किसी देश की औद्योगिक नीति वहाँ की परिस्थिति से, आवश्यकताओं और आर्थिक व राजनैतिक विचारधाराओं से निर्धारित होती हैं। जब भारत विदेशी शासन के अंतर्गत हुआ तो उसकी नीति भारतीय हितों की अपेक्षा ब्रिटिश हितों को देखकर निर्धारित की जाने लगी। अंग्रेजों के आने के समय भारत औद्योगिक दृष्टि से बहुत समृद्ध था। भारत के जहाज लाखों करोड़ों रुपये का माल विदेशों के द्वीप द्वीपान्तरों तक ले जाते थे। उस समय भारतीय जहाजों को देखने के लिए विदेशी बंदरगाहों पर बड़ी भीड़ एकत्र हो जाती थी। कलापूर्ण सुंदर व महीन वस्त्रों के लिए भारत विख्यात था। भारतीय इस्पात और इस्पात के बने शस्त्रास्त्रों की धाक यूरोप ही नहीं, संसार के बहुत से देशों में थी। संसार के चारों ओर से अपार धन राशि खिंचकर भारत पहुँचती थी। परंतु यह सब विदेशी शासकों को कैसे सहन हो सकता था? उन्होंने अपने भौतिक बल से तथा नाना प्रकार के छल छिद्र से भारतीय उद्योग को कमजोर करना शुरू किया। यूरोप में इंजिन व मशीनरी के आविष्कार से वहाँ की चीजें सस्ती भी तैयार होने लगीं। एक-एक करके भारतीय उद्योग नष्ट होने लगे और हम सुई व पिन तक के लिए विदेशों के मुहताज बन गए। कपड़ा ही 70-80 करोड़ रुपये का प्रतिवर्ष विदेशों से यहाँ आने लगा। ब्रिटिश सरकार भारत को केवल कृषि प्रधान देश बनाना चाहती थी। उसकी आन्तरिक इच्छा पूर्ण हुई और भारत ब्रिटिश कारखानों के कच्चा माल पैदा करने वाला तथा तैयार माल की मंडी बन गया।
लेकिन समय बदला। 1914 में प्रथम महायुद्ध छिड़ गया। यूरोप में विदेशी वस्तुओं का माल जहाजी कठिनाइयों के कारण कम हो गया। इसलिए माल यहाँ बनाने की आवश्यकता अनुभव की गई। फिर देश की राजनैतिक चेतनता के साथ-साथ स्वदेशी की भावना का भी प्रचार हो चुका था, इसलिए अनेक भारतीय उद्योगपतियों ने खतरा लेकर सरकार का उपेक्षापूर्ण रुख होते हुए भी यहाँ अनेक उद्योग खड़े कर दिए और अपनी प्रतिभा, व्यवहार कुशलता तथा अध्यवसाय के कारण देश को औद्योगिक विकास के पथ पर ला खड़ा किया। काल चक्र व राजनैतिक परिस्थितियों से विवशता और कुछ यूरोप द्वितीय महायुद्ध की आशंकाओं से ग्रस्त ब्रिटिश सरकार ने भारत के औद्योगिक विकास में कुछ रुचि लेनी शुरू की। मशीनों के निर्माता कुछ ब्रिटिश पूँजीपति भी भारत में अनेक उद्योगों की उन्नति चाहते थे, क्योंकि इसमें उनकी भारी मशीनरी बिकती थी। ब्रिटिश सरकार को भी पूर्व में एक ऐसे सुदृढ़ गढ़ की आवश्यकता थी, जिसे आधार बनाकर वह संकट काल में सभी प्रकार की युद्ध- सामग्री और साधन जुटा सके। इसलिए 1930 के बाद और विशेषकर 1940 के बाद भारत में अनेक उद्योगों का विकास तेजी से शुरू हुआ। युद्ध समाप्त होते-होते तक वह ऐसी स्थिति में आ गया कि औद्योगिक विकास का मार्ग प्रशस्त हो गया। जो थोड़ी बहुत कमी रही, वह भारत की विदेशी शासन से मुक्ति ने दूर कर दी।
फिर भी भारत को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा पूर्ण आर्थिक विकास के लिए बहुत कुछ करता था। आज भी 70-75 प्रतिशत भारतीय केवल कृषि पर आश्रित हैं। प्रत्येक मनुष्य के पीछे एक एकड़ से कम कृषि भूमि पड़ती है, जो जीवन निर्वाह के लिए बहुत कम है। अच्छी फसल के लिए सिंचाई का प्रभाव है, खाद की कमी है और है नए साधनों की न्यूनता। परिणामस्वरूप फसल की आय बहुत कम होती है। खेती में 70 प्रतिशत मनुष्य लगे हुए हैं, परंतु वे देश की आय का कुल 51 प्रतिशत भाग देते हैं जबकि उद्योग-धंधों में लगे हुए केवल 10 प्रतिशत मनुष्य राष्ट्र की आय का 27 प्रतिशत