आधुनिक युग के कवियों में श्रीयुत् जयशंकर प्रसाद का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनका जन्म काशी में संवत् 1946 में एक प्रसिद्ध वैश्य परिवार में हुआ था। उनके पिता बाबू देवीप्रसाद काशी के एक प्रतिष्ठित व्यापारी थे। प्रसाद जी साहित्य की ओर प्रारंभ से ही आकृष्ट थे। इस ओर उनकी रुचि अत्यंत व्यापक थी। इसी कारण उन्होंने साहित्य के किसी एक अंग की ओर ध्यान न देकर कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी तथा निबंध आदि साहित्य के विविध अंगों के विकास में योग दिया है। उनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति के गौरव की रक्षा का सर्वत्र ध्यान रखा गया है। उन्होंने साहित्य का गहन अध्ययन किया था। इसी कारण उनकी रचनाओं में भी गंभीरता का व्यापक समावेश हुआ है। साहित्य के अतिरिक्त इतिहास और दर्शनशास्त्र के अध्ययन में भी उनकी विशेष रुचि थी। इसी कारण उनकी रचनाओं में प्रायः इन दोनों का समावेश प्राप्त होता है।
प्रसाद जी ने पद्य और गद्य, दोनों की रचना में अपनी प्रतिभा का उत्कृष्ट परिचय दिया है। उनका ‘कामायनी’ नामक महाकाव्य आधुनिक युग की सर्वश्रेष्ठ पद्य कृति है। महत्त्व की दृष्टि से इस काव्य की तुलना केवल गोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ से ही की जा सकती है। इसके अतिरिक्त उनकी अन्य काव्य रचनाओं में ‘आँसू’, ‘कानन कुसुम’, ‘प्रेम-पथिक’, ‘झरना’ और ‘लहर’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। गद्य रचना के क्षेत्र में उनका सर्वाधिक महत्त्व उनके नाटकों के कारण हैं। उनके सभी नाटकों का संबंध भारतीय इतिहास के स्वर्ण-युग से रहा है अर्थात् उन्होंने अपने नाटकों में गुप्त- युग की भारतीय संस्कृति का चित्रण किया है। इसके अतिरिक्त उनके नाटकों में बौद्ध धर्म और ब्राह्मण धर्म के संघर्ष का भी व्यापक चित्रण हुआ है। उनके नाटकों में ‘चंद्रगुप्त’, ‘स्कन्दगुप्त’, ‘राज्य-श्री’, ‘अजातशत्रु’ और ‘जनमेजय का नाग-यज्ञ’ उल्लेखनीय हैं। उनके उपन्यास भी सुंदर बन पड़े हैं। उनके ‘कंकाल’ और ‘तितली’ नामक उपन्यासों में सामाजिक कथानक लिए गए हैं और ‘इरावती’ उनका अधूरा ऐतिहासिक उपन्यास है। इस उपन्यास की समाप्ति से पहले ही संवत् 1694 में उनकी अकाल मृत्यु हो गई।
उपर्युक्त साहित्य के अतिरिक्त प्रसाद जी ने कहानियों और निबंधों की भी रचना की है। उन्होंने ऐतिहासिक और सामाजिक, दोनों प्रकार की कहानियों की रचना की है। उनके ‘प्रतिध्वनि’, आकाश-दीप’, ‘आँधी’ और ‘इंद्रजाल’ नामक श्रेष्ठ कहानी-संग्रह प्राप्त होते हैं। इनमें प्रसाद जी ने अपनी गंभीर शैली की सुंदर योजना की है। उनके निबंधों का संग्रह ‘काव्य और कला तथा अन्य निबंध’ शीर्षक कृति में हुआ है। इन निबंधों में उनके प्रौढ़ विचारों का सुंदर परिचय मिलता है और इनके अध्ययन से साहित्य के विषय में उनके मौलिक दृष्टिकोण का भी ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उन्होंने साहित्य के विविध अंगों को पुष्ट करने में भारी श्रम किया है। साहित्य के इन सभी क्षेत्रों में उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। इस निबंध में हम उनके काव्य-सौंदर्य पर विचार करेंगे।
प्रसाद जी ने अपने काव्य की रचना खड़ीबोली में की है। उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता मिलती है। उन्होंने अपनी भाषा और शैली को गंभीर रूप में उपस्थित करने का सर्वत्र ध्यान रखा है। उनकी रचनाएँ प्रबंध और मुक्तक, दोनों रूपों में प्राप्त होती हैं। ‘कामायनी’ उनका एक सफल प्रबंध-काव्य है और उनकी रचनाओं में इस कृति का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। उनकी मुक्तक काव्य रचनाओं में ‘आँसू’ का सर्वाधिक महत्त्व है। वास्तव में कवि के रूप में उनका महत्त्व मुख्य रूप से ‘कामायनी’ पर ही आधारित है। यह महाकाव्य हिंदी के लिए गौरवपूर्ण कृति है और इसकी गणना विश्व की महत्त्वपूर्ण काव्य रचनाओं में की जाती है। कुछ महाकाव्य इसे संस्कृति के प्राचीन महाकाव्य संबंधी नियमों के आधार पर महाकाव्य नहीं मानते, किंतु नवीन दृष्टिकोण के अनुसार हम इसे निश्चय ही महाकाव्य कह सकते हैं।
