातर उनका समय बनारस और लखनऊ में बीता।

प्रेमचंद की समस्त कहानियाँ ‘मानसरोवर’ में संकलित की गई हैं। हिन्दी कहानी – साहित्य में प्रेमचंद ने सबसे पहले कल्पना के बदले मानव जीवन को विषय बनाया। आम आदमी के दुख-दर्द का वर्णन किया। अतः उनकी कहानियों में किसान मजदूर की गरीब ज़िंदगी के साथ मेहनती आदमी का चित्र मिलता है। नारी – जीवन की विडम्बना को उन्होंने सहानुभूति के साथ दिखाया। उनकी रचनाओं में शोषित, दलित, दुःखी नर-नारियों के साथ पशु-पक्षियों के प्रति भी आत्मीयता तथा संवेदनशीलता मिलती है। 

प्रेमचंद की भाषा-शैली की सबसे बड़ी विशेषता उनकी बोलचाल की भाषा है। इसमें सरल उर्दू-संस्कृत शब्दों के साथ देहाती लब्ज (शब्द) भी हैं। इसलिए भाषा बड़ी मजेदार और सजीव है।

प्रेमचंद की रचनाएँ हैं :- कहानी – संग्रह : मान सरोवर (आठ भाग), उपन्यास : सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कायाकल्प, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान, मंगल-सूत्र (अपूर्ण) आदि। निबंध – संग्रह : कुछ विचार, प्रेमचंद : विविध प्रसंग। नाटक : संग्राम, कर्बला, प्रेम की वेदी।

कुशल कहानीकार प्रेमचंद की यह एक मार्मिक कहानी है। लोग जीवन में धन कमाने, प्रतिष्ठा पाने, धाक जमाने में लगे रहते हैं। इसी में अन्याय, अत्याचार, करते रहते हैं। पर वे भूल जाते हैं कि जैसे बोओगे वैसे काटोगे।

कहानी में तीन पात्र हैं- एक गरीब मास्टर हैं, दूसरे अमीर मुंशी हैं और तीसरे पुलिस के सिपाही। पंडित चंद्रधर को स्वल्प वेतन मिलता था, न बाहर की कोई आमदनी और न पदोन्नति। ज़िंदगी भर बच्चों को पढ़ाते रहे, बच्चों को प्यार किया, आदमी बनाया। मुंशी बैजनाथ और ठाकुर अतिबल सिंह ने अपनी पदवी और जीविका का नाजायज फायदा उठाया, खूब धन कमाया और वे लोग ऐशो-आराम से रहे। उनमें स्नेह, दया आदि मानवीय भाव नहीं थे। कठोर आचरण था। इसका क्या परिणाम हुआ?

कहानी आगे बढ़ती है। एक बार तीनों अयोध्या की यात्रा में निकले। रेलगाड़ी के एक डिब्बे में घुसे। वहाँ चार आदमी लेट रहे थे। उनको बैठने को जगह नहीं दी। झगड़ने लगे। क्योंकि वे पहले मुंशी जी और जमादार के हाथों सताये गए थे। किसी तरह मुंशीजी ठाकुरजी और पंडित चंद्रधर अयोध्या तो पहुँचे, पर कहीं रुकने की जगह नहीं मिली। इतने में पंडितजी के एक शिष्य कृपाशंकर मिल गए। उन्होंने अपने गुरु के पाँव छुए। सबको अपने घर ले गए, शानदार आतिथ्य किया। वह भी बड़ी खुशी से। कहा कि गुरुजी के कारण मैं आदमी बना हूँ। उनकी सेवा करके धन्य हुआ। सब लोग खुश हुए।

पंडितजी ज़िंदगी भर गरीबी में सड़ते रहे। इससे अपने भाग्य को कोसते रहते थे। लेकिन इस घटना से उनको बोध (ज्ञान) हुआ कि शिक्षकता महान् कर्म है। वे ज़िंदगी भर का दुख भूल गए। उन्हें अपने शिक्षक होने के महत्त्व का बोध हुआ। फिर कभी न उन्होंने अपने आपको कोसा और न शिक्षक का पद छोड़कर दूसरे विभाग में नौकरी करने की कोशिश की।

पंडित चंद्रधर ने एक अपर प्राइमरी में मुदर्रिसी तो कर ली थी, किंतु सदा पछताया करते कि कहाँ से इस जंजाल में आ फँसे। यदि किसी अन्य विभाग में नौकर होते तो अब तक हाथ में चार पैसे होते, आराम से जीवन व्यतीत होता। यहाँ तो महीने भर प्रतीक्षा करने के पीछे कहीं पंद्रह रुपये देखने को मिलते हैं। यह भी इधर आये, उधर गायब ! न खाने का सुख, न पहनने का आराम। हमसे तो मजूर ही भले।

पंडित जी के पड़ोस में दो महाशय और रहते थे। एक ठाकुर अतिबल सिंह, वह थाने में हेड कान्सटेबुल थे। दूसरे मुंशी बैजनाथ। वह तहसील में सियाहेनवीस थे। इन दोनों आदमियों का वेतन पंडित से कुछ अधिक न था, तब भी उनकी चैन से गुजरती थी। संध्या को वह कचहरी से आते, बच्चों को पैसे और मिठाइयाँ देते। दोनों आदमियों के पास टहलते थे। घर में कुरसियाँ, मेजें, फर्श आदि सामग्रियाँ मौजूद थीं। ठाकुर साहब शाम को आराम कुरसी पर लेट जाते और खुशबूदार खमीरा पीते। मुंशीजी को शराब – कबाब का व्यसन था। अपने सुसज्जित कमरे में बैठे हुए बोतल की बोतल साफ कर देते। जब कुछ नशा होता तो हारमोनियम बजाते। सारे मुहल्ले में उनका रोबदाब था। उन दोनों महाशयों को आते- जाते देख कर बनिये उठकर सलाम करते। उनके लिए बाजार में अलग भाव था। चार पैसे की चीज टके में लाते। लकड़ी – ईंधन मुफ्त में मिलता। पंडित जी उनके ठाट-बाट को देखकर कुढ़ते और अपने भाग्य को कोसते। वह लोग इतना भी न जानते थे कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है अथवा सूर्य पृथ्वी का। साधारण पहाड़ों का भी ज्ञान न था, जिस पर भी ईश्वर ने उन्हें इतनी प्रभुता दे रखी थी। यह लोग पंडित जी पर बड़ी कृपा रखते थे। कभी सेर आध, सेर दूध भेज देते और कभी थोड़ी-सी तरकारियाँ। किन्तु इनके बदले में पंडित जी को ठाकुर साहब के दो और मुंशीजी के तीन लड़कों की निगरानी करनी पड़ती। ठाकुर साहब कहते, पंडित जी ! यह लड़के हर घड़ी खेला करते हैं, जरा इनकी खबर लेते रहिए। मुंशीजी कहते, यह लड़के आवारा हुए जाते हैं, जरा इनका ख्याल रखिए। यह बातें बड़ी अनुग्रहपूर्ण रीति से कही जाती थीं मानो पंडित जी उनके गुलाम हैं। पंडित जी को यह व्यवहार असह्य था, किंतु इन लोगों को नाराज करने का साहस न कर सकते थे, उनकी बदौलत कभी-कभी दूध-दही के दर्शन हो जाते, कभी आचार – चटनी चख लेते। केवल इतना ही नहीं, बाजार से चीजें भी सस्ती लाते। इसलिए बेचारे इस अनीति को विष के घूँट के

