Sahityik Nibandh

रीति काल के आचार्य

ritikaleen acharya par ek nibandh

हिंदी साहित्य में रीति काल की स्थिति सम्वत् 1700 से 1900 तक रही है। इस अवधि में काव्य लिखने के अतिरिक्त कुछ कवियों ने उसके स्वरूप और रचना प्रणाली आदि के विषय में भी विचार उपस्थित किए है। रीति काल के आचार्यों से हमारा तात्पर्य इन्हीं कवियों से है। इस युग को ‘रीति काल’ इसी कारण कहा जाता है कि इसमें काव्य-रीति का वर्णन किया गया है। अत: यह स्पष्ट है कि रीति काल के आचार्यों ने काव्य और उसके विभिन्न अंगों के विषय में लक्षण तथा उदाहरण उपस्थित किए हैं। इसके लिए उन्होंने संस्कृत के काव्य-शास्त्र का आधार लिया है। फिर भी इस विषय पर संस्कृत की मौलिक और सबसे श्रेष्ठ रचनाओं से उन्होंने सहायता नहीं ली है। इसका कारण यह है कि इन रचनाओं का अध्ययन करने में उन्हें पर्याप्त श्रम करना पड़ता। अपने कार्य को सरल रखने के लिए वह काव्य-शास्त्र के किसी विवाद में नहीं उलझे है और उन्होंने साधारण संस्कृत -ग्रंथों का ही आधार लिया है। मौलिकता के आधार पर हम रीति काल के आचार्यों के कार्य को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं-

(1) गंभीर शास्त्र – विवेचन-

इस वर्ग के आचार्यों ने संस्कृत के ‘काव्य – प्रकाश’ और साहित्य-दर्पण’ के आधार पर काव्य के विषय में अपने विचार प्रकट किए हैं। उन्होंने इन दोनों कृतियों का परिश्रमपूर्वक अध्ययन किया है और रस काव्य रचना की रीति, ध्वनि, अलंकार तथा नायिका भेद आदि विविध विषयों की गंभीर चर्चा की है। इनमें से काव्य के प्रत्येक अंग के स्वरूप को स्पष्ट करने के बाद उन्होंने इनके उदाहरण भी उपस्थित किए हैं। ये उदाहरण स्वयं उन्हीं के बनाए हुए हैं। इतना होने पर भी इस वर्ग के आचार्य अपने काव्य- विवेचन में पूर्णतः सफल नहीं हो सके हैं। उनके द्वारा उपस्थित की गई बातें प्रायः अस्पष्ट और अपूर्ण रह गई हैं। इस वर्ग की रचनाओं में चिंतामणि के ‘कविकुल कल्पतरु’ और ‘काव्य-विवेक’ नामक ग्रंथों, कुलपति के ‘रस-रहस्य’, देव के ‘शब्द – रसायन’, श्रीपति के ‘काव्य- सरोज’, भिखारीदास के काव्य- निर्णय’, प्रताप सिंह के ‘काव्य – विलास’ और सोमनाथ के ‘रस- पियूषिणी’ नामक ग्रंथ उल्लेखनीय है। यद्यपि इस वर्ग के प्राचार्यों ने मौलिकता का परिचय नहीं दिया है, तथापि कुलपति, भिखारीदास और प्रतापसाहि ने कहीं कहीं अच्छी मौलिकता दिखाई है।

(2) रस – संबंधी शास्त्र – विवेचन-

इस वर्ग के आचार्यों ने शृंगार रस को रसराज माना है। अतः शृंगार रस का विवेचन उपस्थित करने में ही उन्होंने अधिक रुचि दिखाई है। इस विषय में उनका आग्रह इतना प्रबल रहा है कि केशव और बेनी प्रवीण ने शेष रसों को भी शृंगार रस में मिलाकर ही देखा है। रस-विवेचन की यह प्रणाली उचित नहीं है। इस वर्ग के काव्य शास्त्रों में केशवदास के रसिक – प्रिया, मतिराम के ‘रसराज’, देव के ‘रस-विलास’ भिखारीदास के ‘रस- निर्णय’ और बेनी प्रवीण के ‘नवरस तरंग’ नामक ग्रंथ उल्लेखनीय है। इन कृतियों में कहीं भी प्रशंसा के योग्य मौलिकता का परिचय नहीं दिया गया है।

(3) अलंकार – संबंधी शास्त्र – विवेचन-

इस वर्ग के आचार्यों ने दो प्रकार से अंलकारों की चर्चा की है। एक ओर तो उन्होंने संस्कृत के ‘चन्द्रालोक’ नामक ग्रंथ के आधार पर केवल प्रसिद्ध अलंकारों के स्वच्छ लक्षण और उदाहरण दिए हैं और दूसरी ओर प्रसिद्ध अलंकारों की चर्चा करते हुए भी उनके लक्षणों की ओर उचित ध्यान नहीं दिया है और केवल उदाहरण ही सुंदर रखे है। इनमें से प्रथम श्रेणी के अलंकार-ग्रंथों में जसवन्तसिंह के ‘भाषा भूषण’, सूरत मिश्र के ‘प्रलंकार – माला’, भूपति के ‘कण्ठाभूषण’ और रामसिंह के ‘अलंकार-दर्पण’ और पद्माकर के ‘पद्माभरण’ नामक ग्रंथ उल्लेखनीय हैं। इन ग्रंथों में अलंकारों के विस्तृत और मौलिक विवेचन की प्रवृत्ति नहीं मिलती। द्वितीय श्रेणी के अलंकार-ग्रंथों में मतिराम का ‘ललित ललाम’, दूलह का ‘कविकुल- कण्ठाभरण’, भूषण का ‘शिवराज भूषण’ और ग्वाल का ‘रसिकानंद’ मुख्य हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि रीति काल के आचार्यों ने अलंकार – विवेचन में मौलिकता का परिचय नहीं दिया है।

