संवत् 1073 के आस-पास स्वामी रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैतवाद का वह रूप जनता के सम्मुख रखा जिसके अनुसार चिदचिद्विष्ट ब्रह्म के ही अंश जगत् के सब प्राणी हैं और यह सब उसी में लय हो जाते हैं। इसलिए इन जीवों को अपने उद्धार के लिए नारायण की भक्ति करनी चाहिए। इस सिद्धांत के आधार पर रामानुजाचार्य ने श्री संप्रदाय की स्थापना की, जिसने देश में फैलकर नारायण की उपासना और भक्ति का प्रचार किया। इनके पश्चात् इस वैष्णव श्री संप्रदाय में प्रधान आचार्य श्री राघवानंद जी हुए और फिर उन्होंने रामानंद जी को दीक्षा दी। भक्तमाल के अनुसार रामानंद जी के बारह शिष्य कहे गए हैं-सनतानंद, सुखानंद, सुरसुरानंद, नरहर्यानंद भवानंद, पीपा, कबीर, सेन, घना, रैदास, पद्मावती और सुरी। इन सभी ने राम नाम की महिमा गाई है।
हिंदी साहित्य में निर्गुण धारा के साथ-साथ 15वीं शताब्दी के अंत से लेकर 17वीं शताब्दी के अंत तक सगुण भक्ति शाखा तथा कृष्ण भक्ति शाखा दोनों ही आती हैं। यहाँ हम केवल राम भक्ति शाखा पर ही प्रकाश डालेंगे, परंतु इनके राम में और वैष्णव संप्रदाय के राम में सर्वदा अंतर रहा है। कबीर इत्यादि ने जिस मत का प्रतिपादन किया है वह निर्गुण ब्रह्म की उपासना है।
यह सत्य है कि श्री रामानंद जी की शिष्य परंपरा द्वारा भक्ति की देश में पुष्टि होती चली आ रही थी और भक्तों ने अपनी छोटी-मोटी कविताओं द्वारा सरसता के साथ राम-नाम को देशवासियों के हृदय में उतारने का प्रयत्न किया था और बहुत कुछ अंशों में वह उसमें सफल भी हुए थे, परंतु हिंदी-साहित्य के क्षेत्र में राम महिमा का सजीव गान करने वाला सर्वप्रथम सफल कवि तुलसी ही हुआ है। 17वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में गोस्वामी तुलसीदास जी की प्रतिभा हिंदी भाषा में प्रस्फुटित हुई। अपनी सर्वमुखी प्रतिभा तथा कलाओं के साथ कवि ने भारत में अपने इष्टदेव राम को लेकर जनता के हृदयों पर सिंहासन जमाया। कवि की कविता का चमत्कार अब अपने पूर्ण ओज और माधुर्य के साथ भक्तों के प्राणों में समा गया। “राम भक्ति का परम विषद् साहित्यिक संदर्भ भक्तशिरोमणि कविवर तुलसीदास द्वारा ही संघटित हुआ, जिससे हिंदी काव्य की प्रौढ़ता के युग का आरंभ हुआ।”
-आचार्य रामचंद्र शुक्ल
गोस्वामी तुलसीदास ने राम-भक्ति का जो स्वरूप जनता के सम्मुख रखा उसकी सबसे बड़ी विशेषता इसकी सर्वाङ्ग पूर्णता है। जीवन के सभी पक्षों पर कवि ने पूरी सहृदयता के साथ प्रकाश डाला है, कवि का न कर्म तथा धर्म से विरोध है और न ज्ञान से तीनों ही विचारावलियों में आपने सामंजस्य स्थापित किया है और यही कारण है कि तुलसी का राम सबके हृदय का राम बन सका। तुलसी की भक्ति में कर्म और धर्म दोनों की रसानुभूति है। योग का भी सर्वथा लोप उसमें नहीं मिलता परंतु केवल इतना जितना ध्यान को एकाग्र करने के लिए आवश्यक है।