समान पीते। इस दुरवस्था से निकलने के लिए उन्होंने बड़े-बड़े यत्न किये थे। प्रार्थना-पत्र लिखे, अफसरों की खुशामदें कीं, पर आशा पूरी न हुई। अंत में हार कर बैठ रहे। हाँ, इतना था कि अपने काम में त्रुटि न होने देते। ठीक समय पर जाते, देर करके आते, मन लगाकर पढ़ाते। इससे उनके अफसर लोग खुश थे। साल में कुछ इनाम देते और वेतन- वृद्धि का जब कभी अवसर आता, उसका विशेष ध्यान रखते। परन्तु इस विभाग की वेतन – वृद्धि ऊसर की खेती है। बड़े भाग से हाथ लगती है। बस्ती के लोग उनसे संतुष्ट थे। लड़कों की संख्या बढ़ गयी थी और पाठशाला के लड़के भी उन पर जान देते थे। कोई उनके घर आकर पानी भर देता, कोई उनकी बकरी के लिए पत्तियाँ तोड़ लाता। पंडित जी इसी को बहुत समझते थे।

एक बार सावन के महीने में मुंशी बैजनाथ और ठाकुर अतिबल सिंह ने श्री अयोध्या जी की यात्रा की सलाह की। दूर की यात्रा थी। हफ्तों पहले से तैयारियाँ होने लगीं। बरसात के दिन, सपरिवार जाने में अड़चन थी, किंतु स्त्रियाँ किसी भाँति भी न मानती थीं। अंत में विवश होकर दोनों महाशयों ने एक-एक सप्ताह की छुट्टी ली और अयोध्या जी चले। पंडित जी को भी साथ चलने के लिए बाध्य किया। मेले-ठेले में एक फालतू आदमी से बड़े काम निकलते हैं। पंडित जी असमंजस में पड़े, परन्तु जब उन लोगों ने उनका व्यय देना स्वीकार किया तो इन्कार न कर सके और अयोध्या जी की यात्रा का ऐसा सुअवसर पाकर न रुक सके।

बिल्हौर से एक बजे रात गाड़ी छूटती थी। यह लोग खा-पीकर स्टेशन पर आ बैठे। जिस समय गाड़ी आयी, चारों ओर भगदड़ – सी पड़ गयी – हजारों यात्री जा रहे थे। उस उतावली में मुंशीजी पहले निकल गए। पंडित जी और ठाकुर साहब साथ थे। एक कमरे में बैठे। इस आफत में कौन किसका रास्ता देखता।

गाड़ी में जगह की बड़ी कमी थी, परन्तु जिस कमरे में ठाकुर साहब थे उसमें केवल चार मनुष्य थे। वह सब लेटे हुए थे। ठाकुर साहब चाहते थे कि वह उठ जायें तो जगह निकल आये। उन्होंने एक मनुष्य से डाँटकर कहा- उठ बैठो जी, देखते नहीं हम लोग खड़े हैं।

मुसाफिर लेटे-लेटे बोला- क्यों उठ बैठें जी? कुछ तुम्हारे बैठने का ठेका लिया है?

ठाकुर – क्या हमने किराया नहीं दिया है?

मुसाफिर – जिसे किराया दिया हो, उससे जाकर जगह माँगो।

ठाकुर – जरा होश की बातें करो। इस डब्बे में दस यात्रियों के बैठने की आज्ञा है।

मुसाफिर – यह थाना नहीं है, जरा जबान सँभाल कर बातें कीजिए।

ठाकुर – तुम कौन हो जी?

मुसाफिर – हम वही हैं जिस पर आपने खुफिया फरोसी का अपराध लगाया था और जिसके द्वार से आप नकद 25 रु. लेकर टले थे।

ठाकुर- अहा ! अब पहचाना। परन्तु मैंने तो तुम्हारे साथ रियायत की थी। चालान कर देता तो तुम सजा पा जाते।

मुसाफिर – और मैंने भी तो तुम्हारे साथ रियायत की कि गाड़ी में खड़ा रहने दिया। ढकेल देता तो तुम नीचे जाते और तुम्हारी हड्डी – पसली का पता न लगता

इतने में दूसरा लेटा हुआ यात्री जोर से ठट्ठा मार कर हँसा और बोला – और क्यों दरोगा साहब, मुझे क्यों नहीं उठाते?

ठाकुर साहब क्रोध से लाल हो रहे थे जबान खींच लेता, पर इस समय बुरे फँसे थे। सोचते थे अगर थाने में होता तो इसकी वह बलवान मनुष्य थे, पर यह दोनों मनुष्य भी हट्टे-कट्टे दिख पड़ते थे।

ठाकुर – सन्दूक नीचे रख दो, बस जगह हो जाय।

दूसरा मुसाफिर बोला – और आप ही क्यों न नीचे बैठ जायँ। इसमें कौन-सी हेठी हुई जाती है। यह थाना थोड़े ही है कि आपके रोब में फर्क पड़ जाएगा।

ठाकुर साहब ने उसकी ओर भी ध्यान से देखकर पूछा- क्या तुम्हें भी मुझसे कोई बैर है?

‘जी हाँ, मैं तो आपके खून का प्यासा हूँ’।

‘मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, तुम्हारी तो सूरत भी नहीं देखी।’

दूसरा मुसाफिर – आपने मेरी सूरत न देखी होगी, पर आपके डंडे ने देखी है। इसी कल के मेले में आपने मुझे कई डंडे लगाये। मैं चुपचाप तमाशा देखता था, पर आपने आकर मेरा कचूमर निकाल लिया। मैं चुप रह गया, घाव दिल पर लगा हुआ है। आज उसकी दवा मिलेगी।

यह कहकर उसने और भी पाँव फैला दिया और क्रोधपूर्ण नेत्रों से देखने लगा। पंडित जी अब तक चुपचाप खड़े थे। डरते थे कि कहीं मार-पीट न हो जाय। अवसर पाकर ठाकुर साहब को समझाया। ज्योंही तीसरा स्टेशन आया, ठाकुर साहब ने बाल-बच्चों को वहाँ से निकाल कर दूसरे कमरे में बैठाया। इन दोनों दुष्टों ने उनका असबाब उठा- उठा कर जमीन पर फेंक दिया। जब ठाकुर साहब गाड़ी से उतरने लगे तो उन्होंने उनको ऐसा धक्का दिया कि बेचारे प्लेटफार्म पर गिर पड़े। गार्ड से कहने दौड़े थे कि इंजिन ने सीटी दी, जाकर गाड़ी में बैठ गए।

