एक बार समर्थ गुरु रामदास जी घर के द्वार पर खड़े होकर ‘जय-जय श्री रघुवीर समर्थ’ का उद्घोष किया। गृहिणी का अपने पति से कुछ देर पूर्व कुछ कहा-सुनी हुई थी, जिससे वह गुस्से में थी। बाहर आकर चिल्लाकर बोली “तुम लोगों को भीख माँगने के सिवा और कुछ दूसरा काम नहीं है? मुफ्त मिल जाता है, अतः चले आते हो जाओ, कोई दूसरा घर ढूँढो, मेरे पास अभी कुछ नहीं है।”
श्री समर्थ हँसकर बोले “माताजी ! मैं खाली हाथ किसी द्वार से वापस नहीं जाता। कुछ न कुछ तो लूँगा ही।”
वह गृहिणी उस समय चूल्हा लीप रही थी। गुस्से में आकर उसने उसी लीपने वाले कपड़े को उनकी तरफ फेंक दिया।
श्री समर्थ प्रसन्न हो वहाँ से निकले। उन्होंने उस कपड़े को पानी से साफ किया और बत्तियाँ बनाईं और उसी से प्रभु श्रीराम की आरती करने लगे। इधर ज्यों-ज्यों उन बत्तियों से आरती होती त्यों-त्यों उसका दिल पसीजने लगा। उसे उनके अपमान करने का इतना रंज हुआ कि वह विक्षिप्त हो उनको खोजने के लिए दौड़ पड़ी। अंत में वे उसे उस देवालय में मिले जिसमें वे उन बत्तियों से आरती करते थे। वहाँ पहुँचकर उसने श्री समर्थ से क्षमा माँगी और बोली ‘महात्मन् व्यर्थ ही मैंने आप सरीखे महापुरुष का निरादर किया। मुझे क्षमा करें।
श्री समर्थ बोले “माता ! तुमने उचित ही भिक्षा दी थी। तुम्हारी भिक्षा के प्रताप से ही यह देवालय प्रज्ज्वलित हो उठा है। तुम्हारा दिया हुआ भोजन तो जल्द ही खत्म हो जाता।”