काव्य, रस और अलंकार के अतिरिक्त रीति काल के आचार्यों ने नायिका भेद के विवेचन की ओर भी ध्यान दिया है। इस क्षेत्र में उन्होंने संस्कृत के आचायों की अपेक्षा अधिक कार्य किया है, किंतु गंभीर आलोचना के प्रभाव में वह इस दिशा में भी प्रशंसा योग्य कार्य नहीं कर सके हैं। इस क्षेत्र में केवल देव, भिखारीदास और रसलीन ने ही अवस्था, गुण और वय के आधार पर नायिका भेद का संतोषप्रद विवेचन किया है, तथापि कहीं-कहीं वह भी व्यर्थ के भेदों में उलझ कर रह गए है। उनके अतिरिक्त अन्य आचार्यों ने प्रायः नायिका भेद का प्रसंगत विवेचन किया है और प्रकृति के अनुसार नायिका भेद (गधी – नायिका, चील नायिका आदि) तथा आयुर्वेद के अनुसार नायिका भेद (वात, पित्त एवं कफ प्रधान नायिकाएँ) करके अपने अविवेकी होने का परिचय दिया है।

सामान्य विश्लेषण

उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि रीति काल के आचार्यों ने आलोचना के क्षेत्र में कहीं भी मौलिकता का परिचय नहीं दिया है। उन्होंने अपने काव्य- विवेचन को केवल संस्कृत के गंभीर भूल है। यदि उन्होंने काव्य शास्त्र पर आधारित रखा है। यह एक हिंदी काव्य का अध्ययन कर उसे दृष्टि में रखते हुए संस्कृत के काव्य- सिद्धांतों को हिंदी में लिखा होता तो उन्हें कहीं अधिक सफलता मिल सकती थी। उस अवस्था में उन्हें मौलिक चिंतन के लिए पूर्ण सुविधा मिलती और वह अपने विचारों को अधिक दृढ़ता के साथ कह सकते थे। ऐसा न करके उन्होंने अपनी प्रगति के मार्ग को स्वयं ही रोक लिया और वे केवल साधारण बातें ही कह सके। तथापि इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उनके काव्य का कोई महत्त्व ही नहीं है। उनसे पूर्व हिंदी में काव्य-शास्त्र के अध्ययन की ओर किसी भी व्यक्ति का ध्यान नहीं गया था। अतः इस दिशा में प्रयत्न कर रीतिकाल के आचार्यों ने एक बहुत बड़े प्रभाव की पूर्ति की। इस दिशा में साधारण कार्य करके भी उन्होंने एक परंपरा की स्थापना कर दी।

रीति काल के आचार्यों में से मतिराम, पद्माकर तथा बेनी प्रवीण ने शृंगार रस का अच्छा विवेचन किया है। यद्यपि यह सत्य है कि उनमें मौलिकता का प्रभाव है, किंतु जो कुछ उन्होंने कहा है उसमें प्रायः कृत्रिमता, अस्पष्टता तथा अपूर्णता नहीं है। इसी प्रकार जसवन्तसिंह ने भी ‘भाषा- भूषण’ में अलंकारों को स्वच्छ रूप में उपस्थित किया है। अन्य प्राचार्यो में भिखारीदास और श्रीपति ने भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। वास्तव में रीतिकाल के आचार्यों की इस असफलता के कई कारण है। इनमें से सबसे बड़ा कारण उस युग की परिस्थितियों का अनुकूल न होना है। उस समय

भारतवर्ष पर मुसलमानों का राज्य था और वह अपने अधिकार को अच्छी तरह फैला चुके थे। इस कारण उनके साहित्य और संस्कृति का भी हिन्दुओं पर पर्याप्त प्रभाव पड़ रहा था। जो हिंदू राजा मुसलमान शासकों का प्रभुत्व मान चुके थे उनकी राज्य सभाओं में मुगल दरबार की विलासिता आ चुकी थी। इस कारण राजाओं के आश्रय में रहने वाले कवि उन्हें प्रसन्न करने के लिए शृंगार रस की कविताएँ लिखा करते थे। ऐसी स्थिति में काव्य – शास्त्र जैसे गंभीर विषय की चर्चा करना उनके वश की बात नहीं थी।

यदि वे इस ओर कुछ अधिक परिश्रम भी करते तो उन्हें किसी भी ओर से अपने कार्य के लिए प्रशंसा और प्रोत्साहन की आशा नहीं थी।

इसके अतिरिक्त रीति काल के आचार्यो की दूसरी विवशता का संबंध गद्य के अभाव से था। रसों और अलंकारों के लक्षणों को केवल पद्य में लिखना कोई सरल कार्य नहीं था। गद्य के न होने के कारण इस युग के अधिकांश आचार्य प्रतिभा के होने पर भी अपने अभिप्राय को पूर्णतः स्पष्ट नहीं कर सके है। यदि उस समय गद्य की स्थिति रही होती तो इसमें कोई सन्देह नहीं है कि उनकी स्थिति अधिक दृढ़ होती। इतना होने पर भी इस युग का काव्यशास्त्र उपेक्षा के योग्य नहीं है। गंभीर अध्ययन करने पर हमें उसमें भी कुछ ऐसी बातें प्राप्त होती है जिनका इस समय विकास किया जा सकता है। इस युग में आचार्यों ने ऐसी अनेक बातें लिखी हैं जिनसे आज हमें अच्छी प्रेरणा प्राप्त हो सकती है।

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