उधर मुंशी बैजनाथ की और भी बुरी दशा थी। सारी रात जागते गुजारी। जरा पैर फैलाने की जगह न थी। आज उन्होंने जेब में बोतल भरकर रख ली थी। प्रत्येक स्टेशन पर कोयला – पानी ले लेते थे। फल यह हुआ कि पाचन क्रिया में विघ्न पड़ गया। एक बार उल्टी हुई और पेट में मरोड़ होने लगी। बेचारे बड़ी मुश्किल में पड़े। चाहते थे कि किसी भाँति लेट जायँ, पर वहाँ पैर हिलाने की भी जगह न थी। लखनऊ तक तो उन्होंने किसी तरह जब्त किया। आगे चलकर विवश हो गए। एक स्टेशन पर उतर पड़े। प्लेटफार्म पर लेट गए। पत्नी भी घबरायी। बच्चों को लेकर उतर पड़ी। असबाब उतारा, परंतु जल्दी में ट्रंक उतारना भूल गयी। गाड़ी चल दी। दारोगा जी ने अपने मित्र को इस दशा में देखा तो वह भी उतर पड़े। समझ गए कि हजरत आज ज्यादा चढ़ा गए। देखा तो मुंशी जी की दशा बिगड़ गयी थी। ज्वर, पेट में दर्द, नसों में तनाव, कै और दस्त। बड़ा खटका हुआ। स्टेशन मास्टर ने यह हाल देखा तो समझे हैजा हो गया है। हुक्म दिया, रोगी को बाहर ले जाओ। विवश होकर लोग मुंशीजी को एक पेड़ के नीचे उठा ले गए। उनकी पत्नी रोने लगी। हकीम – डॉक्टर की तलाश हुई। पता लगा कि डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की तरफ से वहाँ एक छोटा-सा अस्पताल है। लोगों की जान में जान आयी। किसी से यह भी मालूम हुआ कि डॉक्टर साहब बिल्हौर के रहने वाले हैं। ढाढ़स बँधा। दारोगा जी अस्पताल दौड़े। डॉक्टर साहब से समाचार कह सुनाया और कहा – आप चलकर जरा उन्हें देख तो लीजिए।

डॉक्टर का नाम था चोखेलाल। कम्पौंडर थे, लोग आदर से डॉक्टर कहा करते थे। सब वृत्तांत सुनकर रुखाई से बोले – सबेरे के समय मुझे बाहर जाने की आज्ञा नहीं है।

दारोगा – तो क्या मुंशी जी को यहीं लावें?

चोखेलाल- हाँ, आपका जी चाहे लाइए।

दारोगा जी ने दौड़-धूप कर एक डोली का प्रबंध किया। मुंशीजी को लाद कर अस्पताल लाये। ज्योंही बरामदे में पैर रखा, चोखेलाल ने डाँट कर कहा – हैजे (विसूचिका) के रोगी को ऊपर लाने की आज्ञा नहीं है।

बैजनाथ अचेत तो थे नहीं, आवाज सुनी, पहचाना, धीरे से बोले – अरे यह तो बिल्हौर ही के हैं- भला – सा नाम है। तहसील में आया-जाया करते हैं। क्यों महाशय। मुझे पहचानते हैं?

चीखेलाल – जी हाँ, खूब पहचानता हूँ।

बैजनाथ- पहचान कर भी इतनी निठुरता। मेरी जान निकल रही है। जरा देखिए, मुझे क्या हो गया?

चोखे- हाँ, यह सब कर दूँगा और मेरा काम ही क्या? फीस?

दारोगा जी – अस्पताल में कैसी फीस जनाबेमन?

चोखे – वैसे ही जैसी इन मुंशीजी ने मुझसे वसूल की थी जनाबेमन।

दारोगा जी- आप कहते हैं, मेरी समझ में नहीं आता।

चोखे– मेरा घर बिल्हौर में है। वहाँ मेरी थोड़ी-सी जमीन है। साल में दो बार उसकी देखभाल को जाना पड़ता है। जब तहसील में लगान जमा करने जाता हूँ, मुंशी जी डाँटकर अपना हक वसूल कर लेते हैं। न दूँ तो शाम तक खड़ा रहना पड़े। स्याहा न हो। फिर जनाब कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर। मेरी फीस दस रुपये निकालिए। देखूँ, दवा दूँ तो अपनी राह लीजिए।

दारोगा – दस रुपये !!

चोखे- जी हाँ, और यहाँ ठहरना चाहें तो दस रुपये रोज।

दारोगा जी विवश हो गए। बैजनाथ की स्त्री से रुपये माँगे। तब उसे अपने बक्से की याद आयी। छाती पीट ली। दारोगा जी के पास भी अधिक रुपये नहीं थे, किसी तरह दस रुपये निकालकर चोखेलाल को दिये- उन्होंने दवा दी। दिन भर कुछ फायदा न हुआ। रात को दशा सँभली। दूसरे दिन फिर दवा की आवश्यकता हुई। मुंशियाइन का एक गहना जो 20 रुपए से कम का न था बाजार में बेचा गया। तब काम चला। शाम तक मुंशीजी चंगे हुए। रात को गाड़ी पर बैठकर खूब गालियाँ दीं।

श्री अयोध्या जी में पहुँच कर स्थान की खोज हुई। पंडों के घर में जगह न थी। घर-घर में आदमी भरे हुए थे। सारी बस्ती छान मारी, पर कहीं ठिकाना न मिला। अंत में यह निश्चय हुआ कि किसी पेड़ के नीचे डेरा जमाना चाहिए। किन्तु जिस पेड़ के नीचे जाते थे वहीं यात्री पड़े मिलते। खुले मैदान में, रेत पर पड़े रहने के सिवा और कोई उपाय न था। एक स्वच्छ स्थान देखकर बिस्तरे बिछाये और लेटे। इतने में बादल घिर आये। बूँदे गिरने लगीं। बिजली चमकने लगी। गरज से कान के परदे फटे जाते थे। लड़के रोते थे। स्त्रियों के कलेजे काँप रहे थे। अब यहाँ ठहरना दुस्सह था, पर जायें कहाँ।

अकस्मात् एक मनुष्य नदी की तरफ से लालटेन लिए आता हुआ दिखायी दिया- वह निकट पहुँच गया तो पंडित जी ने उसे देखा। आकृति कुछ पहिचानी हुई मालूम हुई। किंतु यह विचार न आया कि कहाँ देखा है। पास जाकर बोले- क्यों भाई साहब, यहाँ यात्रियों के ठहरने के लिए जगह न मिलेगी? वह मनुष्य रुक गया। पंडित जी की ओर ध्यान से देखकर बोला- आप पंडित चंद्रधर तो नहीं हैं?

