वीरगाथा काल के कवियों में महाकवि चंदबरदाई का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। वह महाराज पृथ्वीराज के राज कवि थे और उनके साथ उनकी एक मित्र के समान घनिष्ठता थी। उन्होंने महाराज पृथ्वीराज के जीवन की प्रमुख घटनाओं के आधार पर ‘पृथ्वीराज रासो’ नामक काव्य की रचना की है। यह हिंदी का प्रथम महाकाव्य है और इसमें महाराज पृथ्वीराज की वीरता का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। यह हिंदी के महाकाव्यों में सबसे बड़ा ग्रंथ है। इसकी रचना लगभग 2500 पृष्ठों में हुई है और यह 66 अध्यायों में विभाजित है।
इस समय ‘पृथ्वीराज रासो की कोई भी शुद्ध प्रति प्राप्त नहीं होती। ऐसा विश्वास किया जाता है कि अपने मूल रूप में यह ग्रंथ वर्तमान प्रतियों की तुलना में पर्याप्त संक्षिप्त रहा होगा। जिस समय इसकी रचना की गई थी उस समय तक मुद्रण कला का आविष्कार नहीं हुआ था। उस समय श्रेष्ठ काव्य-ग्रंथों की हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार की जाती थीं। इन्हें राजसभा में सुरक्षित रखा जाता था। कवियों के वंशों में भी इनकी धरोहर के रूप में रक्षा की जाती थी। खेद है कि भारतवर्षं पर मुसलमानों के आक्रमणों के कारण वीरगाथा काल के काव्यों की पूर्ण रूप से रक्षा नहीं की जा सकी। इस समय प्राय: इस युग के काव्य ग्रंथ अपने मूल रूप में प्राप्त नहीं होते। ‘पृथ्वीराज रासो’ को भी यही स्थिति है। इस काव्य में बाद के कवियों द्वारा अनेक प्रसंगों का समावेश किया गया है। अतः इसका वर्तमान रूप प्रामाणिक नहीं है।
‘पृथ्वीराज रासो’ की अप्रामाणिकता की खोज सबसे पहले डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने की थी। उन्होंने इस काव्य की राजपूताना के इतिहास से तुलना करते हुए इसकी अनेक घटनाओं को महाराज पृथ्वीराज के युग के बाद की ठहराया है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार की घटनाओं का समावेश चंदबरदाई के बाद के कवियों ने किया होगा। उन्होंने अपने आश्रयदाताओं का महत्त्व बढ़ाने के लिए उनका महाराज पृथ्वीराज के समकालीन नरेशों के रूप में वर्णन कर दिया है। उनके इस कार्य से कविवर चंदबरदाई के महत्त्व को पर्याप्त हानि पहुँची है। प्रभाजी ने ‘पृथ्वीराज रासो’ ‘की भाषा में अरबी-फारसी के शब्दों की अधिकता पर भी आपत्ति उठाई है। वह इस
काव्य को सत्रहवीं शताब्दी के लगभग लिखा हुआ मानते हैं। इसी प्रकार ‘पृथ्वीराज रासो’ में बाद में जोड़े गए प्रसंगों के कारण कुछ विद्वान् कविवर चंदबरदाई के अस्तित्व के विषय में ही शंका प्रकट करते हैं। इस रचना को अप्रामाणिक मानने वाले अन्य व्यक्तियों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का नाम उल्लेखनीय है।
इसके विपरीत कुछ विद्वानों ने ‘पृथ्वीराज रासों को पूर्णतः प्रामाणिक रचना माना है। इनमें श्री मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या, मिश्रबंधु, श्री श्यामसुंदरदास और मुनि जिन विजय के नाम उल्लेखनीय हैं। इन्होंने ‘रासो’ के विषय में उठाई गई विविध शंकाओं के उत्तर देते हुए उसे प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए पर्याप्त खोज की है। हमारा मत है कि यह ग्रंथ अपने वर्तमान रूप में प्रामाणिक नहीं है, किंतु हिंदी के प्रथम महाकाव्य के रूप में इसके महत्त्व को देखते हुए इसे शीघ्र ही प्रामाणिक रूप में उपस्थित किया जाना चाहिए। इसकी उचित आलोचना की आज अत्यंत आवश्यकता है।
‘पृथ्वीराज रासो’ का काव्य-सौंदर्य
