Sahityik Nibandh

हिंदी का गीति काव्य

Hindi Ka giti kavya

हिंदी का गीति काव्य

‎जिस काव्य रचना को गाया जा सके उसे ‘गीति काव्य’ कहते हैं। गीति- काव्य की रचना मुक्तक कविता के रूप में की जाती है। अतः उसमें एक ही भाव को मार्मिक रूप में उपस्थित किया जाता है। भाव-पक्ष की दृष्टि से गीतिकाव्य में संक्षिप्तता, मार्मिकता और भावना की एकता पर मुख्य ध्यान दिया जाता है। कला-पक्ष की दृष्टि से उसमें संगीत की लय और ताल की योजना पर ध्यान दिया जाता है। साधारण मुक्तक कविता की अपेक्षा पाठक अथवा श्रोता के मन पर गीति काव्य का अधिक प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि उसका एक रूप लोक-गीतों के रूप में प्राप्त होता है। हिंदी में गीति- काव्य की रचना की ओर प्रारंभ से पर्याप्त ध्यान दिया गया है। आगे हम हिंदी साहित्य के प्रत्येक युग में उसकी स्थिति का अध्ययन करेंगे।

वीरगाथा काल

हिंदी साहित्य के वीरगाथा काल में प्रमुख रूप से वीर काव्य की प्रबंध रूप में रचना की गई थी। फिर भी इस युग में गीति काव्य की उपेक्षा नहीं की गई है। इस दिशा में कविवर जगनिक का ‘आल्हा-खंड’ उल्लेखनीय रचना है। इसकी रचना वीरगीतों के रूप में की गई है। इस रचना के अतिरिक्त इस युग में महाकवि विद्यापति का गीति काव्य भी प्राप्त होता है। उन्होंने राधा-कृष्ण के प्रेम को लेकर मैथिली भाषा में सरस गीतों की रचना की है। उन्होंने अपने गीति काव्य की रचना करते समय संस्कृत के प्रसिद्ध कवि जयदेव के ‘गीत-गोविन्द’ से पर्याप्त प्रेरणा ली है। इसी कारण उन्हें ‘अभिनव जयदेव’ कहा जाता है। उनके पदों में अनुभव कल्पना और मधुरता को प्रमुख स्थान मिला है। इस मधुरता के कारण उन्हें ‘मैथिल कोकिल’ की पदवी भी प्रदान की गई है। आगे हम उनके एक गीत की कुछ पंक्तियाँ उपस्थित करते हैं-

“विरह व्याकुल बकुल तरुवर,

पेखल नंदकुमार रे।

नील नीरज नयन सँच सखि,

ढरह नीर अपार रे॥”  

भक्ति काल

हिंदी – कविता के भक्ति काल में गीति काव्य की रचना की ओर विशेष ध्यान दिया गया। इस युग में गाने योग्य भक्ति पदों की रचना करने वाले कवियों का परिचय इस प्रकार है-

(1) महात्मा कबीर –

कबीर ने अपने पदों में निर्गुण भक्ति के सिद्धांतों का सफल समावेश किया है। उन्होंने उनमें शांत रस को अत्यंत मधुर रीति से उपस्थित किया है। उन्होंने आत्मा को पत्नी तथा परमात्मा को पति मानकर आत्मा को परमात्मा के विरह में व्याकुल दिखाया है और इस विरह को अपने गीति- काव्य में साकार कर दिया है। उन्होंने इन पदों की रचना जनता में अपने मत के प्रचार के लिए की थी और इसमें उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई थी। आगे हम उनके एक गीति पद की कुछ पंक्तियाँ उपस्थित करते हैं-

“वा दिन की कछु सुधि कर मन माँ !