पंडित जी प्रसन्न होकर बोले- जी हाँ। आप मुझे कैसे जानते हैं?

उस मनुष्य ने सादर पंडित जी के चरण छुए और बोला- मैं आपका पुराना शिष्य। मेरा नाम कृपाशंकर है। मेरे पिता कुछ दिनों बिल्हौर के डाक-मुंशी रहे थे। उन्हीं दिनों मैं आपकी सेवा में पढ़ता था।

पंडित जी की स्मृति जागी, बोले- ओहो तुम्हीं हो कृपाशंकर ! तब तो तुम दुबले- पतले लड़के थे, कोई आठ-नौ साल हुए होंगे।

कृपा- जी हाँ, नवाँ साल था। मैंने वहाँ से आकर इन्ट्रेस पास किया, अब यहाँ म्युनिसिपिल्टी में नौकर हूँ। कहिए आप तो अच्छी तरह रहे। सौभाग्य था कि आपके दर्शन हो गए।

पंडित – मुझे भी तुमसे मिल कर बड़ा आनंद हुआ। तुम्हारे पिता अब कहाँ हैं?

कृपा- उनका तो देहांत हो गया। माता साथ हैं। आप यहाँ कब आये।

पंडित- आज ही आया हूँ। पंडों के घर में जगह न मिली। विवश होकर यहीं रात काटने की ठहरी।

कृपा – बाल-बच्चे भी साथ हैं?

पंडित- नहीं, मैं तो अकेले ही आया हूँ। पर मेरे साथ दारोगा जी और सियाहेनवीस साहब हैं- उनके बाल-बच्चे भी साथ हैं।

कृपा – कुल कितने मनुष्य होंगे?

पंडित जी – हैं तो दस, किन्तु थोड़ी-सी जगह में निर्वाह कर लेंगे।

कृपा- नहीं साहब, बहुत सी जगह लीजिए। मेरा बड़ा मकान खाली पड़ा है। चलिये, आराम से एक, दो, तीन दिन रहिये। मेरा परम सौभाग्य है कि आपकी कुछ सेवा करने का अवसर मिला।

कृपाशंकर ने कई कुली बुलाये। असबाब उठवाया और सबको अपने मकान पर ले गया। साफ-सुथरा घर था। नौकर ने चटपट चारपाइयाँ बिछा दीं। घर में पूरियाँ पकने लगीं। कृपाशंकर हाथ बाँधे सेवक की भाँति दौड़ता था। हृदयोल्लास से उसका मुख – कमल चमक रहा था। उसकी विनय और नम्रता ने सबको मुग्ध कर लिया। और सब लोग तो खा-पीकर सोये। किंतु पंडित चंद्रधर को नींद नहीं आयी। उनकी विचार शक्ति इस यात्रा की घटनाओं का उल्लेख कर रही थी। रेलगाड़ी की रगड़-झगड़ और चिकित्सालय की नोच-खसोट के सम्मुख कृपाशंकर की सहायता और शालीनता प्रकाशमय दिखायी देती थी।

पंडित जी ने आज शिक्षक का गौरव समझा।

उन्हें आज इस पद की महानता ज्ञात हुई।

यह लोग तीन दिन अयोध्या रहे। किसी बात का कष्ट न हुआ। कृपाशंकर ने उनके साथ जाकर प्रत्येक धाम का दर्शन कराया।

तीसरे दिन जब लोग चलने लगे तो वह स्टेशन तक पहुँचाने आया। जब गाड़ी ने सीटी दी तो उसने सजल नेत्रों से पंडित जी के चरण छुए और बोला, कभी-कभी इस सेवक को याद करते रहिएगा।

पंडित जी घर पहुँचे तो उनके स्वभाव में बड़ा परिवर्तन हो गया था। उन्होंने फिर किसी दूसरे विभाग में जाने की चेष्टा नहीं की।

बोध – ज्ञान, जानकारी, तसल्ली।

मुदर्रिसी – अध्यापक की नौकरी, शिक्षकता।

जंजाल – झंझट, बखेड़ा।

मजूर – मजदूर।

तहसील – तहसीलदार का दफ्तर या कचहरी।

मुंशी – मुहरिर, कायस्थों की एक उपाधि।

सियाहेनवीस – सरकारी खजाने में सियाहा लिखनेवाला।

सियाहा – आय-व्यय की बही अथवा रोजनामचा; सरकारी खजाने का वह रजिस्टर जिसमें जमीन से प्राप्त मालगुजारी लिखी जाती है।

खमीरा – कटहल या अन्य फल आदि का सड़ाव जो तंबाकू में डाला जाता है।

कबाब – सीकों पर भूना हुआ मांस।

रोबदाब – बड़प्पन की धाक, दबदबा।

बनिया –व्यापारी, आटा-दाल आदि बेचनेवाला।

टका अधन्ना, दो पैसे।

ठाठ-बाट – आडम्बर, सजधज, तड़क-भड़क।

इधर-उधर फेरनेवाला। अनुग्रहपूर्ण

कुढ़ते – मन ही मन खीझना या चिढ़ना ।

कोसना – गालियाँ देना।

निगरानी – देख रेख।

आवारा – व्यर्थ इधर-उधर गुमने वाला। 

उनकी बदौलत – उनके कारण से।

ऊसर – बंजर क्षारमृत्तिका या खारी जमीन; वह भूमि जिसमें रेह या लोनी मिट्टी अधिक होने के कारण पानी बरसने पर भी घास तक नहीं जमती।

मेले-ठेले – भीड़-भाड़।

असमंजस – दुविधा,

भगदड़-सी- भागने की भाँति

खुफिया – गुप्त, छिपा हुआ।

फरोसी – बेचनेवाला।

रियायत – छूट, नरमी।

चालान – किसी अपराधी का पकड़ा जाकर न्याय के लिए न्यायालय में भेजा जाना।

ढकेल देना – धक्के से गिरा देना।

दरोगा – थानेदार।

जबान – जीभ।

ठट्ठा मारकर हँसना – उपहास करना।

हटे-कट्टे – हृष्ट-पुष्ट।

सन्दूक – पिटारा, बक्स।

हेठी- तौहीन या मानहानि।

महाशय – खोटा आदमी।

तमाशा – वह दृश्य जिसके देखनेसे मनोरंजन हो।

बैर – दुश्मनी।

कचूमर निकालना – कुचलना या कूटना या पीटना।

रोब –  दबदबा।

असबाब – वस्तु, सामान।

उल्टी- वमन, कै।

नस – स्नायु।

कै- उल्टी।

दस्त- पतला पायखाना।

खटका – भय, चिन्ता।

हैजा – विशूचिका, दस्त और कै की बीमारी।

हकीम – चिकित्सक।

ढाढस – आश्वासन, तसल्ली, धैर्य।

डोली – एक प्रकार की सवारी जिसे कहार कंधों पर लेकर चलते हैं, पालकी, शिविका।

बरामदा – दालान, बारजा।

जनाब – महाशय, बड़ों के लिए आदरसूचक शब्द।

स्याहा – सरकारी खजाने का वह रजिस्टर जिसमें जमीन से प्राप्त मालगुजारी लिखी जाती है, भूमिकर।

चंगा – स्वस्थ।

डेरा – पड़ाव, ठिकाना।

चारपाई – खाट, खटिया।

नोच-खसोट – झीना-झपटी।

शालीनता – विनम्रता।

(क) पंडित चंद्रधर हमेशा क्यों पछताया करते थे?

