बात सन् 1936 की है। कविवर रवीन्द्रनाथ का स्वास्थ्य ठीक नहीं था और डॉक्टरों ने उन्हें पूर्ण आराम करने की सलाह दी थी; फिर भी कविवर अपना कार्य प्रतिदिन के नियमानुसार करते जाते थे। अंत में, शांतिनिकेतन के कुछ लोगों ने बापू को तार देकर बुलाया। गांधीजी तुरंत चले आए ओर गुरुदेव से मिलते ही बोले, “गुरुदेव, मुके एक भिक्षा दीजिए।”
रवीन्द्र बोले – “जो स्वयं भिखारी हो, वह क्या भीख दे?”
पर गांधीजी अपनी बात के पक्के थे। उन्होंने उनसे वचन ले लिया और तब कहा – “भोजनोपरांत एक घंटे तक आपको पूर्ण आराम लेना होगा।”
रवीन्द्रनाथ को अपनी शर्त के अनुसार यह बात माननी पड़ी।
कुछ दिन बाद, प्राचार्य क्षितिमोहन सेन भोजन के बाद ही, रवीन्द्रनाथ से मिलने आए पर वे तो सारे दरवाजे बंद करके भीतर कमरे में बैठे थे। दरवाजे की दरार से आ रहे प्रकाश में होने वाली हलचल से रवीन्द्रनाथ आगंतुक को पहचान गए और पूछा, “ठाकुर दादा है क्या?”
“हाँ, पर आप अन्दर क्या कर रहे हैं?”
रवीन्द्रनाथ ने उत्तर दिया- गांधीजी को भिक्षा दे रहा हूँ !”