विद्या अभ्यास से प्राप्त होती है। जन्म से ही कोई व्यक्ति किसी कार्य में पारंगत नहीं होता, अभ्यास द्वारा कालांतर में चतुर तथा लब्ध प्रतिष्ठ हो जाता है। अभ्यास के द्वारा जड़ बुद्धि वाले व्यक्ति सुजान अर्थात् बुद्धिमान बन जाते हैं। जो पहले से सुजान होते हैं, अभ्यास उन्हें और अधिक कुशल बना देता है, जिससे वे कार्य में पारंगत हो जाते हैं। अभ्यास को समय की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। हम जितना अधिक अभ्यास करेंगे उतना ही अधिक फल प्राप्त करेंगे। इसी कारण कवि वृंद ने कहा है:
“करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात तें सिल पर होत निसान॥”
अभ्यास का साधन धैर्य तथा आत्मविश्वास है। जिसमें धैर्य व आत्मविश्वास नहीं हैं, वह अभ्यासी नहीं हो सकता। प्रारंभ में सभी अबोध एवं अनजान होते हैं, अभ्यास उन्हें विद्वान, महान एवं कालजयी बनाता है। संस्कृत के महान वैयाकरण बोपदेव का जीवन इसका स्पष्ट प्रमाण है। उनका मन पढ़ने में नहीं लगता था। वे सदैव गुरु के आश्रम से भागने की चेष्टा करते रहते थे। उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आता था। एक दिन वे प्यास बुझाने के लिए पनघट पर गए। उन्होंने देखा कि धागों के बने रस्से ने मजबूत पत्थर को छील दिया था, उस पर चिह्न बन गया था। बोपदेव समझ गए कि बार-बार रगड़ने से यदि पत्थर घिस सकता है तो धैर्य तथा आत्मविश्वास पूर्वक अभ्यास से वे भी विद्वान बन सकते हैं और उन्होंने इसे सिद्ध भी कर दिखाया।
अभ्यास की आवश्यकता केवल शिक्षा के लिए हो, ऐसी बात नहीं है। मनुष्य ही नहीं प्राणीमात्र के जीवन में अभ्यास का महत्त्व है। चींटी कभी हार नहीं मानती, बार-बार उसी मार्ग पर आने-जाने का अभ्यास करती है और सफल होती है। मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अभ्यास के बिना काम नहीं चलता । अभ्यास से कार्यकुशलता तो बढ़ती ही है, समय की भी बचत होती है। अनाड़ी व्यक्ति यदि एक काम को दो घंटे में करेगा तो अभ्यासी उसे कुछ मिनटों में कर सकता है। अभ्यास से वस्तु के गुण-दोष की पहचान होती है। यह मनुष्य का अभ्यास ही है जो कार्य में सौंदर्य और कलात्मकता उत्पन्न करता है। किसी भी कला को सीखने के लिए निरंतर अभ्यास की आवश्यकता होती है। संगीतकार, चित्रकार घंटों अभ्यास करते हैं तब उन्हें सफलता प्राप्त होती है।
अभ्यास का दूसरा नाम धैर्यपूर्ण परिश्रम है। विश्व के सभी श्रेष्ठ विद्वान, वैज्ञानिक, खिलाड़ी अभ्यास के बल पर ही सफलता प्राप्त कर पाए हैं। कालिदास, तुलसीदास, स्टालिन, अब्राहिम लिंकन, लालबहादुर शास्त्री, सचिन तेंदुलकर और भी न जाने कितने धैर्यपूर्ण परिश्रम के सहारे महान लोगों की श्रेणी में पहुँच पाए हैं। इन सबने खूब अभ्यास किया है और समय को अपने अनुकूल बना लिया है। यदि ये भाग्य के सहरे बैठे रहते तो इन्हें सफलता प्राप्त नहीं होती। ग्रामीण कहावत है कि पेड़ के नीचे सोया व्यक्ति आम-आप चिल्लाए तो उसे आम नहीं मिल जाता। संस्कृत में वर्णित कथन का भाव भी यही है कि मनोरथ कार्य की सिद्धि नहीं करता उसके लिए उद्यम की आवश्यकता है, सोए हुए सिंह के मुँह में मृग प्रवेश नहीं करता। उसके लिए सिंह को भी परिश्रम करना पड़ता है।
‘अभ्यास’ का शत्रु ‘उतावलापन’ है। अभ्यासी को सदैव स्मरण रखना होता है कि ‘सहज पके सो मीठा होय’। कहा भी है ‘धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।’ विद्यार्थी सच्चे नागरिक तभी बन सकते हैं जब ज्ञान प्राप्त करने के अभ्यासी हों। इस समय किया गया अभ्यास जीवन भर साथ देता है। अतः कहा जा सकता है कि अभ्यास ही सफलता की कुंजी है।