प्रसाद जी छायावाद-युग के कवि थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में छायावाद की विविध विशेषताओं के समावेश की ओर उपयुक्त ध्यान दिया है। हिंदी की छायावादी रचनाओं में भी ‘कामायनी’ का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। इस रचना में कल्पना, प्रकृति-चित्रण और चिंतन, सभी तत्त्वों की ओर ध्यान दिया गया है। माधुर्य की दृष्टि से भी यह काव्य अत्यंत सुंदर बन पड़ा है। यद्यपि यह सत्य है कि इसमें प्रसाद गुण का उपयुक्त विकास नहीं हो सका है. तथापि इसमें मानव जीवन के सौंदर्य के चित्रण की ओर इतना अधिक ध्यान दिया गया है कि पाठक इसके अध्ययन में अपार आनंद का अनुभव करता। यद्यपि इस काव्य के भावों, विचारों और भाषा को समझने में पाठक को प्रायः कठिनाई का अनुभव होता है, तथापि वह इसे पढ़ने का मोह नहीं त्याग सकता।
‘कामायनी’ में कवि ने मनु और श्रद्धा की प्रसिद्ध कथा का वर्णन किया है। यद्यपि इस कथा का इतिहास में अधिक उल्लेख नहीं मिलता, तथापि प्रसाद जी ने परिश्रमपूर्वक खोज करते हुए इसे अत्यंत सुंदर रूप से उपस्थित किया है। इस कृति में भारतीय संस्कृति के तत्कालीन स्वरूप का स्पष्ट और प्रामाणिक चित्रण किया गया है। इतिहास के अतिरिक्त इसमें दर्शनशास्त्र का भी व्यापक आधार लिया गया है। इसमें उन्होंने ‘आनंदवाद’ नामक सिद्धांत की सुंदर स्थापना की है। रस योजना की दृष्टि से उन्होंने शांत रस को मुख्य स्थान प्रदान किया है और शृंगार, वीर, वात्सल्य तथा करुण आदि अन्य रसों का सहायक रसों के रूप में प्रयोग किया है। चरित्र चित्रण करते समय भी उन्होंने रस योजना की ओर उपयुक्त ध्यान दिया है। ‘कामायनी’ मैं मनु, श्रद्धा और इड़ा प्रमुख पात्र है। प्रसाद जी ने उनके व्यक्तित्व को स्पष्ट करने का पूर्ण प्रयास किया है। श्रद्धा के विषय में अपनी निम्नलिखित पंक्तियों में उन्होंने नारी मात्र के विषय में अपनी भावनाओं को अत्यंत सुंदर अभिव्यक्ति प्रदान की है-
“नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नग पग-तल में।
पीयूष स्रोत-सी बहा करो,
जीवन के सुंदर समतल में॥”
‘कामायनी’ एक रूपक काव्य है। इसमें मनु को मन, श्रद्धा को हृदय तथा इड़ा को बुद्धि के रूप में उपस्थित किया गया है। प्रसाद जी ने इसमें अपने अनुभव, चिंतन और कल्पना को अत्यंत प्रौढ़ रूप में उपस्थित किया है। इन तीनों तत्त्वों से युक्त होने के कारण इसमें सत्य, शिव और सुंदर की अभिव्यक्ति की ओर भी उपयुक्त ध्यान दिया गया है। इसमें एक ओर जीवन के सत्य को मार्मिक रूप में स्पष्ट किया गया है, दूसरी ओर जीवन में कल्याण का समावेश करने वाले सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है और तीसरी ओर मनुष्य के हृदय तथा प्रकृति के सौंदर्य पर प्रकाश डाला गया है। आगे हम इस कृति में प्राप्त होने वाले एक महत्त्वपूर्ण सत्य (मनुष्य को पारस्परिक सहयोग से जीवन व्यतीत करना चाहिए) से संबंधित कुछ पंक्तियाँ उपस्थित करते हैं-
“अपने में सब कुछ भर कैसे,
व्यक्ति विकास करेगा
यह एकांत स्वार्थ भीषण है,
अपना नाश करेगा।|
औरों को हँसते देखो मनु,
हँसो और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो,
सब को सुखी बनाओ॥”
उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि ‘प्रसाद’ जी के काव्य का भावपक्ष अत्यंत समृद्ध है। उन्होंने प्रकृति चित्रण, सौंदर्य-चित्रण और रस-योजना आदि सभी क्षेत्रों में अपनी सूक्ष्म दृष्टि का सुंदर परिचय दिया है। भाव-पक्ष की भाँति कला-पक्ष की योजना में भी उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। उन्होंने अपनी भाषा में अनेक सूक्ष्म तत्त्वों का समावेश किया है। प्रतीक रूप में शब्दों का प्रयोग और लाक्षणिक शब्दों का प्रयोग उनके काव्य की ऐसी ही विशेषताएँ है। शैली प्रयोग की दृष्टि से उन्होंने चित्र शैली के प्रयोग की ओर सबसे अधिक ध्यान दिया है। इस शैली से युक्त छंदों का अध्ययन करने पर पाठक के सामने विषय का चित्र-सा स्पष्ट होता जाता है। उन्होंने ‘कामायनी’ के ‘इड़ा’ सर्ग में प्रगति शैली का भी सुंदर प्रयोग किया है। इस सर्ग के गीतों का आधुनिक युग के गीति- काव्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। अलंकार प्रयोग के क्षेत्र में भी प्रसाद जी ने नवीनता का परिचय दिया है। उन्होंने नवीन उपमानों का प्रयोग करते हुए अपने अलंकारों को और भी अधिक सूक्ष्म बना लिया है। उनके छंद मात्रिक रहे हैं और उन्होंने सूक्ष्म अंतर उपस्थित करते हुए कुछ नवीन छंद भी बना लिए हैं। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि उन्होंने अपने काव्य में भाव पक्ष और कला-पक्ष, दोनों का अत्यंत गंभीर रूप में समावेश किया है और छायावाद से प्रभावित होने के कारण उनकी रचनाओं में अनेक सूक्ष्म और नवीन विशेष- तानों का समावेश हो गया है।