आज सवेरे मैंने एक बच्चे को लट्टू से खेलते देखा। लट्टू कुछ देर तक गोल-गोल घूमता रहा और फिर गिर गया, जैसे मर चुका हो। मैं अपने आपसे बोला- “क्या आदमी का जीवन लट्टू जैसा ही नहीं है? जिसे हम क्रियाशीलता या काम कहते हैं, क्या प्रायः वह गोल-गोल घूमने जैसा नहीं है, जो हमें कहीं भी नहीं पहुँचाता ! हमारे चारों ओर बेचैनी है— व्यक्तियों के जीवन में भी राष्ट्रों के जीवन में भी। वर्षों की कठोर क्रियाशीलता के पश्चात् एक दिन जैसे निरभ्र आकाश से वज्र गिरा हो, इस तरह मृत्यु का बुलावा या पहुँचता है और आँखों में आँसू और हृदय में भय लिए हम अज्ञात दूर देश को रवाना हो जाते हैं। सो मुझे चेत जाना है और तुरंत तैयारी शुरू कर देनी है— अपने घर जाने की तैयारी शुरू कर देनी है। मेरा घर मुझे बुला रहा है।”