यद्यपि यह ठीक है कि ‘पृथ्वीराज रासो’ प्रामाणिक ग्रंथ नहीं है, तथापि यह अपने युग की साहित्यधारा का पूर्ण रूप से प्रतिनिधित्व करता है। बाद में मिलाए गए काव्य-प्रसंगों के कारण इसके भाव तत्त्व और कला-तत्त्व की शुद्धता को पर्याप्त हानि पहुँची है, फिर भी यह एक सराहनीय ग्रंथ है। इसमें वीर रस को प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ है। अत: इस कृति में वातावरण को प्रायः ओजपूर्ण रूप में उपस्थित किया गया है। राजस्थान के चारण कवि वीरगाथा काल में युद्धों में सेना के साथ स्वयं जाया करते थे और अपनी कविताओं से सैनिकों का उत्साह बढ़ाया करते थे। नित्य प्रति के युद्ध को देखने और उसमें भाग लेने के कारण उन्हें वीर रस के लिए आवश्यक तत्त्वों का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ करता था। कविवर चंदबरदाई के साथ भी यह बात इतनी ही सत्य है। उन्होंने वीर रस का व्यापक चित्रण किया है और उसके सहायक रसों के रूप में रौद्र रस, भयानक रस तथा वीभत्स रस भी उनकी कृति में यथास्थान प्राप्त होते हैं। उदाहरण के लिए युद्ध के अवसर पर महाराज पृथ्वीराज की क्रियाओं का निम्नलिखित चित्रण देखिए-
उट्ठि राज प्रिथिराज बाग मनो लग्ग वीर नट।
कढ़त तेग मन बैग लगत मनो बीजु झट्ट फट।|
थकि रहे सूर कौतिक गगन,
रंगन मगन भइ शोन घर॥
हृदि हरषि वीर जग्गे
हुलसि हरे रंग नव रत्त वर॥
वीर रस के पश्चात् ‘पृथ्वीराज रासो’ में शृंगार रस को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। इसमें शृंगार रस के संयोग और वियोग नामक दोनों ही पक्ष प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार नीति से संबंधित उक्तियों की रचना कर कवि ने इसमें शांत रस का भी पर्याप्त समावेश किया है। इस प्रकार की उक्तियाँ ‘पृथ्वीराज रासो’ में स्थान-स्थान पर बिखरी पड़ी है। महाकाव्य के रूप में लिखी जाने के कारण इस कृति में प्रकृति-चित्रण और चरित्र चित्रण की ओर भी पर्याप्त ध्यान दिया गया है। इसमें प्रकृति के विविध प्रकार के चित्र प्राप्त होते हैं, किंतु उसे शुद्ध रूप में बहुत कम स्थानों पर उपस्थित किया गया है। चरित्र-चित्रण को इसमें स्वाभाविक रूप से पर्याप्त स्थान प्रदान किया गया है। इस दृष्टि से कवि का ध्यान मुख्य रूप से महाराज पृथ्वीराज के चरित्र पर केन्द्रित रहा है और उन्होंने उनके सम्पर्क में आने वाले अन्य चरित्रों को भी यथास्थान स्पष्ट रूप में उपस्थित किया है।
‘पृथ्वीराज रासों’ की रचना डिंगल अथवा राजस्थानी भाषा में हुई है, किंतु इसमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, ब्रजभाषा, अरबी और फारसी आदि विभिन्न भाषाओं के शब्द का प्रचुर प्रयोग मिलता है। इस कारण इस कृति की भाषा सर्वत्र एक जैसी न रहकर स्थान-स्थान पर बदल गई है। इससे इसके अध्ययन में विशेष बाधा पहुँचती है। वास्तव में भाषा की इस विविधता का मुख्य कारण यह है कि इस काव्य में बाद के कवियों ने अपनी इच्छा के अनुसार कुछ प्रसंगों का समावेश कर दिया है। भाषा की दृष्टि से काव्य अधिक सफल नहीं है। इसमें एक ही शब्द को भिन्न-भिन्न रूपों में उपस्थित कर कवि ने निश्चय ही एक बड़ी त्रुटि की है। इसी प्रकार इसमें कुछ शब्दों के बिगड़े हुए रूप दिए गए हैं और कहीं-कहीं व्याकरण के नियमों का भी उल्लंघन किया गया है।
कविवर चंदबरदाई ने अपनी भाषा को इसके अनुकूल रखने का पूर्ण ध्यान रखा है। इसी कारण उनके काव्य में जहाँ वीर रस के प्रसंगों में ओजपूर्ण भाषा का प्रयोग हुआ है वहाँ शृंगार रस के प्रसंगों में माधुर्य गुण से युक्त भाषा का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार उन्होंने अन्य रसों का समावेश करते समय भी अपने काव्य की भाषा में परिवर्तन उपस्थित किए हैं। शैली की दृष्टि से उनके काव्य में विविध शैलियों का समावेश हुआ है। अन्य कला तत्त्वों में उन्होंने अलंकारों का स्वाभाविक रूप में प्रयोग किया है। छंदों की दृष्टि से उन्होंने मुख्य रूप से दोहा, कवित्त, छप्पय तथा भुप्पजंगी नामक छंदों का प्रयोग किया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उनके काव्य में भाव तत्त्व तथा कला तत्त्व का साधारणतः अच्छा प्रयोग हुआ है। फिर भी इस समय उनके काव्य के प्रामाणिक रूप में प्राप्त न होने के कारण उसकी उचित आलोचना नहीं होने पाई है।