कविवर मैथिलीशरण गुप्त का जन्म संवत् 1943 में जिला झाँसी के चिरगाँव नामक स्थान में हुआ था। उनके पिता सेठ रामचरण भगवान् राम के परम भक्त थे। उन्होंने बचपन में ही अपने पुत्र के हृदय में भी भक्ति भावों को भर दिया। इसका फल यह हुआ कि कालान्तर में जब गुप्त जी ने काव्य- रचना प्रारंभ की तब उनका ध्यान मुख्य रूप से वैष्णव भक्ति के प्रतिपादन की ओर ही रहा। उन्होंने अपने कवि-जीवन के प्रारंभ में ‘सरस्वती’ के संपादक आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी से पर्याप्त प्रेरणा ली थी। गुप्त जी को काव्य की ओर उन्मुख करने में द्विवेदी जी का काफी हाथ रहा है। इस कारण वह उन्हें अपने गुरु के समान मानते थे। उनके अतिरिक्त उन्होंने मुंशी अजमेरी से भी काव्य-रचना की प्रारंभिक शिक्षा ली थी। इन दोनों व्यक्तियों से प्रोत्साहन पाकर उन्होंने अनेक श्रेष्ठ काव्यों की रचना की। भक्ति के अतिरिक्त उनकी रचनाओं में राष्ट्रीयता को भी प्रमुख स्थान प्राप्त रहता है। इसी कारण उन्हें राष्ट्र कवि कहा जाता है। राष्ट्र के प्रति उनकी साहित्य- सेवा को देखकर ही भारतवर्ष के राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद ने उन्हें राज्य – सभा का सदस्य मनोनीत किया है। गुप्त जी के छोटे भाई श्री सियारामशरण गुप्त भी हिंदी के एक उत्कृष्ट कवि हैं।
कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने अपने काव्य की रचना प्रबंध और मुक्तक दोनों रूपों में की है। उनकी प्रबंध रचनाओं में ‘जयभारत’, ‘साकेत’, ‘पंचवटी’ और ‘जयद्रथ वध’ प्रमुख हैं। इनमें से प्रथम दो ग्रंथ महाकाव्य हैं और शेष दोनों कृतियाँ खंड-काव्य है। जयभारत उनकी नवीनतम रचना है और इसे महाभारत के कथानक के आधार पर लिखा गया है। ‘साकेत’ की रचना उन्होंने राम भक्ति को लेकर की है और इसमें लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के विरह का वर्णन करने की ओर अधिक ध्यान दिया गया है। इसी प्रकार इसमें कैकेयी के चरित्र को भी नवीन रूप में उपस्थित किया गया है। राम- काव्य में उर्मिला की उपेक्षा की ओर उनका ध्यान आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने आकृष्ट किया था। गुप्त जी ने उर्मिला और लक्ष्मण के संयोग के दृश्यों का वर्णन करते हुए विरहिणी उर्मिला के भावों के वर्णन को इस काव्य का मुख्य विषय बनाया है। इसी प्रकार इसमें कैकेयी के कलंक को मनो- वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दूर करने का सुंदर प्रयत्न किया गया है। अपने खंड- काव्यों में से उन्होंने ‘पंचवटी’ में श्रीराम के पंचवटी – निवास की परिस्थितियों पर सुंदर प्रकाश डाला है और ‘जयद्रथ वध’ में महाभारत के एक प्रसिद्ध कथा-भाग का वर्णन किया है। काव्य-कौशल की दृष्टि से ये दोनों कृतियाँ भी विशेष सुंदर बन पड़ी हैं।
गुप्त जी ने अपने मुक्तक काव्यों की रचना गीति काव्य और छंदयुक्त काव्य, दोनों के रूप में की है। गीति काव्य की दृष्टि से उनकी ‘झंकार’ शीर्षक कृति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने ‘साकेत’ और ‘यशोधरा’ शीर्षक काव्यों में भी यत्र-तत्र गीतों की रचना की है। छंद- युक्त मुक्तक काव्य की दृष्टि से उन्होंने अनेक स्वतंत्र कविताओं की रचना की है। उनकी कृतियों में ‘भारत-भारती’ और ‘यशोधरा’ का भी विशेष महत्त्व है। इनमें से प्रथम कृति में भारत के भूत, वर्तमान और भविष्य की स्थितियों का चित्रण किया गया है। इसमें कवि के चिंतन और भारत के प्रति अनुराग का स्पष्ट परिचय मिलता है। ‘यशोधरा’ में उन्होंने गौतम बुद्ध द्वारा संसार का त्याग करने पर उनके संबंधियों के हृदय पर इस घटना का जो प्रभाव पड़ा था उसका कल्पना के आधार पर सुंदर चित्रण किया है। इसमें महात्मा बुद्ध की पत्नी यशोधरा के हृदय की व्यथा के चित्रण को मुख्य स्थान प्रदान किया गया है।