जा दिनु ले चलु लै चलु होई,

ता दिनु संग चलै नहि कोई॥

तात मात सुत नारी रोई

माटों के संग दिया समोई।

सो माटी काटेगी तन माँ॥”

(2) कविवर सूरदास –

सूर के काव्य में ब्रजभाषा का मधुर रूप प्राप्त होता है। उन्होंने श्रीकृष्ण की बाल लीला और प्रेम-लीला का गीति काव्य के माध्यम से सफल चित्रण किया है। उनके प्रति अपने विनय-भाव के पदों की भी उन्होंने सफल रूप में रचना की है। उन्होंने अपने पदों को विविध राग-रागनियों में बाँध कर लिखा है। उनके गीति काव्य में संक्षिप्तता, भावों की मार्मिकता और भाषा-शैली की प्रवाहपूर्ण मधुरता की ओर पूरा ध्यान दिया गया है। इस दृष्टि से उनके ‘सूरसागर’ का ‘भ्रमरगीत’ प्रसंग विशेष आकर्षक बन पड़ा है। उनके बाल कृष्ण की निम्नलिखित संगीतमयी उक्ति देखिए-

“मैया ! मैं नहि माखन खायो।

ख्याल पर ये सखा सबै मिलि मेरे मुख लपटायों॥”

(3) गोस्वामी तुलसीदास –

तुलसी ने भगवान् राम की भक्ति करते हुए प्रबंध-काव्य, मुक्तक काव्य और गीति काव्य का आश्रय लिया है। उन्होंने अपने पदों का संग्रह ‘विनय- पत्रिका’ में किया है। इसमें ब्रजभाषा के साहित्यिक रूप को मधुर रीति से उपस्थित किया गया है। इनमें विनय भाव की भक्ति प्राप्त होती है और ये शान्त रस से युक्त रहे हैं। अनुभव और भावना की तीव्रता से युक्त होने के कारण ये मन पर तुरंत प्रभाव डालते हैं। उदाहरणार्थ उनकी निम्नलिखित गीति – पंक्तियाँ देखिए –

“अब लौं नसानी, अब ना नसैहौं।

राम कृपा भव निसा सिरानी जागे फिर न उसैहों॥”

(4) कवयित्री मीराबाई –

मीरा ने श्रीकृष्ण को प्रियतम के रूप में स्वीकार किया है। उनके विरह में उनकी आत्मा निरंतर मग्न रही है। अतः उनके गीतिकाव्य में भी विरह तथा मिलन के आनंद का चित्रण हुआ है। हृदय के अनुभव से युक्त होने के कारण उनके पद अत्यंत  मार्मिक बन पड़े हैं। संक्षिप्त, सरमौर प्रवाहपूर्ण होने के कारण उनके पदों में हृदय का स्पर्श करने की शक्ति पूर्णत विद्यमान है।

यथा-

“मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई।

दूसरा न कोई साधो सकल लोक जोई॥

X X

अब तो बात फैल गई जाणे सब कोई।

मीरा राम-लगन लागी, होरगी होय सो होई॥”

आधुनिक काल

हिंदी साहित्य के रीति काल में छंदोबद्ध मुक्तक कविताओं की ही रचना की गई और गीति काव्य लिखने की ओर कवियों का ध्यान नहीं गया। अतः गीति काव्य की परंपरा के लिए हमें भक्ति काल के बाद आधुनिक काल का ही अध्ययन करना होगा। इस युग में हमारे समक्ष सर्वप्रथम भरतेंदु-युग आता है। इस युग में वैसे तो अनेक कवियों ने गीति काव्य की रचना की ओर ध्यान दिया, किंतु मुख्य रूप से बाबू भरतेंदु हरिश्चंद्र और पंडित बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ ने आकर्षक गेय पद लिखे उनके भक्ति पदों का संबंध मुख्य रूप से राधा-कृष्ण की भक्ति से रहा है। इसके पश्चात् द्विवेदी युग में गीति- काव्य फिर से लगभग उपेक्षित ही रहा। द्विवेदी युग के बाद हिंदी में छाया- वाद-युग आता है। इस युग में गीति काव्य की पर्याप्त मात्रा में रचना की गई। इस युग के गीति काव्य की रचना खड़ी बोली में हुई है और इसकी रचना करने वाले कवियों का परिचय इस प्रकार है-

(1) श्री जयशंकर प्रसाद-

प्रसादजी के गीतिकाव्य के दर्शन एक ओर तो ‘कामायनी’ के ‘इड़ा’ सर्ग में होते है और दूसरी ओर उन्होंने अपने नाटकों में भी सुंदर गीत उपस्थित किए है। छायावाद से संबंधित होने के कारण उनके गीतों में सौंदर्य और कल्पना को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। उनके गीत कठिन होने पर भी साहित्य में अत्यंत  महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनके कुछ गीतों में करुगा और राष्ट्रीयता का भी सुंदर चित्रण हुआ है। उनके द्वारा उपस्थित किया गया प्रातः काल का निम्नलिखित चित्र देखिए-

“बीती विभावरी, जाग री !

