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गोस्वामी तुलसीदास

Goswami Tulasidas

हिंदी के भक्तिकालीन कवियों में गोस्वामी तुलसीदास का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनका जन्म सम्वत् 1556 में बाँदा जिले के राजापुर नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता श्री आत्माराम एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण थे। उनकी माता का नाम हुलसी था। उनके विषय में यह प्रसिद्ध है कि उनका जन्म मूल नक्षत्र में हुआ था और इस कारण माता-पिता ने उनका त्याग कर दिया था। उनका बचपन अत्यंत संकट के साथ व्यतीत हुआ। आयु प्राप्त होने पर उन्होंने महात्मा नरहरि के आश्रम में शिक्षा प्राप्त का। उनके गुरु उस समय के प्रसिद्ध विद्वान थे। उन्होंने 15 वर्ष तक अत्यंत परिश्रम के साथ विद्या प्राप्त की। इसके पश्चात् उन्होंने रत्नावली नाम की एक कन्या से विवाह कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। वह अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करते थे। एक बार जब वह उन्हें सूचना दिए बिना ही अपने पिता के यहाँ चली गई, तब वह भी उसके पीछे-पीछे वहाँ पहुँच गए। उनकी पत्नी को उनकी इस आसक्ति से अत्यंत खेद हुआ। वह स्वयं भी एक विदुषी नारी थी। उसने उन्हें लौकिक प्रेम की अपेक्षा ईश्वर प्रेम का महत्त्व बताया। इस पर वह संसार का त्याग कर राम भक्ति में लीन हो गए।

गोस्वामी तुलसीदास ने श्री राम की भक्ति को अपने काव्य का मुख्य विषय बनाया है। यद्यपि उन्होंने श्रीकृष्ण की भक्ति में ‘कृष्ण- गीतावली’, हनुमान की स्तुति में ‘हनुमान बाहुक’ तथा अन्य देवी-देवताओं की स्तुति में स्फुट छंदों की रचना की है. तथापि मुख्य रूप से उन्होंने श्रीराम की ही उपासना की है। इस दिशा में उन्होंने ‘कवितावली,’ ‘गीतावली’, ‘विनय- पत्रिका’ तथा ‘रामचरितमानस’ आदि अनेक श्रेष्ठ काव्य उपस्थित किए हैं। इनमें से प्रथम तीन काव्यों की रचना मुक्तक काव्य के रूप में हुई है और अन्तिम काव्य प्रबंध काव्य के रूप में लिखा गया है। भाषा की दृष्टि से भी जहाँ प्रथम तीन काव्यों में ब्रजभाषा को स्थान दिया गया है वहाँ चतुर्थ काव्य में अवधी भाषा को अपनाया गया है। इनमें ‘रामचरितमानस’ को ही सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। हिंदी के राम भक्ति संबंधी अन्य काव्यों से तुलना करने पर भी हम इसे सर्वश्रेष्ठ काव्य पाते हैं। इस काव्य में उन्होंने अनुभव, चिंतन और कल्पना का सुंदर समन्वय उपस्थित किया है। आगे हम उनके काव्य की विविध विशेषताओं पर पृथक्-पृथक् प्रकाश डालेंगे।

रस- योजना

तुलसी ने अपने काव्य में शांत रस और शृंगार रस को सबसे अधिक स्थान प्रदान किया है, तथापि उनकी रचनाओं में अन्य रस भी प्रचुरता से प्राप्त होते हैं। शांत रस के अंतर्गत उनके भक्ति-पदों में अपूर्ण विनयपूर्ण काव्य कौशल का समावेश हुआ है। उन्होंने भक्ति में तल्लीनता की स्थिति को आवश्यक माना है। इसी प्रकार उन्होंने निष्काम भक्ति की स्वच्छता का भी सर्वत्र प्रतिपादन किया है। उन्होंने श्री राम के चरित्र में शक्ति, शील और सौंदर्य के सम्मिलित दर्शन कर भगवान् के सगुण रूप को इन तीनों युक्त माना है। उन्होंने अपने काव्य में किसी विशेष दार्शनिक विचारधारा को स्पष्ट करने का आग्रह न रखकर सरल भावमयी भक्ति के प्रतिपादन को ही मुख्य माना है।

