Prerak Prasang

मन की परीक्षा

Shivaji and his guru short story

एक बार श्री समर्थ रामदास जी सतारा जाने के कम में बीच में देहेगाँव में रुके। साथ में उनके शिष्य दत्तूबुवा भी थे श्री समर्थ को उस समय भूख लगी। दत्तूबुवा ने कहा “आप यहीं बैठे, मैं कुछ खाने की व्यवस्था कर लाता हूँ। रास्ते में उन्होंने सोचा कि लौटने में देर हो सकती है, इसलिए क्यों न पास के खेत में लगे कुछ भुट्टे को ही उखाड़ लूँ। उन्होंने खेत में से चार भुट्टों को ही उखाड़ लिया। जब उन्होंने भुट्टों को भूँजना शुरु किया तो धुँआ निकलते देख खेत का मालिक वहाँ आ पहुँचा। भुट्टे चुराये देख उसे गुस्सा आया और उसने हाथ के डंडे से रामदास को मारना शुरू किया। दत्तूबुवा ने उसे रोकने की कोशिश की पर श्री समर्थ ने उसे वैसा करने से इंकार कर दिया। दत्तूबुवा को पश्चात्ताप हुआ कि उनके कारण ही श्री समर्थ को मार खानी पड़ी।

दूसरे दिन वे लोग सतारा पहुँचे। श्री समर्थ के माथे पर बँधी पट्टी को देखकर शिवाजी ने उनसे इस संबंध में पूछा तो उन्होंने उस खेत के मालिक को बुलवाने को कहा। खेत का मालिक वहाँ उपस्थित हुआ। उसे जब मालूम हुआ कि जिसे उसने कल मारा या वे तो शिवाजी के गुरु है तब उसके तो होश ही उड़ गए। शिवाजी श्री समर्थ से बोले –

“महाराज! बताएँ, इसे कौन-सा दण्ड हूँ।” खेत का मालिक स्वामी के चरणों में गिर पड़ा और उसने उनसे क्षमा माँगी। श्री समर्थ बोले “शिवा, इसने कोई गलत काम नहीं किया है। इसने एक तरह से हमारे मन की परीक्षा ही ली है। इसके मारने से मुझे यह तो पता चल गया कि कहीं मुझे यह अहंकार तो नहीं हो गया कि मैं एक राजा का गुरु हूँ जिससे मुझे कोई मार नहीं सकता। अतः इसे सजा के बदले कोई कीमती वस्त्र देकर इसे ससम्मान विदा करो। इसका यही दंड है।”

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