उत्तर – पंडित चंद्रधर हमेशा पछताया करते थे क्योंकि उन्हें यह लगता था कि यदि वे किसी अन्य विभाग में नौकर होते तो अब तक हाथ में चार पैसे होते, आराम से जीवन व्यतीत होता। मास्टरी में तो महीने भर प्रतीक्षा करने के बाद कहीं पंद्रह रुपये देखने को मिलते हैं और वह भी यह भी इधर आये, उधर गायब।

(ख) पंडितजी क्यों कहा करते थे कि ‘हम से तो मजूर ही भले’?

उत्तर – पंडितजी कहा करते थे कि ‘हम से तो मजूर ही भले’ क्योंकि मजदूरों को प्रतिदिन उनके काम के पैसे मिल जाते हैं और एक पंडितजी हैं जो महीने भर मेहनत से बच्चों को पढ़ाते हैं तो उन्हें केवल 15 रुपए ही नसीब होते हैं। 

(ग) ठाकुर अतिबल सिंह और मुंशी बैजनाथ के लिए बाजार में कैसे अलग भाव था?

उत्तर – ठाकुर अतिबल सिंह और मुंशी बैजनाथ का सारे मुहल्ले में रोब था। इन दोनों महाशयों को आते-जाते देखकर बाज़ार के बनिये उठकर सलाम करते थे। उनके लिए बाजार में अलग भाव था। चार पैसे की चीज टके में लाते।

(घ) ठाकुर साहब और मुंशीजी की कृपा के बदले में पंडितजी को क्या करना पड़ता था?

उत्तर- ठाकुर साहब और मुंशीजी पंडितजी को कभी सेर आध, सेर दूध भेज देते और कभी थोड़ी-सी तरकारियाँ। किन्तु इनके बदले में पंडित जी को ठाकुर साहब के दो और मुंशीजी के तीन लड़कों की निगरानी करनी पड़ती थी क्योंकि खेलकूद और बदमाशी में ये बच्चे अधिक लिप्त रहते थे।

(ङ) अपनी दुरवस्था से निकलने के लिए पंडितजी ने क्या किया?

उत्तर – अपनी आर्थिक दुरवस्था से निकलने के लिए तथा दूसरे विभाग में नौकरी करने के लिए पंडितजी ने बड़े-बड़े प्रयत्न किए जैसे- प्रार्थना-पत्र लिखे, आला अफसरों की खुशामदें कीं, पर उनकी आशा पूरी न हो सकी।

(च) पंडितजी पर अफसर लोग क्यों खुश थे?

उत्तर – पंडितजी पर अफसर लोग खुश थे क्योंकि पंडितजी अध्यापन के काम में बड़े कुशल थे। विद्यालय प्रबंधन के सारे कामों को त्रुटिरहित तरीके से पूरा करते थे। ठीक समय पर स्कूल जाते और देर तक काम करके ही आते थे।

(छ) पहले मुसाफिर ने ठाकुर अतिबल सिंह को गाड़ी में क्यों नहीं बैठने दिया?

उत्तर – पहले मुसाफिर ने प्रतिशोध लेने के उद्देश्य से ठाकुर अतिबल सिंह को गाड़ी में बैठने नहीं दिया क्योंकि यह वही व्यक्ति था जिस पर ठाकुर अतिबल सिंह ने खुफिया फरोसी का अपराध लगाया था और चालान न करने के लिए नकद 25 रु. की रिश्वत ली थी।

(ज) ठाकुर साहब ने दूसरे मुसाफिर का क्या बिगाड़ा था?

उत्तर – ठाकुर साहब ने दूसरे मुसाफिर को किसी मेले में बेवजह कई डंडे लगाकर उसका कचूमर निकाल दिया था। दूसरा मुसाफिर उस दिन तो चुपचाप अपनी दुर्गति का तमाशा देखता रहा पर आज अपना प्रतिशोध लेकर उसके घाव लगे दिल को दवा मिली।

(झ) डॉक्टर चोखेलाल मुंशी बैजनाथ से क्यों नाराज था?

उत्तर – डॉक्टर चोखेलाल मुंशी बैजनाथ से नाराज था क्योंकि बिल्हौर में डॉक्टर चोखेलाल की थोड़ी-सी जमीन थी जिसकी देखभाल करने के लिए उन्हें साल में दो बार जाना पड़ता था। जब वे तहसील में लगान जमा करने जाते थे तो मुंशी जी डाँटकर अपना हक अर्थात् रिश्वत वसूल कर लेते थे और न देने की स्थिति में शाम तक खड़ा रहना पड़ता था।

(ञ) पंडित चंद्रधर को नींद क्यों नहीं आयी?

उत्तर – पंडित चंद्रधर को नींद नहीं आई क्योंकि उनकी विचार शक्ति इस यात्रा की घटनाओं का उल्लेख कर रही थी। रेलगाड़ी की रगड़-झगड़ और चिकित्सालय की नोच-खसोट के सम्मुख कृपाशंकर की सहायता और शालीनता प्रकाशमय दिखायी देती थी। उन्हें अपने मास्टरी का काम बहुत अच्छा लगने लगा था।

(क) पंडित चंद्रधर ने कहाँ मुदर्रिसी की थी?

उत्तर – पंडित चंद्रधर ने अपर प्राइमरी में मुदर्रिसी की थी। 

(ख) पंडित जी के पड़ोस में कौन-कौन रहते थे?

उत्तर – पंडित जी के पड़ोस में दो महाशय रहते थे। एक ठाकुर अतिबल सिंह, वह थाने में हेड कान्सटेबुल थे। दूसरे मुंशी बैजनाथ। वह तहसील में सियाहेनवीस थे।

(ग) सन्ध्या को कचहरी से आने पर मुंशी बैजनाथ क्या करते थे?

उत्तर – सन्ध्या को कचहरी से आने पर मुंशी बैजनाथ अपने बच्चों को पैसे और मिठाइयाँ देते तथा शराब-कबाब का व्यसन भी करते थे।

(घ) ठाकुर साहब शाम को क्या करते थे?

उत्तर – ठाकुर साहब शाम को आराम कुरसी पर लेट जाते और खुशबूदार खमीरा पीते।

(ङ) दोनों महाशयों को आते-जाते देखकर बनिये क्या करते थे?

