कुटुम्ब व विवाह की प्रथा मानव को शांति, उन्नति और आनंद देने तथा समाज के भली-भाँति विकास के लिए बनाई गई थी। वैदिक शास्त्रों में विवाह को आध्यात्मिक स्वरूप दिया गया है और विवाह एक पवित्र धार्मिक बंधन माना गया है। समाज के दो महान अंगों – नर और नारी का संबंध समाज के पालन-पोषण और व्यवस्था में बहुत सहायक सिद्ध हुआ। स्त्री और पुरुष एक रथ के दो पहिए हैं। एक के बिना दूसरे का काम नहीं चल सकता। इनमें परस्पर संघर्ष को रोकने के लिए विवाह को धार्मिक कर्त्तव्य का रूप देते हुए समाज के महान नेताओं ने नर और नारी दोनों को आजीवन एक दूसरे का साथ देते हुए प्रेमपूर्वक अपने कर्त्तव्यों का पालन करने का आदेश दिया था। न पुरुष ऊँचा था और न स्त्री नीची। रथ के दो पहियों की भाँति दोनों समान थे। जहाँ नारी को पतिव्रत धर्म का उपदेश दिया गया, वहाँ पुरुष के लिए भी पर – स्त्रीगामिता भयंकर अपराध माना गया। दोनों का कार्य क्षेत्र भिन्न-भिन्न था, परंतु दोनों की स्थिति समान थी। वेदों में पत्नी को गृह की साम्राज्ञी बताया गया है। वैदिक काल में अनेक विदुषी और तेजस्विनी नारियों के नाम मिलते हैं।
समय बदला और पुरुष ने नारी सुलभ कोमल गुणों का अनुचित लाभ उठाना शुरू किया। वह निरंकुश होकर नारी पर अत्याचार करने लगा। धर्म- शास्त्रों के उपदेशों पर स्वयं न चलकर उसने पत्नी को अधिकाधिक जकड़ना शुरू किया। उसकी स्वतंत्रता नष्ट हो गई, उसकी शिक्षा समाप्त हो गई। वह घर की चहादीवारी में बंद कर दी गई। एक साथ अनेक विवाह, वृद्ध होते हुए भी कुमारियों से विवाह तथा पत्नी पर अत्याचार आदि समाज की सनातन कुप्रथाएँ बन गई। नारी की स्थिति यहाँ तक हीन हो गई कि देश के अनेक भागों में कन्या का जन्म होते ही उसका वध किया जाने लगा।
दुर्दशा के दो कारण
पर समय तो बदलता रहता है। नारी ने भी करवट ली, अनेक समाज- सुधारकों ने भी नारियों की दशा सुधारने के महान प्रयत्न किए। पश्चिमी शिक्षा के प्रचार ने भी नारी को अपनी दयनीय दशा से मुक्त होने के लिए प्रेरित किया। स्त्री – शिक्षा के साथ-साथ नारी जागरण का आंदोलन जोर पकड़ता गया। शिक्षित नारी ने अपनी दुर्दशा के कारणों पर विचार किया। वह इस परिणाम पर पहुँची कि नारी की दुर्दशा के दो प्रमुख कारण हैं – एक तो यह कि विवाह संबंधी कानून पुरुष ने अपने हित के लिए बनाए हैं, जिनमें
नारी की कोई स्थिति ही नहीं है। नारी की दुर्दशा का दूसरा कारण यह अनुभव किया गया कि आर्थिक दृष्टि से वह परतंत्र है। पैसा पुरुष कमाता है और नारी को रोटी देता है। उत्तराधिकार में भी नारी का कोई स्थान नहीं है। शिक्षित नारी ने इन कारणों को दूर करने का निश्चय कर लिया।
पिछले वर्षों में भारत में जो नारी-जागृति आंदोलन हुआ, उसके परिणाम स्वरूप देश में दो महत्त्वपूर्ण कानून स्वीकृत किए गए हैं। एक है विवाह संबंधी कानून और दूसरा है उत्तराधिकार संबंधी कानून। इन दोनों कानूनों की ही हम संक्षेप में यहाँ चर्चा करना चाहते हैं।