भाग कमाते। सच्चाई यह है कि भूमि इतने प्रतिशत को भोजन देने में समर्थ नहीं है। इसलिए यह आवश्यक है कि एक ओर कृषि की पैदावार बढ़ाई जाए और दूसरी थोर खेती पर लगे आदमियों के एक बड़े भाग को उद्योग में लगाया जाए। देश में बेकारी भी कम नहीं है। वेकार लोगों को रोजगार देने के लिए भी जरूरी है कि उद्योगों का विकास किया जाए। इंगलैंड, जर्मनी, जापान, रूस, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका आदि औद्योगिक उन्नति के कारण ही अत्यंत समृद्ध हैं।
परंतु औद्योगिक विकास करने के विचार के साथ साथ ही अनेक मूलभूत प्रश्न सामने आते हैं। उद्योग कैसे विकसित किए जाएँ? छोटे या बड़े उद्योगों का मूलभूत उद्देश्य क्या हो? उद्योग सरकार चलाए या लोगों को निजी उद्योग चलाने दिए जाएँ? कुछ लोग यह स्वीकार करते हैं कि पूँजीपतियों की प्रतिस्पर्द्धा ने ही जर्मनी, जापान व इंगलैण्ड और यूरोप को समृद्ध किया है। भारत में भी यही नीति अब तक उद्योगों के विकास की सफलता का मुख्य कारण रही है। विदेशी उद्योगों की घोर प्रतिस्पर्द्धा तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अनेक बाधाओं के बावजूद निजी उद्योगों ने भारी वृद्धि की है और कपड़ा, चीनी, सीमेंट, लोहा, इस्पात आदि उद्योगों में उत्पादन बहुत बढ़ा है। पर दूसरी ओर साम्यवादी या समाजवादी विचार के लोग पूँजीवाद को समाप्त करके सब उद्योगों के राष्ट्रीय- करण पर बल देते हैं। वे धन को कुछ हाथों में केंद्रीभूत होने देने तथा मजदूरों के शोषण का अवसर देने का विरोध करते हैं। पूँजीवाद धन का वितरण ठीक नहीं करता। इससे अमीर ज्यादा अमीर बनता है, गरीब ज्यादा गरीब। इन सब प्रश्नों पर गंभीर विचार किया गया, 36 प्रमुख उद्योगों की जाँच-पड़ताल की गई और तब भारत सरकार ने बीच का मार्ग अपनाया। 6 अप्रैल, 1948 को भारत सरकार ने एक महत्त्वपूर्ण घोषणा द्वारा अपनी औद्योगिक नीति देश को बताई। इस नीति के मूल में तीन विचार थे-
(1) उत्पादन में निरंतर वृद्धि;
(2) वितरण में समानता और
(3) सरकार का औद्योगिक विकास में महत्त्वपूर्ण भाग।
इस घोषणा में शस्त्रों व बारूद, अणु-शक्ति, रेलवे-संबंधी उद्योग पर सरकार का एकाधिकार स्वीकार किया गया था। कोयला, इस्पात, वायु-यान, जहाज, रेल, टेलीफोन व तार आदि उद्योगों के नए कारखाने स्थापित करने व संचालन का अधिकार भी सरकार ने अपने हाथ में ले लिया। विद्युत्- उत्पादन व वितरण का भी उत्तरदायित्व सरकार ने अपने हाथ में ले लिया। शेष व्यवसाय निजी उद्योगपतियों के लिए खुले रखे गए, परंतु सरकार ने इनमे भी प्रवेश करने का अधिकार अपने हाथ में रख लिया। छोटे उद्योग-धंधों व बड़े उद्योग-धंधों के बीच में समन्वय करने का प्रयत्न भी करने का निश्चय किया गया। नए कारखानों को सहायता देने के लिए केंद्रीय व राज्यीय सरकारों ने अनेक वित्त निगमों की स्थापना की है। अंतर्राष्ट्रीय बैंक से भी औद्योगिक विकास के लिए सहायता प्राप्त हुई। सरकार ने पाँच वर्षों के अंदर प्रत्यक्ष रूप से विभिन्न औद्योगिक विकास कार्यो पर करीब 100 करोड़ रुपये व्यय किए। यातायात साधनों के विकास पर भी भारी राशि व्यय की गई। पिछले वर्षों में सरकार ने ब्रिटेन, रूस व जर्मनी के सहयोग से इस्पात के तीन कारखाने खोलने का निश्चय किया है। इन कारखानों के निर्माण की तैयारियाँ की जा रही हैं। जहाजरानी, इंजिन निर्माण, टेलीफोन, कृत्रिम खाद, डी. डी. टी., रेल के डिब्बे आदि नए उद्योग फलने-फूलने लगे हैं। प्रथम पंचवर्षीय योजना में उद्योग का काफी विकास हुआ है। प्रौद्योगिक उत्पादन का निर्देशक अंक (इण्डेक्स नम्बर) 1057 से बढ़कर 1580 हो गया। दूसरी पंचवर्षीय योजना में औद्योगिक उन्नति पर कितना अधिक बल दिया गया यह नीचे के अंकों से प्रकट होगा-
