जो महान आत्माएँ शताब्दियों बाद दुर्दशाग्रस्त समाज और देश का उद्धार करने के लिए पुण्यभूमि भारत में अवतरित हुई हैं, उनमें ऋषि दयानंद का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ऋषि दयानंद ने भारत में ऐसे समय जन्म लिया था, जब देश की स्थिति बहुत चिंतनीय थी। एक ओर हिंदू समाज अपनी आंतरिक कुरीतियों के कारण जर्जर और खोखला हो रहा था, दूसरी और पश्चिम की चकाचौंध भारत के शिक्षित समाज को अभिभूत करती जा रही थी। एक ओर अन्ध श्रद्धा, अशिक्षा, निष्कर्मण्यता और विकृत परंपराएँ हिंदू समाज को निर्जीव और निःसत्व कर रही थीं, दूसरी ओर विदेशी शासक अपनी सत्ता का दुरुपयोग करते हुए भारत को मानसिक दृष्टि से भी दास बनाने का षड्यंत्र कर रहे थे। अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग अपने देश के अतीत गौरव को भूल रहे थे, अपने देश के धर्म, अपने देश की भाषा, साहित्य, सभ्यता, संस्कृति और रहन-सहन से घृणा करने लगे थे। उनके लिए भारतवर्ष जैसे कुछ था ही नहीं, जो कुछ था यूरोप और उसकी सभ्यता थी। इन दोनों प्रवृत्तियों का परिणाम था देश की अवनति; भारतीय धर्म, भारतीय सभ्यता और भारतीय संस्कृति का पतन। आंतरिक और बाह्य दोनों शत्रु भारतीय समाज के लिए खतरनाक थे।
जन्म, बोध व शिक्षा
ऋषि दयानंद का जन्म गुजरात की उसी पुण्यभूमि में 19वीं शताब्दी के प्रथम चरण के अंत में हुआ था, जिसमें आधी सदी बाद विश्व की सर्वश्रेष्ठ विभूति महात्मा गांधी ने अवतार लिया। बालक मूलशंकर प्रारंभ से ही मेधावी था। 14 वर्ष की आयु तक बहुत से शास्त्र व ग्रंथ कंठस्थ कर लिए थे। पिता शैव थे, उन्होंने एक दिन मूलशंकर से भी शिवरात्रि का व्रत रखने को कहा। श्रद्धालु बालक ने व्रत रखा। मंदिर में जब सब बड़े-बूढ़े सो गए, यह बालक बड़ी श्रद्धा के साथ जागता रहा। मूर्ति पर चूहों को मिठाई खाते देख बालक की जिज्ञासा जाग उठी कि क्या यह भगवान् शिव चूहों को भी नहीं हटा सकते। पूछने पर पिता ने बताया कि यह सच्चा शिव नहीं है, वे तो कैलाश पर्वत पर रहते हैं। बस, सच्चे शिव की जिज्ञासा उत्पन्न हो गई। घर छोड़ा, जंगलों की खाक छानी, वर्षों तक घोर तपस्या की और जिज्ञासा तभी शांत हुई, जब वर्षों बाद गुरु विरजानंदजी के चरणों में बैठकर सत्य ज्ञान प्राप्त कर लिया।
निर्भीक प्रचार और बलिदान
आजन्म संन्यासी रहकर दयानंद ने देश भर में घूम-घूम कर सत्य ज्ञान का प्रचार किया। मार्ग में कितनी बाधाएँ आई, कितने प्रलोभन मिले, किंतु गुरु के आगे जो प्रतिज्ञा की थी, वह पूर्ण किए बिना एक क्षण का आराम नहीं लिया। कार्य कठिन था, लोग किसी तरह अपने पुराने कुसंस्कारों को छोड़ने के लिए उद्यत न होते थे। वेदादि शास्त्रों का ज्ञान न रहा था, प्रकांड पंडित भी स्वतंत्र दृष्टि न रखते थे, बाबा वाक्य को प्रमाण मानकर लकीर पर चले जा रहे थे। ऋषि दयानंद अकेला दृढ़ संकल्प करके खड़ा हो गया और एक ओर भारतीय समाज को नष्ट करने वाली सामाजिक कुरीतियों तथा अन्ध श्रद्धा व अज्ञान पर कठोर प्रहार करने लगा, दूसरी ओर भारतीय सभ्यता और भारतीय धर्म के प्रति प्रेम व आस्था का प्रचार करने लगा। एक साथ दो मोर्चों पर लड़ना था -एक आंतरिक शत्रु का मुकाबला और दूसरे बाह्य शत्रु का प्रतिकार। इन दोनों कार्यों में वह महान् ऋषि सफल हुआ। ऋषि ने तर्क और बुद्धिवाद का आश्रय लिया और हमें स्वतंत्र दृष्टि दी। उन्होंने बताया कि किसी बात को तब तक मत स्वीकार करो, जब तक कि तर्क और युक्ति से वह सत्य सिद्ध न हो जाए। मध्यकाल में जो कुरीतियाँ विभिन्न कारणों से भारतीय समाज में जड़ जमा चुकी थी और भिन्न-भिन्न