रीति काल के प्रसिद्ध कवि बिहारीलाल का जन्म संवत् 1660 के लगभग ग्वालियर राज्य में हुआ। उनके पिता श्री केशवराय माथुर ब्राह्मण थे। उनकी माता का उनके बचपन में ही स्वर्गवास हो गया था। इससे दुखी होकर उनके पिता ग्वालियर राज्य छोड़कर ओड़छ चले गए। उस समय उनकी आयु लगभग आठ वर्ष की थी। ओछा के पास गुढ़ौ नामक ग्राम में महात्मा नरहरिदास का श्राश्रम था। उनके धर्म भाव से प्रभावित होकर श्री केशवराय उनके शिष्य बन गए अतः बिहारीलालजी वहाँ विद्या प्राप्त करने लगे। उन्होंने ठीक समय पर संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं के साहित्य का उत्कृष्ट परिचय प्राप्त कर लिया। ओड़छा रहते समय ही उनका परिचय प्रसिद्ध कवि केशवदास से हो गया और उनके प्रभाव से वह स्वयं भी काव्य-रचना के प्रति रुचि रखने लगे। इसके कुछ समय पश्चात् उनके पिता वृंदावन की ओर चले गए। वहाँ के सुंदर प्राकृतिक दृश्यों ने बिहारी के कवि हृदय को और भी अधिक प्रेरणा प्रदान की। इसी समय उनका विवाह मथुरा के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण की कन्या से सम्पन्न हो गया। कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण उन्हें विवाह के पश्चात् अपनी ससुराल में ही रहना पड़ा।
कविवर बिहारी के विवाह के पश्चात् महात्मा नरहरिदास भी वृंदावन आ गए। संवत् 1675 के लगभग जब मुग़ल शहजादा शाहजहाँ वृंदावन गए तब महात्माजी ने उनका परिचय अपने शिष्य विहारी से कराया। शाहजहाँ ने उनके काव्य- कौशल से प्रभावित होकर उन्हें आगरा आने के लिए निमन्त्रित किया। इस निमंत्रण को स्वीकार कर बिहारी आगरा गए और वहाँ रह कर उन्होंने उर्दू तथा फारसी भाषाओं के साहित्य का विशेष अध्ययन किया। लगभग तीन वर्ष पश्चात् बिहारी आगरा छोड़कर एकांत साहित्य – चिंतन करने लगे। संवत् 1662 के लगभग वह आमेर राज्य की ओर गए। उस समय वहाँ महाराज जयसिंह का शासन था, किंतु वह राजकार्य की भोर उचित ध्यान न देकर अपनी नवविवाहिता पत्नी के अनुराग में लीन थे। बिहारी ने उन्हें राज्य का स्मरण दिलाने के उद्देश्य से उनके पास निम्नलिखित दोहा भेजा-
“नहि परागु, नह मधुर मधु, नहि बिकास इहि काल।
अली, कली ही सौं बंध्यो, श्रागें कौन हवाल॥”
इस दोहे को पढ़ने पर महाराज जयसिंह की सुप्त चेतना फिर से जाग्रत हुई। उन्होंने मोह का त्याग कर राज कार्य में फिर उचित भाग लेने का निश्चय किया और बिहारी का सम्मान कर उनसे उसी प्रकार के अन्य दोहों की रचना करने का आग्रह किया। बिहारी ने उनके यहाँ रहकर अनेक श्रेष्ठ दोहों की रचना की जिनका संग्रह इस समय ‘बिहारी सतसई’ के रूप में उपलब्ध होता है। इन दोहों की रचना से उन्हें धन और यश, दोनों की प्राप्ति हुई। वास्तव में हिंदी के सतसई – काव्य में कविवर बिहारी की सतसई का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। इसकी श्रेष्ठता का सबसे प्रबल प्रमाण यह है कि अपने रचना काल से अब तक इसने अनेक कवियों को प्रभावित किया है। बिहारी के उपरांत न केवल रीति काल में ही, अपितु आधुनिक काल में भी दोहा छंद में काव्य-रचना करने वाले अनेक कवियों ने उनके काव्य से प्रेरणा ली है। इसी प्रकार आलोचकों का ध्यान भी इस कृति पर विशेष रूप से केन्द्रित रहा है। इस समय ‘बिहारी सतसई’ की जितनी टीकाएँ उपलब्ध होती है उतनी टीकाएँ अन्य किसी भी काव्य की नहीं की गई है। बिहारी के काव्य की आलोचना करने में भी पंडित पद्मसिंह शर्मा, लाला भगवानदीन, श्री जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’, पंडित विश्वनाथप्रसाद मिश्र आदि अनेक आलोचकों ने प्रमुख भाग लिया है। हिंदी भाषा के अतिरिक्त संस्कृत, उर्दू आदि अन्य भाषाओं में भी ‘बिहारी सतसई’ के रूपान्तर उपलब्ध होते हैं।
