किसी देश की विकास योजनाओं को पूर्ण करने के लिए जहाँ अनुभव, परिश्रम, उत्साह और उमंग की आवश्यकता होती है, वहाँ उससे कम आवश्यकता धन की नहीं होती। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में दो पंचवर्षीय योजनायें बनी हैं। इन दोनों के व्यय-लक्ष्य क्रमशः करीब 22 अरब और 65 अरब रुपए हैं। इन योजनाओं के अतिरिक्त पिछले कुछ वर्षों से राज्य या सरकारों का उत्तरदायित्व जिस तरह निरंतर बढ़ता जा रहा है, उसके कारण भी सरकारों के खर्च ज्यादा से ज्यादा होते जा रहे हैं। अब शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति आदि किसी क्षेत्र में सरकार उदासीन नहीं रह सकती। उसकी जिम्मेवारी निरंतर बढ़ रही है। अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति भी लगातार विषम होती जा रही है। इसलिए सरकारों का सैनिक व्यय बहुत बढ़ गया है। लगातार बढ़ती हुई मँहगाई का भी असर सरकारों के बजट पर कम नहीं पड़ा है। इन सब कारणों से सरकार को विवश होना पड़ा है कि वह अपनी आय के नए साधन खोजे। यही कारण है कि भारत सरकार पिछले कुछ वर्षों से लगातार नए-से-नए कर लगाती जा रही है। इन करों में से कुछ नए कर एक दूसरे भी विशेष उद्देश्य से लगाए गए हैं। यह उद्देश्य है देश में बढ़ती हुई असमानता — अमीर और गरीब की खाई को कम करना। हम इन पंक्तियों में इन दोनों उद्देश्यों से लगाए गए कुछ नए करों का परिचय देने का प्रयत्न करेंगे।
बिक्री-कर
पिछले वर्षों में जो विविध कर लगाए गए हैं, उनमें से एक मुख्य कर ‘बिक्री-कर’ है। बिक्री कर ग्राहक को उस समय देना पड़ता है, जब वह कोई चीज दुकानदार से खरीदता है। आजकल प्रायः प्रत्येक राज्य सरकार इस कर से अपनी- आय का बहुत बड़ा भाग पूरा करती है। अनेक राज्यों में भूमि राजस्व के बाद इसी का नंबर आता है। प्रत्येक राज्य सरकार यह नियत करती है कि किस वस्तु की बिक्री पर कितना टैक्स दिया जाएगा। जीवन के लिए अत्यंत अनिवार्य वस्तुओं पर यह कर नहीं लगता। परंतु कपड़ा, स्टेशनरी, बर्तन, ईंट, सीमेंट, साबुन, फर्नीचर, साइकल तथा विलास – सामग्री आदि वस्तुओं पर यह बिक्री कर लगता है। एक पैसा रुपया से लेकर छह पैसा तक यह कर लगता है।
इस बिक्री कर का प्रारंभ पहले पहल सन् 1938 में मध्यप्रदेश में पेट्रोल के बिक्री कर द्वारा किया गया था। इसके बाद मद्रास और बंगाल की सरकारों ने इसे लागू किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तो अन्य सभी राज्यों ने क्रमशः न केवल इसे अपनाया वरन् उसका क्षेत्र भी विस्तृत करते गए। आज यह अवस्था है कि राज्य सरकारों की आमदनी का बड़ा भाग बिक्री कर से वसूल होता है और कृषि – राजस्व के बाद इसी का स्थान है।
यद्यपि भारतीय संविधान में जीवन के लिए अनिवार्य वस्तुओं पर कर न लगाने का उल्लेख है, तथापि सरकारों का लोभ बढ़ता जा रहा है और जीवन के लिए अनेक आवश्यक पदार्थों पर भी बिक्री कर लिया जाने लगा है। अनेक राज्यों में इस कर के विरुद्ध आंदोलन भी किया गया है और सरकार को झुकना भी पड़ा है। बिक्री कर का बोझ जनसामान्य पर भी पड़ता है और उसके कारण पदार्थ अधिक मँहगे होते जा रहे हैं। इसके साथ बिक्री कर की दो-तीन अन्य समस्याएँ भी हैं। एक तो यह कि बिक्री कर की चोरी बहुत होती