गुप्तजी समन्वयवादी कवि है। उन्होंने विभिन्न धर्म-संप्रदायों और काव्य- विशेषताओं के प्रति सहानुभूतिशील दृष्टिकोण को अपनाया है। इसी प्रवृत्ति के कारण उन्होंने अपनी रचनाओं में राम, कृष्ण, बुद्ध, सिख गुरुओं आदि के विषय में अपनी भावनाओं को स्पष्ट किया है। कृष्ण भक्ति की दृष्टि से उनका ‘द्वापर’ शीर्षक काव्य अत्यंत सुंदर बन पड़ा है। सिख गुरुओं के विषय में उन्होंने ‘गुरुकुल’ नामक काव्य की रचना की है। इतना होने पर भी उनके काव्य में मुख्य रूप से श्रीराम की भक्ति को ही स्थान प्राप्त हुम्रा है। उन्होंने राजपूत – इतिहास की कुछ घटनाओं का भी अपने काव्य में चित्रण किया हैं। उनकी ‘सिद्धराज’ शीर्षक कृति इसी प्रकार की है। ‘अजित’ शीर्षक रचना का अध्ययन करने पर हमें राष्ट्रीय आंदोलन में उनके योग का भी अच्छा चित्रण मिलता है। उपर्युक्त विशेषताओं के अतिरिक्त उन्होंने अपने काव्य में कुंछ साहित्यिक विशेषताओं का भी सुंदर संकलन किया है। उन्होंने अपने काव्य की रचना द्विवेदी युग में प्रारंभ की थी और तब से अब तक उन्होंने अनेक काव्यों की रचना की है। इस अवधि में छायावाद के रूप में जिस नवीन काव्य-धारा का प्रारंभ हुआ था उनकी विशेषताओं को भी उन्होंने स्वीकार किया है। इस प्रकार द्विवेदी युग की आदर्शवाद काव्य-रचना की प्रणाली को अपनाने के साथ-साथ उन्होंने हिंदी काव्य में समय-समय पर आने वाली ग्रन्य विशेषताओं को ग्रहण करने की ओर भी उपयुक्त ध्यान दिया है।
उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने मुख्य रूप से भक्ति काव्य और राष्ट्रीय काव्य की रचना की है। इनमें उन्होंने अपने हृदय की सहृदयता का व्यापक चित्रण किया है। ईश्वर की शक्ति के प्रति उन्हें अखंड विश्वास रहा है और अपनी रचनाओं में उन्होंने उसका किसी न किसी रूप में उल्लेख अवश्य किया है। उनकी भक्ति विनय भाव से संबंधित रही है। उदाहरण के लिए उनके ‘किसान’ नामक काव्य की निम्न- लिखित पंक्तियाँ देखिए –
हम पापी ही सही, किंतु तुम हमें उबारो,
दीनबंधु हो दया करो अब और न मारो।
करके अपना कोप शांत, करुणाकर तारो,
अपने गुरण से देव ! हमारे दोष बिसारो॥”
गुप्त जी के राष्ट्रीय काव्य का महत्त्व इस कारण अधिक है कि वर्तमान राष्ट्रीय समस्याओं के विषय में विचार करते समय उन्होंने भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विशेषताओं को नहीं भुलाया है। राष्ट्र को उन्नति की ओर ले जाने के लिए वह स्वस्थ समाज को भी अत्यंत आवश्यक मानते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में समाज की वर्तमान बुराइयों और समस्याओं को दूर करने के लिए अनेक उपयोगी सुझाव दिए हैं। उन्होंने मनुष्य की अनेक समस्याओं का हल उसके द्वारा धर्म में लीन रहने को माना है। वह भाग्यवाद में विश्वास नहीं रखते। उद्योग के महत्त्व के विषय में उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ पढ़ने योग्य है-
“निकलता है यदि एक प्रयोग,
उसी के साथ दूसरा रोग।
मानकर इसे भाग्य का भोग,
छोड़ बैठें क्या हम उद्योग?”