मत-मतांतरों का जो जाल-सा फैल चुका था, उन सबके विरुद्ध वह खड़ा हो गया। उसने एक साथ ही बाल विवाह, अनमेल विवाह, जात-पाँत और छूआछूत का विरोध किया; झूठे अवैज्ञानिक विश्वासों और मिथ्या धारणाओं का खंडन किया। उन्होंने बताया कि जन्म से कोई ऊँच-नीच नहीं होता, सभी परमात्मा के पुत्र हैं। गुण-कर्म से ही वर्ण होते हैं। वेद पढ़ने और यज्ञ करने का सभी को एक समान अधिकार है। स्त्री और पुरुष तथा दलित और ब्राह्मण एक समान हैं। धर्म के नाम पर दंभ करने और भोली- भाली जनता को बहकाने वालों के विरुद्ध उन्होंने कठोर वाणी का प्रयोग किया। हिंदू धर्म पर जो लांछन लग रहे थे, उन्हें दूर कर धर्म का वास्तविक रूप दिखाने में वे सफल हुए।
भारतीयता व राष्ट्रीयता
दूसरी ओर उन्होंने भारतीय सभ्यता, भारतीय धर्म और भारतीय दर्शन का प्रबल समर्थन किया। अंग्रेजी सभ्यता के प्रवाह में बहने वाले भारतीय शिक्षित वर्ग को संबोधन करते हुए उस देशभक्त स्वाभिमानी संन्यासी ने कहा- हमारा भारत सभ्यता का आदिगुरु देश था। यहाँ के वेद-शास्त्र, यहाँ का धर्म, यहाँ के दर्शन, सभी वैज्ञानिक दृढ़ आधार पर स्थित हैं। उन्हीं को अपनाने से देश और विश्व का कल्याण हो सकता है। पश्चिम की भौतिक संस्कृति विश्व को विनाश की ओर ले जाने वाली है। भारत के प्रतीत गौरव का स्मरण करा कर उन्होंने देशवासियों में स्वाभिमान की वह भावना उत्पन्न कर दी, जिसे नष्ट करने के लिए अंग्रेज सरकार ने मैकाले की शिक्षा योजना का षड्यंत्र किया था। उन्होंने ललकारकर कहा कि पश्चिम का ईसाई मत और बाईबल वैज्ञानिक तथा वैदिक धर्म की तुलना में हेय है। वेद को सर्वोत्कृष्ट बताते हुए उन्होंने उस हीन भावना को दूर कर दिया, जो अंग्रेजी शिक्षा व शासन के कारण हम लोगों में पैदा हो रही थी। भारतीय गौरव का स्मरण कराने के साथ ही उन्होंने हमें स्वराज्य का संदेश भी दिया। उन्होंने आज से तीन-चौथाई शताब्दी पूर्व स्पष्ट घोषणा की कि अच्छे से अच्छा विदेशी राज्य भी बुरे से बुरे स्वदेशी शासन से बुरा होता है। ऋषि ने अत्यंत दूर दृष्टि से देख लिया था कि हिंदी ही समस्त देश की राष्ट्र-भाषा होगी। उन्होंने गुजराती होते हुए भी अपने समस्त ग्रंथ हिंदी में लिखे। स्वदेशी कपड़े और स्वदेशी व्यवसाय का विचार उन्होंने निर्भीकता से रखा। यह आत्मगौरव व स्वदेश-प्रेम और समाज-सुधार की बहु- मुखी भावना थी, जिसने कुछ वर्षों बाद देश में नई राष्ट्रीय व उदार भावना को जन्म दिया। किसी भी देश की राजनैतिक क्रांति से पूर्व सामाजिक व विचार क्रांति अनिवार्य हुआ करती है। ऋषि दयानंद ने वही क्रांति करके भारत के पुनर्जागरण की वह दृढ़ आधारशिला रखी, जिस पर स्वतंत्र नवीन भारत का भवन स्थिरता से खड़ा किया जा रहा है।
वस्तुतः उस वीर ने अकेले अनेक मोर्चों पर संग्राम करके एक नई अग्नि प्रज्वलित कर दी। अमेरिका के एक विचारक डेविस ने ऋषि की ओर संकेत करते हुए लिखा था — “गंगा के किनारे प्रदीप्त हुई यह आग संसार भर की कुरीतियों को भस्मसात् कर देगी। भ्रान्त विधर्मी इस आग को बुझाने का प्रयत्न करेंगे, पर इससे आग और भी प्रज्वलित होगी।” योगी डेविस की यह भविष्यवाणी पूर्ण हुई। भारतवर्ष सदियों की गहरी निद्रा से जाग खड़ा हुआ; सामाजिक, राजनैतिक और मानसिक सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ गया। हिंदी, अस्पृश्यता निवारण, झूठी जात-पाँत, नारी-सुधार, शिक्षा, गुरुकुल प्रथा, देश- प्रेम, स्वराज्य आदि सभी दिशाओं के निर्देश वह क्रांतिदर्शी युगनेता ऋषि कर गया था। उसके कुछ स्वप्न पूर्ण हो चुके हैं और शेष को पूर्ण करना हमारा काम है।