15वीं और16 वीं शताब्दी में वैष्णव धर्म का प्रचार भारत में बड़े जोर के साथ हुआ और उस समय के प्रचारकों में श्री वल्लभाचार्य का नाम विशेष उल्लेखनीय है। यह वेद शास्त्र में पारंगत और धुरंधर विद्वान थे। शंकराचार्य के मायावाद ने भक्ति को जिस अविद्या की कोटि में रख दिया था और इसी से रामानुजाचार्य से लेकर वल्लभाचार्य तक सब अपने को उसी से मुक्त करना चाहते थे। वल्लभाचार्य ने ब्रह्म में शंकराचार्य के मतानुसार न केवल निर्गुण सत्ता को ही माना वरन् सर्वगुण और धर्मों का समावेश उसमें किया और सारी सृष्टि को उन्होंने लीला के लिए ब्रह्म की आत्मकृति कहा। आपने माना कि श्रीकृष्ण जो परब्रह्म हैं, जो सब दिव्य गुणों से युक्त होकर ‘पुरुषोत्तम’ बने हैं, उन्हीं में सत्चित् और आनंद का समन्वय है। “कृष्ण अपने भक्तों के लिए ‘व्यापी’ बैकुंठ में (जो विष्णु के बैकुंठ से ऊपर है।) अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ करते रहते हैं। ‘गोकुल’ इसी व्यापी बैकुंठ का एक खंड है जिसमें नित्य रूप में यमुना, वृंदावन, निकुंज इत्यादि हैं। भगवान की इस ‘नित्य लीला-सृष्टि’ में प्रवेश करना ही जीव की सबसे उत्तम गति है।”
-रामचंद्र शुक्ल
रामानंद की भाँति श्री वल्लभाचार्य ने भी देशाटन करके अपने मत का प्रचार किया, परंतु हिंदी-साहित्य में वैष्णव संप्रदाय के इस पुष्टि मार्ग को सफलतापूर्वक लाने का श्रेय सूरदास को ही प्राप्त है। ‘चौरासी वैष्णवों की वार्ता’ के अनुसार संवत् 1580 के आस-पास सूरदास जी गऊघाट पर श्री वल्लभाचार्य के शिष्य बने और तभी उन्होंने सूरदास को अपने श्रीनाथ मंदिर की कीर्तन सेवा सौंपी। श्री वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलदास ने इस धारा के कवियों का संगठन करके ‘अष्टछाप’ की प्रतिष्ठा की। अष्टछाप में आठ कवि थे- सूरदास, कुंभनदास, परमानंददास, कृष्णदास, छीतस्वामी, गोविंदस्वामी, चतुर्भुजदास और नंददास। कविवर सूरदास इस धारा के सबसे प्रसिद्ध कवि हैं जिन्होंने सूरसागर, सूर सरावली, साहित्य-लहरी इत्यादि कई ग्रंथ लिखे। कविवर सूरदास के बाद नंददास का नाम आता है।
कृष्ण-भक्ति शाखा के कवियों ने रामभक्ति शाखा के सिद्धांतों के सर्वथा विपरीत लोकरंजन की भावना को भुलाकर कृष्ण की प्रेममयी मूर्ति के आधार पर ही प्रेम-तत्त्व का विस्तार के साथ वर्णन किया है। प्रेमोन्मत्त गोपिकाओं से घिरे हुए कृष्ण का आनंदमय स्वरूप ही अष्टछाप के कवियों ने पाया है। इन कवियों ने अनंत सौंदर्य और हास-विलास के समुद्र में ही गोते लगाए हैं, प्रजा-रक्षक और प्रजा पालक कृष्ण के रूप का निरूपण नहीं किया। यह कृष्ण-भक्त कवि अपने रंग में मस्त रहने वाले प्रेमी जीव थे। संसार से मुक्त, तुलसीदास के समान लोक का इन्हें कोई ध्यान नहीं था। इन्हें यह भी ध्यान नहीं था कि समाज किधर जाएगा? यह तो अपने भगवद् प्रेम में मस्त थे और उसकी भगवद्प्रेम भक्ति के लिए शृंगारिक कविता द्वारा रसोन्मत्त कर देना चाहते थे। यही कारण है कि जिस राधा और कृष्ण को इन विशुद्ध भक्त कवियों ने अपनी कृष्ण-भक्ति का साधन बनाया वहीं राधा और कृष्ण रीतिकालीन कवियों के लिए केवल नायक और नायिका के रूप में रह गए।