बिहारी की रस-योजना
कविवर बिहारी के काव्य की सबसे बड़ी सफलता उनकी रस योजना में निहित है। उन्होंने अपनी सतसई में शृंगार रस को मुख्य स्थान प्रदान किया है, किंतु उनके कुछ दोहों में शांत रस, वीर रस और हास्य रस का भी सुंदर समावेश हुआ है। हिंदी के शृंगार रस के कवियों में बिहारी का उच्च स्थान है। उन्होंने इस रस के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का व्यापक चित्रण किया है। उन्होंने अपने काव्य में श्रीकृष्ण को गोपियों को नायिकाओं के रूप में उपस्थित किया है। अतः उनके दोहों में शृंगार रस का संबंध भी इन्हीं पात्रों से रहा है। उन्होंने वियोग शृंगार की अपेक्षा संयोग शृंगार के चित्रण की ओर अधिक ध्यान दिया है और इसी में उन्हें अधिक सफलता प्राप्त हुई है।
नायक तथा राधा और अन्य
कविवर बिहारी ने अपने काव्य में शृंगार रस के संयोग पक्ष की योजना करते समय सौंदर्य प्रतिपादन की ओर सर्वाधिक ध्यान दिया है। उन्होंने नायिका के सौंदर्य का विशद चित्रण करने के अतिरिक्त नायक के सौंदर्य का उल्लेख करने की ओर भी उचित ध्यान दिया है। उनके द्वारा उपस्थित किए गए रूप चित्रण कल्पना और स्वाभाविकता से युक्त होने के कारण हृदय पर तुरंत प्रभाव डालते हैं। रूप – चित्रण के साथ-साथ अनुभाव-विधान की ओर उपयुक्त ध्यान देकर भी उन्होंने अपने काव्य का शृंगार किया है। इन दोनों के अतिरिक्त उन्होंने अपने काव्य में दूती द्वारा नायक-नायिका के प्रेम-संबंध को निकट लाने और नायिका के अभिसार के लिए प्रस्थान करने का भी वर्णन किया है। संयोग शृंगार के सूक्ष्म तत्त्वों के अतिरिक्त उन्होंने उसके स्थूल तत्त्वों का भी उल्लेख किया है। आगे हम नायिका के रूप वर्णन से संबंधित उनका एक उत्कृष्ट दोहा उपस्थित करते हैं-
“हौं रीझी, लखि रोभिहौ, छबिह छबीले लाल।
सोनजुही-सी होति दुति, मिलत मालती माल॥”
संयोग शृंगार की भाँति कविवर बिहारी ने वियोग शृंगार को लेकर भी अनेक दोहों की रचना की है। इन दोहों में विषय का कल्पना के द्वारा प्रायः बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया गया है। यह वर्णन अनेक स्थानों पर अस्वाभाविकता की स्थिति तक पहुँच गया है। यही कारण है कि बिहारी को वियोग शृंगार की योजना में अधिक सफलता
प्राप्त नहीं हुई है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उनके विरह-वर्णनों में स्वाभाविकता का सर्वत्र अभाव रहा है। उनके कुछ दोहे इस दृष्टि से अत्यंत मार्मिक बन पड़े हैं। उदाहरण के लिए उनकी विरहिणी नायिका की नायक के लिए निम्नलिखित उक्ति देखिए-
“कागद पर लिखत न बनत, कहत संदेसु लजात।
कहिहै सब तेरौ हियों, मेरे हिय की बात॥”