हिंदी-साहित्य में जिस राम भक्ति धारा को कवि ने प्रवाहित किया है उसमें सब धर्मों के लिए समान स्थान है, विरोध किसी का भी नहीं मिलता। अपनी सामंजस्य प्रवृत्ति द्वारा कवि ने शैवों और वैष्णवों के बीच बढ़ते हुए विद्वेष को रोका। कवि ने एक तरफ़ लोक-धर्म और भक्ति भावना का मेल कराया है तो दूसरी ओर कर्म, ज्ञान और उपासना में सामंजस्य स्थापित किया है। भक्ति को चरम सीमा तक पहुँचाने पर भी कवि ने लोक को सर्वथा छोड़ा नहीं है। लोक-संग्रह तुलसीदास की भक्ति का प्रधान गुण है। यह लोक संग्रह की भावना न तो कृष्ण-भक्ति शाखा के हो अंतर्गत मिलती है और न प्रेम और ज्ञान मार्गियों के अंदर ही। कवि केवल उपास्य तथा उपासक ही सीमित नहीं रह गया है वरन् उसने लोक व्यापक अनेक समस्याओं पर भी ध्यान दिया है और अपने काव्य को सब प्रकार से कल्याणकारी बनाने का प्रयत्न किया है। यही कारण है कि राम भक्ति शाखा की वाणी अन्य संप्रदायों की अपेक्षा अधिक मंगलकारिणी होने से भारत की जनता में सबसे ऊँचा स्थान बना सकी है। भारतीय जनता कृष्ण उपासना भी कम नहीं करती परंतु जो सम्मान रामचरितमानस को प्राप्त हुआ है वह सूर-सागर को प्राप्त नहीं हो सका।
इस शाखा के प्रधान कवि तुलसीदास हैं और इनके अतिरिक्त हृदयराम इत्यादि भी हुए हैं। इस धारा में हमें अधिक कवि नहीं मिलते। इसका कारण स्पष्ट ही है कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस साहित्य में जिस परंपरा को अपनाया है उसमें कवि के लिए उतनी स्वछंदता नहीं है जितनी कृष्ण-भक्ति-शाखा में है। कवि को परिमार्जित क्षेत्र में ही रचना करनी होती है और उसकी कल्पनाओं को उड़ान लेने में कठिनाई होने के कारण रचना करने का साहस अन्य कवि नहीं कर पाते।
यों राम साहित्य पर लेखनी उठाने वाले दो अन्य कवियों को भुलाया नहीं जा सकता, क्योंकि साहित्यिक दृष्टिकोण से उनके ग्रंथ भी अपनी-अपनी विशेषता रखते हैं। इनमें पहला कवि केशवदास है जिसने ‘रामचंद्रिका’ लिखी। राम-चंद्रिका पृथक्-पृथक् लिखे हुए पदों का संग्रह-सा जान पड़ता है और उसमें कथा-प्रवाह का अभाव है। यह ग्रंथ जनता में प्रसिद्धि नहीं पा सकता, क्योंकि इसे समझना साधारण पाठक के लिए कठिन है। राम-विषयक होते हुए भी यह ग्रंथ राम भक्ति से सम्बन्धित है ऐसा नहीं जान पड़ता। दूसरा प्रसिद्ध ग्रंथ ‘साकेत’ है जिसे वर्तमान युग के प्रख्यात कवि श्री मैथिलीशरण जी ने लिखा है। इस ग्रंथ में भी मानस का गाम्भीर्य नहीं आ पाया और इसके पठन-पाठन का क्षेत्र भी स्कूल के विद्यार्थियों से आगे नहीं बढ़ सका।
राम-भक्ति शाखा का प्रभाव हिंदी साहित्य में सभी दिशाओं में हुआ है। राम साहित्य न तो किसी शैली विशेष तक ही सीमित रहा और न किसी छंद अथवा काव्य विशेष तक ही। प्रायः समय की सभी प्राचीन शैलियों में इस साहित्य का सृजन हुआ है। वीरगाथा-काल की छप्पय पद्धति, विद्यापति और सूरदास की गीत-पद्धति, गंग आदि भाटों की कविता या सवैया-पद्धति, कबीरदास की दोहा-पद्धति, चौपाई पद्धति सभी का प्रयोग राम साहित्य में प्रचुरता के साथ मिलता है। काव्य-क्षेत्र में मुक्तक और प्रबंध सभी प्रकार के ग्रंथ लिखे गए हैं और रामचरितमानस हिंदी साहित्य का सर्वोत्तम ग्रंथ आज तक माना जाता है। राम भक्त कवियों ने अपनी रचनाओं में नौ के नौ रसों का प्रयोग सरसता से किया है और प्रायः सभी प्रकार के अलंकार भी इनकी रचनाओं में खोजने से मिल जाएँगे। इस प्रकार हर तरह से राम-भक्ति शाखा ने हिंदी-साहित्य के भंडार की पूर्ति की है और हिंदी साहित्य को इस भक्ति-धारा का महान् ऋणी होना चाहिए।