‘हरिऔध’ जी का जन्म संवत् 1922 में जिला आजमगढ़ के निजामाबाद नामक स्थान पर हुआ था। वह हिंदी, संस्कृत, उर्दू और फारसी आदि विविध भाषाओं के विद्वान् थे और उन्होंने इन सभी भाषाओं की श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों का अध्ययन किया था। उन्होंने काव्य, उपन्यास, आलोचना और निबंध के रूप में पर्याप्त साहित्य की रचना की है। उनकी मृत्यु संवत् 2002 में हुई थी। ‘हरिऔध’ जी द्विवेदी युग के प्रतिनिधि कवि थे। उनकी भाषा तथा भावधारा पर तत्कालीन साहित्यिक परिस्थितियों का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। उन्होंने ‘प्रियप्रवास’ तथा ‘वैदेही बनवास’ शीर्षक दो उत्कृष्ट महाकाव्यों के अतिरिक्त हिंदी काव्य के क्षेत्र में ‘चुभते चौपदे’ एवं ‘चोखे चौपदे’ के समान मनोरंजक तथा शिक्षात्मक कृतियों को भी उपस्थित किया है। उनकी कृतियों की प्रमुख विशेषता यह है कि उनमें भाषा की सहजता और शैली के प्रवाह के साथ-साथ मुहावरों का चुटीलापन भी प्राप्त होता है।
‘हरिऔध’ जी ने अपने साहित्य में भारतीय संस्कृति की मनोवैज्ञानिक आधार पर उत्कृष्ट व्याख्या उपस्थित की है। उन्होंने संस्कृत के वार्णिक छंदों में अतुकांत काव्य की रचना करने की दिशा में पर्याप्त सफलता प्राप्त की है। उनके काव्य में सरल, मौलिक, गंभीर और मार्मिक भावधारा प्राप्त होती हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाएँ पाठक के हृदय का तुरंत स्पर्श करती है और वह उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। उन्होंने हिंदी में बाल- साहित्य का प्रभाव देखकर किशोरावस्था के बालकों के लिए भी सुंदर रचनाएँ उपस्थित की है। वैसे उनकी पद्य और गद्य, दोनों को लिखने में समान गति थी। आज इन दोनों ही क्षेत्रों में उनका पर्याप्त सम्मान है। गद्य के क्षेत्र में उनकी ‘हिंदी भाषा और साहित्य का विकास’ शीर्षक कृति उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त ‘ठेठ हिंदी का ठाट’ तथा ‘अधखिला फूल’ शीर्षक उपन्यासों में भी उन्होंने शुद्ध खड़ीबोली का प्रयोग कर गद्य रचना में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है।
उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि ‘हरिऔध’ जी ने कविता, आलोचना और उपन्यासों की रचना द्वारा हिंदी साहित्य के विकास में योग प्रदान किया है। इनमें से उन्हें कविता और आलोचना के क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा को विकसित करने का अधिक अवकाश मिला है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वह मूल रूप से कवि थे, तथापि उन्होंने अपने काव्यों की भूमिकाओं और स्वतंत्र आलोचना-ग्रंथों द्वारा अपने आलोचक- रूप का भी स्पष्ट परिचय उपस्थित किया है। उन्होंने अपने काव्य में वर्णन के लिए अनेक विषयों को अपनाया है। इम दृष्टि से अध्ययन करने पर हम देखते हैं कि उन्होंने अपने काव्य में भक्ति, प्रकृति और नीति के प्रतिपादन की ओर सबसे अधिक ध्यान दिया है। उन्होंने अपने काव्य की रचना द्विवेदी युग में की थी। अतः इस युग की अन्य भाव विशेषताएँ भी उनके काव्य में यथास्थान उपलब्ध हो जाती हैं। भक्ति के क्षेत्र में उनकी ‘प्रियप्रवास’ और ‘वैदेही बनवास’ नामक दो कृतियाँ मिलती हैं। इनमें क्रमश: कृष्ण भक्ति को स्थान प्राप्त हुआ है। इसके अतिरिक्त अपनी कतिपय स्वतंत्र कविताओं में भी उन्होंने भक्ति को स्थान प्रदान किया है। वह भक्ति में विविध दार्शनिक सिद्धांतों के प्रतिपादन से दूर रहे और उन्होंने उसे सरल रूप प्रदान करने की ओर ही मुख्य ध्यान दिया। भक्त के रूप में उनकी दृष्टि आधुनिक काल के नवीन तर्कों और मनोविज्ञान से भी प्रभावित थी। इस कारण उन्होंने प्राणों में प्राप्त होने वाली अनेक अनावश्यक और अद्भुत बातों का परित्याग कर दिया है।
भक्ति के साथ-साथ ‘हरिऔध’ जी के काव्य में नीति को भी प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ है। उनके काव्य के एक बहुत बड़े अंश का संबंध नैतिकता के प्रतिपादन से रहा है। उन्होंने अपने नीति काव्य की रचना करते समय उसमें अपने संसार के अनुभवों का सफलतापूर्वक समावेश किया है। उनकी ‘चुभते चौपदे’ और ‘चोखे चौपदे’ शीर्षक रचनाएँ इसी प्रकार की हैं। हिंदी में नीति काव्य की रचना प्रमुख रूप से भक्तिकाल में हुई थी। आधुनिक काल में इस ओर कविवर नाथूराम शंकर शर्मा, ‘हरिऔध’ आदि कुछ कवियों ने ध्यान दिया है। इनमें ‘हरिऔध’ जी का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। आगे हम उनके काव्य से भक्ति और नीति के सम्मिलित स्वरूप को व्यक्त करने “वाला एक पद उपस्थित करते हैं
