Prerak Prasang

मन की ही खाना तो देशी घी के लड्डू क्यों नहीं खाना !

आप जैसे विचार करते हैं, वैसे ही विचार वातावरण में से खिंचकर आपके पास आ जाते हैं। जमीने में जैसा बीज बोओ, उसी प्रकार का पोषण धरती और वातावरण से मिलता है एवं बीज फलित होता है। ऐसे ही यदि आपका दिल प्रफुल्लित और खुश होता है तो वातावरण में से भी प्रफुल्लता और प्रसन्नता आती है। तो हम बढ़िया विचार क्यों न करें  !

मैंने एक कहानी सुनी है:

दो मित्र थे। एक मुसलमान था और दूसरा हिन्दू दोनों ससाधु बन गए और यात्रा पर निकले। यात्रा करते-करते शाम हुई। किसी गाँव में पड़ाव डाला। आसपास में कोई भक्त नहीं था इसलिए दोनों ने मानसिक भोजन बनाया। हिन्दू साधु ने मानसिक भोजन में लड्डू, पूड़ियाँ और दाल चावल बनाए तथा मन ही मन भोग लगाकर खाने लगा। मुसलमान ने भी मानसिक भोजन बनाकर खाया तो वह ‘तौबा’ पुकारने लगा, उसकी आँखों में पानी भी आ गया।

हिन्दू साधु ने पूछा: “ऐसा तो क्या बनाकर खाया की आँखों में से पानी आ रहा है. तौबा पुकार रहे हो?”

मुसलमान साधुः “मैंने कढ़ी बनायी थी। उसमें हरी मिर्च ज्यादा डल गयी।

हिन्दू साधुः “जब मन का ही खाना बनाना था तो देशी घी के लड्डू क्यों नहीं बनाए

ऐसे ही जब सारा संसार मन के विचारों से ही चल रहा है तो परेशानी को क्यों पैदा करना ! खुशी पैदा करो, आनंद उभारो, माधुर्य लाओ। मन का माधुर्य तन के लिए भी मधुर वातावरण बना देता है।

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