भक्ति, राष्ट्र और समाज के विषय में अपने विचार उपस्थित करने के अतिरिक्त गुप्त जी ने साहित्य के विषय में भी अपने विचार प्रकट किए हैं। उन्होंने साहित्य की रचना के लिए उपयोगी भावों, रसों और कला-तत्त्वों आदि अनेक विषयों पर स्पष्ट रूप से विचार किया है। यद्यपि इस प्रकार के काव्य-संबंधी सिद्धांत उनके काव्य में स्वतंत्र रूप से नहीं मिलते, तथापि अवसर मिलने पर वह अपने प्रबंध काव्यों में भी उनका उल्लेख करना नहीं भूले है। वह कला को केवल कला के विकास के लिए नहीं मानते। उन्होंने भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार कला का जीवन से स्पष्ट संबंध माना है। उदाहरण के लिए ‘साकेत’ में लक्ष्मण द्वारा उर्मिला से कही गई निम्नलिखित पंक्तियाँ देखिए–
“जो अपूर्ण कला उस की पूर्ति है।
X X X
हो रहा है जो जहाँ से हो रहा,
यदि वही हमने कहा तो क्या कहा?
किंतु होना चाहिए कब क्या, कहाँ,
व्यक्त करती है कला ही यह यहाँ॥”
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि गुप्त जी ने अपने काव्य में विविध विषयों को उपस्थित किया है। उनके काव्य की एक अन्य विशेषता उसकी सरलता में निहित है। उन्होंने अपनी कविताओं की रचना खड़ीबोली में की है। उनकी भाषा अत्यंत सरल और स्वच्छ है। यद्यपि यह सत्य है कि कहीं-कहीं उनकी भाषा में कृत्रिमता भी दिखाई देती है, तथापि प्रसाद गुण से युक्त होने के कारण उनकी रचनाएँ हृदय का तुरंत स्पर्श करती है। उन्होंने अपनी भाषा को साधारण पाठक तक की पहुँच के भीतर रखने का प्रयत्न किया है। उनके काव्य में शैली प्रयोग में भी विविधता की उपयुक्त स्थिति रही है। इस दृष्टि से उन्होंने चित्र शैली, वर्णनात्मक शैली, प्रगति शैली, संबोधन शैली, उद्बोधन शैली आदि अनेक शैलियों का प्रयोग किया है। उनके काव्य में अलंकार – योजना भी स्वाभाविक और प्रभावशाली रूप में हुई है। इस ओर उनका अधिक आग्रह नहीं रहा है। यही कारण है कि उनके अलंकारों में प्रायः कुशलता के दर्शन होते हैं। उन्होंने छंद-योजना करते समय भी विविध छंदों का प्रयोग किया और उनके सब अंगों के निर्वाह का उचित ध्यान रखा है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आधुनिक युग में सरल, स्पष्ट और राष्ट्र के लिए उपयोगी रचनाएँ उपस्थित करने वाले कवियों में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है।