उत्तर – दोनों महाशयों को आते-जाते देखकर बाज़ार बनिये खड़े होकर उन्हें सलाम करते और उन्हें चीज़ें भी कम कीमत में ही दे दिया करते थे।

(च) पंडित जी अपने भाग्य को क्यों कोसते थे?

उत्तर – पंडित जी अपने भाग्य को कोसते थे क्योंकि अत्यधिक मेहनत करने के बाद भी उन्हें आर्थिक तंगी से गुजरना पड़ता था और कम पढ़े -लिखे होने के बाद भी उनके दोनों पड़ोसी प्रभुता सम्पन्न थे। 

(छ) मुंशी जी ने पंडितजी को किसका ख्याल रखने को कहा और क्यों?

उत्तर – मुंशी जी ने पंडितजी को अपने तीन लड़कों का ख्याल रखने को कहा क्योंकि उनके तीनों लड़के खेल-कूद और बदमाशी कुछ ज़्यादा ही करते थे।

(ज) ऊसर की खेती किसे कहा गया है?

उत्तर – शिक्षा विभाग में वेतन- वृद्धि को ऊसर की खेती कहा गया है क्योंकि यह बड़े भाग्य से हाथ लगती थी।

(झ) पहले मुसाफिर पर ठाकुर साहब ने कौन – सा अपराध लगाया था और कितने रुपये लेकर वे टले थे?

उत्तर – पहले मुसाफिर पर ठाकुर साहब ने खुफियाफरोशी का अपराध लगाया था और वे 25 रुपये लेकर टले थे।

(ञ) दूसरे मुसाफिर ने ठाकुर साहब से नीचे बैठ जाने की बात करते हुए क्या कहा?

उत्तर – दूसरे मुसाफिर ने ठाकुर साहब से नीचे बैठ जाने की बात करते हुए कहा कि आप नीचे बैठ जाएँ। इसमें आपकी कौन-सी हेठी हुई जाती है। यह थाना थोड़े ही है कि आपके रोब में फर्क पड़ जाएगा।

(ट) कृपाशंकर ने बिल्हौर से कौन-सी परीक्षा पास की और अयोध्या में किस पद पर तैनात हुआ था?

उत्तर – कृपाशंकर ने बिल्हौर से इण्ट्रेंस की परीक्षा पास की और अयोध्या म्युनिसिपिल्टी में नौकर के पद पर तैनात हुआ था। 

(ठ) पंडित जी को किस बात का बोध हुआ?

उत्तर – पंडित जी अपने शिक्षक होने के महत्त्व का बोध हुआ और फिर कभी न उन्होंने अपने आपको कोसा और न शिक्षक का पद छोड़कर दूसरे विभाग में नौकरी करने की कोशिश की।   

(क) ‘बोध’ कहानी किसने लिखी है?

उत्तर – ‘बोध’ कहानी मुंशी प्रेमचंद ने लिखी है।

(ख) पंडित चंद्रधर ने अपर प्राइमरी में कौन-सी नौकरी की थी?

उत्तर – पंडित चंद्रधर ने अपर प्राइमरी में मुदर्रिसी अर्थात् अध्यापक की  नौकरी की थी।

(ग) कौन सदा पछताया करते थे कि कहाँ से इस जंजाल में आ फँसे?

उत्तर – पंडित चंद्रधर पछताया करते थे कि कहाँ से इस जंजाल में आ फँसे।

(घ) महीने भर प्रतीक्षा करने के बाद पंडित जी को कितने रुपये देखने को मिलते थे?

उत्तर – महीने भर प्रतीक्षा करने के बाद पंडित जी को 15 रुपये देखने को मिलते थे

(ङ) तहसील में सियाहेनवीस कौन था?

उत्तर – मुंशी बैजनाथ तहसील में सियाहेनवीस थे। 

(च) ठाकुर साहब आराम कुर्सी पर लेटकर क्या पीते थे?

उत्तर – ठाकुर साहब आराम कुर्सी पर लेटकर खुशबूदार खमीरा पीते थे।

(छ) मुंशी जी को कौन-सा व्यसन था?

उत्तर – मुंशी जी को शराब और कबाब का व्यसन था।

(ज) अफसर लोग किस पर खुश थे?

उत्तर – अफसर लोग पंडित चंद्रधर पर खुश थे।

(झ) वेतन वृद्धि को किसकी खेती कहा गया है?

उत्तर – वेतन वृद्धि को ऊसर की खेती कहा गया है।

(ञ) कौन-से महीने में मुंशी बैजनाथ और ठाकुर अतिबल सिंह अयोध्या की यात्रा के लिए निकले थे?

उत्तर – सावन के महीने में मुंशी बैजनाथ और ठाकुर अतिबल सिंह अयोध्या की यात्रा के लिए निकले थे।

(ट) दोनों महाशयों ने कितने सप्ताह की छुट्टी ली?

उत्तर – दोनों महाशयों ने एक-एक सप्ताह की छुट्टी ली।

(ठ) बिल्हौर से कितने बजे गाड़ी छूटती थी?

उत्तर – बिल्हौर से एक बजे रात को गाड़ी छूटती थी।

(ड) डॉक्टर चोखेलाल कहाँ के रहनेवाले थे?

उत्तर – डॉक्टर चोखेलाल बिल्हौर के रहनेवाले थे।

(ढ) किसकी विनय और नम्रता ने सब को मुग्ध कर लिया?

उत्तर – कृपशंकर की विनय और नम्रता ने सब को मुग्ध कर लिया।

(ण) शिक्षक का गौरव किसने समझा?

उत्तर – पंडित चंद्रधर ने शिक्षक का गौरव समझा।

(त) सभी लोग अयोध्या में कितने दिन रहे?

उत्तर – सभी लोग अयोध्या में तीन दिनों तक रहे।

(क) हमसे तो मजूर ही भले।

उत्तर – इस कथन के माध्यम से पंडित चंद्रधर यह कहना चाहते हैं कि मास्टरी या शिकक्षता के काम से तो मजदूरी ही भली है क्योंकि मजदूरों को हर दिन उनके काम के पैसे मिल जाते हैं पर मुझे तो पूरे महीने के इंतज़ार के बाद 15 रुपए ही देखने को मिलते हैं।  

(ख) परन्तु इस विभाग की वेतन वृद्धि ऊसर की खेती है।

उत्तर – इस कथन का उद्देश्य यह है कि शिक्षा विभाग में वेतन वृद्धि का मामला उतना ही कठिन है जितना कि बंजर भूमि में फसल उगना। इसी कारण से पंडित चंद्रधर को सदा आर्थिक तंगियों से गुजरना पड़ता था। 

(ग) कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर।

उत्तर – इस कथन का आशय यह है कि समय बदलता रहता है और समय यह मौका सबको देता है कि वह अपना बदला ले सके जैसे इस पाठ में डॉक्टर चोखेलाल ने मुंशी बैजनाथ को अपने जमीन के मामले में रिश्वत दी थी और आज वह उनसे रिश्वत लेकर अपना प्रतिशोध पूरा करता है।

