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तीर्थराज प्रयाग  – तीर्थ-स्थान का वर्णन

तीर्थराज प्रयाग

(1) प्रस्तावना — प्रयाग की धार्मिक महत्ता

(2) स्थिति

(3) संगम का दृश्य

(4) दर्शनीय धार्मिक स्थान

(5) प्राचीन प्रयाग

(6) उपसंहार – सारांश

“को कहि सकै प्रयाग प्रभाऊ,

कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ।”

वास्तव में प्रयाग का प्रभाव अवर्णनीय है। इसकी धार्मिक महत्ता समस्त तीर्थ स्थानों से बढ़कर है। तभी तो इसे तीर्थराज के नाम से विभूषित किया गया है। देश के कौने-कौने से धार्मिक व्यक्ति यहाँ आते हैं और यहाँ की यात्रा से अपने को कृतकृत्य समझते हैं। यहाँ प्रतिवर्ष माघ मास में एक धार्मिक मेला लगता है जो ‘माघ मेला’ के नाम से प्रसिद्ध है। प्रति छ: वर्ष बाद ‘कुम्भी’ और प्रति बारह वर्ष व्यतीत होने पर ‘कुम्भ’ नामक मेला लगता है। इन अवसरों पर अपार जन समूह उमड़ता है और तीर्थराज के दर्शन का पुण्य लूटता है।

प्रयाग हमारे देश की पुनीत नदियों, गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर, जो त्रिवेणी कहलाता है, स्थित है। सरस्वती आजकल अदृश्य हैं। क्यों? सीताजी की कल्पित उक्ति सुनिए-

“संगम शोभा निरख निमग्न हुई यहाँ।

धूप-छाँह का वस्त्र मात्र उसका बड़ा,

मन्द पवन से लहर रहा है यह पड़ा”

यहाँ गंगा-यमुना को सरस्वती का धूप-छाँह वस्त्र माना गया है। प्रयाग को गंगा बाईं ओर से तथा जमुना दाहिनी ओर से घेरे हुई हैं। इसे दोनों ने ललककर अपनाया है। इसे दोनों के स्नेहाञ्चल में खेलने का सौभाग्य उपलब्ध है। इसे दोनों की वात्सल्य-पूर्ण गोद मिली है।

संगम की शोभा का क्या कहना ! अनुपम है। देखिए, गोस्वामी तुलसीदासजी क्या कहते हैं:

“सो है सितासित को मिलिबो,

तुलसी हुलसै हिय हेरि हिलोरे।

मानो हरे तृन चारु चरै,

बगरे सुरधेनु के धौल कलोरे॥”

कितनी सुन्दर उक्ति है! सचमुच गंगा-यमुना की श्वेत-श्याम धाराओं का पारस्परिक मिलन और उनसे उत्पन्न तरंगों का दृश्य हृदय में अनिर्वचनीय आनन्द की सृष्टि करता है। ऐसा प्रतीत होता है मानों वर्षा की घटा से शरद-घटा आ मिली हो। तट पर नावों का जाल-सा बिछा रहता है, जिनमें बैठकर यात्री संगम पर स्नान करने के निमित्त जाते हैं। वहाँ का दृश्य मनोहर होता है। कोई जल में गोते लगाता है, तो कोई तैरता है। कोई दुग्ध-पुष्पादि से त्रिवेणी की पूजा करता है, तो कोई ध्यान-मग्न होकर भगवान की वन्दना करता है। कोई पितरों को पिंड दान करता है, तो कोई तीर्थराज की नौकारूढ़ मूर्ति के दर्शन करता है। कोई पण्डों को दान-दक्षिणा देता है, तो कोई काँच अथवा धातु पात्र में त्रिवेणी-जल भरता है। नर-नारियों की पर्याप्त भीड़ रहती है। हिलोरों के कारण नौकाएँ डगमगाती हैं। पंडों की रंग-विरंगी पताकाएँ वायु के थपेड़ों से फरफराती हुई उड़ती हैं। नावों के डाँडों से विहरती हुई बूँदें मोतियों को मात करती हैं। दृश्य है ! कैसी अनूठी छवि है! संगम का कितना सुहावना