अम्बर- पनघट में डुबो रही, तारा-घट ऊषा नागरी॥”

(2) श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

‘निराला’ जी ने अपने गीतिकाव्य में आध्यात्मिकता, करुणा, जन-जीवन, राष्ट्रीयता आदि विविध विषयों का समावेश किया है। उनके गीति काव्य की भाषा वर्तमान युग में सबसे अधिक कठिन रही है। उन्होंने अपने गीतों में अत्यंत गंभीर भावों का चित्रण किया है। उनके गीतों का संग्रह ‘गीतिका’ शीर्षक काव्य में हुआ है। इसके अतिरिक्त उन्होंने स्फुट रूप में कुछ अन्य गीतों की भी रचना की है। उनकी गीति काव्य-शैली का परिचय देने के लिए आगे हम उनके एक गीत की कुछ पंक्तियाँ उपस्थित करते हैं-

“भारति, जय-विजयकरे,

कनक-सस्य कमलधरे

लंका पदतल शतदल,

गजितोमि सागर-जल।

धोता शुचि चररण-युगल,

स्तव कर बहु प्रर्थ भरे !”

(3) सुश्री महादेवी वर्मा-

महादेवीजी ने अत्यंत सरस गीति काव्य की रचना की है। उनके गीतों का संग्रह ‘यामा’ शीर्षक रचना में हुआ है। इनका संबंध आत्मा द्वारा परमात्मा के प्रति किए गए विरह – निवेदन से रहा है। उनके कुछ गीतों में प्रकृति और राष्ट्रीयता का स्वतंत्र चित्रण भी हुआ है। वैसे उनके सभी गीत श्रात्म कथन से युक्त रहे हैं। इन गीतों में भाषा की मधुरता और स्वर सौंदर्य की ओर भी उप- युक्त ध्यान दिया गया है। उदाहरण के लिए उनकी निम्न पंक्तियाँ देखिए-

“प्राणाधिक प्रिय नाम रे कह !

मैं मिटी निस्सीम प्रिय में,

वह गया बँध लघु हृदय में,

अब विरह की रात को तू

चिरमिलन का प्रात रे कह!”

इन कवियों के अतिरिक्त वरटमान युग में हिंदी के गीति काव्य को अनेक कवियों ने समृद्धि प्रदान की है। इस दृष्टि से सर्वश्री बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, रामकुमार वर्मा, जानकी वल्लभ शास्त्री, नीरज तारा पांडे, प्रारसीप्रसाद सिंह और चिरंजीत के नाम उल्लेखनीय है।’ साकेत’, भंकार’ और ‘यशोधरा’ में श्री मैथिलीशरण गुप्त ने भी आकर्षक गीतों का समावेश किया है। हिंदी के नवीन कवि प्रायः अपनी कविताओं को गीतों के ही रूप में उपस्थित किया करते हैं।

काव्य-रचना की शैलियों में से इस युग में गीति काव्य की ओर सबसे अधिक ध्यान दिया गया है। इस समय लोक-गीतों की सहजता को भी गीति-काव्य में स्थान प्रदान किया जा रहा है। इस दिशा में सर्वश्री शम्भुनाथ सिंह, ‘ललित’ ‘नीरज’, राजनारायण विसारिया और शमशेर सिंह ने प्रशंसनीय प्रयत्न किए हैं। उन्होंने अपने गीतों को जनता की भाषा और जनता की भावनाओं के अधिक से अधिक निकट रखा है। इन गीतों में प्रेम, विरह, वीरता, करुणा और प्रकृति आदि विषयों का मनोहारी चित्रण हुआ है।

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