करीब सात-आठ वर्ष पूर्व जब आचार्य विनोबा भावे प्रथम योजना आयोग के सदस्यों से मिले थे, तब उन्होंने योजना की एक बड़ी भारी त्रुटि यह बतलाई थी कि “इसमें सब को काम मिलने की गारंटी नहीं की गई है। किसी भी राष्ट्रीय योजना की पहली शर्त सबको रोजगार देना है। यदि ऐसा नहीं होता अर्थात् प्रस्तावित योजना से सबको रोजगार नहीं मिल सकता, तो आयोजन एकपक्षीय होगा, राष्ट्रीय नहीं।” अन्य भी अनेक समाजवादी नेताओं ने पंचवर्षीय योजना में इस भारी कमी की ओर ध्यान खीचा। इसका परिणाम यह हुआ कि योजना के अंतिम रूप में रोजगार पर अलग प्रकरण लिखा गया और कुटीर उद्योगों के लिए एक विशेष क्षेत्र नियत कर दिया गया किंतु सरकार ने यह अनुभव किया कि प्रथम योजना की अवधि समाप्त होते होते बेकारी कम होने के बजाए बढ़ गई। इसलिए दूसरी योजना में इस ओर विशेष ध्यान दिया गया।
हमारे देश की बेकारी की समस्या ऐसी नहीं है कि किसी एक-आध औषधि से उसका इलाज हो सके। यदि हम बेकारी को सर्वथा दूर करना चाहते हैं तो हमें पहले यह सोचना होगा कि बेकारी की समस्या का वास्तविक स्वरूप क्या है। भारतवर्ष में आज तीन किस्म के बेकार हैं। पहले वर्ग में हम उन्हें ले सकते हैं जो किसी तरह का रोजगार न होने के कारण एक पैसा भी नहीं कमाते और अपने निकट या दूर के संबंधियों पर आश्रित हैं। दूसरे वर्ग में वे लोग आते हैं जो किसी न किसी तरह काम पर तो लगे हुए हैं और कहने को बेरोजगार नहीं है, परंतु वे इतना कम पाते हैं कि अपनी जरूरतें पूरी नहीं कर पाते। वे आधा पेट भूखे रहते हैं या वस्त्र, चिकित्सा आदि की अपनी आवश्यकताएँ पूरी नहीं कर पाते। तीसरे प्रकार के बेकार वे हैं, जिन्हें हम शिक्षित बेकार कहते हैं। मैट्रिक या ग्रेजुएट होकर के भी ये लोग काम नहीं पाते।
गाँव में बेकारी
प्रथम प्रकार की श्रेणी अधिकांशतः किसानों की होती है. जिनके पास कहने को खेती का धंधा होता है किंतु खेती की आमदनी शून्य के बराबर होती है। खेती पर पहले जितने प्रतिशत देशवासी निर्भर थे, आज उससे अधिक खेती पर निर्भर करते हैं। परिणाम यह हुआ है कि हमारी भूमि अब सबको भोजन नहीं दे सकती और बहुत कम लोगों को पेट भरने लायक भोजन मिलता है। खेतों के टुकड़े होते-होते बहुत छोटे रह गए हैं। यदि अमरीका में एक खेत का औसत क्षेत्रफल 145 एकड़ है तो भारत में केवल 5 एकड़। सन् 1901 में कृषि पर आश्रितों की संख्या 2 करोड़ 10 लाख थी, परंतु आज यह संख्या 11 करोड़ से अधिक ही है। इस प्रकार भारत का ग्रामीण अधिकाधिक बेकार होता गया। किसान की बेकारी बढ़ाने वाला एक प्रधान कारण और है और वह यह है कि हमारे देश की भूमि अन्य देशों की अपेक्षा कम उत्पादन करती है। भारत में औसतन प्रति एकड़ 165 मन गेहूँ, 31 मन चावल और 2 मन रुई पैदा होती है, जबकि चीन जैसे देश में 245 मन गेहूँ, 60 मन चावल और 5 मन रुई पैदा होती है। इस कारण भारतीय किसान