भारत : स्वतंत्रता की ज्योति
जन्म 1834
मृत्यु 1858
अंग्रेजों के विरुद्ध रणयज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने वाले योद्धाओं में वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सर्वोपरि माना जाता है। 1857 में उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात किया था। अपने शौर्य से उन्होंने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। अंग्रेजों की शक्ति का सामना करने के लिए उन्होंने नए सिरे से सेना का संगठन किया और सुदृढ़ मोर्चाबंदी करके अपने सैन्यकौशल का परिचय दिया। ह्यूरोज के नेतृत्व में जब अंग्रेजी सेना ने झाँसी को चारों तरफ से घेर लिया तो रानी लक्ष्मीबाई किले के अंदर से ही अपनी सेना का संचालन करती रहीं साथ ही तांत्या टोपे की भी मदद ली। किंतु सफलता स्वभावतः बलशाली अंग्रेजों को ही मिलती रही। फिर रानी छिप कर कालपी रवाना हो गईं और वहाँ पहुँचकर नए सिरे से विद्रोह की तैयारियाँ की और ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। रानी की यह विजय भी ज्यादा दिन टिकी न रह सकी और वे अंग्रेजों से वीरतापूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गईं।

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 16 नवम्बर, 1834 को वाराणसी (उत्तर प्रदेश) में श्री मोरोपन्त के यहाँ हुआ था। उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका (मनु) था । अपनी माँ की मृत्यु हो जाने पर वह पिता के साथ बिठूर आ गई थीं। यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं। 8 वर्ष की आयु में उनका विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव से हुआ और वे अब ‘झाँसी की रानी’ कहलाने लगीं। 1851 में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। किन्तु 1853 तक उनके पुत्र एवं पति दोनों का देहावसान हो गया। रानी ने अब एक दत्तक पुत्र लेकर राजकाज देखने का निश्चय किया किन्तु कंपनी शासन उनका राज्य छीन लेना चाहता था। रानी ने जितने दिन भी शासनसूत्र संभाला वे अत्यधिक सूझबूझ के साथ प्रजा के लिए कल्याण कार्य करती रहीं। इसीलिए वे अपनी प्रजा की स्नेहभाजन बन गई थीं। साधनों के अभाव एवं उचित सहयोग न मिल पाने के कारण 24 वर्ष की छोटी सी आयु में वे, 19 जून, 1858 को, लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गईं। बाबा गंगादास ने उनका अंतिम संस्कार किया था ।