साहित्य में प्रकृति का प्रधान स्थान है। प्रकृति में सौंदर्य है और सौंदर्य साहित्य का प्रधान गुण है, इसलिए साहित्य में सौंदर्य लाने के लिए प्रकृति-चित्रण अत्यंत आवश्यक है। साहित्यकारों ने प्रकृति का चित्रण स्वतंत्र रूप से और मानव जीवन के साथ-साथ दोनों प्रकार से किया है। मानव जीवन प्रकृति से प्रभावित होकर कवि का वर्ण्य विषय बनता है। वह स्थान-स्थान पर उससे प्रभावित होकर अपना रूप बदलता है और कवि उसका अपनी पैनी दृष्टि द्वारा निरीक्षण करके सुंदर साहित्य का सृजन करता है।
भारत के सुंदर-सुंदर प्रकृति खंडों ने आदिकवि वाल्मीकि और महाकवि कालिदास के काव्यों को रमणीयता प्रदान की। प्रकृति के अनेकों सुंदर संश्लिष्ट चित्र इन कवियों ने अपने काव्यों में प्रस्तुत किए हैं। परंतु यह प्रयोग हिंदी साहित्य-काल तक नहीं चल सका। कवियों ने संश्लिष्ट दृश्यखंड उपस्थित करना छोड़कर प्रकृति को केवल उपमा उत्प्रेक्षा इत्यादि के लिए ही प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया। ऋतु-वर्णन केवल उद्दीपन की सामग्री बन गया। कालिदास ने सर्वप्रथम ऋतुसंहार मे छह ऋतुओं का चित्रण किया है।
दुर्भाग्यवश हिंदी का जन्म उस समय हुआ जब संस्कृत और हिंदी साहित्य पतन की ओर अग्रसर थे। प्रकृति का स्वतंत्र चित्रण संत-साहित्य में नहीं मिलता। केवल अपनी अंतर-साधना को प्रकट करने के लिए उन्होंने प्रकृति का आश्रय अवश्य लिया है। साधक स्वयं ब्रह्मांड है बौर उसके अंदर प्रकृति की विविध लीलाएँ होती हैं। कबीर और दादू के साहित्य में वर्षा, फाग, वसंत इत्यादि के चित्रण हैं अवश्य, परंतु आध्यात्मिक तत्त्वों के निरूपण मात्र के लिए। जायसी ने काव्य में स्वतंत्र तथा मानव प्रवृत्तियों के साथ दोनों रूप से प्रकृति का चित्रण किया है। जायसी का प्रकृति-चित्रण कबीर और दादू की अपेक्षा अधिक सफल तथा कलापूर्ण है। उसमें कवि हृदय की सुंदर झाँकी मिलती है।
भक्ति-साहित्य में प्रकृति का स्थान बहुत गौण है। भावों के उद्दीपन उपमान प्रस्तुत करने के लिए कवियों ने प्रकृति का आश्रय लिया है। पुराणों में वर्षा और शरद वर्णन की शैली पाई जाती है। तुलसी ने अपने मानस में भी उसी शैली का कुछ परिवर्तित रूप में अनुसरण किया है। कृष्ण-साहित्य में प्रकृति केवल शृंगार में उद्दीपन-स्वरूप आई है। नायिका अभिसार प्रथम है और प्रकृति बाद में। रीतिकाल में भी कवियों ने प्रकृति के स्वतंत्र अस्तित्व को नहीं पहचाना और पहचानते भी किस तरह, उन्हें तो अपनी नायिकाओं के ही गिनने से अवकाश नहीं था। ‘षडऋतु वर्णन’ में प्रकृति के दर्शन होते अवश्य हैं प्ररंतु प्रधानता वहाँ नायिका की ही रहती है। यह षडऋतु वर्णन की प्रथा हिंदी-साहित्य में वीरगाथा-कार्य से मिलती है। बीसलदेव रासो, पद्मावत और फिर रीति-काल में तो इस पर ग्रंथ के ग्रंथ लिखे गए।