है। दुकानदार और ग्राहक मिलकर बिल के बिना ही सामान की खरीद- फरोख्त करते हैं, जिससे सरकार बिक्री कर के बारे में ठीक जाँच-पड़ताल नहीं कर सकती। दूसरी समस्या यह है कि बिक्री का हिसाब रखने में छोटे दुकान- दारों को बेहद परेशानी होती है। अनेक प्रकार के रजिस्टर रखने पड़ते हैं और सरकारी कर्मचारी उन्हें बहुत परेशान करते हैं। इन दोनों समस्याओं का हल यह बताया गया है कि सरकार उत्पादन कर के साथ ही बिक्री कर भी वसूल कर लिया करे। इससे न बिक्री कर की चोरी हो सकेगी और न दुकानदारों को परेशान होना पड़ेगा। बिक्री कर की तीसरी समस्या यह है कि विभिन्न राज्य एक ही वस्तु पर अलग-अलग कर लगाते हैं। इसके परिणामस्वरूप एक राज्य में एक चीज सस्ती मिलती है और दूसरे राज्य में वही चीज मँहगी। चौथी समस्या यह थी कि एक राज्य का व्यापारी यदि दूसरे राज्य से वस्तु खरीदता है, तो उसका बिक्री कर किस राज्य को मिले। विभिन्न राज्यों में इस प्रश्न को लेकर बहुत समय तक झगड़ा रहा। अब केंद्रीय सरकार ने इस संबंध में एक कानून बनाकर स्थिति को सुलझाने का प्रयत्न किया है।
उत्तराधिकार कर
गत् वर्षों में सरकार ने अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए तथा अमीर-गरीब की विषमता को कम करने के लिए जिस एक महान अस्त्र का प्रयोग किया है, वह है- मृत्यु या उत्तराधिकार कर इसके अनुसार किसी एक संपन्न व्यक्ति की मृत्यु पर जब उसकी संपत्ति उसके उत्तराधिकारियों के नाम की जाती हैं, तब उस संपत्ति पर सरकार एक कर लगा देती है। एक नियत मात्रा से अधिक की संपत्ति पर ही यह कर लगाया जाता है। सरकार अपना यह अधिकार समझती है कि उत्तराधिकारी को पैतृक संपत्ति सरकारी कानून के अनुसार अनायास मिल जाती है, इसलिए सरकार को उस पर कर लगाने का अधिकार है। परंतु इस कर से अनेक नुकसान भी हैं। जनता में, विशेषकर संपन्न वर्ग में बचत करके धन जोड़ने का उत्साह कम हो जाएगा। फिर यह कर लोगों में परोपकार की भावना पर भी प्रहार करता है, क्योंकि इस कर से उस संपत्ति को भी मुक्त नहीं किया गया, जो मृत्यु के समय विभिन्न सार्वजनिक संस्थानों को दान में दी जाती है। किंतु सरकार ने इन आक्षेपों की उपेक्षा करके भी उत्तराधिकार कर लगा दिया है। सरकारी आमदनी के अतिरिक्त उसकी बड़ी भारी दलील यह कि इससे संपन्न व्यक्ति की संपत्ति का जो कुछ भाग सरकार के हाथ में आएगा, उससे अमीर और गरीब की खाई कुछ कम होगी। इस कर का लगाना और वसूल करना आसान काम नहीं है। किसी की संपत्ति का ठीक अंदाज़ा करना बहुत कठिन काम है। मकान, जायदाद, कल-कारखाने आदि की कीमत लगाने वाले जो सरकारी अधिकारी होंगे, वे रिश्वत लेकर 10 लाख रुपये की संपत्ति की कीमत 4-5 लाख रुपये लगा देंगे। इस तरह भ्रष्टाचार का एक नया क्षेत्र खुल गया है। इसका एक दुष्परिणाम यह भी होगा कि लोग अपनी संपत्ति को जेवर और जवाहरात में बदलने की कोशिश करेंगे, जिसे आसानी से छिपाया जा सकता है।
संपत्ति कर