(घ) पंडित जी ने आज शिक्षक का गौरव समझा।

उत्तर – पंडित जी ने अयोध्या यात्रा के दौरान यह पाया कि उनके दोनों पड़ोसियों के साथ उनके कर्मों के आधार पर बुरा व्यवहार हुआ पर उनके अच्छे कर्मों के कारण ही उनके पुराने छात्र कृपाशंकर ने अयोध्या में उनकी बहुत ही मदद की। इन सब घटना चक्र पर विचार करते हुए उन्होंने शिक्षक के गौरव को महसूस किया।   

(क) चार पैसे की चीज टके में लाते।

(ख) ईश्वर ने उन्हें इतनी प्रभुता दे रखी थी।

(ग) आपने आकर मेरा कचूमर निकाल लिया।

(घ) दारोगा जी ने दौड़-धूप कर एक डोली का प्रबन्ध किया।

(ङ) मेरे पिता कुछ दिनों बिल्हौर के डाक-मुंशी रहे थे।

(क) पंडित चंद्रधर को कितने रुपये मासिक वेतन मिलता था?

(i) दस

(ii) पचास

(iii) पन्द्रह

(iv) सौ

उत्तर –  (iii) पन्द्रह

(ख) मुंशी बैजनाथ के कितने लड़के थे?

(i) दो

(ii) चार

(iii) तीन

(iv) पाँच

उत्तर – (iii) तीन

(ग) ‘इसमें कौन-सी हेठी हुई जाती है’। यह वाक्य किसने कहा?

(i) पहले मुसाफिर ने

(ii) पंडित चंद्रधर ने

(iii) दूसरे मुसाफिर ने

(iv) मुंशी बैजनाथ ने

उत्तर – (iii) दूसरे मुसाफिर ने

(घ) ‘आपके खून का प्यासा हूँ’ का अर्थ है-

(i) खून पीना चाहता हूँ

(ii) प्यास बुझाना चाहता हूँ

(iii) वध करना चाहता हूँ

(iv) मार-पीट करना चाहता हूँ।

उत्तर – (iii) वध करना चाहता हूँ। 

(ङ) ‘पंडित जी ने आज शिक्षक का गौरव समझा’ का आशय है-

(i) शिक्षकता का महत्त्व अधिक है।

(ii) सबसे बड़ी नौकरी शिक्षक की है।

(ii) दूसरी नौकरियों का कोई महत्त्व नहीं है।

(iv) शिक्षक बनने में वेतन अधिक मिलता है।

उत्तर – (ii) सबसे बड़ी नौकरी शिक्षक की है।

1. निम्नलिखित वाक्यों को पढ़िए :

(क) पंडित चंद्रधर ने एक अपर प्राइमरी में मुदर्रिसी की थी।

(ख) पंडित जी के पड़ोस में दो महाशय और रहते थे।

(ग) ठाकुर साहब शाम को आराम कुरसी पर लेट जाते थे।

(घ) गाड़ी में जगह की बड़ी कमी थी।

(ङ) ठाकुर साहब क्रोध से लाल हो रहे थे।

(च) ठाकुर साहब ने बाल-बच्चों को वहाँ से निकालकर दूसरे कमरे में बैठाया।

पहले वाक्य में ‘पंडित चंद्रधर ने’, ‘एक अपर प्राइमरी में’, ‘मुदर्रिसी’;

दूसरे वाक्य में ‘पंडितजी के’, ‘पड़ोस में’;

तीसरे वाक्य में ‘ठाकुर साहब’, ‘शाम को’, ‘आराम कुरसी पर ‘;

चौथे वाक्य में ‘गाड़ी में’, ‘जगह की ‘ ;

पाँचवें वाक्य में ‘ठाकुर साहब’, ‘क्रोध से’;

    छठे वाक्य में ‘ठकु साहब ने’, ‘बाल-बच्चों को’, ‘वहाँ से निकलकर’, ‘दूसरे कमरे में आदि पद संज्ञा – शब्द के रूप हैं। इनका संबंध क्रमशः ‘की थी’, ‘रहते थे’, ‘लेट जाते थे’, बड़ी कमी थी’, ‘हो रहे थे’, ‘बैठाया’ आदि क्रियाओं से सूचित हो रहा है। इसलिए ये शब्द कारक हैं।

याद रखिए – संज्ञा व सर्वनाम शब्दों का वाक्य के अन्य शब्दों से, क्रिया से संबंध बतानेवाले शब्द-रूपों को कारक कहते हैं।

साथ-साथ विभक्ति या परसर्ग को भी जानिए-

ऊपर दिये गए वाक्यों में संज्ञाओं का क्रिया से संबंध बतानेके लिए कुछ चिह्नों जैसे- ने, में, के, को, पर, की, से आदि का प्रयोग किया गया है। इन चिह्नों को विभक्ति-चिह्न कहते हैं।

याद रखिए – वाक्य में प्रयुक्त संज्ञा को, कर्म, आदि में विभक्त करनेवाले या कारकों का रूप प्रकट करने के लिए प्रयोग में आनेवाले शब्द – चिह्नों को विभक्ति कहते हैं।

संज्ञा, सर्वनाम आदि शब्दों के बाद अर्थात् अंत में जुड़नेके कारण विभक्ति को ‘परसर्ग’ भी कहा जाता है। कभी-कभी कुछ वाक्यों में कुछ शब्दों के साथ विभक्ति का प्रयोग नहीं होता।

जैसे — ‘ठाकुर साहब क्रोध से लाल हो रहे थे।’

इस वाक्य में ‘ठाकुर साहब’ के बाद किसी विभक्ति या परसर्ग का प्रयोग नहीं हुआ है। ऐसे वाक्यों में शब्द – क्रम या अर्थ के आधार पर क्रिया से संज्ञा का संबंध स्पष्ट होता है।

2. विभक्ति – संबंधी अशुद्धियों पर ध्यान दीजिए :

संज्ञा शब्द के साथ विभक्ति का प्रयोग होने पर इसे अलग लिखा जाता है।

जैसे— ‘ठाकुर साहब ने बाल-बच्चों को दूसरे कमरे में बैठाया’।

इस वाक्य में ‘ठाकुर साहब’, ‘बाल-बच्चों’ और ‘कमरे’ संज्ञा – शब्द हैं और इनके साथ प्रयुक्त क्रमशः ‘ने’, ‘की’ और ‘में’ आदि विभक्तियों का प्रयोग अलग हुआ है।

• सर्वनाम के साथ विभक्ति का प्रयोग होने पर इसे मिलाकर लिखा जाता है

जैसे- ‘मैंने आपका क्या बिगाड़ा है’?