प्रथम योजना द्वितीय योजना
बिजली 2 अरब 66 करोड़ 4 अरब 40 करोड़
उद्योग व खनिज 1 अरब 76 करोड़ 8 अरब 91 करोड़
यातायात व संवाद वहन 5 अरब 56 करोड़ 13 अरब 84 करोड़
परंतु औद्योगिक विकास की इन विशाल योजनाओं के साथ-साथ सरकार ने अपनी नीति को और स्पष्ट कर दिया है। संसद ने समाजवादी संगठन के सिद्धांत को अपने उद्देश्य के रूप में स्वीकार कर लिया है। भारत का नया संविधान भी 1948 के बाद बना था, जिसमें न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व आदि सिद्धांतों को स्वीकार ही नहीं किया गया, बल्कि आर्थिक समानता का उल्लेख करते हुए यह भी निर्देश दिया गया है कि संपत्ति को सीमित क्षेत्र में केंद्रीभूत न होने दिया जाए। देश में भी समाजवाद की – उद्योगों के राष्ट्रीयकरण की माँग हुई। इसलिए सरकार ने मई 1956 के प्रारंभ में नई औद्योगिक नीति की घोषणा की। इसके अनुसार उद्योगों की तीन श्रेणियाँ की गई है। कुछ उद्योग (जिनमें कोयला व खनिज भी सम्मिलित कर लिए गए हैं) केवल सरकारी क्षेत्र के लिए सुरक्षित कर दिए गए है। दूसरी श्रेणी के उद्योग ऐसे हैं, जिनमें सरकार नए औद्योगिक कारखाने खोलेगी, किंतु निजी क्षेत्र भी अपने बलबूते पर नए कारखाने खोल सकेंगे। तीसरी श्रेणी में वे उद्योग हैं, जिनका विकास निजी क्षेत्र करेगा। नई योजना के अनुसार 24 अरब रुपए निजी क्षेत्र से व्यय किया जाएगा। वस्तुतः इस नई मिश्रित नीति को स्वीकार किया गया है। सच्चाई यह है कि आज देश केवल सरकारी उद्योगों के बल पर उन्नति नहीं कर सकता। न सरकार के पास इतने साधन हैं और न इतनी सामार्थ्य कि यह सभी उद्योग चला सके। यह ठीक है कि सरकार इस दिशा में बहुत तेजी से आगे बढ़ती जा रही है। बीमा व्यवसाय, हवाई जहाज, जहाजी उद्योग पर उसने अधिकार कर लिया है। राज्य सरकारें भी बस यातायात को प्रायः अपने हाथ में कर चुकी हैं। यह अच्छा हो या बुरा, समय का प्रवाह ही राष्ट्रीयकरण की ओर है। उसे आज बदला नहीं जा सकता, केवल उसकी गति कुछ शिथिल की जा सकती है।
समाजवाद और निजी क्षेत्र का समन्वय सहकारिता के आधार पर चलाये गए उद्योगों के द्वारा हो सकता है। इससे उद्योग का लाभ अधिक जनसंख्या को मिलेगा। नई नीति में इस पर विशेष बल दिया गया है। मजदूरों का वेतन- स्तर सरकारी व निजी क्षेत्रों दोनों में ऊँचा करने की सलाह दी गई है।
किंतु केवल बड़े उद्योगों से भारत की समस्या हल नहीं होगी। प्राचीन भारत में खेती व ग्रामोद्योग दोनों मिलकर ग्रामीण किसान की आवश्यकता पूर्ण करते थे। आज भी ग्रामों में आविष्कार की जरूरत है, जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को काम मिल सके। अंबर चरखे का आविष्कार खद्दर के लिए सूत की समस्या भी हल कर सकेगा। सरकार ने पंचवर्षीय योजना में लघु उद्योगों के प्रोत्साहन पर बल दिया है। खद्दर के कपड़े की बिक्री पर छूट दी जा रही है। खद्दर आदि बिक्री कर से मुक्त कर दिए गए हैं, मिलों में ज्यादा लूम लगाने पर प्रतिबंध लग रहे हैं। बिजली विस्तार की योजनाओं के सफल होने पर गाँव-गाँव में बिजली पहुँच जाएगी, तब छोटे उद्योगों व ग्रामोद्योग के विकास की संभावनाएँ बहजाएँगी।
वस्तुतः आज बड़े प्रधान उद्योगों व ग्रामोद्योगो सरकारी व गैर-सरकारी उद्योगो में समन्वय की नीति ही देश के लिए लाभप्रद है।