हिंदी साहित्य के इतिहासज्ञों ने रीति-काल का प्रारंभ संभवत् 1700 से माना है। हिंदी काव्य अब प्रौढ़ हो चुका था। मोहनलाल मिश्र ने शृंगार-सागर’ शृंगार संबंधी और करुणेश कवि ने ‘कर्णाभरण’ और ‘श्रुति-भूषण’ इत्यादि अलंकार संबंधी ग्रंथ लिखे। इस प्रकार रस-निरूपण होने पर केशव ने शास्त्र के सब अंगों का निरूपण शास्त्रीय पद्धति पर किया। परंतु हिंदी-साहित्य में केशव की ‘कवि-प्रिया’ के पश्चात् 50 वर्ष तक कोई अन्य ग्रंथ नहीं लिखा गया और 50 वर्ष बाद भी जो रीति-ग्रंथों की अविरल परंपरा चली वह केशव के आदर्शों से सर्वथा भिन्न एक पृथक् आदर्श को लेकर चली।
केशव काव्य में अलंकारों का प्रधान स्थान मानने वाले चमत्कारवादी कवि थे। काव्यांग निरूपण में उन्होंने हिंदी पाठकों के सम्मुख मम्मट और उद्भट के समय की धारा को रखा। उस समय रस, रीति और अलंकार तीनों के ही लिए अलंकार शब्द का प्रयोग होता था। केशव की ‘कवि-प्रिया’ में अलंकार का यही अर्थ मिलता है। केशव के 50 वर्ष पश्चात् हिंदी साहित्य में जो परंपरा चली उसमें अलंकार्य का भेद परवर्ती आचार्यों के मतानुसार माना गया और केशव की अपनाई हुई धारा को वहीं पर छोड़ दिया गया। हिंदी के अलंकार ग्रंथ ‘चन्द्रालोक’ और ‘कुवलयानंद’ के आधार पर लिखे गए और कुछ ग्रंथों में ‘काव्य-प्रकाश’ तथा ‘साहित्य दर्पण’ का भी अनुकरण किया गया। इस प्रकार संस्कृत का संक्षिप्त उदाहरण हमें हिंदी साहित्य में मिलता है।
हिंदी-साहित्य में रीति-युग का प्रवर्तक हम इसलिए केशव को न मानकर चिंतामणि त्रिपाठी की मानते हैं। इन्होंने काव्य के सभी अंगों का निरूपण अपने तीन प्रसिद्ध ग्रंथ ‘काव्य-विवेचन’, ‘कवि-कुल कल्पतरु’ और ‘काव्य-प्रकाश’ द्वारा किया। इन्होंने छंद-शास्त्र पर भी एक पुस्तक लिखी है। चिंतामणि त्रिपाठी जी के पश्चात् तो एक प्रकार से हिंदी साहित्य में रीति-ग्रंथों की बाढ़ ही आ गई और कवियों ने कविता ही केवल इसलिए आरंभ कर दी कि उन्हें रीति ग्रंथ लिखकर उनमें उदाहरण देने होते थे। अलंकारों अथवा रसों के लक्षण उन कवियों ने अधिकतर दोहों में लिखे हैं और उनके उदाहरण कवित्त या सवैयों में दिए हैं। संस्कृत-साहित्य में कवि और आचार्य पृथक्-पृथक् रहे हैं परंतु हिंदी साहित्य में कत्रियों ने ही आचार्य बनने का दावा किया और फल यह हुआ कि उनमें से अनेकों आचार्य तो बन नहीं पाए और उन्हें अपनी कविता के यश से भी हाथ धोने पड़े। दूसरी ओर आचार्यत्व के लिए जिस सूक्ष्म विवेचना की आवश्यकता होती है उसका उचित विकास साहित्य में नहीं हो पाया। यही कारण है कि इस काल में न तो कोई तुलसी और सूर की गरिमा का कवि ही हो पाया और न ही कोई प्राचीन संस्कृत आचार्यों के स्तर का आचार्य। इस काल में गद्य का विकास न होने के कारण भी आचार्य लोगों को नये-नये सिद्धांतों के निरूपण पद्य में करने में कठिनाई होती थी और इसीलिए विषयों की उचित मीमांसा न हो पाई और न ही उन पर उचित तर्क-वितर्क ही हुआ।
