एक दिन गांधीजी ने यरवदा जेल में अपने एक साथी से कहा- आज रात मुझे बड़ी देर तक नींद नहीं आई। में सोने के लिए गया, तो कमरे की पिछली ओर की जाली से कुछ अवाज आ रही थी। मुड़कर देखा, तो साँप का जैसा सिर दिखाई पड़ा।”
“वार्डर बाहर सो रहा था उसे बुलाना था!”
“सो तो ठीक था, पर उसे बुलाने का मतलब था कि वह दूसरों को बुला लाता और वे सभी मिलकर साँप को मार डालते। इसलिए मैंने सोचा कि साँप को काटना ही हो, तो अन्दर आकर मुझे भले ही काट ले, लेकिन वार्डर को बुलाना ठीक नहीं। लेकिन बाद में विचार करने लगा कि अन्दर आकर मुझे काटने पर मेरा जो कुछ होना होगा, सो तो होगा ही, पर यदि वह जहरीला होगा और बाहर जाकर बार्डर को भी काट लेगा, तो उन बेचारे की मृत्यु हो जाएगी। मैं विचार में पड़ गया कि इस समय मेरा क्या कर्तव्य है। मेरे मन में यह मंथन चल रहा था कि आकाश में चंद्रमा कुछ ऊपर चढ़ा और जाली में प्रकाश पड़ने लगा। देखा, तो वह साँप का नहीं कछुए का सिर था। तब गुझे नींद आई।”
साथी ने कहा कि साँप जैसे जहरीले प्राणी को मार डालने में क्या बुराई है?
गांधीजी ने श्रीमद रामचंद्र के कथन का उल्लेख किया और कहा कि उन्होंने बताया है कि जिस प्रकार हमें अपनी जान प्यारी है, उसी प्रकार इन प्राणियों को भी अपनी जान प्यारी है। इसलिए, सच्ची अहिंसा का अर्थ है कि भले हमें जो होना हो सो हो, पर हम उनकी जान न लें।