शांत रस के अतिरिक्त तुलसी ने शृंगार रस को भी अपने काव्य में पर्याप्त स्थान प्रदान किया है। उन्होंने उसके संयोग और वियोग दोनों पक्षों को लेकर सुंदर काव्य-रचना की है। संयोग शृंगार के अंतर्गत उन्होंने दाम्पत्य प्रेम के अनेक शुद्ध और प्रभावशाली चित्र उपस्थित किए है। राम और सीता के प्रेम को उन्होंने स्थूल रूप में उपस्थित न कर सूक्ष्म रूप में चित्रित किया है। वियोग शृंगार का चित्रण करते समय भी उन्होंने मर्यादा भाव का सर्वत्र परिचय दिया है। इनके अतिरिक्त ग्रंथ रसों के चित्रण में भी उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। इस दृष्टि से राम कथा के राम वनगमन, दशरथ-मरण, कोशल्या विलाप और मन्दोदरी विलाप आदि प्रसंगों में करुण रस का मार्मिक चित्रण हुआ है। राम-रावण युद्ध का वर्णन करते समय उन्होंने वीर रस के साथ-साथ रौद्र, भयानक और वीभत्स आदि सहायक रसों का भी यथास्थान चित्रण किया है। ‘रामचरितमानस’ के ‘बाल काण्ड’ और ‘कवितावली’ के प्रारंभ में वात्सल्य रस का भी अच्छा निर्वाह हुआ है। हास्य रस की दृष्टि से ‘रामचरितमानस’ के नारद मोह, शिव विवाह आदि प्रसंग विशेष सुंदर बन पड़े हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने काव्य में रस-योजना की ओर उपयुक्त ध्यान दिया है और उन्हें इसमें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। आगे हम उनके काव्य से राम- भक्ति संबंधी कुछ श्रेष्ठ पंक्तियाँ उपस्थित करते हैं-

“जाके प्रिय न राम – वैदेही।

सो छोड़िये कोटि बेरी सम, जद्यपि परम सनेही॥

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तुलसी सो सब भाँति परम हित, पूज्य प्रान ते प्यारो।

जाती होय सनेह राम-पद, यतो मतो हमारो॥”

चरित्र-चित्रण

तुलसी ने अपने काव्य में लोक-साधना पर बल देते हुए राम, सीता, भरत, लक्ष्मण तथा हनुमान जैसे अनेक आदर्श चरित्रों की रचना की है। उनके काव्य के नायक श्री राम उदार, सदाचारी, ओजस्वी और मर्यादा में विश्वास रखने वाले हैं। उन्होंने पिता, माता, धर्म-पत्नी तथा जनता आदि के प्रति प्रादर्श विचारों को उपस्थित करते हुए लोक-धर्म का सुंदर निर्वाह किया है। भरत और लक्ष्मण ने भी भ्रातृ-प्रेम को आदर्श रूप में उपस्थित किया है। इसी प्रकार सीता के चरित्र में दया, ममता, पति-भक्ति आदि विविध गुणों का आदर्श संयोजन किया गया है। हनुमान की राम भक्ति का चित्रण करते हुए कवि ने भक्ति के आदर्श को भी अच्छी प्रकार स्पष्ट किया है। वास्तव में तुलसी के काव्य में चरित्रों को आदर्श रूप में उपस्थित करने की ओर ही अधिक ध्यान दिया गया है। इतना होने पर भी उन्होंने राम, सीता एवम् भरत जैसे सात्विक भावों वाले पात्रों के अतिरिक्त रावण और शूर्पणखा जैसे तामसी गुणों वाले दुष्ट प्रकृति के व्यक्तियों को भी अपने काव्य में स्थान प्रदान किया है।

प्रकृति-चित्रण

तुलसी ने अपने काव्य में प्रकृति को विविध रूपों में उपस्थित किया है। इस दृष्टि से उनकी रचनाओं में प्रकृति के आलंबनात्मक, उद्दीपनात्मक, आलंकारिक तथा उपदेशात्मक आदि अनेक रूप प्राप्त होते हैं। उनके प्रकृति चित्र पाठक के हृदय का स्पर्श कर उसके भावों को जाग्रत करने में पूर्णत: समर्थ है। उन्होंने प्रकृति का मानव जगत् से सहज संबंध स्थापित किया है और प्रकृति के माध्यम से अनेक नैतिक और आध्यात्मिक संकेत उपस्थित किए है। आगे हम उनके ‘रामचरितमानस’ से प्रकृति का सुंदर चित्र उपस्थित करते हैं-

