Sahityik Nibandh

भक्ति काल की कृष्ण-भक्ति-धारा

bhaktikaal ki krishna bhakti dhara par nibandh

जिस प्रकार रामानुजाचार्य से प्रभावित होकर उनके अनुयायी स्वामी रामानंद ने राम-भक्ति का प्रचार किया था उसा प्रकार निम्बार्काचार्य, मध्वाचार्य और विष्णु स्वामी के प्रदशों को सम्मुख रख कर चैतन्य महाप्रभु तथा वल्लभाचार्य ने कृष्ण-भक्ति का व्यापक प्रचार किया। यद्यपि श्रीराम एवं श्रीकृष्ण में देवत्व की भावना का समावेश लगभग साथ-साथ ही हुआ था, तथापि माधुर्य-भाव से युक्त होने के कारण कृष्ण भक्ति को ही अधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई। हिंदी में कृष्ण भक्ति का प्रचार श्री वल्लभाचार्य ने किया। उन्होंने ‘भागवत पुराण’ के आधार पर प्रेम लक्षणा भक्ति को अपनाया है। इस प्रकार की भक्ति में आत्म चिंतन की अपेक्षा आत्म-समर्पण की भावना को मुख्य स्थान प्रदान किया जाता है।

अष्टछाप के कवि

वल्लभाचार्यजी ने शुद्धाद्वैतवाद और पुष्टिमार्ग नामक भक्ति के दो सिद्धांतों की स्थापना की है। इनके द्वारा उन्होंने भक्त को ईश्वर का अनुग्रह (पुष्टि) प्राप्त करने की सरल विधि बतलाई है। इस कारण उनके समुदाय में अनेक वैष्णवों ने दीक्षा ली और इस प्रकार कृष्ण भक्ति का व्यापक प्रचार हुआ। उनके सिद्धांतों को मान कर कृष्ण भक्ति का विकास करने वाले कवियों में अष्टछाप के कवि प्रमुख है। अष्टछाप की स्थापना गोस्वामी विट्ठलनाथ ने की थी। इसके कवियों के नाम सर्वश्री सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंददास, कुम्भनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी और गोविन्द स्वामी हैं। आगे हम इन सबके काव्य का पृथक्-पृथक् परिचय देंगे।

(1) सूरदास –

महात्मा सूरदास का भक्ति काल की कृष्ण भक्ति शाखा में सबसे प्रमुख स्थान है। अष्टछाप के कवियों में भी वही सबसे श्रेष्ठ है। यद्यपि उन्होंने अपने काव्य की रचना करते समय भागवत से प्रेरणा ली है, तथापि उन्होंने श्रीकृष्ण के चरित्र को मौलिक रूप में उपस्थित किया है। यही कारण है कि जहाँ भागवत के कृष्ण शक्ति के प्रतीक है वहाँ सुर के कृष्ण के चरित्र में प्रेम और मधुरता को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। उन्होंने अपने काव्य में कृष्ण के जीवन के अंतिम भाग का वर्णन नहीं किया है। उन्होंने अपने काव्य में वात्सल्य रस, शृंगार रस और का सुंदर प्रयोग किया है।

उनके काव्य में गोचारण युग की संस्कृति की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति हुई है। इसीलिए उन्होंने नंद, यशोदा, कृष्ण, राधा तथा गोपियों के चरित्रों को उसी संस्कृति के अनुसार उपस्थित किया है। उन्होंने अपने काव्य की रचना गाये जाने योग्य मुक्तक पदों के रूप में की है। उनकी शैली सर्वत्र प्रवाह- पूर्ण रही है और उन्होंने सरल ब्रजभाषा में काव्य-रचना की है। उनके पदों का संग्रह ‘सूर-सागर’ के नाम से उपलब्ध होता है।

(2) नंददास –

कविवर नंददास अष्टछाप के एक प्रमुख कवि हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण के विषय में सरस और मधुर काव्य की रचना की है। इस दृष्टि से उन्होंने कृष्ण की रास लीला और भ्रमरगीत के प्रसंगों को लेकर ‘रासपंचाध्यायी’ तथा ‘भँवरगीत’ नामक रचनाएँ उपस्थित की हैं। उन्होंने अपने भावों को संक्षिप्त और मार्मिक रूप में उपस्थित किया है। उन्होंने अपना काव्य मुक्तक रूप में ब्रजभाषा में लिखा है। उनकी भाषा स्वच्छ, मधुर और साहित्यिक है। उनकी शैली भी चुभती हुई, आकर्षक और प्रवाहपूर्ण है। उनकी भाषा के विषय में निम्नलिखित उक्ति प्रसिद्ध है-

“और कवि गड़िया, नंददास जड़िया।“

(3) कृष्णदास-

कविवर कृष्णदास ने राधा और कृष्ण के प्रेम को लेकर शृंगार रस के पद लिखे है। वह जाति के शूद्र थे, किंतु फिर भी कृष्ण भक्त कवियों में उन्होंने अपने काव्य की रचना मुक्तक रीति के अनुसार की है। भावों की दृष्टि से उनके काव्य को साधारण ही कहा जाएगा। उनकी ‘जुगलमान-चरित्र’ ‘भ्रमरगीत’ तथा ‘प्रेम-तत्त्व निरूपण’ नामक कृतियाँ प्राप्त होती है।

