Sahityik Nibandh

महाकवि सूरदास

hindi sahitya men soordas ka sthan

सूरदास जी का जन्म सम्वत् 1540 में हुआ था। वह सारस्वत ब्राह्मण थे। कुछ व्यक्ति यह मानते हैं कि वह जन्म से अंधे थे, किंतु यह धारणा ठीक नहीं है। उनके काव्य में प्राप्त होने वाले विविध श्रेष्ठ वर्णन इसे मानने में बाधा डालते हैं। हमारा विचार है कि सूर ने अपने को इसलिए अंधा कहा है कि वह पहले हृदय के नेत्रों से रहित थे। उन्होंने अपने एक दोहे में लिखा है कि जब वह सहसा एक कुएँ में गिर पड़े तब श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर उन्हें बाहर निकाला और उन्हें ज्ञान चक्षु प्रदान किए। भक्ति के क्षेत्र में वह महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के शिष्य थे। उन्होंने श्रीकृष्ण के प्रति सुंदर सख्य-भाव की भक्ति उपस्थित की है। उनकी ‘सूरमागर’ नामक एक बृहत् रचना प्राप्त होती है। कहते हैं कि इसमें पहले सवा लाख पद थे, किंतु इस समय प्राप्त होने वाली प्रतियों में केवल 6,000 पद ही प्राप्त होते हैं। इसमें कुछ भावों की पुनरुक्ति भी की गई है, किंतु अपनी सरसता के कारण यह काव्य मन को कहीं भी बोझिल नहीं बनाता।

कविवर सूरदास ने अपने काव्य में श्रीकृष्ण की बाल लीला, प्रेम-लीला और उनके ईश्वरीय स्वरूप का सुंदर वर्णन किया है। उन्होंने कृष्ण के जीवन को अत्यंत आकर्षक अभिव्यक्ति प्रदान की है। अपने कुछ पदों में उन्होंने राम- कथा का भी साधारण वर्णन किया है। उन्होंने अपने काव्य की रचना गीति- काव्य के रूप में की है। ब्रजभाषा की मधुर शब्दावली से युक्त होने के कारण उनके पद और भी सुंदर बन पड़े हैं। इनमें उन्होंने अपने भावों को संक्षिप्त रूप में उपस्थित क्रिया है। मधुरता और सरसता से युक्त होने के कारण ये पद पाठक प्रथवा श्रोता के हृदय का तुरंत स्पर्श करते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सूर ने गीतिकाव्य के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का उत्कृष्ट परिचय दिया है। इतना होने पर भी उन्होंने अपने कुछ पदों को दृष्टकूट के रूप में उपस्थित कर उन्हें आवश्यक रूप में कठिन बना दिया है। इस प्रकार के पद उनके काव्य का प्रतिनिधित्व नहीं करते। साधारण पाठक के लिए तो इनके अर्थ को समझना भी कठिन है।

सूर के काव्य की प्रमुख विशेषता उनके द्वारा किए गए रसों का सुंदर प्रयोग है। उन्होंने ‘सूरसागर’ में वात्सल्य रस, शृंगार रस तथा शांत रस का क्रमशः चित्रण किया है और ये उनके काव्य के प्रमुख रस रहे हैं। इनके अतिरिक्त उनके कुछ पदों में अन्य रसों का भी प्रयोग हुआ है, किंतु मुख्यता इन्हीं तीनों रसों की रही है। आगे हम उनके काव्य में इन तीनों रसों के विकास का अध्ययन उपस्थित करेंगे।

(1) वात्सल्य रस –

सूरदास जी ने श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर बालक के रूप में उनकी सभी लीलाओं का सजीव वर्णन किया है। बालक की चपलता का भी उन्होंने स्वाभाविक चित्रण किया है। उन्होंने माता-पिता के हृदय में शिशु के लिए स्थित स्नेह को पूर्ण रूप से पहचाना है। इस दृष्टि से उन्होंने नंद और यशोदा के पुत्र प्रेम को मनोवैज्ञानिक आधार पर उपस्थित किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अन्य व्यक्तियों और पशुओं से भी श्रीकृष्ण के स्नेह-संबंध का वर्णन किया है। उन्होंने वात्सल्य रस के सभी अंगों का सूक्ष्म निरीक्षण किया है और उनका हृदयग्राही चित्रण किया है। इस दृष्टि से श्रीकृष्ण की माखन- चोरी के प्रसंग का वर्णन अत्यंत सजीव रूप में हुआ है। आगे हम बालक कृष्ण द्वारा माता से पूछा गया एक स्वाभाविक प्रश्न उद्धृत करते हैं-

“मैया, कबहि बढ़ेगी चोटी ?

किती बार मोहि दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी!”

(2) शृंगार रस-

सूर ने अपने काव्य में शृंगार रस के संयोग पक्ष और वियोग पक्ष, दोनों का चित्रण किया है। संयोग पक्ष के अंतर्गत उन्होंने श्रीकृष्ण और गोपियों के प्रेम का सुंदर वर्णन किया है। इस विषय में उन्होंने श्रीकृष्ण द्वारा मुरली बजाने और रासलीला की योजना करने का वर्णन करते हुए इन दोनों के मन पर पड़ने वाले प्रभाव का भी चित्रण किया है। इसी प्रकार संयोग में सहायक प्रकृति के भी उन्होंने सुंदर चित्र अंकित किए हैं। उनका संयोग वर्णन स्वाभाविक और मनोहारी है। वैसे इसकी तुलना में उन्होंने अपने काव्य में वियोग-वर्णन को अधिक स्थान दिया है। श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर उन्होंने उनके विरह में गोपियों की विकलता का मार्मिक चित्रण किया है। उन्होंने गोपियों की विरह-दशा का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। इस विरह-वर्णन का पूर्ण विकास उनके ‘भ्रमरगीत’ में मिलता है। जिस समय उद्धव ने उन्हें ज्ञान का उपदेश दिया है उस समय गोपियों ने उन्हें अपनी विरह- वेदना से इतना प्रभावित किया कि अंत में उद्धव भी उनके विरह की सार्थकता का अनुभव करने लगे। इससे कवि की वर्णन – कुशलता का पूर्ण परिचय प्राप्त होता है। श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की विकलता का निम्नलिखित चित्र देखिए –

