Sahityik Nibandh

आचार्य केशवदास

Acharya Keshavadas

हिंदी के आचार्य कवियों में कविवर केशवदास का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि उन्होंने अपने कवि जीवन को भक्ति काल के अंत में प्रारंभ किया था, तथापि उनके काव्य में रीतिकालीन प्रवृत्तियों को ही अधिक स्थान प्राप्त हुआ है। इस कारण उनकी गणना रीति काल के कवियों में ही की जाती है। उन्होंने अपने काव्य के अधिकांश भाग की रचना ओड़छा के राज दरबार में रहकर की थी। वे अत्यंत प्रकृति के भावुक व्यक्ति थे। गुणी जनों का आदर करना और उन्हें प्रोत्साहन देना उनका स्वभाव था। उन्होंने अपने काव्य की रचना तीन रूपों में की है। एक ओर तो उन्होंने श्रीराम और श्रीकृष्ण को लेकर काव्य-रचना की है, दूसरी ओर काव्य और काव्यांगों को स्पष्ट करने के लिए ग्रंथ लिखे हैं और तीसरी ओर आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए छंद- रचना की है।

केशवदास ने अपने काव्य की रचना प्रबंध काव्य और मुक्तक काव्य दोनों ही रूपों में की है। प्रबंध काव्य के क्षेत्र में उनका ‘रामचंद्रिका’ शीर्षक काव्य प्राप्त होता है। इसमें राम भक्ति का प्रतिपादन करने की चेष्टा की गई है, किंतु शृंगारिकता और बौद्धिकता से प्रेरित होने के कारण वह इसकी रचना में पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं कर सके हैं। यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ शीर्षक काव्य का अध्ययन करने पर पाठक को जिस आत्म-सन्तोष का अनुभव होता है उसका एक बहुत बड़ा भाग केशब की ‘रामचंद्रिका’ का अध्ययन करने पर अनुपलब्ध ही रह जाता है। जहाँ तुलसी ने अपने काव्य की रचना स्वान्तः सुखाय अर्थात् अपने हृदय को सन्तोष प्रदान करने के लिए की थी वहाँ केशव वैसा नहीं कर सके है। उन्होंने अपने काव्य की रचना प्रयास का आधार लेकर की है। इसके फलस्वरूप वह श्रीराम के चरित्र की मर्यादा की रक्षा नहीं कर सके हैं। इसी प्रकार श्रीराम और उनसे संबंधित अन्य पात्रों के गौरव को भी उन्होंने उचित रूप में नहीं पहचाना है।

केशव के काव्य में प्राप्त होने वाले उपर्युक्त दोषों का प्रमुख कारण यह है कि उन्होंने अलंकार – योजना के प्रति अनावश्यक मोह रखा है। केवल यमक, श्लेष और उपमा आदि अलंकारों की योजना के लिए वह ऐसे शब्दों का प्रयोग कर बैठे है जो अर्थ का अनर्थ कर देते हैं। यही कारण है कि राम को उल्लू तक कह गए हैं। इस प्रकार की उक्तियों के कारण उनका काव्य पाठक की सहानुभूति को जाग्रत करने में पूर्णतः असमर्थ रहता है। दरबारी कवि होने के कारण भी केशवदास अपने काव्य में गोस्वामी तुलसीदास के काव्य की शांत गरिमा को न ला पाए। उनके काव्य में अनुभव, चिंतन और कल्याण. तीनों का ही पूर्ण विकास प्राप्त नहीं होता। इतना होने पर भी ‘रामचंद्रिका’ की पूर्ण रूप से उपेक्षा नहीं की जा सकती। रीति काल में राम-काव्य की परंपरा को आगे बढ़ाने वाली रचनाओं में यही ग्रंथ सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है।

‘रामचंद्रिका’ के पश्चात् केशव के उल्लेखनीय ग्रंथ ‘रसिकप्रिया और ‘कविप्रिया’ है। इन दोनों ग्रंथों की रचना काव्य-मार्ग को स्पष्ट करने के लिए की गई है। इनमें से प्रथम ग्रंथ में लेखक ने रस और रसांगों के स्वरूप को स्पष्ट किया है और द्वितीय ग्रंथ में काव्य-स्वरूप, अलंकारों तथा पिंगल – शास्त्र का कथन किया गया है। ये दोनों ग्रंथ कवि – शिक्षा के उद्देश्य से लिखे गए हैं अर्थात् इन्हें लिखते समय केशव का दृष्टिकोण प्रायः यही रहा है कि इनका अध्ययन करने से कवियों को काव्य-रचना में सुविधा रहे। अतः यह स्पष्ट है कि केशव ने इनमें मौलिकता और गहन चिंतन की ओर अधिक ध्यान न देकर साधारण तथ्यों को सरल भाषा में उपस्थित करने की ओर अधिक ध्यान दिया है। ‘कविप्रिया’ के प्रारंभ में निम्नलिखित दोहे में उन्होंने अपनी इसी प्रवृत्ति का कथन किया है-

“समझे बाला बालकह, वर्णन पंथ अगाध।

कविप्रिया केशव करो, छमियों कवि अपराध॥”

