आज की भारतीय नारी एक ओर सती सीता, सावित्री और दमयंती के आदर्श चरित्र पढ़ती है, दूसरी ओर वह नए समाज और नई दुनिया को देखती है, जिसमें समाज और युग उससे कुछ ऐसी चीज माँगता प्रतीत होता है, जिसकी शायद सीता, सावित्री या दमयंती से कभी अपेक्षा नहीं की गई थी। एक ओर नारी पुरानी पुस्तकों के यह आदर्श सुनती है—पति ही परमेश्वर है, वह निर्धन हो, बधिर हो, कुष्ठ रोगी हो, उसकी सेवा से ही सब देवता संतुष्ट होते हैं पर दूसरी ओर वह यूरोप में हुए नारी जागरण के आंदोलन व संघर्ष का इतिहास पढ़ती है। एक ओर वह रामायण व महाभारत की कथाओं द्वारा आदर्श गृहिणी, आदर्श माता आदि के नैतिक उपदेश सुनती है, दूसरी ओर वह राष्ट्र-निर्माण में भाग लेने वाली आधुनिक नारियों के, विविध क्षेत्रों में पुरुष के साथ प्रति- योगिता करके आगे आने वाली साहसिक नारियों के देश के स्वातंत्र्य संग्राम में नेतृत्व करने वाली वीर महिलाओ के वृत्तान्त पढती है, शासन के सम्मानपूर्ण पदों पर स्थित अपनी बहनों को देखती है, सार्वजनिक सेवा के द्वारा विविध सभाओं, संस्थाओं में बहनों को सम्मान प्राप्त करते देखती है। यह सब देखकर वह दुविधा में पड़ जाती है। पहले नारी केवल अपने परिवार तक और उसमें भी एक संकुचित क्षेत्र तक सीमित थी। उसका बाहर की दुनिया से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था।
लेकिन आज दुनिया बदल गई है। पश्चिमी सभ्यता और पश्चिमी संस्कृति भारतीय जीवन में प्रवेश कर चुकी है। समय की परिस्थितियाँ भी बदल गई हैं। पुरुष नए पश्चिमी आदर्शों व नए वातावरण को अपना रहा है। वह अपनी जीवन संगिनी से भी यही आशा करता है। नारी जानती है कि उसे पुराने संस्कारों को तिलांजलि देनी होगी। पुरुष समाज की इच्छा के अतिरिक्त उसे नए जीवन की चमक और चकाचौंध का आकर्षण भी लुभाने लगा है। नारी, जो अब तक घर की चाहारदीवारी में बंद थी, बाहर के विस्मयपूर्ण और प्रसन्न वातावरण को पाकर यदि उसकी ओर आकृष्ट हो, तो यह अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता।
मानसिक विद्रोह
आज की प्रगतिशील नारी जब पुरुष को संसार के बड़े से बड़े साहसिक कार्य करते देखती है, तो उसका हृदय भी समुद्र के विशाल वक्षःस्थल को चीरने, उन्मुक्त नील आकाश में वायुयानों द्वारा विचरने और भीषण विध्वंस में पुरुष को भी मात करने को उत्सुक हो उठता है। यह पुरुष को राष्ट्र के स्वातंत्र्य संग्राम में कूदकर आहुति देते हुए देखती है, तो वह भी राष्ट्र सेवा के पुनीत सौभाग्य से अपने को वंचित नहीं रखना चाहती। जब वह देखती है कि उसके पिता, पति या भाई पैसा कमा रहे हैं, तो वह भी नौकरी करके उनकी समकक्ष बनने का गौरव नहीं छोड़ना चाहती। इसके साथ-साथ पुरुष के समकक्ष होने पर वह उनके समान अधिकार भी माँगती है। केवल अधिकार ही नहीं माँगती, बल्कि अपनी योग्यता, शक्ति और इनसे बढ़कर अपनी लगन के द्वारा वह उससे भी आगे बढ़ कर उसे नीचा दिखाने को आतुर है।