1957 के बजट में दो नए कर लगाने का प्रस्ताव किया गया है, उनमें से एक है संपत्ति कर इसके भी वही दो उद्देश्य हैं, जो उत्तराधिकार – कर के हैं अर्थात् सरकारी आमदनी बढ़ाना तथा आर्थिक असमानता को कम करना। इसके अनुसार 3 लाख से ज्यादा संपत्ति होने पर प्रति वर्ष यह कर लिया जाएगा पहले 10 लाख पर 1/2 प्रतिशत, अगले 10 लाख पर 1 प्रतिशत और इससे अधिक पर 1.1/2 प्रतिशत कर लिया जाएगा। कंपनियों की संपत्ति पर भी आधा प्रतिशत कर लगेगा। जहाज़ी कंपनियों, दातव्य कार्यों के लिए संगठित कंपनियों, बैंकों और बीमा कंपनियों पर यह कर नहीं लगाया गया। देश के नव-विकास के लिए आवश्यक अनेक उद्योगों को पाँच वर्ष तक के लिए छूट दी गई है। हिंदू संयुक्त परिवार की कर मुक्ति की सीमा चार लाख रुपया रखी गई है। 35 हजार रुपये के जवाहरात, कृषि के औजार, घरेलू कार्य के पशु और ग्रामों में निर्मित मकानों को भी कर मुक्त रखा गया है। राजाओं के प्रिवी पर्स पर भी यह कर नहीं लगेगा। विदेशी विनियोजक देश के उद्योगों में रुपया लगा सके, इसलिए उनसे कर 50 प्रतिशत लिया जाएगा।
देश के औद्योगिक और व्यापारिक क्षेत्रों में इस कर का भी तीव्र विरोध किया गया है। उनकी सम्मति में इसका पूँजी निर्माण पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। संपत्ति के मूल्यांकन में भ्रष्टाचार की वृद्धि निश्चित रूप से बढ़ेगी। हिंदू संयुक्त परिवार की प्रथा को इससे भारी चोट पहुँचेगी। उद्योगों पर जो कर लगाया जाएगा, उसका परिणाम निश्चित रूप से यह होगा कि उद्योगपति को उत्पादन के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं मिलेगा। आज हमारे देश में निरंतर नए लगने वाले करों से पूँजी की संभावना पहले ही कम होती जा रही है। संपत्ति कर इसको और भी कठिन बना देगा।
व्यय-कर
उपर्युक्त दोनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जो चौथा कर लगाया गया, वह व्यय-कर है। इसका आशय यह है कि आयकर आमदनी पर लगता है, किंतु यह कर उस पर लगेगा जो एक नियत मात्रा से अधिक खर्च करता है। चुनाव, विवाह, शिक्षा, चिकित्सा और तीर्थ यात्रा के व्ययों पर यह कर नहीं लगेगा। बच्चों के लिए भी व्यय की एक मात्रा (5,000) पर कर नहीं लगेगा। दम्पति के लिए वार्षिक 24,000 रुपए से अधिक व्यय पर लगेगा। यह कर उन रकमों से अधिक रकम पर जो परिवार के आकार के अनुसार अलग-अलग होंगे, किए गए सारे खर्च पर लगाया जाएगा। कर की दर एक खंड -प्रणाली पर आधारित होगी और प्रत्येक खंड की दर व्यय के स्तर में वृद्धि के साथ क्रमशः बढ़ती जाएगी। इस प्रकार 10,000 रुपये के अतिरिक्त खर्च पर यह दर 10 प्रतिशत होगी। सरकार का युक्तिक्रम यह है कि जब एक व्यक्ति अपने रहन- सहन पर अधिक व्यय कर सकता है, तो उसे कुछ रुपया सरकार को देने में ऐतराज नहीं करना चाहिए। फिर यह कर बहुत कम लोगों पर लगेगा। देश की साधारण जनता पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा।
अभी पिछले तीन करों के संबंध में निश्चित रूप से कोई सम्मति नहीं दी जा सकती। इन करों के लागू होने के दो-तीन वर्ष के बाद निश्चित रूप से यह कहा जा सकेगा कि इन करों में क्या दोष हैं और क्या सुधार होने चाहिए। किंतु यह तो मानना ही चाहिए कि एक ओर यह अमीर और गरीब के भारी अंतर को कम करेंगे, दूसरी ओर इससे पूँजी निर्माण में कुछ कठिनाइयाँ अवश्य पैदा होंगी। इससे भी बड़ी बात यह है कि इन करों के वसूल करने में जनता को बहुत असुविधाएँ होंगी। देखना यह है कि देश की अर्थ- व्यवस्था पर इन करों का क्या प्रभाव पड़ता है।