“प्रीति करि काहू सुख न लह्यौ।

प्रीति पतंग करी पावक सौं, श्रापै प्रान दह्यौ॥

अलि-सुत प्रीति करी जल-सुत सौं, संपुट मांझ गह्यौ।

सारंग प्रीति करो जु नाद सौं, सन्मुख बान सह्यौ॥

हम जो प्रीति करी माधव सौं, चलत न कछु कह्यो।

सूरदास प्रभु बिनु दुख पावत, नैननि नीर बह्यौ॥”

(3) शांत रस –

सुरदास जी ने अपने काव्य में श्रीकृष्ण के चरित्र को लेकर शांत रस को भी व्यापक स्थान प्रदान किया है। इस दृष्टि से उन्होंने सर्वप्रथम हमारे सामने उनके लोक-रक्षक रूप को उपस्थित किया है और इसके लिए उनके द्वारा किए गए केशी और बकासुर आदि राक्षसों तथा पूतना राक्षसी के वध तथा कालिया दमन की कथाओं का वर्णन किया है। श्रीकृष्ण के शील का चित्रण करने के लिए उन्होंने जो भावनाएँ उपस्थित की है उनमें भी शांत रस का अच्छा समावेश हुआ है। उनके काव्य में शांत रस का सब से सुंदर समावेश उनके भक्ति-पदों में हुआ है। भक्ति के क्षेत्र में उन्होंने विनय भाव और सख्य-भाव की भक्ति को अपनाया है। उदाहरण के लिए उनकी विनय भाव की भक्ति का निम्नलिखित रूप देखिए-

“चरन कमल बंद हरि राई।

जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे,

अंधे को सब कछु दरसाई॥

बहिरी सुनं, मूक पुनि बोले,

रंक चलें सिर छत्र धराई।

सूरदास स्वामी करुणामय,

बार-बार बंदौं तिहि पाई॥”

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कविवर सूरदास ने अपने काव्य में विविध रसों की सुंदर योजना की है। उनके काव्य की अन्य विशेषताएँ निम्नलिखित है—

(1) प्रकृति-चित्रण –

सूरदास जी के काव्य में प्रकृति-चित्रण के लिए व्यापक स्थान रहा है। उनके सभी पात्रों के जीवन का विकास प्रकृति के अंचल में हुआ है। उन्होंने अपने काव्य में प्रकृति-चित्रण की सभी प्रणालियों को ग्रहण किया है। इनमें से उद्दीपन रूप में प्रकृति चित्रण की प्रणाली उनके पदों में मुख्य रही है।

(2) चरित्र चित्रण –

‘सूर – सागर’ में कवि ने कृष्ण, राधा, नंद, यशोदा, उद्धव और गोप-गोपियों के चरित्रों को अत्यंत स्वाभाविक रूप में उपस्थित किया है। सूर ने चरित्र- चित्रण करते समय स्पष्टता और विवशता का पूर्ण परिचय दिया है। भक्ति काल के कृष्ण-भक्त कवियों में इस दिशा में उन्हें सबसे अधिक सफलता मिली है।

(3) भक्ति-पद्धति –

कविवर सूरदास ने अपने काव्य में सगुण भक्ति के महत्त्व को सफलतापूर्वक स्पष्ट किया है। उन्होंने गोपियों को सगुण भक्ति में विश्वास रखने वाली नारियों के रूप में चित्रित किया है। उनके उद्धव निर्गुणं भक्ति के समर्थक रहें है। गोपी- उद्धव संवाद में उद्धव को गोपियों से परास्त कराकर उन्होंने सगुण भक्ति का सफल प्रतिपादन किया है।

(4) गीति-काव्यत्व-

सूर ने अपने पदों में गीति काव्य के तत्त्वों का सफल निर्वाह किया है। उनके पद संक्षिप्त, मधुर और आकर्षक है। इनमें संगीत शास्त्र का दृढ़ आधार लिया गया है। उनके शांत रस संबंधी पदों में आत्म कथन की प्रणाली को भी ग्रहण किया गया है। हिंदी में गीति काव्य की रचना करने वाले कवियों में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है।

(5) भाषा-शैली-

सूर के काव्य की भाषा सरल, स्वाभाविक और मधुर ब्रजभाषा है। उन्होंने अपने काव्य में कठिन शब्दों का अधिक प्रयोग नहीं किया है। उनकी शैली प्रवाहपूर्ण और आकर्षक है। उनके काव्य में वैसे तो वर्णन की अनेक शैलियों का समावेश हुआ है, किंतु उनमें प्रगति-शैली मुख्य है।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कविवर सूरदास ने कृष्ण भक्ति को लेकर श्रेष्ठ काव्य की रचना की है। अष्टछाप के सर्वश्रेष्ठ कवि होने के अतिरिक्त वह हिंदी के कृष्ण काव्य के भी सर्वप्रमुख लेखक हैं। उन्होंने अपने काव्य में श्रीकृष्ण के जीवन का इतने व्यापक रूप में समावेश किया है कि उनके बाद के कृष्ण-भक्त कवि उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सके है।

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