इसलिए इस काल के सभी कवियों को जिन्होंने रीति-ग्रंथ लिखे हैं हम आचार्यों की श्रेणी में नहीं रख सकते। पूर्ण आचार्य न होने के कारण इन कवियों के ग्रंथ भी अपर्याप्त लक्षण-साहित्य-शास्त्र का ज्ञान कराते हैं। कहीं-कहीं पर तो अलंकार, रस और रीतियों का स्वरूप भी ठीक-ठीक प्रकट नहीं होता। काव्य के दो भेदों, श्रव्य और दृश्य में से दृश्य को तो आचार्यों ने छोड़ ही दिया है।
काव्यांगों का विस्तृत विवेचन दास जी ने ‘काव्य निर्णय में किया है। दास जी ने अलंकारों पर भी प्रकाश डाला है और अंत्यानुप्रास पर, जो कि संस्कृत-साहित्य में नहीं मिलता और हिंदी साहित्य में प्रारंभ में मिलता है, अपनी पुस्तक में विचार किया है। रीति-ग्रंथों के लेखक भावुक कवि थे इसलिए उनके द्वारा एक महत्त्वपूर्ण कार्य भी इस क्षेत्र में प्रतिपादित हुआ है। उन्होंने रस और अलंकारों के बहुत सरस और सुंदर उदाहरण अपनी कविताओं में प्रस्तुत किये हैं। इस दशा में इन कवियों ने संस्कृत-साहित्य को पीछे छोड़ दिया है। इन कवियों का झुकाव अलंकारों की अपेक्षा नायिका भेद की ओर अधिक रहा है। शृंगार रस की मुक्त रचना इस समय में पराकाष्ठा को पहुँच गई और इस काल ने बिहारी जैसा अनूठा कवि हिंदी साहित्य को प्रदान किया। इस काल के प्रायः सभी ग्रंथ नायिका भेद के ग्रंथ हैं और उनमें कृष्ण तथा राधा को ही लेकर कविता लिखी गई है। शृंगार रस का आलंबन, नायिका और वह भी विशेष रूप से राधा ही ही है। इस काल में केवल नख-शिख वर्णन पर बहुत ग्रंथ लिखे गए हैं।
इस काल में साहित्य का विस्तृत विकास नहीं हो पाया। प्रकृति की अनेकरूपता और जीवन की विस्तृत व्याख्या की ओर कवियों का ध्यान गया ही नहीं। कवि केवल नायक और नायिका के शृंगार में ही सीमित हो गया। कृष्ण भक्ति-शाखा के कवि लोक को तो पहिले ही भुला चुके थे परंतु इस काल में आकर कृष्ण भक्ति के आलंबनों को लेकर शृंगारिक वासना की पूर्ति के लिए उन्हें विस्तृत क्षेत्र मिल गया। काव्य का क्षेत्र सीमित हो गया; काव्यधारा बँध गई, जीवन की अनेकरूपता नष्ट हो गई। भाषा, शैली और विचार रूढ़ हो गए।
रीति-काल में सैकड़ों कवियों द्वारा परिमार्जित होकर भाषा पहुँची थी, उसे उस समय व्याकरण द्वारा व्यवस्थित हो जाना चाहिए था, परंतु यह नहीं हो पाया। भाषा में कोई स्वच्छता नहीं आई और यहाँ तक कि वाक्य दोष भी दूर नहीं हुए। शब्दों का तोड़ना-मरोड़ना भी ज्यों-का-त्यों चलता रहा। इस काल के प्रायः सभी कवियों की भाषा सदोष है। इस काल के कवि ब्रज और अवधी का अपनी इच्छा द्वारा सम्मिश्रण कर देते थे। इस सम्मिश्रण के कारण भी भाषा परिमार्जित और व्यवस्थित रूप धारण नहीं कर सकी।
चिंतामणि त्रिपाठी, महाराज जसवंतसिंह, बिहारी, मंडन, मतिराम, कुल-पति, सुखदेव, कालदास, त्रिवेदी, देव, दास, तपोनिधि, पद्माकर भट्ट इत्यादि इस परंपरा के प्रधान कवि हैं। इनके अतिरिक्त भी इस काल में बहुत से कवि हुए हैं जिन्होंने अन्य विषयों पर भी कविताएँ की हैं परंतु इस काल में प्रधानता इसी प्रकार के कवियों की रही है। इसीलिए इस काल को रीति-काल का नाम दिया है।