नए विवाह कानून
18 मई 1955 से हिंदू, सिक्ख, बौद्ध और जैनों के विवाह कानून बिल्कुल बदल गए हैं। पहले एक पुरुष एक साथ अनेक स्त्रियों से विवाह कर सकता था, किंतु नए कानून की पाँचवीं धारा के अनुसार प्रथम पत्नी के जीवित होते हुए विवाह नहीं हो सकता। यदि कोई एक पत्नी के रहते हुए दूसरा विवाह करेगा तो उसे कठोर दंड देने का विधान कानून में रखा गया है। पहली जीवित पत्नी की बात छिपा लेने पर 10 वर्ष तक की कैद देने का उल्लेख भी कानून में किया गया है। इस व्यवस्था से बहु-विवाह की दूषित प्रथा हिंदुओं में सदा के लिए समाप्त हो गई। अब कोई पुरुष किसी दूसरी सुंदर या संपन्न युवती के फेर में पड़कर पहली पत्नी को तिरस्कृत नहीं कर सकता।
नए कानून में अनमेल विवाह की उस प्रथा को भी सदा के लिए समाप्त कर देना चाहिए था, जिसके अनुसार एक पैर कबर में लटकाने वाला बूढ़ा 14- 15 वर्ष की अबोध कन्या से विवाह कर उसका जीवन सदा के लिए बर्बाद कर देता है। परंतु इसकी कोई व्यवस्था नहीं की गई। नए प्रगतिशील कानून में अनमेल विवाह पर कोई बंधन न लगाना बहुत बड़ी कमी रह गई है। किसी मनचले ने इस पर मजाक किया था कि यदि ऐसा प्रतिबंध लगा दिया जाता तो विधानसभाओं या संसद के बूढ़े सदस्य कोमलांगियों से विवाह कैसे कर पाते !
दुधमुँही या बहुत छोटी लड़कियों तथा छोटे बच्चों के विवाह को रोकने के लिए कन्या की न्यूनतम उमर 15 वर्ष तथा वर की आयु 18 वर्ष नियत कर दी गई है। 18 वर्ष से कम वर्ष की लड़की माता-पिता की अनुमति के बिना विवाह नहीं कर सकेगी। नए कानून में विवाह की सब धार्मिक पद्धतियों को स्वीकार किया गया है, तथापि विवाह के प्रमाण के लिए रजिस्ट्री कराने की सुविधा भी दी गई है।
नारी को सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि चरित्रहीन तथा असाध्य गंदे रोगों का शिकार और अत्याचारी पुरुष भी पत्नी के निरंतर साथ रहने के लिए विवाह कर सकता था और इस कारण पत्नी का समस्त जीवन ही नष्ट हो जाता था। इसे रोकने के लिए नए कानून में दो प्रकार की व्यवस्थाएँ की गई हैं। साधारण कारण होने पर कानूनी तौर पर पत्नी पति से अलग रहने का अधिकार प्राप्त कर लेती है। इस स्थिति में पुरुष स्त्री को साथ रहने के लिए बाधित नहीं कर सकता।
तलाक का अधिकार
स्थिति के गंभीर होने की अवस्था में पति व पत्नी को परस्पर तलाक देने का भी अधिकार दे दिया गया है। निम्न कारणों से अदालत जुडिशियल पृथक् वास की इजाज़त दे सकती है-
(क) एक ने दूसरे को दो वर्ष या इससे अधिक समय से छोड़ रखा है।
(ख) एक ने दूसरे पर जुल्म किए हैं।
(ग) कोढ़ या और कोई गुप्त बीमारी हो गई है।
(घ) विवाह के बाद किसी पक्ष ने दूसरे व्यक्ति के साथ व्यभिचार किया है।
निम्नलिखित कारणों से तलाक भी स्वीकृत किया जा सकता है—-