इस वाक्य में ‘मैं’ और ‘आप’ सर्वनाम – शब्द हैं। इनके साथ प्रयुक्त क्रमशः ‘ने’ और ‘का’ प्रयोग मिलकर हुआ है।

वाक्य में ‘ने’ के प्रयोग पर ध्यान देना आवश्यक है।

जैसे- ‘मैंने कुछ का कुछ लिख दिया है।’ ठीक है। पर यह कहना कि

‘मैं कुछ का कुछ लिख दिया हूँ’ गलत है।

कुछ जगह ‘ने’ के प्रयोग की आवश्यकता नहीं है।

जैसे – ‘सब लोग खा-पीकर सोये’। ठीक है।

पर यह कहना कि ‘सब लोगों ने खा-पीकर सोये’ गलत है।

कभी-कभी ‘ने’ के प्रयोग को सही नहीं माना जाता।

जैसे- ‘उसने कटक जाना था’।

यहाँ ‘ने’ का प्रयोग गलत है।

अतः यह कहना ठीक होगा-

‘उसे कटक जाना था’ |

वाक्य में ‘को’ विभक्ति के प्रयोग पर ध्यान दें –

– वह अपने भाग्य को कोस रहा है। (सही)

– वह अपना भाग्य कोस रहा है। (गलत)

– पुस्तक लाओ। (सही)

– पुस्तक को लाओ। (गलत)

– सबको भगवान् की पूजा करनी चाहिए। (सही)

– सबको भगवान को पूजना चाहिए। (गलत)

– राम कहीं काम से गया है। (सही)

– राम कहीं काम को गया है। (गलत)

वाक्य में ‘से’ विभक्ति के सही प्रयोग को समझें

राम देर से स्कूल जाता है। (सही)

राम देर को स्कूल जाता है। (गलत)

इसी बहाने हम चले आये। (सही)

इसी बहाने से हम चले आये। (गलत)

सबको नमस्ते कहियेगा। (सही)

सबसे नमस्ते कहियेगा। (गलत)

वह मुझ पर नाराज है। (सही)

वह मुझ से नाराज है। (गलत)

सीता साइकिल से कॉलेज आती है। (सही)

सीता साइकिल में कॉलेज आती है। (गलत)

● वाक्य में ‘में’ विभक्ति का प्रयोग देखें

राम दिन में एक बार भी नही मिला। (सही)

राम दिन भर एक बार भी नहीं मिला। (गलत)

कल रात पंडित जी को नींद नहीं आयी। (सही)

कल रात में पंडित जी को नींद नहीं आयी। (गलत)

परस्पर सहयोग होना चाहिए। (सही)

परस्पर में सहयोग होना चाहिए। (गलत)

पक्षी पेड़ पर बैठा है। (सही)

पक्षी पेड़ में बैठा है। (गलत)

1. निम्नलिखित वाक्यों में रेखांकित पदों के कारक बताइए :

(क) खुले मैदान में, रेत पर पड़े रहने के सिवा और कोई उपाय न था।

उत्तर –  खुले मैदान में – अधिकरण कारक

रेत पर – अधिकरण कारक

(ख) मुझे भी तुमसे मिल कर बड़ा आनन्द हुआ।

उत्तर – मुझे – कर्म कारक

तुमसे – कारण कारक

(ग) मेरा परम सौभाग्य है कि आपकी कुछ सेवा करने का अवसर मिला।

उत्तर – मेरा परम – कर्म कारक

आपकी – संबंध कारक

(घ) रेलगाड़ी की रगड़-झगड़ और चिकित्सालय की नोच-खसोट के सम्मुख

कृपाशंकर की सहायता और शालीनता प्रकाशमय दिखायी देती थी।

उत्तर – रेलगाड़ी की – संबंध कारक

चिकित्सालय की – संबंध कारक

2. निम्नलिखित वाक्यों के खाली स्थानों को उपयुक्त परसर्गों से पूरा कीजिए :

(क) अब तक हाथ में चार पैसे होते, आराम से जीवन व्यतीत होता।

(ख) मैंने तुम्हारे साथ रियायत की थी।

(ग) आपने मेरी सूरत न देखी होगी, पर आपके डंडे ने देखी है।

(घ) खुले मैदान में रेत पर खड़े थे।

3. निम्नलिखित शब्दों से भाववाचक संज्ञा बनाइए :-

पंडित – पांडित्य

मौजूद – मौजूदगी

प्रभु – प्रभुता

शालीन – शालीनता

बुरा – बुराई

अच्छा – अच्छाई

विनम्र – विनम्रता

महान् – महानता

4. रेखांकित पदों के संज्ञा – भेद लिखिए

(क) जरा जबान सँभाल कर बातें कीजिए।

उत्तर – जातिवाचक संज्ञा

(ख) इन दोनों दुष्टों ने उनका असबाब फेंक दिया।

उत्तर – जातिवाचक संज्ञा

(ग) प्रत्येक स्टेशन पर कोयला- पानी ले लेते थे।

उत्तर – द्रव्यवाचक संज्ञा

(घ) लोगों की जान में जान आयी।

उत्तर – जातिवाचक संज्ञा

(ङ) कृपाशंकर ने पंडित जी के चरण छुए।

उत्तर – व्यक्तिवाचक संज्ञा

(च) मेले-ठेले में एक फालतू आदमी से बड़े काम निकलते हैं।

उत्तर – जातिवाचक संज्ञा

5. रेखांकित पदों के कारक बताइए

(क) मुसाफिर ने क्रोधपूर्ण नेत्रों से देखा।

उत्तर – करण कारक 

(ख) दारोगा जी ने अपने मित्र की बुरी दशा देखी।

उत्तर – संबंध कारक  

(ग) वे लोग खुले मैदान में, रेत पर पड़े रहे।

उत्तर – अधिकरण कारक 

(घ) कृपाशंकर ने कई कुली बुलाये।

उत्तर – कर्ता कारक  

(ङ) वे लोग मुंशी जी को एक पेड़ के नीचे उठा ले गए।

उत्तर – कर्म कारक 

याद रखिए – कारक आठ प्रकार के होते हैं – कर्त्ता कारक, कर्म कारक, करण कारक, संप्रदान कारक, अपादान कारक, संबंध कारक, अधिकरण कारक और संबोधन कारक।

6. निम्नलिखित वाक्यों में से कारक छाँटिए और उनके नाम भी लिखिए:

(i) मुंशी जी को शराब-कबाब का व्यसन था।

उत्तर – मुंशी जी को – कर्म कारक, शराब-कबाब का – संबंध कारक

(ii) माता ने बच्चे को सुलाया।

उत्तर – माता ने – कर्ता कारक,  बच्चे को – कर्म कारक 

(iii) ठाकुर साहब गाड़ी से उतरने लगे।

उत्तर – गाड़ी से – अपादान कारक 

(iv) लोग आदर से डॉक्टर कहा करते थे।

 उत्तर – आदर से – करण कारक 

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