वर्षा ऋतु का आगमन निकट देखकर एक दिन महर्षि कणाद ने सोचा कि होम कार्य और रसोईघर के लिए अभी से समिधा और सूखा ईंधन एकत्र कर लेना चाहिए। वे शिष्यों को लेकर वन की ओर निकल पड़े। सबके हाथों में कुल्हाड़ियाँ और रस्सियाँ थीं।
संध्या होते-होते समिधा और ईंधन का ढेर लग गया और उसे विशाल गट्ठरों में बाँधकर, कंधों पर लादकर वे लोग आश्रम पहुँच गए।
अगले दिन सर्व शिष्य नित्य की भाँति स्नान के लिए नदी की ओर चले। राह में वही जंगल पड़ता था, जहाँ उन्होंने कल परिश्रमपूर्वक लकड़ियाँ इकट्ठी की थीं। सभी ने ऐसा अनुभव किया कि जो जंगल कल बिलकुल सूखा था, वह सहसा मधुर गंध वाले सहस्रों फूलों से महक उठा है। महर्षि ने साश्चर्य कहा-“सूखी लकड़ियों के इस जंगल में यह सुगंध कैसी?” शिष्यों ने आसपास जाकर देखा। पता चला कि पिछले दिन परिश्रमपूर्वक ईंधन इकट्ठा करते समय जहाँ-जहाँ उनके स्वेद-बिंदु गिरे थे, वहाँ-वहाँ मधुर सौरभ वाले सुंदर शुभ्र सुमन खिल उठे थे।