अन्न का उत्पादक या अन्नदाता होते हुए भी स्वयं भूखा मर रहा है। करोड़ों किसान काम करते हुए भी साल में महीना बेकार रहते हैं, क्योंकि उन्हें खेतों पर कोई काम नहीं होता। इसलिए ग्रामों की बेकारी दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि ग्रामों में नए-नए उद्योग, विशेषकर ग्रामोद्योग खोले जाएँ, जिससे साल के महीने वे ग्रामोद्योग करते हुए अपनी आजीविका चला सकें। परंतु गरीब किसानों के पास उद्योग के लिए आवश्यक यंत्र नहीं हैं, फिर यदि वह कुछ पैदा भी करें तो उसकी बिक्री के लिए बाजार नहीं है, क्योंकि ग्रामोद्योग कल-कारखानों का मुकाबला नहीं कर सकते। लोगों में ग्रामोद्योग की बनी हुई चीजों के प्रति रुचि भी नहीं है। इसके लिए देश में नया वातावरण उत्पन्न करना पड़ेगा। ग्रामोद्योगों के लिए नए किस्म की बढ़िया मशीनें देनी होंगी। उन्हे मिलों की प्रतिस्पर्द्धा से बचाना होगा। यह ठीक है कि सरकार इस विषय में कुछ कदम उठा रही है। नयी योजना में ग्रामोद्योग के विकास के लिए अनेक प्रकार की सुविधाएँ दी जा रही हैं। खद्दर पर कीमत में छूट मिलों में खास किस्म के कपड़ों पर कुछ पाबन्दियाँ तथा सरकारी कामों के लिए खद्दर की खरीद आदि से खद्दर व्यवसाय को कुछ लाभ पहुँचा है। हाथ के कागज, साबुन, चमड़ा, खिलौने आदि अनेक ग्रामोद्योगों को प्रमुखता दी जा रही है।
कृषकों की आमदनी बढ़ाने के लिए दूसरी आवश्यक चीज यह है कि खेती की पैदावार प्रति एकड़ बढ़ाई जाए। इसके लिए भी सिंचाई की उचित व्यवस्था की जा रही है। बड़े-बड़े बाँध बनाकर नहरों का जाल देश में बिछाया जा रहा है। छोटी-बड़ी और भी सिंचाई की योजनाएँ पूरी की जा रही हैं। बढ़िया खाद की ओर भी विशेष ध्यान दिया जा रहा है। सहकारी खेती, सहकारी समितियाँ तथा अन्य उपायों से कृषि उत्पादन बढ़ाया जा रहा है। गाँव की बेकारी इस तरह दो प्रकार से हल होगी – कृषि -सुधार और ग्रामोद्योग से।
नगरों में बेकारी
गाँवों के बाद हमें शहरों व कस्बों में फैली हुई बेकारी को दूर करने पर विचार करना चाहिए। नगरों में बेकारी दूर करने के लिए उद्योगों का विस्तार ही एकमात्र मुख्य उपाय है। विदेशी शासन में हमारे देश की आर्थिक स्थिति जान-बूझकर ऐसी रखी गई थी कि आर्थिक दृष्टि से देश स्वावलंबी न हो सके। एक-एक करके हमारे सब उद्योग नष्ट कर दिए गए थे। ढाके की महीन मलमल और बड़े-बड़े जहाज बनाने वाला भारत छोटी-छोटी चीजों के लिए परमुखापेक्षी हो गया। हमारे उद्योग नष्ट हो जाने से देश के करोड़ों आदमी बेकार हो गए। आज देश ने अनुभव कर लिया है कि देश को छोटे और बड़े उद्योगों की दृष्टि से स्वावलंबी बनाना है। इसके लिए सबसे जरूरी यह है कि देश में एक ओर जहाँ बड़े-बड़े उद्योग प्रारंभ किए जाएँ, वहाँ जनता में स्वदेशी की भावना पैदा की जाए। जिस दिन हम यह निश्चय कर लेंगे कि बड़ी से बड़ी मशीनें हम अपने देश में बनाएँ और अपने व्यवहार में अपने देश की वस्तु ही लाएँ, उस दिन देश के लाखों-करोड़ों आदमियों को काम मिलने लग जाएगा। अमरीका में एक कानून है ‘बाई अमेरिकन एक्ट’। इसके अनुसार अमेरिकन सरकार कोई भी ऐसा विदेशी सामान नहीं खरीद सकती, जो आयात- कर देने पर भी अमरीकन माल से 25 प्रतिशत सस्ता न पड़ता हो। भारत सरकार को भी ऐसा ठोस कदम उठाना चाहिए।