पुरुष नारी पर सदियों से अत्याचार करता आया है। स्वयं किसी भी नैतिक कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व को अपने सिर पर लेना नहीं चाहता, किंतु नारी को सदा संयम, पतिव्रत धर्म और तपस्या का उपदेश देता रहा है। एक शिक्षित नारी यह सब देखकर सोचती है कि क्या संसार के समस्त वैभव और विलास के संपूर्ण सुख केवल पुरुष के लिए है? क्या सूर्य, चाँद और तारों के रमणीक दृश्य तथा प्रकृति के सुंदर नजारे केवल पुरुष के लिए ही हैं और इसके विपरीत क्या समस्त जप-तप, नियम एवं सब शास्त्र केवल स्त्रियों के लिए ही हैं? क्या पुरुषों पर न शास्त्र लागू होते हैं और न समाज के बंधन? क्या स्त्री का संसार केवल घर की चहारदीवारी ही है? यह सब सोचकर नारी विद्रोह करने लगी है। घर में, समाज में और राजनीति में सर्वत्र वह पुरुष के समान अधिकार माँगने लगी है। वह वेद, शास्त्र, स्मृति और प्राचीन उपदेश सभी को अग्नि देवता के अर्पण करके पुरुष के साथ कंधे से कंधा भिड़ाकर चलना चाहती है और घर-गृहस्थी, चूल्हा, चक्की, बच्चों के पालन-पोषण की एकमात्र जिम्मेवारी छोड़कर हर एक क्षेत्र में पुरुष से मुकाबला करने को उत्सुक है। यूरोपियन नारी की भाँति भारत में भी आज वह अधिकारों के लिए संघर्ष करने लगी है, राजनीति के मंच पर गरजने लगी हैं, दफ्तरों में काम करने लगी हैं। घर के क्षेत्र से उसे संतोष नहीं रहा। उसे वह अब अस्वाभाविक और बहुत क्षुद्र मानने लगी हैं। सैनिक बनकर बंदूक चलाने में वह रस लेने लगी है। वह वकील और डाक्टर बनना चाहती है। टिकट कलैक्टर टाइपिस्ट या ‘टेलिफोन गर्ल’ बनने और दफ्तर की क्लर्की करने में वह अभिमान अनुभव करती है।
समाज में सहचारिणी
किसी समय यह स्वीकार किया जाता था कि नारी के बिना पुरुष अपूर्ण है। कोई यज्ञ या महान कर्तव्य उसके बिना पूर्ण नहीं होता था। राम की पत्नी सीता वनवास भोग रही थी तो राम को उसकी प्रतिमा यज्ञ में साथ रखनी पड़ी। आज भी नारी केवल रमणी – केवल पुरुष के आश्रित नहीं रहना चाहती। वह राष्ट्र के निर्माण में समाज के विकास में और गृहस्थी के संचालन सब में पुरुष की सहचारिणी बनने को उत्सुक है। आज से बीस-पच्चीस वर्ष पूर्व तीर्थ- यात्राओं और विवाह-शादियों के अतिरिक्त रेलों में, ट्रामों में, ताँगों में, बसों में, नारी के बहुत कम दर्शन होते थे। पर आज बड़े शहरों में लड़कियाँ कालेजों, दफ्तरों व अन्य स्थानों पर जाती हुई प्रायः मिलती हैं। वह सचमुच समाज में अपना स्थान पुरुष के समान स्तर पर बनाने को उत्सुक ही नहीं, प्रयत्नशील भी है। कालेजों में वह अपनी योग्यता से पुरुषों को पीछे छोड़ती जा रही है। सार्वजनिक जीवन में वह बहुत आगे बढ़ रही है। म्यूनिसिपल कमेटियों, असेम्बलियों और संसद के लिए वह बेधड़क होकर चुनाव लड़ती है और वहाँ जाकर महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर विवाद में पूर्ण भाग लेती है। उसी का परिणाम है कि आज नारी-शिक्षा बढ़ रही है, तलाक व पुत्रियों को समान उत्तराधिकार मिल गया है।
एक प्रश्न
नारी की इस असाधारण जागृति और प्रगति में एक बड़ा भारी प्रश्नवाचक चिह्न भी है, जो आज के अनेक विचारकों को चिंतित कर रहा है। प्रश्न यह है कि जिस नई विचारधारा के प्रवाह में हम बहे जा रहे हैं, उससे मानव समाज की शाश्वत समस्याएँ कहाँ तक हल होंगी। पश्चिमी सभ्यता के अनेक गुणों को ग्रहण करते हुए भी यह तो आवश्यक नहीं है कि उसके समस्त दोषों को भी उसी आदर के साथ स्वीकार किया जाए। यदि आज की नई परिस्थिति में नवीनता का त्याग असंभव ही हो तो उसे उसी सीमा तक क्यों न लिया जाए, जहाँ तक वह उपादेय है। नवीन के साथ प्राचीन आदर्शों का समन्वय ही क्यों न किया जाए?