कविवर बिहारी ने शृंगार रस के अतिरिक्त शांत रस की भी श्रेष्ठ योजना की है। इस दृष्टि से उनके भक्ति और नीति से संबंधित छंद अत्यंत प्रभावशाली बन पड़े हैं। उनके भक्ति-संबंधी दोहों में श्रीकृष्ण की उपासना की गई है। ‘बिहारी सतसई’ के मंगलाचरण के दोहे में उन्होंने राधा से भी कृपा की याचना की है। उनके नीति-संबंधी दोहों में भी जीवन के अनुभवों का व्यापक चित्रण हुआ है। इन दोहों में आशीर्वाद को स्पष्टत: प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ है। इनका अध्ययन करने पर पाठक को जीवन में उन्नति करने का संदेश प्राप्त होता है। यद्यपि उन्होंने भक्ति और नीति को लेकर अधिक छंदों की रचना नहीं की है, तथापि यह स्वीकार करना होगा कि उनके इस प्रकार के छंदों में भक्ति काल के कवियों के भक्ति तथा नीति- संबंधी छंदों की गरिमा उपलब्ध होती है। उदाहरण के लिए उनका निम्नलिखित दोहा देखिए-
“कोऊ कोटिक संग्रहों कोऊ लाख हजार।
मो संपति जदुपति सदा, बिपति बिदारनहार॥”
शांत रस के अतिरिक्त ‘बिहारी सतसई’ में वीर रस और हास्य रस के कुछ छंद भी उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार के छंद संख्या में अधिक नहीं हैं। वीर रस के छंदों में उन्होंने अपने आश्रयदाता महाराज जयसिंह की वीरता की प्रशंसा की है। रस योजना के पश्चात् उनके काव्य में प्रकृति-चित्रण और कल्पना के उपयोग का अध्ययन करना होगा। प्रकृति – चित्रण की दृष्टि से उन्होंने स्वतंत्र दोहों की अत्यंत सीमित रचना की है, किंतु शृंगार रस के उद्दीपन में सहायक के रूप में प्रकृति को उनके अनेक दोहों में प्रासंगिक अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है। इसी प्रकार कल्पना का उपयोग भी उन्होंने स्वाभाविक और ऊहात्मक (बड़ा चढ़ा कर किया गया वर्णन), दोनों रूपों में किया है।
उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि कविवर बिहारी ने अपने काव्य में विविध भावों को श्रेष्ठ अभिव्यक्ति प्रदान की है। उनके दोहों का विशेष सौंदर्य उनकी समास-शक्ति में निहित है। समास-शक्ति से हमारा तात्पर्य व्यापक भावों को संक्षेप में उपस्थित करने में सहायता देने वाली शक्ति से है। बिहारी को इस दिशा में पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। उन्होंने दोहे जैसे संक्षिप्त छंद में जिन विशद भावों का समावेश किया है उन्हें देखकर सहसा मुग्ध रह जाना पड़ता है। उनके काव्य की इस विशेषता का कारण यह है कि उन्होंने अपने दोहों में कहीं भी व्यर्थ के शब्दों का प्रयोग नहीं किया है। उनके शब्दों में दीर्घ अर्थ को व्यक्त करने की शक्ति का सहज समावेश हुआ है। इसी कारण उनके काव्य के विषय में निम्नलिखित उक्ति प्रसिद्ध है-
“सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर॥”
इस प्रकार यह सष्ट है कि बिहारी के काव्य की भाषा सुगठित है और उसमें व्यापक भावों को संक्षेप में उपस्थित करने का गुण विद्यमान है। अन्य कला-तत्त्वों में उन्होंने अलंकारों का भी स्वाभाविक प्रयोग किया है। उनके काव्य में विविध शब्दालंकार और अर्थालंकार व्यापक रूप में प्रयुक्त हुए हैं, किंतु उन्होंने कहीं भी उनकी कृत्रिम योजना नहीं की है। उनकी शैली भी प्रवाहपूर्ण है। उन्होंने अपने काव्य की रचना केवल दोहा छंद में की है और उसकी योजना में उन्हें सर्वत्र सफलता मिली है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यद्यपि बिहारी ने केवल एक ही कृति की रचना की है, तथापि उसमें उन्हें सभी दृष्टियों से पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है।