क्या हुआ मुँह से सदा हरि हरि कहे,
दूसरों का दुख न जब हरते रहे।
जब दया वाले बने न दया दिया,
तब दया का गान क्या करते रहे॥”
‘हरिऔध’ जी के नीति-काव्य में व्यंग्य और उपदेशात्मकता दोनों को स्थान प्राप्त हुआ है। उनके काव्य की तीसरी विशेषता उनके द्वारा किए गए प्रकृति चित्रण में निहित है। उन्होंने अपने काव्य में प्रकृति-चित्रण को व्यापक स्थान प्रदान किया है। इसी प्रकार उनके प्रकृति-चित्र भी अनेक रूपों में प्राप्त होते हैं। अपने युग की सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार उन्होंने प्रकृति और ईश्वर में सहज संबंध की स्थापना करते हुए प्रकृति को ईश्वर के गुणों का गान करते हुए भी दिखाया है। उनके काव्य में प्रकृति के अनेक शुद्ध चित्र प्राप्त होते हैं। उनके प्राकृतिक चित्रों में हर्ष, विषाद और विस्मय तीनों का समावेश हुआ है। उन्होंने प्रकृति और मानव में अत्यंत निकट के संबंध का स्थापना की है। प्रकृति-वर्णन के लिए स्वतंत्र कविताओं की रचना करने के अतिरिक्त उन्होंने अपने प्रबंध काव्यों में भी प्रकृति को पर्याप्त स्थान प्रदान किया है। उदाहरण के लिए ‘प्रियप्रवास’ के प्रारंभ की निम्नलिखित चार पंक्तियाँ देखिए-
“दिवस का अवसान समीप था,
गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरु शिखा पर थी अब राजती,
कमलिनी कुल-वल्लभ की प्रभा॥”
कला-तत्त्व
‘हरिऔध’ जी के काव्य में कला-सौंदर्य के विकास में सहायक तत्त्वों को भी पर्याप्त स्थान प्राप्त हुआ है। उन्होंने अपने काव्य की रचना ब्रजभाषा और खड़ीबोली, दोनों में ही की है। उनका अधिकांश काव्य खड़ीबोली में ही उपलब्ध होता है। उनके काव्य की भाषा प्रायः सरल ही रही है और केवल ‘प्रियप्रवास’ में ही कहीं-कही संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता के कारण उसका स्वरूप जटिल हो गया है। अपनी भाषा को सरलता और प्रवाह प्रदान करने के लिए उन्होंने लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रचुर प्रयोग किया है। आधुनिक युग के कवियों में केवल वही एक ऐसे कवि है जो अपनी रचनाओं में मुहावरों का व्यापक रूप में प्रयोग करने में सफल हो पाए हैं। इनसे युक्त होने के कारण उनकी भाषा में एक विशेष सजीवता आ गई है। इनके फलस्वरूप उनके काव्य के अर्थों में भी कहीं-कहीं विशेष चमत्कार उत्पन्न हो गया है।
भाषा प्रयोग की भाँति शैली योजना में भी ‘हरिऔध’ जी ने विविधता का परिचय दिया है। उन्होंने अपनी रचनाओं में वर्णनात्मक शैली, संबोधन शैली, उद्बोधन शैली और प्रश्न शैली आदि विविध शैलियों का सफल प्रयोग किया है। उनकी भाषा भी शैली के परिवर्तन के साथ-साथ परिवर्तित होती रही है। अन्य कला-तत्त्वों में से उन्होंने अपने काव्य में अलंकारों का व्यापक प्रयोग किया है। आधुनिक काल के कवियों ने प्रायः अलंकारों की योजना करते समय कृत्रिमता का आश्रय नहीं लिया है। ‘हरिऔध’ जी के काव्य में भी हमें यही प्रवृत्ति प्राप्त होती है। उन्होंने अपनी रचनाओं में विविध शब्दालंकारों और अर्थालंकारों का स्वाभाविक रूप में प्रयोग किया है और अलंकार-योजना के कारण उनके काव्य के भाव सौंदर्य को हानि नहीं पहुँचने पाई है। छंद-प्रयोग की दृष्टि से उन्होंने वार्णिक और मात्रिक, दोनों प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है। उनके छंदों में छंदों के लिए आवश्यक विविध नियमों की पूर्ण स्थिति रही है। छंद- रचना करते समय उन्होंने संस्कृत की छंद – प्रणाली की ओर अधिक ध्यान दिया है। ‘प्रियप्रवास’ में अतुकांत वरिंगक छंदों की योजना कर उन्होंने अपनी इसी प्रवृत्ति की सूचना दी है। उदाहरण के लिए राधा द्वारा पवन को संबोधित कर कहा गया उनका निम्नलिखित छंद देखिए-
“कोई प्यारा कुसुम कुम्हला गेह में जो पड़ा हो,
तो प्यारे के चरण पर ला डाल देना उसी को।
यों देना ऐ पवन बतला फूल-सी एक बाला,
म्लाना हो हो कमल पग को चूमना चाहती है॥”
उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि ‘हरिऔध’ जी ने अपने काव्य में भावना और कला, दोनों के क्षेत्रों में विविधता का परिचय दिया है। द्विवेदी युग की सामान्य काव्य – विशेषताओं को ग्रहण करते हुए उन्होंने कुछ व्यक्तिगत रुचियों के आधार पर अपने काव्य में कुछ नवीन तत्त्वों का भी विकास किया है। उनके द्वारा प्रारंभ की गई अतुकांत काव्य-रचना की शैली इस दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है और उनके पश्चात् कविवर अनूप शर्मा, आनंदकुमार आदि अनेक कवियों ने उसे स्वीकार किया है।