एक भूल
आज एक बड़ी भारी भूल हो रही है और उसका कारण नारी जाति पर होने वाले अत्याचारों व अन्याय की प्रतिक्रिया है। पुरुष ने नारी को दलित करके उसके हृदय में यह भावना पैदा कर दी कि वह हीन है। उसके गृहस्थ- कार्य, उसका मातृत्व और उसका संतान पालन सब हीन हैं। आज वह यह भूल गई है कि मंगलमय भगवान् की सृष्टि में उसका क्या स्थान है, क्या कर्तव्य है। स्त्री-पुरुष के प्राकृतिक रचना -भेद – शरीर व मन दोनों के भेद के द्वारा यह स्पष्ट है कि दोनों का कार्य एक नहीं है। नारी का सफल जीवन उसके नारीत्व और मातृत्व में है, पुरुष की सफलता उसके पौरुष में है। जिस प्रकार स्त्रियों की तरह से आचरण करने वाला पुरुष स्त्रैण या जनाना कहलाता है, उसी तरह पुरुष का अनुकरण करती हुई नारी भी अपने धर्म को छोड़ने का अपराध करती है। मंगलमय भगवान् ने उसके शरीर की रचना व्यर्थ ही नहीं की उसके हृदय में स्नेह और छाती में दूध बिना किसी विवेक के नहीं दिया। संतान -पालन की शक्ति और स्नेहमयी भावना उसका सहज गुण है, अनिवार्य कर्त्तव्य है। उससे मुक्त होकर वह समाज और देश तथा विश्वनियन्ता के प्रति घोर अपराध करेगी। यह मातृत्व या संतान निर्माण किसी भी तरह पुरुष के शासन, साम्राज्य – विजय, व्यापार और व्यवसाय से हीन नहीं है।
आज भी स्वतंत्र नहीं
पुरुष की ओर आकर्षण भी नारी का एक स्वाभाविक धर्म है, ठीक उसी तरह, जिस तरह पुरुष नारी के प्रति आकृष्ट होता है। आज की नारी एक ओर पुरुष से घृणा करती है, नारी-सुलभ गुणों का बलिदान करके पौरुष को जगाना चाहती है। दूसरी ओर अपने शृंगार द्वारा अपने रमणीत्व के प्रदर्शन में और भी अधिक लिप्त और अधिक सतर्क रहने लगी है। शृंगार सामग्री पर राष्ट्रीय संपत्ति का खर्च होने वाला बढ़ता हुआ अंश सचमुच चिंता का विषय हो रहा है। श्रीमती महादेवी वर्मा, जो कवयित्री होने के साथ-साथ अच्छी विचारक भी हैं, लिखती है – “आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नारी को पुरुष के मनोविनोद की वस्तु बने रहने की आवश्यकता नहीं है। अतः वह परंपरागत रमणीत्व को तिलांजलि देकर सुखी हो सकती है। परंतु वह आदिम नारी की दुर्बलता (वस्तुतः वह स्वाभाविकता ही है) को नहीं छोड़ सकी है। शृंगार के इतने संख्यातीत उपकरण, रूप को स्थिर रखने के इतने कृत्रिम साधन, आकर्षित करने के उपहास योग्य प्रयास, इस विषय में कोई संदेह का स्थान बने नहीं रहने देते। नारी को गरिमा देने वाले गुणों का भले ही विनाश हो गया हो, उसका रमणीत्व नष्ट नहीं हो सका। बाहर के संघर्षमय जीवन में जिस पुरुष को नीचा दिखाने के लिए वह सभी क्षेत्रों में कठिन से कठिन परि श्रम करेगी, उसी पुरुष में अपने प्रति जिज्ञासा या उत्सुकता जागृत करने के लिए वह
अपने सौंदर्य और अंग सौष्ठव की रक्षार्थ असाध्य से असाध्य कार्य करने को उद्यत है।” क्या तब भी नारी को स्वतंत्र कहा जा सकता है?
नारी का जीवन नारीत्व के विकास में है और नारीत्व का विकास मातृत्व में। राम, कृष्ण, शिवाजी, प्रताप या गांधी जैसी विभूतियों का निर्माण करने वाली माताओं ने किस राष्ट्र-निर्माता से कम सेवा की है? राष्ट्र-निर्माता का यह महान उत्तरदायित्व छोड़कर यदि वह पुरुष की लीक पर ही चलना चाहती है, तो वह केवल अपने पवित्र कर्त्तव्य से ही च्युत नहीं होती है, किंतु राष्ट्र की बड़ी भारी अप-सेवा भी करती है। मातृत्व के महान गौरव के कारण ही हमारे आचार्यों ने उसे बहुत बड़ा पद दिया था–
“उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।
सहस्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते॥” मनुस्मृति
पुरुष का कार्य क्षेत्र नारी के लिए आपद्धर्म हो सकता है, स्वाभाविक धर्म नहीं। महात्मा गांधी स्त्रियों की स्वतंत्रता के बहुत बड़े समर्थक थे। उन पर स्त्री-विरोधी होने का आरोप किसी भी स्थिति में नहीं लगाया जा सकता। उनका उद्धरण देकर हम इस लेख को समाप्त करते हैं- “मेरे मत से स्त्री को, घर छोड़कर, घर की रक्षा के निमित्त कंधे पर बंदूक धरने का आह्वान करने पर अथवा इसके लिए प्रोत्साहित करने पर स्त्री और पुरुष दोनों का ही पतन होगा। यह तो फिर से जंगली बनना और विनाश का प्रारंभ हुआ। अपने घर को सुव्यवस्थित करने में उतनी ही वीरता है, जितनी बाहर से रक्षा करने में।”