“विकसे सरसिज नाना रंगा,

मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा।

चातक कोकिल कोर चकोरा,

कूजत विहंग, नाचत मन मोरा॥”

कला-तत्त्व

तुलसी ने अपने काव्य की रचना प्रबंध और मुक्तक, दोनों ही रूपों में की है। इस कारण उनके काव्य में कलात्मक सौंदर्य की योजना के लिए पर्याप्त अवकाश रहा है। प्रबंध काव्य के रूप में उन्होंने अपने ‘रामचरितमानस’ की रचना अवधी भाषा में की है और शेष कृतियों को ब्रजभाषा में उपस्थित किया है। इन दोनों ही भाषाओं में काव्य-रचना करने में उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। उन्होंने भाषा को स्वाभाविक, रंमणीय और प्रौढ़ रूप में उपस्थित करने का सर्वत्र ध्यान रखा है। उन्होंने अपनी भाषा को काव्य-विषय के अनुसार परिवर्तित करने का भी पूर्ण ध्यान रखा है। व्याकरण की दृष्टि से भी उनकी भाषा प्रायः शुद्ध ही रही है और उसे सजीवता प्रदान करने के लिए उन्होंने मुहावरों और लोकोक्तियों का भी प्रचुर प्रयोग किया है। उनकी भाषा में काव्य के ओज, माधुर्य और प्रसाद नामक तीनों गुणों का यथास्थान सफल प्रयोग हुआ है।

शैली की दृष्टि से गोस्वामी तुलसीदास ने अपने काव्य में प्रगति शैली को मुख्य स्थान प्रदान किया है। इस दृष्टि से उनका ‘विनयपत्रिका’ शीर्षक काव्य हिंदी के गीति काव्यों के महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपनी रचनाओं में चित्र शैली, समास शैली, उद्बोधन शैली, संलाप शैली आदि अन्य शैलियों को भी पर्याप्त स्थान प्रदान किया है। शैली प्रयोग की विविधता के कारण उनके काव्य में कला प्रवाह का अत्यंत उत्कृष्ट रूप प्राप्त होता है। आगे हम उनके काव्य से प्रगति शैली का एक सुंदर उदाहरण उपस्थित करते हैं-

“अब लौं नसानी अब न नसेहौं।

राम कृपा भवनिसा सिरानी, जागे फिर न डसैहौं॥

पाया नाम चारु चिंतामनि, उर कर ते न खसैहौं।

स्याम रूप सूचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहं कसंहीं॥

परबस जानि हँस्यो इन इन्द्रिन, निज बस न हँसहौं।

मन-मधुकर पन करि तुलसी, रघुपति पद कमल बसैहौं॥”

तुलसी ने अपने काव्य में अलंकारों को भी व्यापक स्थान प्रदान किया है। उन्होंने शब्दालंकारों और अर्थालंकारों, दोनों का सफल प्रयोग किया है। उनके काव्य में मुख्य रूप से उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, प्रतीप, व्यतिरेक और अनुप्रास नामक अलंकारों का प्रयोग हुआ है। उन्होंने अलंकारों की स्वाभाविक योजना की ओर भी सर्वत्र ध्यान दिया है। छंद-योजना की दृष्टि से उन्होंने दोहा, चौपाई, सोरठा, छप्पय झूलना आदि विविध मात्रिक छंदों को अपनाया है और छंद-रचना के लिए आवश्यक यति-नियम और तुक-पालन की ओर उचित ध्यान दिया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भाव-तत्त्वों की भाँति कला-तत्त्वों की योजना में भी कविवर तुलसीदास को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। उनके काव्य के विषय में श्री अयोध्यासिंह उपाध्याय की निम्नलिखित पंक्तियाँ निश्चय ही सार्थक हैं-

“कविता करके तुलसी न लसे।

कविता लसी पा तुलसी की कला॥”

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