भारत सरकार बेकारी – निवारण की दिशा में कुछ प्रयत्न कर रही है नई योजना में इसीलिए उद्योग पर बहुत अधिक व्यय किया जाएगा। बड़े उद्योगों के विकास के लिए सरकार बड़े-बड़े तीन लोहे के कारखाने बना रही है। बड़े उद्योगों और खनिज तथा छोटे और देहाती उद्योगों पर अरबों रुपया व्यय किया जाएगा। परिवहन और संचार उद्योग के विकास पर तो करीब 14 अरब रुपया व्यय के लिए नियत किया गया है।
द्वितीय योजना और बेकारी
अधिक से अधिक लोगों को रोजगार प्रदान करने के लिए द्वितीय योजना में, घरेलू उद्योग-धंधों के साथ-साथ गृह निर्माण कार्य को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है। इस क्षेत्र के विकास से लगभग 21 लाख लोगों को रोजगार मिल सकेगा। विविध क्षेत्रों में, अनुमान लगाया गया है कि करीब 80 लाख लोगों को रोजगार मिल जाएगा।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रायः 50 लाख आदमी प्रति वर्ष अर्थात् 2 वर्ष में एक करोड़ नए पैदा हो जाते हैं। इसलिए हमारी बेकारी की समस्या हल करना कोई आसान काम नहीं है।
शिक्षित बेकार
जब हम बेकारी की चर्चा करते हैं, तो स्वभावत: हमारे सामने उन शिक्षित बेकारों का चित्र आ जाता है, जो स्कूलों और कालिजों में से प्रत्येक वर्ष निकलते हैं, किंतु कोई काम न मिलने के कारण जीवन में निराश हो जाते हैं। वर्तमान शिक्षा-पद्धति भी कुछ इसका कारण कही जाती है, क्योंकि किताबी शिक्षा युवकों को शारीरिक परिश्रम की ओर प्रोत्साहन नहीं देती। वे अपने पैरों पर स्वयं खड़े नहीं हो सकते। इसलिए यह जरूरी है कि एक ओर उन्हें हाथ की, कला-कौशल की शिक्षा देनी चाहिए और दूसरी ओर देश में ऐसे छोटे धंधे, खोलने चाहिए, जिनमें वह थोड़ी सी सरकारी सहायता पाकर अपने पैरों पर खड़े हो सके। परंतु यह याद रखना चाहिए कि इनके उद्योग तभी पनप सकते हैं, जब हम विदेशी वस्तुएँ प्लास्टिक सामग्री, शृंगार सामग्री, चमड़े का सामान, काँच और पाटरी का सामान और खेल-खिलौने यादि बाहर से मँगवाने सर्वथा बंद कर दें।
अशिक्षित मजदूर
अशिक्षित और शारीरिक श्रम करने वाले मजदूरों को काम देने के लिए, सड़क, कुएँ, मकान, नहर आदि के निर्माण कार्य को बहुत तेजी से बढ़ाना चाहिए। कुछ विद्वानों का विचार है कि जिस तेजी से भारत में जनसंख्या बढ़ रही है, उसे देखते हुए बेकारी की समस्या को सर्वथा समाप्त करना असंभव होगा। अतएव यह आवश्यक है कि देश में जनसंख्या की वृद्धि पर भी नियंत्रण करने की आवश्यकता जनता को बताई जाए।