एक बार आचार्य रामानुज के गुरु गोष्ठीपूर्ण ने उनसे कहा “वत्स ! आज मैं तुम्हें एक अलौकिक मंत्र दूँगा। इस मंत्र का माहात्म्य बहुत कम लोग जानते हैं। तुम एक शक्तिमान आधार हो, यह जानकर ही यह मंत्र मैंने तुम्हें दिया है। मंत्र – चैतन्य के साथ जो कोई इसे ग्रहण करेगा, वह बैकुंठ गमन करेगा। इसलिए सच्चे अधिकारी के अलावा किसी को भी यह मंत्र न देना।”
मंत्र लेने के बाद अलौकिक आनंद से रामानुज का मन-प्राण पुलकित हो उठा। प्रगाढ़ भक्ति से गुरु के चरणों में साष्टांग प्रणाम कर वे वहाँ से विदा हुए।
वे भावावेश से आविष्ट थे। उस आनंद-धारा को दिग्दिगंतों में फैला देने के लिए व्यग्र हो रहे थे। राह चलते जिस पथिक को पाते, उसको वे आवाहन करते- “अजी, तुम सभी मेरा अनुसरण करो। आज मैंने जो अमूल्य दिव्य संपदा पाई है उसे सबमें वितरित कर मैं धन्य बनूँगा।”
लोग सोचते, कौन है यह परम कारुणिक संन्यासी जो इस तरह मुक्तहस्त सबको अमृत दान देना चाहता है? इसके मुखमंडल पर स्वर्गीय आनंद की विभा झलमल कर रही है। इसकी वाणी में इतना मोहक आकर्षण है।
सहस्र नर-नारी उस अलौकिक दिव्य भावसंपन्न महापुरुष के पीछे-पीछे तिरुकोष्ठिर के श्री विष्णु मंदिर में अग्रसर होने लगे। लोक-कल्याण की भावना से अनुप्राणित रामानुज के कंठ से उस समय उच्च स्वर में वाणी निर्गत हुई – “ओम् नमो भगवते वासुदेवाय!”
वह उत्तेजनापूर्ण संवाद अविलम्ब गोष्ठिपूर्ण के निकट जा पहुँचा। रामानुज जैसे ही गुरु के पास जाकर खड़े हुए, वे कोधोद्दीप्त हो कहने लगे- “नराधम, इसी समय तुम यहाँ से दूर हो जाओ। मै तुम्हारा मुँह नहीं देखना चाहता हूँ। मैंने तुम्हें पवित्र और निगूढ़ महामंत्र दिया था। जो उसका इस तरह असद्व्यवहार करे वह महापातकी नहीं तो और क्या है। अनंत नरक ही तुम्हारे लिए उपयुक्त स्थान है।”
गुरु के उस तीव्र तिरस्कार से रामानुज जरा भी विचलित नहीं हुए। शान्त भाव से उन्होंने कहा – “प्रभु, आपके ही श्रीमुख से सुना है कि उस महामंत्र का जो जाप करेगा उसे परमगति प्राप्त होगी। यदि मेरे समान नगण्य मनुष्य के अनंत नरक में जाने से सहस्र-सहस्र लोगों को मुक्तिलाभ हो जाए तो वह अनंत नरक ही मुझे मंजूर है। बैठवास की अपेक्षा यह मेरे लिए अधिक काम्य है।”
रामानुज के उत्तर से गोष्ठिपूर्ण चौक उठे। लोकमंगल के लिए जो महापुरुष इस निर्ममभाव से आत्मविलोप कर सके, अपनी मुक्ति संपदा को निरपेक्ष भाव से अवहेलना कर दे, उसकी पृथ्वी में किससे तुलना की जाए। गोष्ठिपूर्ण ने प्रेम से भरकर रामानुज को गले से लगा लिया और बोले ‘रामानुज, धन्य हो तुम और तुम्हारा मानव-प्रेम शिष्य होकर आज तुमने मुझे तत्त्वज्ञान सिखा दिया। जिसका हृदय इतना महान है वह तो लोकपिता है। उसमें विष्णु का अंश है, इसमें कोई संदेह नहीं। तुम्हारे जैसे परम भागवत की उपस्थिति से नरक भी बैकुंठ बन जाएगा।