केशव ने इन ग्रंथों में रसों, अलंकारों आदि के लक्षणों को कविता में उपस्थित किया है और उनके उदाहरण भी स्वयं ही लिखे है। अपने समय के अन्य कवियों के काव्यों से उदाहरण उपस्थित करने की प्रवृत्ति इन ग्रंथों में नहीं मिलती। इस प्रकार इनमें केशव के आचार्य रूप और कवि-रूप, दोनों का ही साथ-साथ समावेश हुआ है। आचार्य के रूप में मौलिकता के अभाव के कारण उन्हें अधिक सफलता प्राप्त नहीं हुई है, किंतु कवि के रूप में उन्होंने अनेक उदाहरणों की अच्छी रचना की है। इन उदाहरणों में प्रायः श्रीकृष्ण की प्रेम-लीलाओं का वर्णन किया गया है। केशव की भाँति रीति काल के अन्य कवियों में से भी अधिकांश ने आचार्य और कवि, दोनों रूपों में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। केशव के बाद के प्राचार्य-कवियों ने उनके कार्य से पर्याप्त प्रेरणा ली है। इस प्रकार शास्त्र – रचना में स्वयं अधिक सफल न होने पर भी केशव को यह श्रेय प्राप्त है कि उन्होंने इस परंपरा के अन्य कवियों को प्रेरणा प्रदान की है। जिस प्रकार कबीर, जायसी, सूर और तुलसी की काव्य-धाराओं का भक्ति काल में अनेक कवियों ने अनुकरण किया था उसी प्रकार केशव के शास्त्रीय ग्रंथों का भी पर्याप्त समय तक अनुकरण किया गया।

केशवदास के काव्य के तृतीय पक्ष का संबंध आश्रयदाताओं अथवा अन्य लौकिक जनों की स्तुति से है। उनके ‘वीरसिंह देव चरित’ तथा ‘जहाँगीर- जस चंद्रिका’ शीर्षक काव्य इसी प्रकार के हैं। इसके अतिरिक्त स्फुट छंदों में भी उन्होंने अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा की है। इस प्रकार की काव्य- रचना वीरगाथा काल की भाँति रीति काल में भी पर्याप्त मात्रा में प्रचलित थी और केशवदास ने इसमें अपने समकालीन कवियों में सबसे अधिक भाग लिया है। संक्षेप में उनके काव्य के भाव पक्ष को इन्हीं तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। इनमें उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हुई है, किंतु उनका काव्य सर्वत्र दोषपूर्ण भी नहीं रहा है। कुछ स्थानों पर गंभीर भूलें करने पर भी केशव ने अपनी रचनाओं में काव्य-कौशल का भी अच्छा परिचय दिया है।

काव्य के कला-पक्ष की दृष्टि से केशव के काव्य का अध्ययन करने पर भी हम उनकी सफलता को इसी प्रकार अपूर्ण पाते हैं। यद्यपि उन्होंने इस और कहीं-कहीं भाव – योजना से भी अधिक ध्यान दिया है, तथापि अपने दुराग्रह के कारण वह इस दिशा में भी सफल नहीं हो सके है। कला-तत्त्वों के अंतर्गत सर्वप्रथम हम उनकी भाषा पर विचार करेंगे। उन्होंने अपने काव्य की रचना ब्रजभाषा में की है और उसमें संस्कृत, अरबी, फारसी, बुंदेलखण्डी आदि अन्य भाषाओं के शब्दों का भी यथास्थान समावेश किया है। भाषा की योजना में वह प्रायः सफल रहे हैं और इस विषय में उन्होंने कृत्रिमता का अधिक परिचय नहीं दिया है। शैली प्रयोग की दृष्टि से भी उन्होंने अपनी रचनाओं में विविध शैलियों का प्रायः सफल प्रयोग किया है। इस विषय में ‘रामचंद्रिका’ की संवाद-शैली विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस कृति में उन्होंने पात्रों के सम्वादों को जिस संक्षिप्त, सारपूर्ण और मार्मिक रीति से उपस्थित किया है वैसा हिंदी काव्य में अन्यत्र दुर्लभ है।

केशव की असफलता उनके द्वारा की गई अलंकारों और छंदों की कृत्रिम योजना में निहित है। वहाँ अलंकारवादी आचार्य थे अर्थात् काव्य में अलंकारों की योजना उन्हें विशेष प्रिय थी। यह अलंकार- प्रेम बढ़ते-बढ़ते मोह अथवा दुराग्रह की स्थिति तक पहुँच गया था। काव्य में अलंकारों का प्रयोग वहीं तक प्रशंसनीय होता है जहाँ तक उनके द्वारा भाव-सौंदर्य को हानि नहीं पहुँचती, किंतु खेद है कि केशव इस सत्य को भूल गए थे। उन्होंने अलंकारों की योजना के लिए अनेक स्थानों पर भावों को क्षीण हो जाने दिया है। यह प्रवृत्ति उनके सभी ग्रंथों में उपलब्ध होती है। यदि उन्होंने इस ओर ऐसा आग्रह न रखा होता अर्थात् प्रयासपूर्वक अलंकार-योजना न की होती तो उनके काव्य में भावों की स्थिति निश्चय ही अधिक स्वाभाविक और समृद्ध रही होती। इसी प्रकार ‘रामचंद्रिका’ में छंदों का प्रयोग करने में भी वह विविध छंदों का प्रयोग करने के मोह में फँस गए है। इस कृति में उन्होंने छंदों को अत्यंत शीघ्रता के साथ परिवर्तित किया है और सभी छंदों का प्रयोग करने की इच्छा से व्यापक भावों को भी संक्षिप्त छंदों में उपस्थित करने की असफल चेष्टा की है। इस प्रकार यह कृति प्रबंध काव्य के अतिरिक्त अनावश्यक रीति से छंद- शाप का भी रूप धारण कर बैठी है। यदि केशव अपनी रचनाओं में इस प्रकार के दुराग्रह न रखते तो निश्चय ही आज उनके काव्य-कौशल की कहीं अधिक प्रशंसा की जाती, तथापि हम उनकी रचनाओं की उपेक्षा नहीं कर सकते, क्योंकि दोषयुक्त होने पर भी रीति काल के कवियों ने उनसे प्रेरणा ली हैं।

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