रीति-काल में आकर तो ऐसा लगता है कि मानो विधाता ने समस्त सृष्टि का सृजन ही नारी के उपमानों के लिए किया हो। प्रकृति का अस्तित्व रीतिकालीन कवियों के लिए नारी तक सीमित था। संक्षेप में इस काल तक प्रकृति का चित्रण मिलता है उपमान के रूप में, रीति भाव उद्दीपन स्वरूप और कहीं-कहीं पर कुछ साधारण चित्रण। श्लिष्ट चित्रण केवल तुलसी और जायसी ने ही दिए हैं अन्य किसी कवि ने नहीं दिए। प्रकृति के कुछ स्वतंत्र चित्रण वीर-काव्यों में भी मिलते हैं; परंतु उनमें वह सौंदर्य और सजीवता नहीं है। संस्कृत साहित्य में प्रकृति के जो उपमान लगा लिए गए वह अब हमारे व्यावहारिक जीवन से निकल चुके हैं और उनका नया रूप साहित्य में कवियों ने प्रस्तुत कर दिया है। यही कारण है कि आज साहित्य में प्रयोग करने पर भी पाठक पर उनका उतना प्रभाव नहीं पड़ता।
साहित्य की प्रगतियाँ बदलती रहती है। वर्तमान साहित्य संस्कृत-साहित्य की देन कहलाने पर भी सब प्रकार से स्वतंत्र है और उसने स्वतंत्रतापूर्वक ही अपना निर्माण किया है। प्रकृति का जो चित्र संस्कृत कवियों के सम्मुख था, जब भारत में एक छोर से दूसरे छोर तक घने वन और जंगल थे, वह आज के कवियों के सम्मुख होना असंभव है, जब स्थान-स्थान पर कल-पुर्जों की नवीनता से भारत का वातावरण आच्छादित हो चुका है। वास्तविक कवि जिसके अंदर वास्तव में कवि का दृष्टिकोण है, संसार को केवल प्राचीन पुस्तकों के संकीर्ण शीशे में नहीं देख सकता। वह प्रकृति को अपनी आँखों से देखता है और उसका प्रतिबिंब उसके साहित्य पर पड़ता है। मानव ने जड़ पर चेतन को प्रधानता दी है तो साहित्य भी उसे ठुकराकर केवल प्रकृति के अंदर ही उलझा हुआ नहीं रह सकता। आज के कवि के लिए मानव प्रधान है और बाद वह सभी वस्तु आती हैं जिनका मानव पर प्रभाव पड़ता है अथवा मानव से जो प्रभावित होती हैं।
हिंदी-साहित्य में अध्यात्मवाद की प्रधानता रही है और इस अध्यात्मवाद में प्रकृति गौण रूप से आकर भी परब्रह्म की श्रेष्ठतम सृष्टि होने के कारण कवियों का प्रधान विषय रही है। रहस्यवाद, प्रेम-मार्गों, सूफी-धारा, राम और कृष्ण-भक्ति, रीतिकाल, छायावाद और यहाँ तक कि प्रगतिवाद में भी प्रकृति को भुलाकर चलना कवि के लिए असंभव हो गया है। यदि प्रकृति को माया या भ्रम भी मान लिया जाए तब भी आध्यात्मिक साहित्य के क्षेत्र में उसका सुंदर-से सुंदर रूप कवि को प्रस्तुत करना होता है और उसमें अनुपम काव्य की सृष्टि हुई है। हिंदी का साहित्य इस प्रकार के प्रकृति-चित्रणों से भरा पड़ा है। छायावादी कवियों ने प्रकृति का सुंदरतम चित्रण किया है और उसमें अंग्रेजी रोमांस (Mysticism) बँगला-रहस्यवाद और भारतीय अद्वैतवाद की सुंदरतम झलक मिलती है। कवि ‘पंत’, ‘प्रसाद’ ‘निराला’, ‘महादेवी वर्मा इत्यादि प्रकृति के सुंदर चित्रण किए हैं। ‘गुप्त’ की पंचवटी, ‘पंत का आँसू और ‘प्रसाद’ की कायामनी में प्रकृति के हृदय स्पर्शी चित्रण हिंदी साहित्य की अमर थातियाँ हैं। आधुनिक साहित्य में संस्कृत-साहित्य की प्रणाली का अनुसरण किया गया है देखिए स्वतंत्र प्रकृति का कितना सुंदर चित्र ‘कामायनी’ में हमें देखने को मिलता है।
“उषा सुनहले तीर बरसती जय लक्ष्मी सी उदित हुई;
उधर पराजित कालरात्रि भी जल में अंतर्निहित हुई।
वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का आज लगा हँसने फिर से;
बर्षा बीती, हुआ सृष्टि में शरद विकास नए सिर से।
X X X X
प्रकृति के यौवन का शृंगार करेंगे कभी न बासी फूल,
मिलेंगे जाकर अति शीघ्र आह उत्सुक है उनकी धूल।”
