एक बार राबिया के पास एक फकीर आया। राबिया जिस धर्मग्रंथ को पढ़ रही थी उसमें से उसने एक पंक्ति को काट दिया। धर्मग्रन्थों को कोई काटता नहीं। उस फकीर ने वह किताब पढ़ी। पढ़ने के बाद उसने राबिया से कहा, “किसने तुम्हारे धर्मग्रंथ को नष्ट कर दिया? देखो, इसमें एक लाइन कटी हुई है। यह किसने काटी है?”
राबिया ने कहा, “मैंने ही काटी है।” बात यह थी कि उस पंक्ति में लिखा हुआ था कि शैतान से घृणा करो। जब से मैंने इस पंक्ति को पढ़ा है, मैं मुश्किल में पड़ गई हूँ। जिस दिन से मेरे मन में परमात्मा के प्रति प्रेम जगा है उस दिन से मेरे भीतर से घृणा विलीन हो गई।
मैं अगर चाहूँ तो भी किसी से घृणा नहीं कर सकती। अगर शैतान भी मेरे सामने खड़ा हो जाए तो भी मैं उसे प्रेम ही कर सकती हूँ। मेरे पास कोई उपाय नहीं रह गया है; क्योंकि मैं आपको घृणा करूँ, इसके पहले मेरे पास घृणा होनी चाहिए। नहीं तो मैं करूँगी कहाँ से और कैसे? एक ही हृदय में प्रेम और घृणा एक साथ कैसे ठहर सकते हैं जिसका हृदय प्रेम से भर चुका है वह सिर्फ प्रेम देना जानता है। उसे यह नहीं दिखाई पड़ता कि कौन उसे प्रेम करता है और कौन घृणा। प्रेम करना उसका स्वभाव बन जाता है। उसके लिए प्रेम करना ही आनंद है। जब हृदय प्रेम से भर जाएगा तब वह घृणा करने में असमर्थ हो जाएगा।