(क) व्यभिचार का जीवन व्यतीत हो रहा हो।
(ख) हिंदू धर्म छोड़ दिया है।
(ग) कोढ़ या गुप्त रोग से पीड़ित है।
(घ) संन्यास ले लिया है।
(ङ) सात वर्ष से लापता है।
(च) कानूनी पृथक् वास को दो वर्ष हो गए हैं, और सह-शयन नहीं हुआ है।
पत्नी नीचे लिखे कारण होने पर तलाक की अर्जी दे सकती है-
(क) नए कानून से पहले किसी पति ने दो विवाह किए हैं और दूसरी पत्नी अर्जी के समय जीवित है।
(ख) विवाह के बाद पति ने पशुओं के साथ या दूसरे पुरुषों के साथ व्यभिचार किया है या जबरदस्ती किसी स्त्री के साथ बलात्कार अथवा शारीरिक संबंध किया है।
तलाक से हानि अधिक
तलाक की इस व्यवस्था पर देश में बहुत विचार हुआ है। भारत के प्राचीन शास्त्रों में विवाह को आध्यात्मिक व धार्मिक कर्तव्य और आजीवन का बंधन माना है। तलाक की प्रथा जारी कर देने से विवाहित जीवन सुखी नहीं रहेगा। गृहस्थ जीवन में थोड़े-बहुत मतभेद होते ही रहते हैं, पर संबंध विच्छेद के द्वार बंद हैं। इसलिए फिर वे दोनों राजी खुशी मिल जाते हैं। कोई दूसरा मार्ग ही नहीं है। अब मार्ग मिल जाने से स्वभावतः एक-दूसरे से अलग होने की प्रवृत्ति बढ़ जाएगी। इस कानून के पास हो जाने के बाद से संबंध-विच्छेद ज्यादा होने लगे हैं। यह ठीक है कि अभी इस कानून में संबंध विच्छेद को असाधारण परिस्थितियों में ही स्वीकार किया गया है, किंतु इस बात की क्या गारंटी है कि कल इन कारणों को शिथिल नहीं कर दिया जाएगा? एक बार छिद्र हो जाए, फिर जहाज के छोटे से छिद्र को बड़ा होने में देर नहीं लगती।
आज जो नारी कुष्ट रोगी, नपुंसक, व्यभिचारी पति से मुक्ति पाने को उत्सुक है, क्या वह जानती है कि तलाक की कानूनी तलवार उसके सिर पर भी पड़ सकती है। पुरुष ही रोगी नहीं होता, स्त्री भी रोगी हो सकती है। स्त्री पुरुष को तलाक देगी, पुरुष को दूसरा विवाह करने में कठिनता न होगी, किंतु पुरुष जब किसी स्त्री को दुराचारिणी या असाध्य रोग से ग्रस्त कहकर तलाक दे देगा, तो सिवाय अनाथालय या गंगा में डूब मरने के और कोई गति न होगी। फिर पुरुष के लिए पत्नी को अदालतों में दुराचारिणी सिद्ध करना बहुत कठिन नहीं है। इस तरह हमारी नम्र सम्मति में तलाक के अधिकार प्राप्त कर लेने के बाद भी कुछ शिक्षित व समर्थ नारियों के अतिरिक्त साधारण स्त्री को इससे लाभ न होकर हानि ही अधिक होगी।
नारी को उत्तराधिकार
हम ऊपर कह आए हैं कि नारी ने पुरुष समाज के अत्याचार से मुक्ति पाने के लिए दो उपाय किए – तलाक अधिकार प्राप्ति तथा आर्थिक अधिकारों की प्राप्ति। आर्थिक स्वावलंबन के लिए एक ओर उसने संसार के कार्य-क्षेत्र में प्रवेश करके स्वयं रोजी कमानी शुरू की, दफ्तरों में नौकरी शुरू कर दी, दूसरी ओर उसने उत्तराधिकार कानून में परिवर्तन कराके माता, पुत्री व पत्नी के लिए अधिकार प्राप्त कर लिए। इस लेख में हम इसी उत्तराधिकार कानून का परिचय देना चाहते हैं।