इसी काल में पंडित श्रीधर पाठक ने काश्मीर-सुषमा इत्यादि कविताएँ लिखीं। आपके काव्य पर अंग्रेजी-कवि गोल्डस्मिथ का प्रभाव है। उपाध्याय जी ने भी काव्य में प्रकृति को स्थान दिया है परंतु उसमें प्रकृति का अलंकृत प्रयोग देखने को मिलता है। स्वतंत्र प्रकृति को वह अपने काव्य में नहीं अपना सके हैं। प्रकृति के सामान्य रूपों पर ही वह उलझे हुए हर जगह पाए जाते हैं। बाबू मैथिलीशरण ने ‘पंचवटी’, ‘साकेत, इत्यादि काव्यों में प्रकृति के सुंदर चित्र अंकित किए हैं। पंचवटी का एक चित्र देखिए-
“इतने में पौ फटी पूर्व में पलटा प्रकृति नटी का रंग।
किरण-कंटकों से श्यामाम्बर फटे दिवा के दमके अंग॥
कुछ-कुछ अरुण सुनहली कुछ-कुछ प्राची की अब भूसा थी।
पंचवटी का द्वार खोलकर स्वयं खड़ी वह ऊषा थी।”
सीता को प्रकृति की सुंदर ऊषा बनाकर कवि ने खड़ा कर दिया है। मानव और प्रकृति का जो घनिष्ट संबंध है उस पर ‘गुप्तजी’ की लेखनी खूब चली है। इस काल के छायावादी कवियों ने रीतिकालीन प्रकृति को एक दम उलट-फेर कर अंग्रेजी रोमांटिक कवियों की भाषा में कहा, “प्रकृति की ओर लौटो”। कीट्स, वर्ड्स्वर्थ, शैली की कविताओं की छाया हमें ‘लहर’, ‘पल्लव’ और ‘परिमल’ में मिलती है। प्रकृति का विशाल सौंदर्य देखकर ‘पंत’ आश्चर्य से भर जाता है, ‘निराला’ उसके सुंदर चित्र उपस्थित करने का प्रयास करता है और ‘प्रसाद’ तथा ‘महादेवी’ ने उनमें ‘रहस्य’ की अनुभूति पाई है। नेपाली ने भी प्रकृति के सहानुभूति पूर्ण चित्र उपस्थित किए हैं। इस काल के कवियों ने प्रकृति को अत्यंत निकट से देखा है। प्रकृति का अंग बनकर उसका निरीक्षण किया है। महादेवी के नारी हृदय में प्रकृति चित्रण में वह प्रवीणता पाई है जो मीरा के भक्ति-चित्रण में मिलती है। हमारे अधिकांश कवि शहरों के रहने वाले हैं और उन्होंने प्रकृति के रहस्य को बहुत कम देखा है। शहरी जीवन से ऊबकर उनका आकर्षण प्रकृति की ओर होना एक स्वाभाविक आकर्षण की प्रेरणा है। चित्रण स्वाभाविक करने का प्रयास वर्तमान कवियों में मिलता है और कवि सुलभ अनुभूति से उन्होंने इस साहित्य को अमरत्व प्रदान किया है।
इस युग के स्पष्ट प्रकृतिवादी कवि ‘दिनकर’, ‘गुरु भक्तसिंह’ और ‘नेपाली’ हैं जिनकी कविता में विशुद्ध प्रकृति की छाया मिलती है। गुरु भक्त सिंह की ‘नूरजहाँ’ में प्रकृति का जैसा सजीव चित्रण मिलता हैं वैसा इस काल के अन्य किसी ग्रंथ में नहीं मिलता। आज के युग ने संस्कृति काल की भाँति प्रकृति की स्वतंत्र सत्ता को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया है। प्रकृति-विलासिता का साधन अथवा अभिसार के रूप युक्त स्थान ही न होकर कविता का स्वछंद विषय बनी हैं और नगर वालों के समक्ष अपनी स्वर्णिम आभा लेकर प्रस्तुत हुई है। मानव की कोरी कल्पनाओं का अध्यात्मवाद के आदर्शों से बाहर निकल-कर उन्हें प्रकृति के असीम सौंदर्य में रहस्यवाद की वह झलक दिखाई दी जिसे पाकर कबीर जैसे संतों ने रहस्यवादी कविता लिखी और रवींद्र बाबू ने ‘गीतांजलि की रचना की। आज के प्रकृति-चित्रण में यथार्थवाद की स्पष्ट झलक है और और उसमें महान् सौंदर्य का संदेश है। भविष्य में आशा है हिंदी कविता में प्रकृति का विशेष स्थान रहेगा।