प्रयाग में भरद्वाज आश्रम है जहाँ सुविख्यात भरद्वाज मुनि निवास करते थे। यह आश्रम पंडित जवाहरलाल नेहरू के ‘आनन्द- भवन’ के सन्निकट है। स्वयं रामचन्द्रजी, लक्ष्मणजी और सीताजी सहित भरद्वाज जी के आश्रम पर पधारे थे। मुनि ने कंद मूल फल से उनका अतिथि सत्कार किया था। अन्य धार्मिक स्थान वेणी माधवजी का मन्दिर है। किले के अन्दर अक्षयवट है, जिसकी पूजा का बहुत माहात्म्य है। यहाँ कई बड़े-बड़े देव मन्दिर और महन्तों के अखाड़े भी हैं।

प्राचीन काल में प्रयाग का धार्मिक गौरव विशेष था। यहाँ धर्म- जिज्ञासु और महात्मा रहा करते थे। भरद्वाजजी के यहाँ संत- समागम होता था। याज्ञवल्क्यजी ने यहीं भरद्वाजजी को रामकथा सुनाई थी। महान सम्राट् अशोक प्रयाग में हो धर्म सभा बुलाते थे और धर्म का प्रचार करते थे। वे यहीं प्रतिवर्ष सहस्रों मुद्राओं का दान करते थे। पुराने समय से ही प्रयाग आर्य-संस्कृति एवं सभ्यता का केन्द्र रहा है। बाज भी यहाँ संस्कृत के कई विद्यालय तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रधान कार्यालय है।

सारांश यह है कि ‘सकल सुमंगल- देनी’, पुण्य सलिला त्रिवेणी ने प्रयाग को जो धार्मिक महत्ता प्रदान की है, जो पवित्रता प्रदान की है, जो सांस्कृतिक- गरिमा प्रदान की है, वह अन्यत्र अलभ्य है। वीतराग मुनि भरद्वाज के संपर्क के कारण भी प्रथा का स्थान बहुत ऊँचा उठ गया है। अक्षयवट भी भक्त लोगों के आकर्षण की वस्तु है। भारत में प्रयाग से बढ़कर अन्य कोई तीर्थ नहीं है। हो भी कैसे ? वह स्थान जिसने सुरसरि भगवती भागीरथी को अपने निकट आकृष्ट कर लिया, वह स्थान जिसने तरणि-तनया कालिन्दी को अपने पास बुला लिया, वह स्थान जहाँ रामभक्ति में चूर रहने वाले महामुनि भरद्वाज ने निवास किया, वह स्थान जिसने भारत- माता के अनन्य सेवक श्री जवाहरलाल नेहरू को उत्पन्न किया, क्यों न हिन्दू-मात्र की श्रद्धा का पात्र बने, क्यों न हिन्दू नर-नारियों के हृदय में उच्च आसन ग्रहण करे, क्यों न अगणित धार्मिक व्यक्तियों की धर्म-पिपासा शान्त करे? ‘हरिद्वारे प्रयागे च गंगासागर संगमे’ वाले श्लोक में तीर्थराज प्रयाग की धार्मिक महत्ता ठीक ही प्रतिपादित हुई है। स्वयं भगवान् राम ने अपने श्रीमुख से इसकी महिमा का गान किया है, जो इस प्रकार है-

सचिव सत्य श्रद्धा प्रिय नारी

माधव सरिस मीत हितकारी॥

चारि पदारथ भरा भंडारू!

पुण्य प्रदेश देश श्रति चारू॥

क्षेत्र अगम गढ़ गाढ़ सुहावा।

सपनेहुँ जिन्ह प्रतिपक्ष न भावा॥

सेन सकल तीरथ वर बीरा।

कलुष अनीक दलन रणधीरा॥  

संगम सिंहासन सुठि सोहा।

छत्र अछयबट मुनि-मन मोहा ॥

चमर, जमुनजल गंग तरंगा।

देखि होहिं दुख दारिद भंगा॥

सेवहिं सुकृति साधु सुचि, पावहिं मन बंदी सब काम।  

वेद पुराण गण, कहहिं विमल गुणग्राम॥

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