(4) परमानंददास-

भक्तवर परमानंददास ने तन्मयता से भरे हुए आकर्षक भक्ति-पद लिखे हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण को लेकर शृंगार रस और विनय भाव से संबंधित सरस काव्य की रचना की है। उनके मुक्तक पदों का संग्रह ‘परमानंद सागर’ नामक ग्रंथ में हुआ है।

(5) कुम्भनदास-

भक्त कुम्भनदास ने कृष्ण कथा के वात्सल्य रस और शृंगार रस से संबंधित प्रकरणों को लेकर मुक्तक पदों के रूप में काव्य-रचना की है। वह परम कृष्ण-भक्त कवि थे और संसार से विमुख रहकर भक्ति में लीन रहा करते थे।

(6) चतुर्भुजदास –

भक्त कुंभनदास के पुत्र चतुर्भुजदास भी कृष्ण भक्त कवि थे। उन्होंने श्रीकृष्ण की बाल लीला और प्रेम-लीला का गान किया है। उन्होंने अपने काव्य में नित्य प्रति व्यवहार में आने वाली ब्रजभाषा का व्यवस्थित प्रयोग किया है। इस समय उनके ‘भक्ति प्रताप’, ‘द्वादश-यश’ और ‘हित जू को मंगल’ नामक काव्य ग्रंथ तथा कुछ मुक्तक पद भी प्राप्त होते हैं।

(7) छीतस्वामी-

श्रीकृष्ण के महत्त्व का तन्मयता के साथ शांत प्रतिपादन करने वाले कवियों में छीतस्वामी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने श्रीकृष्ण की बाल- लीला और प्रेम-लीला का गान करने के अतिरिक्त विनय भाव के भी सुंदर पद लिखे हैं। व्रज-भूमि और ब्रज में रहने वालों के प्रति उन्होंने विशेष अनुराग दिखाया है। उन्होंने अपने काव्य की रचना मधुर ब्रजभाषा में की है और वह मुक्तक पदों के रूप में प्राप्त होता है।

(8) गोविन्दस्वामी-

कविवर गोविन्दस्वामी ने श्रीकृष्ण की विविध लीलाओं का सरस वर्णन किया है। उन्होंने यशोदा के पुत्र प्रेम का अच्छा चित्रण किया है, तथापि काव्य-सौंदर्य की दृष्टि से उनका काव्य साधारण कोटि का ही है। काव्य के अतिरिक्त वह संगीत कला में भी पारंगत थे। अतः उनके काव्य की रचना मुक्तक गेय पदों के रूप में ही हुई है।

इस स्थान पर यह उल्लेखनीय है कि ब्रजभाषा साहित्य में अष्टछाप के कवियों का मुख्य स्थान है। उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा वैष्णव धर्म के प्रचार में पर्याप्त योग दिया है। उनके काव्य में ब्रजभाषा का अपूर्व माधुर्य प्राप्त होता है और भावना तथा कला, दोनों ही की दृष्टि से उन्होंने अपने बाद के कवियों पर पर्याप्त प्रभाव डाला है।

अन्य कृष्ण भक्त कवि

जअष्टछाप के कवियों के अतिरिक्त श्री हितहरिवंश, मीराबाई, गदाधर भट्ट, स्वामी हरिदास, सुरदास मदनमोहन एवं रसखान आदि कुछ अन्य कवियों ने भी कृष्ण भक्ति काव्य की रचना की है। इनमें मीराबाई का सब से मुख्य स्थान है। उन्होंने श्रीकृष्ण को अपने प्रियतम के रूप में स्वीकार करते हुए माधुर्य भाव की भक्ति की है। उन्होंने श्रीकृष्ण के सौंदर्य और उनकी लीलाओं का सरस गान किया है। उनका काव्य मुक्तक रूप में मिलता है और उन्होंने उसकी रचना राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा में की है। उनके सभी पद गाये जा सकते हैं और उनकी शैली प्रवाहपूर्ण, सरल तथा आकर्षक है। हिंदी की स्त्री-लेखिकाओं में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है।

सामान्य विश्लेषण

भक्ति काल के संपूर्ण कृष्ण भक्ति काव्य का अध्ययन करने पर हमें उसमें निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ प्राप्त होती है—

(1) इस काव्य में भक्ति को ज्ञान के बंधन से मुक्त रखते हुए उसमें कीर्तन के आकर्षण का समावेश किया गया है।

(2) कृष्ण भक्त कवियों ने श्रीकृष्ण के लोकरंजक रूप का वर्णन किया है। उन्होंने केवल प्रेम-लक्षणा (माधुर्य भाव से युक्त) भक्ति को अपनाया है। उनके काव्य में भक्ति के लिए आवश्यक श्रद्धा भाव अधिक मात्रा में प्राप्त नहीं होता।

(3) इस काव्य-धारा के किसी भी कवि ने प्रबंध-काव्य की रचना नहीं की है। अतः इसमें जीवन की अनेकरूपता का समावेश नहीं हो सका है।

(4) इस काव्य में ब्रजभाषा की मधुरता का उत्कृष्ट समावेश हुआ है। यद्यपि इसकी रचना मुक्तक रूप में हुई है, तथापि गेय होने के कारण इसका हिंदी काव्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है।

Leave a Comment

You cannot copy content of this page