राधा-कृष्ण के चरित्रों के गान ने जो गीत-काव्य की परंपरा जयदेव और विद्यापति ने चलाई थी वहीं अष्टछाप के कवियों ने भी अपनायी। इस प्रकार इस भक्ति और शृंगार के क्षेत्र में मुक्तक पदों का ही प्रचार हुआ, प्रबंध की ओर कवियों का ध्यान नहीं गया। इस धारा के कवि इतनी स्वछंद प्रकृति के थे कि वह प्रबंध-काव्य के झमेले में पड़कर अपने को बंधन में बाँधना भी पसंद नहीं करते थे। बहुत बाद में संवत् 1909 में ब्रजवासीदास ने दोहा-चौपाई में एक ग्रंथ मानस की तरह लिखा भी परंतु वह साहित्य में विशेष स्थान नहीं पा सका। कवि स्वछंदता के अतिरिक्त प्रबंध-काव्य न लिखा जाने का दूसरा प्रधान कारण यह भी था कि कृष्ण भगवान के चरित्र का जितना अंश इन कवियों ने अपनी कविताओं में चित्रित किया है, वह अच्छे प्रबंध काव्य के लिए पर्याप्त भी नहीं था। मानव जीवन की अनेकरूपता का समावेश उसमें नहीं हो सकता था। कृष्ण-भक्ति शाखा के कवियों ने अपने काव्य में केवल कृष्ण की बाल लीला और यौवन लीलाओं को ही लिया है परंतु इसमें संदेह नहीं कि इन कवियों ने वात्सल्य और शृंगार रस के वर्णनों को पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया।
सूरदास जी ने श्रीमद्भागवत की कथा को गाया है। सूर-सागर में भागवत के दशम स्कंध की कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन है। उसमें कृष्ण जन्म से लेकर मथुरा जाने तक का वर्णन है। कृष्ण की भिन्न-भिन्न लीलाओं पर अनेकों सुंदर पद लिखे हैं। कवि ने सरल ब्रजभाषा का बहुत सरसता के साथ प्रयोग किया है। “जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले कवियों में गोस्वामी तुलसी दास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार कृष्ण चरित् का गान करने वाले भक्त कवियों में भक्त सूरदास का। वास्तव में यह हिंदी काव्य-गगन के सूर्य और चंद्र हैं। हिंदी काव्य इन्हीं के प्रभाव से अमर हुआ और इन्हीं की सरसता से उसका स्रोत सूखने न पाया।”
-रामचंद्र शुक्ल।
वात्सल्य के ही समान शृंगार, संयोग तथा वियोग दोनों पक्षों पर इस धारा के कवियों ने अनूठी कविताएँ की हैं। जब तक कृष्ण गोकुल में रहते हैं उस समय तक तमाम जीवन संयोग पक्ष में रहता है और मथुरा चले जाने पर वियोग-पक्ष प्रारंभ हो जाता है। दान-लीला, माखन-लीला, चीरहरण लीला, राम-लीला इत्यादि पर सहस्रों सुंदर पद इस धारा के कवियों ने लिखे हैं। शृंगार-वर्णन में भाव और विभाव पक्ष दोनों का ही विस्तृत और अनूठा वर्णन कवियों ने किया है। राधाकृष्ण के रूप वर्णन का तो कुछ ठिकाना ही नहीं। कवियों ने काव्य-सुलभ सभी उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक और अतिशयोक्तियों को समाप्त कर दिया है। प्रकृति-चित्रण भी कवियों ने किया है परंतु वह स्वतंत्र रूप से नहीं आ पाया है। कालिंदीकूल पर शरत चाँदनी का सजीव चित्रण मिलता है। कुँज वन का भी अच्छा वर्णन किया गया है। वियोग पक्ष में सूर और नंददास के भ्रमरगीत काव्य-क्षेत्र में अपनी विशेषता रखते हैं।
अष्टछाप के कवियों के अतिरिक्त कृष्ण भक्ति शाखा में अन्य कई उल्लेखनीय कवि आते हैं जिनका उल्लेख करना यहाँ परमावश्यक है। हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, सूरदास, मनमोहन, श्री भट्ट, व्यास जी, रसखान इत्यादि का इनमें विशेष स्थान है। मीरा और रसखान की सरसता सूर के अतिरिक्त अन्य विषयों में नहीं पाई जाती। इस प्रकार कृष्ण-भक्ति शाखा के कवियों ने अपनी अमूल्य रचनाओं द्वारा हिंदी साहित्य के भंडार को भरा है।