Prerak Prasang

ममत्व की जड़ें बड़ी गहरी होती हैं

raja bhartihari ki katha

राजा भर्तृहरि बारह वर्ष के बाद अपने जन्म-स्थान गए। वहाँ किसी ने उन्हें पहचाना नहीं। रात में एक दुकान के सामने बैठे रहे। ठंड के मारे रात भर दुकान के चौबारे में पड़ी अधजली लकड़ियों को जलाजलाकर तापते रहे। सबेरा हुआ। दुकानदार ने जैसे ही देखा कि लकड़ियाँ साधु ने फूँक दी हैं, उसने एक अधजली लकड़ी से उनके सिर पर प्रहार कर दिया। सिर से खून बहने लगा। भर्तृहरि बिना कुछ कहे वहाँ से जाकर एक पेड़ के नीचे बैठ गए। आते-जाते लोगों ने उन्हें पहचाना। बस क्या था, सर्वत्र हल्ला मच गया। बहुत सारे लोग जमा हो गए। राजा विक्रमादित्य भी आए। दुकानदार के तो होश उड़े हुए थे। राजा ने चोट के बारे में पूछा। उन्होंने बताया कि उस दुकानदार ने मारा है। बस क्या था, भीड़ दुकानदार को मारने दौड़ी। विक्रमादित्य अत्यंत कुद्ध हुए। भर्तृहरि बोले “उसने मारा मुझे है, अतः सज़ा भी मुझे ही देने दो।’ ‘कहिए, इसे क्या दण्ड दिया जाए?

राजा बोला “बोले ‘पाँच सौ मुहरें इनाम।”

राजा ने कहा “इतने बड़े अपराध के बदले इनाम?”

बोले “हाँ, इनाम! बारह वर्ष से राज-पाट छोड़ने के बाद इतनी साधना – तपस्या के बावजूद मेरे मन से यह भाव नहीं निकला था कि मैं कभी यहाँ का राजा था और यह या मेरा गुलाम। इसी से तो बिना पूछे मैंने इसकी लकड़ी फूँक दी। इस मेहरबान आदमी ने प्रहार करके मेरे उसी अहंकार को निकाल दिया अतः इसने मेरा बड़ा उपकार किया है।”

बताओ, उतने बड़े त्यागी लोगों को भी ममत्त्व के संस्कार नहीं छूट पाते तब सामान्य लोगों की क्या बात है?

संन्यास लेने के बाद बारह वर्ष तक अपने शरीर के संबंधियों को देखने की भी मनाही की गई है। बारह वर्ष बाद यदि पत्नी या माता बचती हो तो उनसे भिक्षा माँगने की आशा है।

देखना होता है कि उन्हें मिलकर ममता जगती है या नहीं। आत्मनिरीक्षण के लिए वैसा कहा गया है। आज तो बात ही बदल गई है। इस क्षेत्र में भी भारी गिरावट आ गई हैं। गुरु लोगों को बिना पैसे का नौकर मिलता है, अतः बिना जाने परखे जिस किसी को चेला बना लेते हैं। उसे खट् चोला भी दे देते हैं। इसीलिए तो साधुओं के प्रति लोगों में श्रद्धा नहीं रही। पहले के ऋषि लोग वर्षों तक शिष्य की पात्राता की परख करते थे तब उसे मंत्रा-दीक्षा देते थे। संन्यास की तो और भी कड़ी परीक्षा होती थी।

Leave a Comment

You cannot copy content of this page