यों तो बहुत प्राचीन काल से उत्पादन के साधनों पर मनुष्य का व्यक्तिगत अधिकार था, परंतु पूँजीवाद का वर्तमान स्वरूप तभी से विकसित हुआ, जब से विज्ञान का सहयोग पूँजीपतियों ने प्राप्त किया। पूँजीवाद का इतिहास यूरोप और विशेषकर ब्रिटेन का पिछले 300 वर्षों का इतिहास है। अमेरिका के अन्वेषण और भारत पर अंग्रेजों के अधिकार के कारण इंगलैंड में जाने वाली अपार धन राशि ब्रिटिश पूँजी के रूप में परिणत हो गई। इसी समय सौभाग्य से भाप से चलने वाले इंजिन और सूत कातने की मशीन का आविष्कार हुआ। फिर क्रमशः और मशीन बनती गई। ब्रिटेन के पास आने वाली संपत्ति कल- कारखानो में लगी। इनमें माल बेहद सस्ता और भारी परिमाण में तैयार होने लगा। वह दूसरे देशों में जाकर भी सस्ता पड़ने लगा। राजनैतिक प्रभाव से उसमें और भी अधिक सहायता मिली। ज्यों-ज्यों माल की खपत बढ़ती गई, त्यों-त्यो उनका मुनाफा और फलतः पूँजी भी बढ़ने लगी। पूँजी बढ़ने का परिणाम हुआ नए-नए आविष्कार, कारखानों का निर्माण और ज्यादा नफा। इस तरह अधिकाधिक लाभ और नए कारखानों का चक्र चलाया गया।
पूँजीवाद के समर्थकों का कहना है कि संसार की भौतिक और वैज्ञानिक उन्नति का मुख्य श्रेय पूँजीवाद को ही है। अपने लाभ की आकांक्षा से ही हो, परंतु यह सच है कि यदि पूँजीपति विज्ञान के आविष्कारों को लाखों- करोड़ों रुपये लगाकर व्यापारिक रूप न देते, तो संसार बीसवीं सदी में भी 18वीं सदी से आगे न बढ़ता, न रेल होती और न वायुयान तथा बड़े-बड़े कल- कारखाने। आज का विश्व पूँजीपतियों के निरंतर प्रयत्न का ही फल है। पूँजीवाद की व्यवस्था ने मानव जाति की उन्नति में असाधारण भाग लिया है।
पूँजीवाद का मुख्य सिद्धांत यह है कि खुली प्रतियोगिता और मुकाबला बना रहने से मनुष्य की विविध योग्यताओं का खुलकर विकास होता है। इसमें संदेह नहीं कि इस स्थिति में प्रत्येक उद्योगपति नई से नई, अधिक-से-अधिक उपयोगी, सस्ती से सस्ती चीज बनाने का प्रयत्न करता है। ऐसा हुआ भी, लेकिन यही खुली प्रतियोगिता का सिद्धांत अब स्वयं पूँजीपतियों और पूँजीवाद के लिए भारी खतरा हो गया है।
प्रतिस्पर्द्धा और साम्राज्यवाद
अपना माल सस्ता पैदा करने के लिए प्रत्येक उद्योगपति अधिक-से-अधिक माल तैयार करता है। इसका परिणाम यह होता है कि माल आवश्यकता से अधिक तैयार हो जाता है। इस माल को बेचने के लिए वह दूसरे उद्योगपति से प्रतिस्पर्द्धा करता है, दूसरे देशों में माल बेचने का प्रयत्न करता है और उसके लिए आवश्यकता होने पर दूसरे देशों को राजनैतिक दृष्टि से अपने अधीन कर लेता है या अपने प्रभुत्व में लाता है। साम्राज्यवाद का जन्म यहीं से होता है। पिछली सदी का इतिहास बताता है कि उद्योग प्रधान देशों ने अपने आर्थिक लाभ के लिए तैयार माल बेचने और कच्चा माल बहुत सस्ता खरीदने के लिए – दूर-दूर के देशों पर अपना अधिकार कर लिया। ब्रिटेन का अपना क्षेत्रफल 1 लाख वर्ग मील से भी कम था, लेकिन उसका साम्राज्य कुछ वर्ष पूर्व 1 करोड़ 335 लाख वर्गमील में फैला हुआ था। फ्रांस का क्षेत्रफल सवा दो लाख वर्गमील से कुछ कम है, लेकिन उसका साम्राज्य 45 लाख वर्ग मील तक विस्तृत था। 11 हजार वर्गमील क्षेत्रफल का बेलजियम 911 लाख वर्गमील का स्वामी हो गया। जापान ने अपने क्षेत्रफल से 12-13 गुना प्रदेश पर अधिकार कर लिया था। इस साम्राज्य विस्तार के मूल में पूँजीवादी राष्ट्रों का स्वार्थ ही काम कर रहा है। आज साम्राज्य विस्तार का रूप बदल गया है। राजनैतिक पराधीनता का स्थान आर्थिक संधियों ने ले लिया है। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने 1868 ई. से लेकर 1917 तक किसी-न-किसी कारण से 2 लाख वर्गमील भूमि पर अधिकार कर लिया, जिस पर दो करोड़ मनुष्य बसते हैं। आज अमेरिका का प्रभाव इससे कई गुना प्रदेश पर है। रूस का भी आज पूर्वी यूरोप के देशों पर अमित प्रभाव है।
दुष्परिणाम
