बिहार के प्रसिद्ध कवि श्रीयुत् रामधारीसिंह ‘दिनकर’ का जन्म संवत् 1965 में हुआ था। उन्होंने हिंदी साहित्य का गंभीर अध्ययन किया है। उन्होंने काव्य, आलोचना, निबंध तथा कला-साहित्य के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया हैं। वह मुख्य रूप से कवि हैं, किंतु आलोचना के रूप में भी उन्होंने अनेक मौलिक और प्रशंसनीय विचार उपस्थित किए हैं। इस दृष्टि से उनकी ‘मिट्टी की ओर’ शीर्षक रचना विशेष रूप से पढ़ने योग्य है। काव्य के क्षेत्र में उन्होंने ‘हुंकार’ में ‘कुरुक्षेत्र’, ‘सामधेनी’, ‘रसवन्ती’, ‘छंदगीत’, ‘दिल्ली’ और ‘रश्मिरथी’ आदि अनेक रचनाएँ उपस्थित की है। इन सभी रचनाओं में उनके चिंतन की गहरी छाप विद्यमान है। उन्होंने छायावाद, प्रगतिवाद और राष्ट्रीयता को अपने काव्य में मुख्य स्थान प्रदान किया है। हिंदी के राष्ट्रीय कवियों में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है और इस समय भी राष्ट्रीय भावों का प्रतिपादन ही उनके काव्य का मुख्य विषय है।
‘दिनकर’ जी के काव्य में भारतीय संस्कृति को व्यापक स्थान प्राप्त हुआ हैं। उन्होंने अपने देश की संस्कृति का गहन अध्ययन किया है। इस अध्ययन की गहनता उनके ‘संस्कृति के चार अध्याय’ शीर्षक ग्रंथ में स्पष्ट देखी जा सकती है। जिस समय हिंदी में प्रगतिवादी कविताओं की रचना प्रारंभ हुई उस समय प्रगतिवाद की ओर आकृष्ट होकर उन्होंने भी अपनी कविताओं में उसका समावेश किया। कुछ समय तक उनकी गणना प्रगतिवाद के प्रमुख कवियों में हुई, किंतु बाद में प्रगतिवाद में भारतीय संस्कृति का विरोध पाकर उन्होंने उसका त्याग कर दिया। इससे स्पष्ट है कि वह भारतीय संस्कृति में विशेष आस्था रखते हैं। इस समय भी वह आचार्य विनोबा भावे के सांस्कृतिक महत्त्व से युक्त भूदान यज्ञ के सिद्धांतों को लेकर काव्य लिख रहे हैं।
‘दिनकर’ जी ने अपनी रचनाओं में भारतवर्ष के स्वतंत्रता आंदोलन को उत्कृष्ट अभिव्यक्ति प्रदान की है। उन्होंने अपनी रचनाओं में ओज गुण को मुख्य स्थान प्रदान किया है। यही कारण है कि उनके राष्ट्रीय काव्य का अध्ययन करने पर पाठक अपने मन में विशेष उत्साह का अनुभव करता है। इस ओजपूर्ण वातावरण को उपस्थित करने के लिए उन्होंने अपनी भाषा को भी विशेष सजीवता प्रदान की है। उनकी राष्ट्रीय कविताओं में अनुभव और चिंतन को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। अनुभव के आधार पर लिखी गई होने के कारण उनकी कविताओं में कृत्रिमता का कहीं भी समावेश नहीं हुआ है। यहाँ अनुभव से हमारा तात्पर्य समाज दर्शन अथवा समाज की स्थिति को देखने से है। इसका समावेश करने के अतिरिक्त उन्होंने चिंतन के आधार पर अपने मत को और भी पुष्ट रूप में उपस्थित किया है।
रहस्यवादी काव्य
यद्यपि ‘दिनकर’ जी रहस्यवाद के प्रमुख कवि नहीं हैं, तथापि उनकी रचनाओं में कहीं-कहीं रहस्यवादी सिद्धांतों का भी समावेश हुआ है। इस दृष्टि से उनके ‘सामधेनी’ शीर्षक काव्य संग्रह की अनेक कविताएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने रहस्यवादी साधना -प्रणाली के अनुसार संसार को नश्वर अर्थात् नष्ट हो जाने वाला माना है। उन्होंने ब्रह्म में जीव को उसी प्रकार व्याप्त माना है जिस प्रकार पानी में उसकी एक बूँद लीन रहती है। ब्रह्म के महत्त्व का प्रतिपादन कर उन्होंने व्यक्ति को मोह का त्याग करते हुए साधना का संदेश दिया है। ईश्वर के प्रभाव और महत्त्व के विषय में ‘सामधेनी’ की निम्नलिखित पंक्तियाँ देखिए-
“ग्रहण करती निज सत्य स्वरूप,
तुम्हारे स्पर्श मात्र से धूल।
कभी बन जाती घट साकार,
कभी रजित, सुवासमय फूल॥”
जीवन – सिद्धांत