अब तक हिंदू कानून के अनुसार पिता की संपत्ति केवल पुत्रों में बाँटी जाती है, पुत्रियों का पिता की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता। नए कानून के अनुसार पुत्रियों को भी अपने भाइयों के साथ स्वार्जित तथा पैत्रिक दोनों प्रकार की संपत्ति में अधिकार मिलेगा, यदि पिता स्वयं इसके विरुद्ध कोई वसीयत न कर गया हो। पति की मृत्यु पर पत्नी भी देवर, जेठ या पुत्रों पर आश्रित न रहेंगी, उसे भी पति की संपत्ति में से अधिकार मिलेगा। पहले स्त्रियों को उत्तराधिकार मिलता भी था, पर वह बहुत सीमित होता था। वे उस संपत्ति को कुछ असाधारण परिस्थितियों के सिवाय बेच नहीं सकती थीं और अपने जीवन काल में ही उसका उपभोग कर सकती थीं। नए कानून के द्वारा ऐसी सब अयोग्यताएँ दूर कर दी गई हैं। कृषि, भूमि, मकान आदि के लिए भी कानून में व्यवस्था है, ताकि वह इस नए कानून में छिन्न-भिन्न न हो जाए। इस कानून के द्वारा यह मान लिया गया है कि संविधान के अनुसार लिंग भेद के कारण स्त्री पुरुष में, पुत्र पुत्री में कोई भेद नहीं है। इसलिए उत्तराधिकार से उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता। जहाँ तक विधवा पत्नी का संबंध है, यह कानून हमारी नम्र सम्मति में आवश्यक था। आज विधवा को पुत्रों पर और अपनी बहुओं पर आश्रित हो जाना पड़ता है और जो दयनीय जीवन बिताना पड़ता है, उससे मुक्ति पाने के लिए यह आवश्यक भी था।
किंतु पुत्री को उत्तराधिकार मिलने से अनेक विषम समस्याएँ उत्पन्न हो जाएँगी। आज भाई, बहन के लिए कर्तव्य के रूप में या स्नेहवश सदा कुछ न कुछ देते रहते हैं। इसमें वे अपना गौरव समझते हैं कि बहन को अधिक-से- अधिक दें, किंतु इस कानून के अनुसार बहन का संपत्ति में कानूनी अधिकार हो जाने के बाद जायदाद के लिए भाई-बहन में संघर्ष प्रारंभ हो जाएँगे। फिर वह भाई-बहन का स्नेह, जो शायद भारत की अपनी अपूर्व प्रथा है और रक्षा- बंधन के त्योहार पर जिसके दर्शन होते हैं, समाप्त हो जाएगा। फिर दहेज यथाशक्ति देने की बजाए बहन का कानूनी अधिकार भर उसे मिलेगा। इस प्रथा से कन्याओं की असुविधाएँ भी बहुत बढ़ जाएँगी। आज तो विवाह के समय कन्या का घर भरा-पूरा पसंद किया जाता है, फिर संपत्ति के लोभ से कम-से- कम भाई-बहनों वाली लड़की पसंद की जाने लगेगी। पिता के घर से संपत्ति लाकर भी तो घर को आर्थिक दृष्टि से मजबूत नहीं बनाया जा सकेगा, क्योंकि पति की बहनें भी तो अपना-अपना भाग ले जाएँगी। वस्तुतः समानाधिकार की सामाजिक दृष्टि से विचार करने वाली आज की शिक्षित नारी यह सब दुष्परिणाम नहीं देख पा रही है। इस दृष्टि को बदलने की आवश्यकता है, परंतु साथ ही यह भी देखना होगा कि पुरुष नारी को हीन समझकर उस पर अत्याचार न कर सके। पुरुष की उच्छृङ्खलता पर नियंत्रण करने की बजाए आज पुरुष और नारी को सदा संघर्षशील भागों में विभक्त करना समाज के लिए सुखद नहीं होगा!