अपना माल सस्ता करने के लिए खर्च कम कर दिए जाते हैं और अधिक- से अधिक काम करने वाली मशीनें लगाई जाती हैं। फल यह होता है कि लाखों मजदूर बेकार और गरीब हो जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि उनकी खरीदने की शक्ति नष्ट हो जाती है और माल कम बिकता है। पूँजी- पति अपना माल बेचने के लिए उसे और सस्ता करता है तथा नई-नई मशीनें लगाता है। बेकारी बढ़ती ही जाती है। छोटे-छोटे पूँजीपति तो ऐसी स्थिति में मुकाबला करने लायक ही नहीं रहते और अपना अस्तित्व तक खो देते हैं।
पूँजीवाद के दो भयंकर परिणाम और हुए हैं। एक तो यह कि पूँजीवाद ने अपने देश में दो श्रेणियाँ स्पष्ट कर दीं — अमीर और गरीब। अमीर अधिक- से अधिक अमीर होते गए और गरीब अधिक से अधिक गरीब संसार का धन कुछ थोड़े से धनियों के हाथ में केंद्रीभूत होने लगा। दूसरा परिणाम अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में हुआ। औद्योगिक दृष्टि से संपन्न पूँजीवादी राष्ट्रों ने अपना व्यापार बढ़ाने, दूसरे देशों का कच्चा माल लेने और अपना माल वहाँ बेचने के लिए जिस साम्राज्यवादी परंपरा को कायम किया, वही परंपरा विश्व युद्धों का कारण बन गई। पूँजीवादी देश अधिक-से-अधिक प्रदेश पर अधिकार करने के लिए आपस में युद्ध करने लगे।
पूँजीवाद का विरोध
यह दो कारण थे, जिनसे पूँजीवाद के विरुद्ध लोगों में भावना उत्पन्न हुई। पूँजीवाद के मूल में व्यक्तिगत अधिकार और स्वार्थ की भावना है। अपनी प्रतिभा, योग्यता और धन के कारण पूँजीपति ने जहाँ संसार के प्राकृतिक साधनों का विकास करके मशीनरी के सहयोग से अपने देश को समृद्ध किया, वहाँ उसने गरीबों का शोषण करके उन्हें और भी गरीब बना दिया।
यही कारण है कि आज का युग पूँजीवाद की समाप्ति के सपने देखने लगा। अब यह कहा जाने लगा है कि पूँजीपतियों के दिन गए। अब मजदूरों और किसानों का राज्य आ गया। पूँजीवाद अब अपने अंतिम साँस गिन रहा है।
पूँजीवाद बदल रहा है
किंतु पूँजीपति अत्यंत व्यवहार कुशल हैं। समय के साथ उन्होंने बदलना सीखा है। अब पूँजीवाद का पुराना स्वरूप तो जा रहा है, उसकी जगह नया पूँजीवाद जन्म ले रहा है और इस प्रकार पूँजीपति अपने अस्तित्व की रक्षा का प्रयत्न कर रहे हैं। परिस्थितियों ने भी उन्हें ऐसा करने के लिए विवश कर दिया है। पहले की भाँति आज दो-चार या पाँच-दस लाख रुपये से बड़ा उद्योग स्थापित नहीं किया जा सकता और नए उद्योगों की स्थापना कुछ व्यक्ति विशेष के बस की बात नहीं रह गई। अब पूँजी एकत्र करने के लिए उन्हें मध्यम वर्ग में हजारों-लाखों शेयर बेचने पड़ते हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि उद्योग का स्वामित्व क्रमशः अधिकाधिक संख्या में वितरित होता जा रहा है और उसका लाभ भी कुछ थोड़े से लोगों को न मिलकर सब शेयर होल्डरों में बँटने लगा है। मजदूरों के संघर्ष के कारण सरकारें अब उद्योगों में न्यूनतम वेतन, कार्य की अच्छी अवस्थाएँ तथा लाभांश पर नियंत्रण आदि के जो नियम बना रही हैं, उनसे भी उद्योग का लाभ पहले से अधिक लोगों को बँटने लगा है। सहकारी आधार पर खेती और उद्योग भी पूँजीवाद के वर्तमान स्वरूप को बदलने में बहुत सहायक सिद्ध हो रहे हैं। अमरीका और इंगलैंड में एक नई पद्धति चलने लगी है और वह यह कि उद्योगों में काम करने वाले कारीगरों और मजदूरों को ही शेयर बेचकर उद्योग के स्वामित्व में साझीदार बनाया जा रहा है। इन सब प्रवृत्तियों के कारण पूँजीवाद का स्वरूप बदलता जा रहा है और वह पहले की तरह से समाज का शोषक नहीं रहा, फिर भी पूँजीवाद के मूल में व्यक्तिगत स्वामित्व और अपने लाभ के लिए (राष्ट्र की आवश्यकता देखकर नहीं) उद्योग संचालन की भावनाएँ विद्यमान हैं। परंतु आज जनता इसे भी सहन करना नहीं चाहती और इसलिए साम्यवाद और पूँजीवाद का संघर्ष जारी है। भारत ने दोनों के समन्वय की नीति अपनाई है। आगामी कुछ वर्ष बताएँगे कि पूँजी- वाद का भविष्य क्या है।