‘दिनकर’ जी ने अपने काव्य में मानव जीवन के चित्रण की ओर सबसे अधिक ध्यान दिया है। यह चित्रण सर्वत्र अनुभव पर आधारित रहा है। उन्होंने जीवन के प्रत्येक पक्ष का सूक्ष्म रूप से अध्ययन किया है। संसार के विषय में अपने अनुभवों को उन्होंने गंभीर और स्पष्ट रूप में उपस्थित किया है। उन्होंने संसार में मनुष्य के जीवन में आने वाले संघर्षो का चित्रण करते हुए अंत में मनुष्य को आशा न छोड़ने का संदेश दिया है। वह कर्म में विश्वास रखते हैं और मानव को आत्मविश्वास की ज्योति से युक्त देखना चाहते हैं। उनकी रचनाओं में अनुभव स्थान-स्थान पर बिखरे हुए हैं। इन अनुभवों को व्यक्त करने के लिए उन्होंने सूक्ति-शैली का भी प्रयोग किया है। यथा-
(क) दुखियों का जीवन कुरेदना भी है पाप बड़ा।
(ख) अश्रु पोंछने वाला जग में विरले को मिलता।
यह अनुभव ‘दिनकर’ जी के अपने मन तक ही सीमित नहीं रहा है। उन्होंने इसे मानवता में परिवर्तित कर दिया है। उनकी रचनाओं का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि अपने राष्ट्र को आगे बढ़ते हुए देखना चाह कर भी वह मानवमात्र का कल्याण चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने मनुष्य को संघर्षों का त्याग कर विश्व शांति के लिए प्रयत्न करने का संदेश दिया है। संघर्ष की समाप्ति और मनुष्यों की समता के प्रचार को ही वह शांति की ओर ले जाने वाले प्रमुख तत्त्व मानते हैं। उदाहरण के लिए उनके ‘कुरुक्षेत्र’ शीर्षक काव्य में भीष्म पितामह की युधिष्ठिर के प्रति निम्नलिखित उक्ति देखिए –
“शांति नहीं तब तक, जब तक,
सुख भोग न नर का सम हो।
नहीं किसी को बहुत अधिक हो,
नहीं किसी को कम हो!”
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि ‘दिनकर’ जी के काव्य में अनुभव और चिंतन को मुख्य स्थान प्राप्त है। इनके अतिरिक्त उन्होंने कल्पना का आधार लेकर भी अपने भावों को सजाया है। वर्तमान युग के कवियों में उनकी विशेषता उनकी स्पष्ट कथन की प्रणाली के कारण है। वह अपनी बात को जितने तीखे और सष्ट रूप में कहते हैं उतना आधुनिक युग में अन्य किसी भी कवि ने नहीं किया है। इससे उनके अध्ययन की गंभीरता और हृदय की शक्ति, दोनों का अच्छा परिचय मिलता है। इस शैली से युक्त होने के कारण उनकी रचनाओं का पाठक के हृदय पर निश्चित रूप से व्यापक प्रभाव पड़ता है।
‘दिनकर’ जी ने अपने काव्य की रचना खड़ीबोली में की है। उन्होंने अपनी भाषा की योजना करते समय संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों के अतिरिक्त उर्दू, अरबी और फारसी के शब्दों का भी पर्याप्त मात्रा में प्रयोग किया है। वास्तव में उनका प्रयास अपनी भाषा को कृत्रिम न बनाकर उसे जनता के लिए सहज रूप में उपस्थित करना रहा है। उनकी भाषा में सर्वत्र सहज प्रवाह की स्थिति रही है। भाषा को सजीवता प्रदान करने के लिए उन्होंने अपने काव्य में मुहावरों और लोकोक्तियों का भी यथास्थान प्रयोग किया है। शैली प्रयोग की दृष्टि से उनके काव्य में विविध शैलियों को स्थान प्राप्त हुआ है। इन सभी शैलियों में उन्होंने स्पष्ट कथन की प्रणाली का अनिवार्य रूप से समावेश किया है। साधारणत: उन्होंने अपने काव्य की रचना छंदों में की है। किंतु गीति- काव्य के क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है तथापि उन्होंने गीतों की अधिक मात्रा में रचना नहीं की है।
‘दिनकर’ जी ने अपने काव्य की रचना प्रबंध और मुक्तक, दोनों रूपों में की है। प्रबंध-काव्य के क्षेत्र में उनके ‘कुरुक्षेत्र’ शीर्षक काव्य का विशेष स्थान है। इस कृति में उन्होंने ‘महाभारत’ में प्राप्त होने वाले कुरुक्षेत्र के युद्ध संबंधी कथानक को नवीन रूप में उपस्थित किया है। हिंदी में ‘महाभारत’ के अंशों को लेकर लिखे गए काव्यों में इस कृति का सबसे अधिक महत्त्व है। प्रबंध- काव्य की भाँति मुक्तक काव्य की रचना में भी उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। उन्होंने दीर्घ और संक्षिप्त, दोनों प्रकार की मुक्तक कविताएँ लिखी हैं, किंतु संक्षिप्त कवितायों की तुलना में उन्होंने अपनी दीर्घ कविताओं के भाव-तत्त्व अथवा विचार-तत्त्व को शिथिल नहीं होने दिया है।