किशोरलाल मशरूवाला गांधीजी से कहते थे – “मैं आपका अनुयायी नहीं हूँ, आपके साथ-साथ चलने का प्रयत्न करता हूँ। आपने जिस सत्य को पहचाना है, लोगों को समझाते हैं, उसे समझने की मैं भी कोशिश करता हूँ। क्योंकि मैं भी सत्य की शोध में निकला हूँ।”
पर उन्होंने ऐसा क्यों कहा? क्या गांधीजी के पीछे चलने में उन्हें अपमान अनुभव होता था? परंतु ऐसी बात नहीं थी। उनका आशय यह था कि अनुयायी बनकर पीछे-पीछे चलने से वे स्वतंत्र चिंतन न कर सकेंगे। भगवान बुद्ध हमेशा अपने शिष्यों से कहा करते थे – “कोई बात मैं कहता हूँ – इसीलिए तुम उसे स्वीकार लो, ऐसा नहीं होना चाहिए। जो बात तुम्हें सच्ची लगती हो, उसे ही स्वीकारना।”
वस्तुतः किसी महापुरुष के पीछे-पीछे बिना समझे-बूझे चलने के बजाय उसके साथ-साथ चलना चाहिए। पीछे-पीछे चलने के कारण हम उस महापुरुष की पीठ भर देख पाएँगे, मुँह नहीं, जिससे उसके चले जाने के बाद गलत दिशा की ओर मुड़ जाने का खतरा हमेशा बना रहेगा।
साथ-साथ चलने से उसके जाने के बाद हम अपने को असहाय या अपंग अनुभव नहीं करेंगे; क्योंकि उसका सत्य हमारा भी सत्य बन चुका होगा।